अँधेरे में

अँधेरे में:मुक्ति का स्वप्न
                           --- कृष्णमोहन 

ज्ञान और कर्म के साथ-साथ परंपरा और आधुनिकता, अतीत और वर्तमान तथा आंतरिक और वाह्य के द्वंद्व भी मुक्तिबोध की कविताओं की मूलभूत संरचना में निहित हैं। ब्रह्मांड की पृष्ठभूमि में इतिहास के रंगमंच पर चलने वाले इस नाटक में इन तत्वों की परस्पर अंतःक्रिया को न समझ पाने के कारण कई बार इन कविताओं को समझने में बाधा पड़ती है। 'अँधेरे में' के आरंभिक अंशों में ही कविता के उपरोक्त तीनों मूलभूत द्वंद्व सामने आ जाते हैं। कविता में आगे उनका विकास होता है। कविता का नायक 'मैं' निर्विवाद रुप से एक मध्यवर्गीय बौद्धिक व्यक्ति है। कविता का दूसरा चरित्र एक भव्य और रहस्यमय व्यक्ति-आकृति है जो गुफा से लेकर जन-आंदोलन तक में दिखाई पड़ती है। काव्यनायक की इस व्यक्ति-आकृति के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से कविता का विकास होता है, और अंत तक दोनों का द्वंदात्मक संबंध ही कविता की दिशा को निर्धारित करता है। इसलिए इस दूसरे चरित्र की वास्तविक भूमिका का निरूपण कविता को समझने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है।

कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं:

जिंदगी के...
 कमरों में अंधेरे
    लगाता है चक्कर
       कोई एक लगातार,
 आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार-बार बार...बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किंतु, वह रहा घूम
तिलिस्मी खोह में गिरफ़्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अंधकार-ध्वनि-सा
                  अस्तित्व जनाता
                                 अनिवार कोई एक,

मुक्तिबोध की कविताओं में रात जैसे किसी कारण की अनुपस्थिति में अंधेरे का प्रयोग प्रायः वाह्य के आभ्यंतरिकृत रूप के लिए हुआ है। उनकी कविता में अंधेरे की व्यापक भूमिका इसीलिए है। पहली पंक्ति में 'ज़िन्दगी के' के बाद आया हुआ अवकाश इसी आंतरिकता का सूचक है। अंधेरा ही नहीं कमरे और गुफाएं भी अंतर्मन के विभिन्न कोनों को इंगित करने के लिए प्राय मुक्तिबोध की कविताओं में आती हैं। जैसा कि 'गुंथे तुमसे बिंधे तुमसे' कविता में 'अंतर्गुहाओं' के मुंह खोल कर चिल्लाने तथा 'दिमागी गुहांधकार का ओरांग-उटाँग' कविता में स्थित संदूक के वर्णन से पता चलता है:

"मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
 उसके भी अंदर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
 एक गुप्त प्रकोष्ठ और
 कोठे के साँवले गुहांधकार में"

 'अंतःकरण का आयतन' शीर्षक कविता में 'भीत' का प्रयोग देखें----

"निपीड़क आत्मचिन्ता से
अकेले में गया मन, और
वह एकेक कमरा खोल भीतर धँस रहा हर बार
लगता है कि ये कमरे नहीं हैं ठीक
कमरे हैं नहीं ये ठीक,इन सुनसान भीतों पर
लगे जो आईने उनमें"

मुक्तिबोध की अनेक कविताओं में मन के अंदर के कमरों का ज़िक्र आता है। यहां भी प्रसंग हृदय के अंदर हुई दुर्घटना का है यानी ये कमरे भी मन के ही अंदर हैं।

'अंधेरे में' की ओर वापस आएँ तो हम पाते हैं कि "भीत-पार" ध्वनि पास से आती है और उस ध्वनि से बचा भी नहीं जा सकता क्योंकि वह "अनिवार" है। ये विशेषताएं अंतर्मन की ओर इशारा करती हैं लेकिन इसकी अनुगूँज भौतिक दुनिया मे भी होती है। इसके बाद की पंक्तियां हैं--

"और मेरे हृदय की धक-धक
पूछती है-----वह कौन
 सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई!
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीत से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूनेभरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियां इस तरह----
ख़ुद-ब-ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु;
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता!!
कौन मनु?"

मुक्तिबोध कविता में अतीत के किसी विशिष्ट प्रसंग को लाने के लिए जड़ और चेतन के संयोजन की प्रविधि का इस्तेमाल करते हैं। "एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन" कविता में चित्रित इसकी प्रक्रिया को देखें:

"पृथ्वी के पेट में घुसकर जब
पृथ्वी के हृदय की गर्मी के द्वारा सब
मिट्टी के ढेर ये चट्टान बन जायेंगे
तो उन चट्टानों की
आंतरिक परतों की सतहों में
चित्र उभर आयेंगे
हमारे चेहरे के, तन-बदन के, शरीर के,
अंतर की तस्वीरें उभर आयेंगी, संभवतः,"

ध्यान दें तो इस कल्पना के पीछे वास्तविक जीवन-प्रक्रिया का मजबूत आधार मौजूद है। सभी जीवित और चेतन तत्वों का एक समय के बाद धरती की आंतरिक सतहों में प्रविष्ट हो जाना और जीवाश्म-अवशेषों में बदल जाना एक  सचाई है। कल्पना सिर्फ़ इतनी है कि किसी ख़ास समय में ये आकृतियां एक बार फिर सतह पर प्रकट हो सकती हैं या हमें उनका अनुभव हो सकता है। अपने पूर्वजों की स्मृतियों को कुरेदने और उनके अधूरे कार्यभारों को पूरा करने की इच्छा रखने वाले कवियों के लिए ऐसी कल्पना कुछ अनूठी नहीं है। ग़ालिब ने भी कुछ ऐसे ही प्रसंग में कहा था:
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमाया हो गयीं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहाँ हो गयीं

 बहरहाल, हम लोग कविता की तरफ वापस चलते हैं। इस दृश्यमान लेकिन अज्ञात आकृति की पहचान करने के लिए काव्यनायक प्रश्न करता है----"कौन मनु?"

