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मुक्तिबोध का शिल्प

                                                       ------------ कृष्णमोहन मुक्तिबोध के लगभग सभी आलोचकों ने  उनके काव्य शिल्प के अनूठेपन के साथ साथ  उसकी शक्तिशाली व्यंजना को स्वीकार किया है। हिंदी की जो काव्यपरंपरा उन्हें विरासत में मिली थी उसमें उनकी शैली का कोई उदाहरण नहीं मिलता। कामायनी की व्याख्या उन्होंने फंतासी के रूप में की थी, लेकिन उसके पीछे उनकी मान्यता थी की हर रचना फैंटेसी होती है। फिर भी मुक्तिबोध का रचनाकर्म इस मामले में दूसरे सभी कवियों से भिन्न है  कि वे सचेत रूप से फैंटेसी को अपनाते और उसका प्रयोग करते हैं, जबकि दूसरे कवियों के काव्य जगत में उनके अनजाने फैंटेसी का प्रवेश होता है, और उससे परोक्ष आशयों का सिलसिला बन जाता है। बहरहाल, अगर सचमुच मुक्तिबोध इस परंपरा के पहले ही कवि होते को इतनी प्रौढ़ और सशक्त व्यंजना संभव नहीं थी। सौभाग्य से हमारी खड़ी बोली कि परम्परा में आधुनिक हिंदी के पीछे उर्दू की समृद्ध विरासत थी, जिसे 19वीं सदी तक हिंदी ही कहा जाता था। इस काव्यपरंपरा में रूपक का वही महत्व था जो आधुनिक फैंटेसी में प्रतीक का। मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित क