Posts

Showing posts from June, 2017

अँधेरे में

अँधेरे में:मुक्ति का स्वप्न                            --- कृष्णमोहन  ज्ञान और कर्म के साथ-साथ परंपरा और आधुनिकता, अतीत और वर्तमान तथा आंतरिक और वाह्य के द्वंद्व भी मुक्तिबोध की कविताओं की मूलभूत संरचना में निहित हैं। ब्रह्मांड की पृष्ठभूमि में इतिहास के रंगमंच पर चलने वाले इस नाटक में इन तत्वों की परस्पर अंतःक्रिया को न समझ पाने के कारण कई बार इन कविताओं को समझने में बाधा पड़ती है। 'अँधेरे में' के आरंभिक अंशों में ही कविता के उपरोक्त तीनों मूलभूत द्वंद्व सामने आ जाते हैं। कविता में आगे उनका विकास होता है। कविता का नायक 'मैं' निर्विवाद रुप से एक मध्यवर्गीय बौद्धिक व्यक्ति है। कविता का दूसरा चरित्र एक भव्य और रहस्यमय व्यक्ति-आकृति है जो गुफा से लेकर जन-आंदोलन तक में दिखाई पड़ती है। काव्यनायक की इस व्यक्ति-आकृति के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से कविता का विकास होता है, और अंत तक दोनों का द्वंदात्मक संबंध ही कविता की दिशा को निर्धारित करता है। इसलिए इस दूसरे चरित्र की वास्तविक भूमिका का निरूपण कविता को समझने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है। कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं

कविता और गद्य का रिश्ता

कविता और गद्य का रिश्ता संस्कृत में कहा गया है कि गद्य कवियों का निकष है। हिंदी में आकर इस उक्ति का अर्थ प्रायः यह समझा गया है कि कवियों को कविता के अलावा कहानी या आलोचना में भी कुछ काम करते रहना चाहिए।कवि त्रिलोचन ने इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए कभी लिखा था-- गद्य वद्य कुछ लिखा करो कविता में क्या है। कवि-कथाकार और कवि-आलोचक जैसी नई श्रेणियाँ सामने आ गईं और इस तरह के सूत्रीकरण भी कि ऐसे लेखकों की कथारचना और आलोचना भी छूँछे कथाकारों और आलोचकों से बेहतर होती है, कविता का तो कहना ही क्या।अनेक विधाओं में काम करने पर लेखन में निखार आना तो स्वाभाविक है,लेकिन उपर्युक्त उक्ति में गद्य का उल्लेख कवियों की कविता ही के सन्दर्भ में की गई है। कवि को संबोधित कथन सबसे पहले उसकी कविता के सन्दर्भ में होगा क्योंकि वही उसे कवि बनाती है। दरअसल, हिंदी में गद्य और पद्य को परस्पर विलोम नहीं तो नदी के दो पाटों की तरह समानांतर मानकर चलने की रीति रही है।इस खाई को पाटने के लिए "गद्य कविता" नामक विधा का प्रचलन भी इसी रीति की ताईद करता है। सच तो यह है कि कविता, चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत, छंदो

भाषा की अंतर्वस्तु

भाषा की अंतर्वस्तु निराला ने गद्य को जीवनसंग्राम की भाषा कहा था।आधुनिक युग को गद्ययुग भी कहा गया है।ज़ाहिर है कविता पर विचार करते हुए अब हमारे सामने मसला गद्य बनाम काव्य का नहीं है, बल्कि गद्य बनाम बेहतर गद्य का है। गद्य की बेहतरी को आंकने के लिए भाषा की सरलता, प्रवाहमयता, विचारशीलता और सार्थकता जैसे परंपरागत पैमानों से सहमत होते हुए हम ये मानते हैं कि ये विशेषताएँ भाषा के रूप आकार की हैं। काव्यभाषा की वास्तविक विशेषता अपने पाठक की सोई हुई मानसिक क्षमताओं को जगाने, उसकी प्रश्नाकुलता को धार देने, उसके अंदर की मानवीय भावनाओं और उसके उदात्त आशयों को उसके सम्मुख प्रकट करने में निहित होती है। इसी भूमिका में वो काव्यरचना की सहयोगी बन सकती है। आइये कुछ और निकट से देखें कि वह ऐसा कैसे कर पाती है। आम तौर पर ये मान्यता है कि भाषा में जो कुछ कहते या लिखते हैं, उसीसे से वांछित अर्थ निकल आता है, उसे कैसे कहा या लिखा गया इसकी भूमिका गौण है।भाषा एक माध्यम है जिसे सुविधाजनक होना चाहिए, यानी सरलतापूर्वक किसी कथन का मनोवांछित अर्थ निकल आये। सिद्धान्तरूप में हम अभिधा, लक्षणा, व्यंजना जैसी शब्दशक्ति