इसी प्रश्न के सहारे रामविलास शर्मा ने इस आकृति को कामायनी के मनु का मुक्तिबोध कृत संस्करण मान लिया था। उनका प्रतिवाद करते हुए नामवर सिंह ने इस प्रश्न को 'अस्मिता की खोज' का एक रूप कहा है। हम केवल इतना कहेंगे कि मनु को मनुष्य का संक्षिप्त रूप मानना ही तर्कसंगत है और समुचित कविता में महज़ एक बार आए दो शब्दों के इस प्रश्न से इससे अधिक अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिए कि उस आकृति के संगठक तत्वों में आदिकालीन मनुष्य के भी कुछ आशय और सरोकार शामिल हैं।

दरअसल, "अँधेरे में" की इस आकृति में "ब्रह्मराक्षस" एक बार फिर प्रकट हुआ है। परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व की परिणति ब्रह्मराक्षस कविता में रूपांतरण में न होकर विध्वंस में हुई थी। कवि ने इस द्वंद्व का समाधान एक बार फिर, इस बार अधिक बड़े फ़लक पर करने की कोशिश की है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मुक्तिबोध के सभी मूलभूत सरोकारों ने अपना कलात्मक विस्तार पाया और आधुनिक हिंदी-साहित्य की विलक्षण कविता "अँधेरे में" की सृष्टि हुई। यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि परंपरा और आधुनिकता का द्वंद इस कविता में दूर तक नहीं चलता और परंपरा बहुत जल्द आंतरिक आधुनिकता में रूपांतरित हो जाती है। फ़िलहाल काव्यनायक "अंतराल विवर के तम में", "लाल-लाल मशालों" की रोशनी में उस आकृति की जो पहचान करता है उसे देखें:

"वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है,
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं,निहित प्रभाओं,प्रतिभाओं            की
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।

इन पंक्तियों में ज्ञान और कर्म की मूल समस्या सामने आई है। यह आकृति अथवा व्यक्ति ज्ञान और अभिव्यक्ति की अब तक न पाई गई एकता का प्रतीक बन कर आता है। इस कविता में अभिव्यक्ति को कर्म के उस विशिष्ट रूप की भूमिका मिली है जिसे शासन-सत्ता हर क़ीमत पर दबाने की कोशिश करती है। इस रहस्यमय व्यक्ति के रूप में परंपरा से प्राप्त ज्ञान तो मौजूद है, लेकिन जीवश्मीकृत अथवा सांकेतिक रूप में होने की मजबूरी के कारण अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। इसके अभाव में वह ज्ञान मन और आत्मा को वेदना से भर देता है। इस अंश में, उस व्यक्ति को, जो है तथा जो हो सकता है, इन दोनों ही अवस्थाओं में चित्रित किया गया है।
के
"किन्तु, वह फटे हुए वस्त्र क्यों पहने है?
 उसका स्वर्ण-वर्ण मुख मैला क्यों?
वक्ष पर इतना बड़ा घाव कैसे हो गया?
उसने कारावास-दुःख झेला क्यों?
उसकी इतनी भयानक स्थित क्यों है?
रोटी उसे कौन पहुँचाता है?
कौन पानी देता है?
फिर भी उसके मुख पर स्मित क्यों है?
प्रचंड शक्तिमान क्यों दिखाई देता है?"

यह चित्र भारतीय परंपरा का है जो 19 वीं शताब्दी में औपनिवेशिक साज़िश का शिकार होकर दृष्टि से ओझल हो गई थी।  ख़ासतौर से 1857 की जीत के बाद अंग्रेज़ो ने भारतीय परंपरा के अग्रगामी तत्वों को कुचलकर मैकाले और विलियम जोंस की योजना के अनुसार भारत में एक नए मध्यवर्ग का  सृजन किया और उसे औपनिवेशिक-सामंंतवादी मूल्यों के गठजोड़ की व्यवस्था प्रदान की। लेकिन कोई परंपरा महज़ दमन या विकृतीकरण का शिकार होने के चलते नहीं मर जाती। इतिहास में थोड़ी भी भूमिका शेष रहने पर वह सतह के अंदर दबी प्रतीक्षारत रहती है और अनुकूल परिस्थिति पाकर अपना कार्यभार पूरा करने के लिए लौट आती है। यही वजह है कि कविता में भारतीय परंपरा के प्रतीक चरित्र को रोटी-पानी मिल रहा है और उसके चेहरे पर मुस्कान है। उसे पता है कि औपनिवेशिक-सामंंतवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ भारतीय जनता का विद्रोह जो शीघ्र अवश्यम्भावी है, अपनी परंपरा की खोज में उस तक ज़रूर पहुंचेगा। सच्ची भारतीयता को निर्मित करने वाली इस परंपरा को खोकर हमने अपनी राष्ट्रीय पहचान भी खो दी है। शमशेर जब इस कविता को स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात का दहकता हुआ इस्पाती दस्तावेज़ कहते हैं तो उनका आशय यही होता है।