आलोचना के बारे में

आलोचना के बारे में आजकल हिंदी में आलोचना की निंदा करने और उसे अनावश्यक ठहराने का चलन है। इस काम में हवा के साथ बह जाने वाले मतदाताओं जैसी सादगी के साथ बहुत से साहित्यप्रेमी लगे हुए हैं। लेकिन असल में यह खेल उन मठाधीशों का है जिन्होंने अतीत में हमेशा आलोचकों के साथ दुरभिसंधियां की हैं और उनसे अनुचित लाभ उठाया है। अब जबकि आलोचना को अपनी अनैतिक सत्ता का औज़ार बनाने वाले आलोचक अपने ही कारनामों के कारण अप्रासंगिक हो चुके हैं, ये लोग युवा तुर्क का स्वांग भरते हुए आलोचना के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान कर रहे हैं। इस तरह ये आलोचना के बहाने हिंदी में सुचिंतित विचार-विमर्श की संभावना को भी ख़ारिज़ कर देना चाहते हैं ताकि उन जैसों की भूमिका पर सवाल उठने की आशंका न रह जाये और अब तक येन केन प्रकारेण अर्जित की हुई उनकी हैसियत बनी रहे। इसलिए आलोचना की भूमिका और प्रक्रिया पर पुनर्विचार आवश्यक है। साहित्य की तमाम विधाओं में होने वाली रचनाओं की व्याख्या और उनका मूल्यांकन करने वाली विधा को आलोचना कहते हैं। रचना और पाठक के बीच पुल की भूमिका निभाने वाली इस विधा का विकास आधुनिक युग की जटिलताओं के चलते हुआ है। रच

भाषा की भूमिका

भाषा की भूमिका गणेशशंकर विद्यार्थी ने कभी कहा था कि अगर मेरा देश ग़ुलाम हो रहा हो और मेरी भाषा भी दूषित हो रही हो तो, मैं पहले अपनी भाषा को बचाऊंगा क्योंकि भाषा बची रहेगी तो देश को आज़ाद कराया जा सकता है, लेकिन भाषा दूषित हो गई तो देश को ग़ुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता। इस कथन से भाषा के महत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है। हममें से ज़्यादातर लोग भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसे ट्रेन या बस यात्रा के माध्यम हैं, वैसे ही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। हमने जो अनुभव किया उसे भाषा में व्यक्त कर दिया। अगर वह ठीक ठाक से श्रोता अथवा पाठक तक पहुँच गया तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भाषा का प्रयोग कैसे हुआ।कहने सुनने में यह बात चाहे जितनी अजीब लगती हो लेकिन व्यवहार में हम भाषा के साथ इसी तरह पेश आते हैं। दरअसल, भाषा को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है कि यह अभिव्यक्ति के साथ साथ अनुभूति का भी माध्यम है। भाषा का हर शब्द अपने अंदर किसी विशिष्ट अनुभव की स्मृति को धारण करता है। उस शब्द से परिचित होने का अर्थ है उसमें छुपी विशिष्ट अनुभूति से, उससे जुड़े तमाम विचारों से परिचित होना। इ

भाषा का स्वभाव

भाषा का स्वभाव वाक्य में क्रिया की केंद्रीय भूमिका की नासमझी और उसके प्रति हमारी लापरवाही को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। "पीना" हमारी भाषा की सबसे सहज क्रियाओं में से एक है। हम चाय या शरबत "पीते" हैं, लेकिन अंग्रेज़ी के सामने अपनी हीन भावना के चलते हमने अब उन्हें "लेना" शुरू कर दिया है। "टु टेक ए कप ऑफ़ टी" की तर्ज पर हम अब चाय या कॉफी "लेते" हैं, "पीते" नहीं। "आप चाय लेंगे या कॉफी" जैसे वाक्यांश अब आम तौर पर सुनने में आ जाते हैं। इसी क्रम में अब "ठंडा"या "गरम" लेने की बारी भी आ चुकी है। "पीना" की जगह "लेना" का प्रयोग कितना भ्रामक है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अगर हम चाहते हैं कि हमरे परिवार का कोई सदस्य बाज़ार से चाय पीकर  चला आये तो हम उससे यह नहीं कह सकते कि "बाज़ार से चाय लेकर आओ"। ऐसा कहने पर वह बाज़ार से चाय खऱीदकर तो ला सकता है, लेकिन पीकर नहीं आ सकता। यानि "पीना" क्रिया को अपदस्थ करने में अंग्रेज़ी अभी पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई है।

सकारात्मक निषेध का पैमाना

सकारात्मक निषेध का पैमाना आधुनिक सभ्यता का स्वतंत्रता और समानता लाने का दावा वैसे तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते कमज़ोर पड़ने लगा था पर इसके नवें दशक में एक ध्रुवीय दुनिया की स्थापना के साथ ही यह ख़ामख़याली साबित हो गया। विकास और नवनिर्माण के सपनों की जगह येनकेनप्रकारेण मतलबसिद्धि ने ले ली। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और लूटखसोट को स्वीकार्य और कई बार प्रशंसनीय तक माना जाने लगा। ऐसे में मानवीय चेतना का विकास बाधित हुआ और चौतरफ़ा घुटन व्याप्त हो गई। इस परिस्थिति में हमारी चेतना में नकारात्मकता ने सकारात्मकता की जगह लेनी शुरू कर दी। अब हम ख़ुद अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय दूसरों की ख़ामियाँ तलाशने और उन्हें असफल करने की कोशिश में लग गए। वर्तमान में इसका सबसे अच्छा उदाहरण आम चुनावों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक देखने को मिलता है। इसमें हम प्रत्याशियों और उनकी पार्टियों को उनकी सकारात्मक योजना के आधार पर नहीं बल्कि कोई दूसरा, जिसे हम नापसन्द करते हैं, न जीत जाए इसलिए समर्थन देते हैं। इस नापसन्दगी का कारण व्यक्तिगत रंज़िश से लेकर जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग कुछ भी हो सकत