कविता में परंपरा का चित्रण बस इतना ही है। इसके आगे उसका आधुनिक रूप सामने आता है। यह रूप वस्तु-जगत में कर्म का आह्वान करता हुआ प्रकट होता है। काव्यनायक उसके पारंपरिक रंग-रूप को तो पहचान लेता है लेकिन उसकी नई अंतर्वस्तु से परेशान भी होता है, क्योंकि वह उसी औपनिवेशिक मूल्य-व्यवस्था की पैदाइश है, जिसने उसे परम्परा और आधुनिकता दोनों से काटकर अपनी छायाप्रति बना रखा है।

"अरे, हाँ, साँकल ही रह-रह
बजती है द्वार पर।
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है, बुलाता है
-----------------------------------------
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने? विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख-----वह प्रेम भरा चेहरा---
भोला-भाला भाव----
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है!!
वह वही व्यक्ति है, जी हाँ!
जो मुझे तिलिस्मी कोख में दिखा था।"

परंपरा से आधुनिकता तथा अतीत से वर्तमान तक की दूरी तय करने का साक्ष्य इस व्यक्ति की 'बहिर्जगत' में उपस्थिति के रूप में मौजूद है। वह कमरे के अंदर नहीं उसके बाहर खड़ा दस्तक दे रहा है। वह काव्यनायक का अपना सत्य (मेरी बात) ही उसे नही बताता बल्कि कुछ नई और ख़तरनाक सचाइयों का उसे ज्ञान देने वाला है। अँधेरा यहाँ भी है लेकिन आधी रात होने के कारण जबकि पहले यह स्वभावतः था। इसी प्रकार कुहरे से पहले अर्धविराम के न होने से प्रतीक्षा का असमंजस कुहरे के लिए तर्क प्रदान कर रहा है। उसके चेहरे की चमक, उसका प्रेम और भोला-भाला भाव, यह सब मिलकर उसकी बदली हुई अवस्थित तथा अर्थवत्ता की सूचना दे रहे हैं। उसके पूर्वरूप से वाकिफ़ काव्यनायक उसे उसी रुप में पहचानने की भूल करता है। आगे हम देखेंगे कि काव्यनायक से उसकी अंतः क्रिया भी वर्तमान के बदले हुए संदर्भों में ही होगी। इस 'रहस्यमय व्यक्ति' से उसका आरंभिक साक्षात्कार उसके अपने आंतरिक, ऐतिहासिक सत्य से साक्षात्कार के रूप में होता है। वर्तमान के आधुनिक संदर्भ में आते ही उसका रहस्य ग़ायब हो जाता है और अंतर्जगत के कैदी की जगह वह जनक्रांति का प्रेरक बन जाता है।

"वह बिठा देता है तुंग शिखर के
ख़तरनाक, खुरदुरे कगार-तट पर;
शोचनीय स्थित में ही छोड़ देता मुझको।
कहता है---'पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो।'
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा, मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से,
बजने दो साँकल!!"

कविता के इसअंश से पर्याप्त स्पष्ट है कि वह 'व्यक्ति' अपने युग के किन्हीं बड़े और ख़तरनाक कार्यभारों को स्वीकार करने का आह्वान बनकर आता है, जिसे अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं के कारण वाचक स्वीकार नहीं कर पाता। वाचक इस आमंत्रण को ठुकरा भी नहीं पाता---
"नहीं, नहीं, उसको मैं छोड़ नहीं सकूँगा
सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही।"

आख़िरकार अपनी दुविधा और अनिर्णय पर क़ाबू पाकर जब वह दरवाज़ा खोलता है तो वहां उसे कोई नहीं मिलता। मुक्तिबोध की कविताओं में कई बार अंतरात्मा की दबी हुई आवाज़ की तरह पक्षी आते हैं जो व्यवहारिक सचाइयों की आदी हो चुकी हमारी आँखों से चूक जाने वाले किसी सत्य को व्यक्त करते हैं। इस बिंदु पर कविता में कोई रात का पक्षी आता है और काव्यनायक से कहता है:

"वह चला गया है,
वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं
अब तेरे द्वार पर।
वह निकल गया है गाँव में, शहर में!
उसको तू खोज अब
उसका तू शोध कर!
वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,
उसका तू शिष्य है"

"ब्रह्मराक्षस" कविता अंतिम पंक्तियों में व्यक्त कामना से इन पंक्तियों के साम्य दर्शनीय है:

"मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
             संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
                        पहुँचा सकूँ।"

 परंपरा की संघर्ष चेतना का प्रेरक प्रतीक वह 'व्यक्ति' मध्य वर्ग के प्रतिनिधि के मन में गहरी हलचल पैदा करके "गाँव में, शहर में",जनसमुदाय के दूसरे तबक़ों के बीच चला गया है। अब यह निश्चित है कि काव्यनायक अपनी सीमाओं को तोड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करेगा, लेकिन उसे सफलता कितनी मिलेगी, यह तय नहीं है।

 इसके बाद काव्यनायक को स्वप्न में फ़ासिस्ट 'प्रोसेशन' दिखाई पड़ता जिसमें कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, मंत्री, उद्योगपति, विद्वान और कुख्यात हत्यारे डोमाजी उस्ताद के साथ कई प्रकांड आलोचक, विचारक और जगमगाते कविगण भी दिखाई पड़ते हैं। इसी बीच 'प्रोसेशन' में शामिल कुछ लोग उसे देख लेते हैं और यह शोर उठ खड़ा होता है-------

"मारो गोली दाग़ो स्साले को एकदम"