डिप्टी कलेक्टरी

मुख़्तार साहब का सपना---- (अमरकांत की कहानी  "डिप्टी कलेक्टरी" पर कुछ विचार) अमरकांत की कहानी  डिप्टी कलेक्टरी हिंदी की कथा परम्परा में लगभग एक प्रतिमान की हैसियत पा चुकी है। शायद ही कोई आलोचक हो जिसने कभी न कभी इस पर विचार न किया हो। नामवर सिंह समेत लगभग सभी आलोचकों ने एक स्वर से इस कहानी को आज़ादी के बाद बनी व्यवस्था में सामान्य भारतीयों की आकान्क्षाओं की पूर्ति न हो पाने के चलते व्यवस्था से मोहभंग की कथा माना है। इसकी वजह कहानी में शकलदीप बाबू की अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने उत्कंठा; इसके लिए लम्बी प्रतीक्षा; और अंततः निराशा है। ये शकलदीप बाबू कचहरी में काम करने वाले वही मुख़्तार साहब हैं जो कहानी शुरू होते ही पत्नी के सामने बेटे पर आगबबूला होते हैं क्योंकि वह बेरोज़गार है। दो बार इम्तेहान में असफल हो चुका है। पत्नी के विपरीत उनका मानना है कि तीसरी बार एग्ज़ाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि "अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?" बहरहाल वे शीघ्र ही चेत जाते हैं; पैसे की व्यवस्था करके खुद पूजा अर्चना में डूब जाते हैं। जिस दिन उनके बेटे

बहस की संस्कृति

बहस की लोकतांत्रिक संस्कृति के पक्ष में प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना कहा था।इसका एक अभिप्राय यह भी है कि साहित्य जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में कुछ कहता है। इन पहलुओं का एक वर्गीकरण "आत्म" और "पर" के रूप में भी हो सकता है, यानी "अपने" और "दूसरों" के बारे में कुछ कहना। अपने बारे में बात करने के अपने ख़तरे हैं। आत्मदया, आत्मश्लाघा और आत्ममोह तक इनमें से तमाम ख़तरों की पहचान की जा चुकी है। फ़िलहाल हम यहां दूसरों के बारे में कही जाने वाली बात यानी परचर्चा की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देंगे ताकि ऐसा करने वालों का ख़ुद का मूल्यांकन हो सके। जब हम दूसरों के बारे में कुछ कहते हैं तो दूसरों से अधिक अपने बारे में बता रहे होते हैं। दूसरों के बारे में हम जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके बारे में हमारी राय होती है। इस राय के पीछे हमारा दृष्टिकोण होता है और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा होती है। हमारी राय किसी के बारे में पूरी तरह ग़लत भी हो सकती है, लेकिन उस राय में निहित हमारा दृष्टिकोण और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा हमारी असलियत को उज

पिता

ज्ञानरंजन की कहानी "पिता" सामंती समाज की आधारभूत इकाई संयुक्त परिवार के मुखिया की भूमिका निभाने के लिए बने पिता काल के प्रवाह में एक ऐसे परिवार में जा पड़े हैं, जिसका हर सदस्य उनकी भूमिका को ख़ारिज़ करने पर तुला हुआ है। अपने बच्चों से उनका सबसे कठोर मतभेद व्यक्तिगत सुख की अवधारणा को लेकर होता है। पुरानी ग्रामव्यवस्था से उत्पन्न सामुदायिक जीवन शैली में लोगों के सुख-दुख के प्रति जितना गहरा सरोकार था, उससे कहीं अधिक, सुख के व्यक्तिगत होने पर आपत्ति थी। निजी सुख की मांग किसी विद्रोह से कम न थी जिसे अनुकूल परिस्थिति में बलपूर्वक दबा दिया जाता था। लेकिन यहां परिस्थिति पूरी तरह प्रतिकूल है। परिवार का हर सदस्य पिता पर सामान्य सुविधाओं को अपना लेने के लिए ज़ोर डालता है। कोई उन्हें बाथरूम में चलकर नए शॉवर के नीचे नहाने के लिए कहता है, कोई घर में, पंखे में सोने के लिए, तो कोई अच्छे दर्जी से महंगा सूट सिलवाने के लिए। बहरहाल, विपरीत परिस्थितियों में भी पिता ने हथियार नहीं डाला है। वे ख़म ठोंककर अकेले ही धारा के विरुद्ध खड़े हैं। सौदा-सुलफ में एक-एक पैसे की कंजूसी करने के अलावा वे घर के