सपना एकाएक टूट जाने पर उसे प्रतीत होता है---

"गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
 हर रात जुलूस में चलतीं
परंतु, दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।
हाय, हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी"

 काव्यनायक को इसके बाद आभास होता है कि सेना सड़कों पर उतर आई है और यह सब किसी जनक्रांति के दमन के लिए लगा हुआ मार्शल लॉ है। वह गलियों में भाग निकलता है। कविता में टेक की तरह पंक्ति आती है
"भागता में दम छोड़
 घूम गया कई मोड़।"
 इसी भाग-दौड़ के बीच सभी गरीबों, वंचितों और उपेक्षितों के आश्रयस्थल बरगद की छाया में रहनेवाला कोई सिरफिरा उसे दिखता है जिसके बुद्धि इस समय जागृत है और वह आत्मबोधमय गीत गाता है। गीत के गद्यानुवाद की आरंभिक पंक्तियां हैं:

"...ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उधरंभरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,

दुःखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,"

यह पागल भी "अँधेरे में" की एक गुत्थी है। नामवर सिंह उसे कविता की दो पंक्तियों------ "व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ/वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में"-----के आधार पर वही रहस्यमय व्यक्ति मान लेते हैं जो उनके मुताबिक़ काव्यनायक का ही प्रतिरूप है तथा जिसके गीत का प्रभाव उस पर यह पड़ता है--- "प्रत्यक्ष / मैं खड़ा हो गया/ किसी छाया-मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के।" आशय यह है कि काव्यनायक 'मैं' अपने प्रतिरूप 'पागल' के समक्ष स्वयं को खड़ा हो गया पाता है। रामविलास शर्मा इस तजवीज़ को झट मान लेते हैं क्योंकि इससे मुक्तिबोध के काव्य को विक्षिप्त मस्तिष्क की देन सिद्ध करना आसान हो जाता है। लेकिन अगर कविता पर ग़ौर करें तो पागल की पहचान कुछ दूसरी ही ठहरती है। उपर्युक्त पंक्तियों को बाद की दो  पंक्तियों के साथ देखें-----
"व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ,
 वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में।
 पागल था दिन में
सिरफिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।"

यहां दूसरी पंक्ति में आए हुए 'उसे' पर यह बात निर्भर करती है की यह सब कुछ किसके लिए कहा जा रहा है। नामवर सिंह मान कर चलते हैं कि 'उसे' काव्यनायक के लिए आया है। इससे पहले दिया गया, पागल का परिचय देखें---"किंतु, आज इस रात बात अजीब है!
 वही जो सिरफिरा पागल क़तई था
आज एकाएक वह जागरित बुद्धि है,"

दिन और रात के अंतर से ज़ाहिर होता है कि उस रात पागल को ही अपना खोया हुआ व्यक्तित्व मिलता है जिससे उसके मन-बुद्धि की फांक भर जाती है। बाद की पंक्तियों में 'छाया मूर्ति-सा स्वयं के समक्ष' खड़े होने की क्रिया भी पागल के गीत से पैदा हुई आत्मालोचना के प्रभाव को इंगित करती है, जैसे किसी ने दर्पण दिखा दिया हो। वह पागल गरीबों, वंचितों की तरफ से मध्यवर्ग की मलामत अवश्य करता है लेकिन वह पूर्वोक्त प्रेरक व्यक्ति कदापि नहीं है।

पागल का गीत काव्यनायक की आत्मा को झकझोर देता है और उसका द्वंद्व तीखा हो जाता है। उसे लगता है कि अपने खोल में सिमटे रहने की उसके वर्ग की प्रवृत्ति के कारण ही जनक्रांति के दमन के निमित्त यह मार्शल लॉ लगा है:

"मानो मेरे कारण ही लग गया
मार्शल ला वह,
मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,
मानो मेरे कारण ही दुर्घट
हुई यह घटना ।"

अपने वर्ग की इस ऐतिहासिक असफलता के चलते काव्यनायक को अपने चारों ओर व्याप्त सुगंध में 'कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिंता'  छटपटाती हुई मिलती है, लेकिन शासक वर्ग का दबाव इतना प्रबल है कि वंचितों के आश्रयस्थल बरगद के एक पत्ते के कंधे पर गिरने में वह किसी संकेत की कल्पना करके डर जाता है और घबरा कर भाग खड़ा होता है। कविता के इस अंश में "भागता मैं दम छोड़,/ घूम गया कई मोड़" की बारंबार आवृत्ति जनक्रांति और उसके दमन के दौर में मध्यवर्गीय पलायनवृत्ति का प्रदर्शन करती है। यहाँ 'निष्क्रिय संज्ञा' का प्रयोग भी महत्वपूर्ण है। संज्ञाहीन, अचेत स्थिति में पड़े किसी व्यक्ति या वर को संकट का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता लेकिन संज्ञावान का निष्क्रिय बने रहना निश्चय ही आपत्तिजनक है। आगे चलकर उसका सामना अपने जीवनानुभवों से उपलब्ध सत्यों से होता है जो मणियों के रूप में किसी प्राकृत गुहा यानी अंतर्मन के किसी कोने में परित्यक्त पड़े हुए क्योंकि वे खतरनाक थे:

"हाय, हाय! मैंने उन्हें वह गुहा-वास दे दिया
 लोकहित क्षेत्र से कर दिया वंचित
 जनोपयोग से वर्जित किया और
निषिद्ध कर दिया
खोह में डाल दिया!!
 वे ख़तरनाक थे,
(बच्चे भीख मांगते) ख़ैर...
 यह न समय है,
जूझना ही तय है।"

काव्यनायक अपने 'विवेक-निष्कर्षों' का सामना होने पर 'जूझना ही तय है' सोचने के बावजूद भटकता है और विषम स्थिति का सामना होते ही 'दम छोड़कर' भाग खड़ा होता है। इस यात्रा में उसकी मुलाकात तिलक की प्रतिमा से होती है, जो उसके निकट आने पर हिलने लगती है और 'मानो कि अतिशय चिंता के कारण' उसका 'मस्तक-कोष' फूट जाता है और नाक से खून बहने लगता है। वह तिलक को पिता कहते हुए आश्वासन देता है। इसी क्रम में आगे उसकी मुलाकात गांधी से होती है जो सर्दी में बोरा ओढ़े कँपकँपा रहे हैं। वे उसे भावी पीढ़ी का प्रतीक एक शिशु देते हैं। शिशु के रोने पर काव्यनायक भयभीत होता है कि कहीं अगर किसी ने सुन लिया तो 'वे दोनों कहीं रह न सकेंगे'। चुप होने के लिए पुचकारे जाने पर वह शिशु और अधिक क्रोध से चीख़ पड़ता है जिस पर नायक की मानीखेज़ टिप्पणी है:

"किंतु न जाने क्यों बहुत प्रसन्न हूं।
( जिसको न मैं इस जीवन में कर पाया,
वह कर रहा है)"

 यहां नायक की खुशी का कारण ध्यान देने योग्य है। भावी पीढ़ी को निर्भय होकर अपने क्षोभ को व्यक्त करते देख वह न केवल ख़ुश होता है, बल्कि इस प्रक्रिया में 'बच्चों के भीख मांगने' की पूर्वोक्त आशंका पर आधारित उसका अपना भय भी बच्चे ही के कारण टूटता है। उसके कंधे पर से शिशु गायब हो जाता है और उसकी जगह पहले फूल का गुच्छा मिलता है फिर यह गुच्छा एक राइफल में बदल जाता है। इस प्रकार भावी पीढ़ी के संदर्भ में और हिंसा-अहिंसा के बीच बहस की पृष्ठभूमि में गांधी जी की प्रासंगिकता स्थापित होती है। इसके तुरंत बाद आतताई सत्ता द्वारा एक कोमल स्वप्नदर्शी कलाकार की संदेह के कारण हत्या होती है। इस से प्रेरित होकर नायक नए दोस्तों की तलाश में निकलता है और ख़ुद भी गिरफ्तार हो जाता है। गिरफ्तारी और टॉर्चर के दौरान उसे लगता है कि 'उसके अंतर्तत्वों का पुनर्प्रबंधन और पुनर्व्यवस्था/ पुनर्गठन सा होता जा रहा' है।

रूपांतरण की यह प्रक्रिया चलती रहती है और रिहा होने के बाद वह फिर साथियों की तलाश करने का निश्चय करता है। इन साथियों के गुण विभिन्न फूलों की शक्ल में पहले से ही अंतर्मन के प्रतीक 'खोहों के जल' और 'पाताल तल' से संदेश भेजते रहे हैं। आशय यह है कि मन में उठने वाले विचार वाह्य परिवेश ही की देन होते हैं, बस ज़रूरत उनके वस्तुगत आधारों को ढूंढ़ निकालने की है। लेकिन ये गुण नाकाफ़ी हैं। इसके बाद भविष्य के प्रति दूर क्षितिज पर उसे बिजली और अग्नि के फूल और उन्हें समेटते हुए हाथ दिखाई देते हैं।

यहाँ थोड़ा रुक कर बिजली और अग्नि जैसे प्रयोगों की प्रविधि और अर्थवत्ता पर विचार करते चलें। अग्नि का गुण है जलाना। यानी किसी भी चीज़ को समूल नष्ट कर देना। भारतीय काव्य-परम्परा में इसकी विनाश-क्षमता का समानधर्मा ज्ञान को माना गया है। जिस प्रकार अग्नि न केवल हर तरह के खर-पतवार या कूड़ा-कर्कट को जलाकर ख़ाक कर देता है , बल्कि उसी की आँच में तपकर सोना कुंदन बनता है। इसी प्रकार ज्ञान न सिर्फ़ स्वार्थ, लोभ, माया-मोह जैसे अज्ञान के सभी रूपों को नष्ट कर डालता है, बल्कि चेतना को आत्ममंथन और आत्मसंघर्ष जैसी प्रक्रिया से परीक्षित कर उसे सार्थक भी बनाता है। आसमानी बिजली का प्रसंग यह है कि उसमें गति, प्रकाश और विध्वंसक तीक्ष्णता है। मुक्तिबोध को उसका सकर्मक गतिमय रूप प्रिय है, इसलिए उनकी कविता में बिजली सकर्मकता का रूपक बनकर आती है। कविता में नैरेटर को आसमान में अग्नि और बिजली के फूल दिखाई पड़ते हैं। इनका सांकेतिक आशय तो स्पष्ट है, लेकिन काव्य-बिम्बों का प्रत्यक्ष आधार भी होता है  यहाँ वह बिजली की कड़क के रूप में सम्भव है। बिजली चमकने की प्रक्रिया में अग्नि और बिजली का साथ तो जगजाहिर है, और उससे आसमान में बनी आकृतियों की कल्पना फूल के रूप में कर ली गयी है। बचे उन्हें समेटने वाले हाथ तो ये यथार्थ पर कवि का मनोगत प्रक्षेपण है। एक आकांक्षा, जिसके बिना प्रेम अथवा क्रांति का कोई भी प्रसंग पूरा नहीं होता। ये हाथ अपने समानधर्मा साथियों के होंगे जो पहले ही अंतर्मन के सूत्रों से जुड़े हुए हैं। काव्यनायक की आकांक्षा अब सांसारिक स्तर पर उनके सचेतन व सकर्मक रूप के प्रतिफलित होने की है। इस दृश्य से प्रेरित होकर काव्यनायक वर्तमान में कर्म की ओर उन्मुख होता है और जमीन पर पड़े चमकीले पत्थरों को चुनकर उनसे बिजली के फूल बनाने की कोशिश करता है। यह जनजीवन में बिखरे सत्य को ज्ञान के रूप में सूत्रबद्ध करके उन्हें वापस व्यवहार में लाने की कोशिश है, लेकिन सकर्मकता के अभाव में ज्ञान के ये फूल ठंडे पड़े रहते हैं:

"मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर
अतिशय शीतल।
मुझको तो बेचैन बिजली की नीली
 ज्वलंत बाहों में बाहों को उलझा
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला
आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है                                                                                     मुझको
मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि
भीमाकार हूँ मेघ मैं काला
परंतु मुझमें है गंभीर आवेश
अथाह प्रेरणास्रोत का संयम।"

ग़ौर करें कि इन ठंडे फूलों को खिलाने वाला अपने को मेघ मानता है और वैसी ही प्रदीप्त लीला करना चाहता है जैसे आकाश में सचमुच का मेघ बिजली के साथ करता है। ग़ालिब ने भी तस्वीर के कुछ ऐसी ही सूरत देखी थी:

अब्र रोता है के  बज़्मे-तरब  आमादा  करो
बर्क़ हंसती है के फ़ुुर्सत कोई दम है हमको

 यह कर्म का आह्वान है। ऊर्जा का अक्षय स्रोत जनता है जिससे उसे आवेश और संयम दोनों मिलता है। ज़रूरत है तो केवल इस बात की कि वह जनता के साथ एकाकार हो जाए और उसकी राह में आने वाली सारी बाधाओं को नष्ट करने में अपना योग दे। वह इसका ठोस संकल्प करता है:

"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
 उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।"

 यहां यह ध्यान रखना होगा कि 'अँधेरे में' का नायक एक बुद्धिजीवी है जिसकी प्रमुख समस्या है अभिव्यक्ति के ख़तरों का भय। उसके लिए कर्म का ठोस अर्थ है जनता के हित में सत्य को व्यक्त करना और इस प्रक्रिया में विचारों पर बंदिश लगाने वाले गढ़ों और मठों को ध्वस्त कर देना। तभी उसका रूपांतरण क्रांतिकारी बुद्धिजीवी में हो सकेगा।

कविता का नायक बार-बार अपने भय को झटक कर संघर्ष का निश्चय करता है लेकिन हर बार उसके हाथ निराशा लगती है। इसकी वजह उसका अकेलापन और जनता से अलगाव है।सत्ता का चरित्र उसके सामने अनावृत है, लेकिन वह उसके ख़िलाफ़ खड़ा होने की शक्ति नहीं जुटा पाता। कविता में इस मुक़ाम पर पहुंच कर उसे अपने अकेलेपन का तीखा एहसास होता है:

"विचित्र अनुभव!!
जितना मैं लोगों की पाँतों को पारकर
बढ़ता हूँ आगे,
 उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेला,
 पश्चातपद हूँ।
पर, एक रेला और
 पीछे से चला और
अब मेरे साथ है!
आश्चर्य!!अद्भुत!!
लोगों की मुट्ठियाँ बँधी हैं।
उँगली-संधि से फूट रही किरनें
 लाल-लाल,
 यह क्या!!
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिए वे,
मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर,
बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।
किंतु मैं अकेला
बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।"

मध्यवर्ग अपनी विशिष्टता के बोध से ग्रस्त होकर शेष जनता से आगे निकलने के प्रयास में उससे अलग-थलग होकर कहीं पीछे छूट जाता है, लेकिन जनसमुदाय का साथ मिलते ही उसे उनके विक्षोभ के कारणों और विवेक- निष्कर्षों का पता चलता है। धरती की सतह से तह की यात्रा करके भूगर्भ में लम्बा वक़्त बिताने के बाद जैसे सामान्य पत्थर रत्नों व मणियों में तब्दील हो जाते हैं, वैसे ही सामान्य जीवनानुभव चिंतन-मनन के ताप से गुज़रकर जीवनमूल्यों और निष्कर्षो में बदल जाते हैं। इसलिए मुक्तिबोध जब भी रत्न-मणियों की बात करते हैं तो उनका आशय गहन जीवन-निष्कर्ष से होता है। तभी मध्यवर्ग के प्रतिनिधि हमारे काव्यनायक को यह एहसास होता है कि निष्कर्ष उसके भी यही हैं, लेकिन उनके अनुकूल कार्य करने का साहस न जुटा पाने के कारण वह आगा-पीछा करता रह जाता है। उसका अकेलापन अत्यंत विडंबनात्मक ढंग से टूटता है जब उसका एक मन अभी निश्चय करता ही है कि दूसरा मन प्रकट होकर आत्मसमर्पण कर देता है और वह  अकेले से 'दुकेला'हो जाता है। अन्यत्र मुक्तिबोध ने दुचित्तेपन की ऐसी ही अवस्था को 'आत्मा की एकता में दूई' कहा है। यह कवियों की बेहद परिचित द्वंदात्मक मनःस्थिति है। ग़ालिब ने इसे----" ईमाँ मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ़्र"---कहकर व्यक्त किया था, लेकिन मुक्तिबोध के मामले में अनेक आलोचकों ने इसे उनके सिजोफ्रेनिया के सबूत के बताओ और इस्तेमाल किया।

आख़िरकार, हमारे काव्यनायक को क्षितिज पर बिजली के अग्निमय फूल खिलाने वाले साथी मिलते हैं। जनसंघर्ष के दौर में जनता से निकटता बढ़ती है, और जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता है, हमारे मध्यवर्गीय नायक के भय और पलायन को बारंबार व्यक्त करने वाली पंक्ति----"भागता मैं दम छोड़, घूम गया कई मोड़", के बजाय टेक की तरह दूसरी पंक्तियों की आवृत्ति होने लगती है कहीं----"कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई",। निकट आने की इस प्रक्रिया का आरंभ तब होता है जब गलियों में भागते समय वाचक को कोई चुपचाप एक पर्चा दे देता है और बहुत ध्यान से पढ़ने पर उसे लगता है कि:

"उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व
दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव
पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।
यह सब क्या है!!"

 आगे वह इसका जवाब भी देता है:

"यह सब दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं
जिनसे कि स्वप्नों की मूर्ति बनेगी
सस्मित सुखकर
जिसमें से उद्गत क्रियाशील किरनें
 ब्रह्माण्ड भर में नापेंगी सब कुछ!"

स्पष्ट है कि वही विचार और संवेदनाएं जब तक सिर्फ़ नायक के मस्तिष्क में पड़ी रहती हैं, अपनी अभिव्यक्ति के लिए तरसती हैं, लेकिन जनमानस की वस्तु बनने के बाद उन्हें साकार करना भी संभव हो जाता है।

इसके बाद कविता के अंतिम अंश में जनक्रांति का चित्रण है जिसका सूत्रवाक्य है---' कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी'। क्रांतिकारी परिस्थिति में व्यक्तित्व के रूपांतरण का संदर्भ देखें:

"कुछ बलवान जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार,
उसी प्रकार अब
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प-शक्ति के लोहे का मज़बूत
ज्वलन्त टायर!!"

हथौड़ा चलाने वाले ये 'बलवान जन' निश्चय ही सर्वहारा वर्ग के सदस्य हैं जो अपने साथ-साथ मध्यवर्ग की आत्मा को भी संकल्प-शक्ति प्रदान कर रहे हैं। इसकी पुष्टि बाद की पंक्तियों से होती है जब मध्यवर्गीय काव्यनायक जिन कारणों से 'अपने' युवकों  का व्यक्तित्वांतरण होते देख रहा है उनमें 'युगानुयुग' से चली आ रही परंपरा के प्रतीक 'पिताओं' तथा 'माँओं'के साथ आधुनिक वर्ग के प्रतिनिधि के बतौर 'श्रमिक वर्ग' ही शामिल है:

" जिनमें कि डूबे हैं,
युगानुयुग से
पिताओं की चिंता का उद्विग्न रंग भी
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिसमें श्रमिक का संताप
माँओं के आंसू।
वह जल पीकर,
मेरे युवकों में व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,"

 कविता के इस अंशतक पहुंचते-पहुंचते ऐसा लगता है कि काव्यनायक का भटकाव ख़त्म हुआ और उसे मंज़िल मिल गई लेकिन अभी इसमें एक पेच और है, जिससे मुक्तिबोध की मूल रचनावृत्ति का पता चलता है। 'अंतःकरण का आयतन' शीर्षक कविता में प्रेम और संघर्ष के दो प्रतीक एक दूसरे में घुलते हैं:

"वह तो है, वही है, हाँ वही बिलकुल,
प्रतेजस-आनना
लावण्य-श्री मित्र-स्मिता
जिसने अँधेरे आईने में सिर उठाया था
व हल्के मुस्कराया था
व मेरा जी हिलाया था!!"

आश्चर्यजनक रूप से वे यहां भी उपस्थित होते हैं और कविता के एक अंतर्निहित आशय को खोलते हैं। एकाएक फिर स्वप्नभंग होता है और नायक को लगता है कि उसके मस्तिष्क-हृदय के छेदों के दुःखों मे 'प्रदीप्त ज्योति' का रस बस गया है। यहाँ बिजली की बाहों में बाहों डालकर की गयी 'प्रदीप्त लीला' का स्मरण अनायास हो आता है। नायक उन 'सपनों का आशय' खोजता है और उसके मन में अर्थों की वेदना घिर आती है:

"मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
प्रेम कर लिया हो मनोहर मुख से
जीवन भर के लिए!!
मानो कि उस क्षण
 अतिशय मृदु  किन्हीं बाहों ने आकर
 कस लिया था मुझको
उस  स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन घटना की याद आ रही है,
याद आ रही है!!
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी-कौन थी ?

कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
हाय! यह वेदना स्नेह की गहरी,
जाग गई क्यों कर?"

उस अज्ञात प्रणयिनी को पहचानने और पाने की इस उत्कंठा के बाद कविता में इसकी कोई अनुगूंज नहीं मिलती। अंतिम दृश्य से ठीक पहले आए इस प्रसंग को आमतौर पर मुक्तिबोध की काव्य-संवेदना के अनुकूल नहीं पाया गया। इसीलिए किसी आलोचक ने इसकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं महसूस की। उपर्युक्त पंक्तियों के बाद वातावरण को चित्रित करता हुआ एक स्टैन्जा आता है जिसमें एक पंक्ति है----"प्रत्येक अर्थ की छाया में दूसरा, आशय झिलमिला रहा-सा"-----  कुमार विकलअपनी कविता 'रंग ख़तरे में हैं' में कलाकार के उस रंग का ज़िक्र करते हैं जिससे वह दूसरे सभी रंगों की पहचान करता है। दरअसल, सत्य का ज्ञान वस्तुओं की एक दूसरे से संलग्नता का ज्ञान है। एक भावना दूसरी भावना से और एक घटना दूसरी घटना से जुड़ी हुई है। चीजों को उनकी समग्रता में समझने का संघर्ष न कर पाने वाले या तो एकांगी सोच के शिकार होते हैं या फिर रहस्यवादी पद्धति की शरण लेकर अंश में संपूर्ण का दर्शन करते हैं। मुक्तिबोध जब प्रत्येक अर्थ में दूसरे आशयों को भी पाते हैं तब वे चीजों की परस्पर संलग्नता ही का संकेत कर रहे होते हैं। पिछली रात के सपनों का आशय खोजने में अर्थों की वेदना के घिरने की चर्चा कवि पहले ही कर चुका है। आइए देखें कि उन सपनों का इस वेदना से कविता में क्या संबंध है।

पिछली रात के स्वप्न जनक्रांति और उसके दौरान होने वाले व्यक्तित्वांतरण के थे। सुबह उठने पर होने वाले प्रणय-अनुभव के स्मरण में एक बात ध्यान देने की है कि यह प्रेम ऐसा था मानो जीवन भर के लिए कर लिया गया हो। यहां आशय निश्चय ही आगामी जीवन से है क्योंकि अगर जीवन भर का मतलब अगला पिछला सब होता तो पिछली रात किसी नई अनुभूति का प्रश्न ही नहीं उठता था। आगामी जीवन के लिए एक बड़ा बदलाव सर्वहारा वर्ग के साथ उसकी एकजुटता के रूप में पिछली रात घटित भी हुआ है। अब सवाल यह है कि मुक्तिबोध सीधे उसी अनुभूति की बात न करके उसे प्रेम की अनुभूति के रूप में क्यों व्यक्त करते हैं। भारतीय समाज और कविता की परंपरा में प्रेम की केंद्रीय और निर्णायक भूमिका इसके लिए जिम्मेदार है। मुक्तिबोध प्रेम और संघर्ष की एकता को बार-बार महत्वपूर्ण तरीके से अंडरलाइन करना ज़रूरी समझते थे। कबीर, जायसी, मीरा और ग़ालिब का अन्यथाकरण देखने के बावजूद उन्हें यक़ीन था कि आनेवाली पीढ़ियां उन्हें सही संदर्भों में ग्रहण करेंगी।

कविता में 'क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी', इस प्रश्न के माध्यम से व्यक्त हुई वेदना और आकांक्षा जनसमुदाय के बीच उसी व्यक्ति को देखकर उसे बुलाने के लिए खुलने वाले मुँह में और उठने वाली बांह में विस्तार पाती है। हालांकि वह जनसाधारण में खो जाता है। उससे संपर्क नहीं हो पाता, लेकिन कविता में निराशा का रत्ती भर भी आभास नहीं है। काव्य नायक के रवैये में यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। इसकी वजह उसका अपना रूपांतरण है। आम जनता से अपने को विशिष्ट मानने वाला मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी जनता की जुझारू परंपरा से पहले तो रूमानी रिश्ता बनाता है, लेकिन इस प्रक्रिया में रूपांतरित होने के बाद वह नायक-पूजा छोड़कर 'अँधेरे में' के नायक की तरह साधारण लोगों में स्थित इस शक्ति को पहचानता है:

"वो मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
 वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
तिलिस्मी खोह में देखा था एक बार,
आख़िरी बार ही।
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल
वह फटे-हाल रूप।
विद्युल्लहरिल वही गतिमयता,
उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
सकर्मक प्रेम की वही अतिशयता
वही फटे-हाल रूप!!"

कविता के अंत में आकर जनता के उद्देश्य के साथ एकाकार हो जाने के बाद काव्यनायक को यह एहसास होता है कि जनता की शक्ति और विद्रोह-परंपरा की स्मृति उसके अंतर्मन यानी 'तिलिस्मी खोह' में ज़रूर थी, लेकिन उसके वर्तमान जनस्वरूप से वह अपने मध्यवर्गीय चरित्र के कारण दूर ही रहा था। जनशक्ति का प्रतीक वह पुरुष आकृति उसका द्वार खटखटाने नहीं आती थी, बल्कि अपनी मुक्ति की छटपटाहट और इसके लिए रूपांतरण की वेदना सहने की अनिवार्यता के कारण उसे इसका आभास होता था। दूसरे शब्दों अपने जीवन को सार्थक बनाने का आमंत्रण तो सदैव और सर्वत्र मौजूद था, जब उसके अपने कारणों से उसकी ग्रहणशीलता उस स्तर पर पहुँची तो उसे उसका पता चला।  गति,ज्ञान और सकर्मक प्रेम का मिलाजुला रूप ऊर्जा का अक्षय स्रोत यह हमारी जनता ही है जो गलियों में फटेहाल घूमती है। कविता की अंतिम पंक्तियां हैं:

"परम अभिव्यक्ति
अविरत घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ,
वह है।
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनीतिक स्थिति और परिवेश
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत-परिणति!!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।"

परम अभिव्यक्ति को प्राप्त करने की काव्यनायक की आकांक्षा कविता में आरंभ से अंत तक व्यक्त हुई है। बीच में उसने 'अभिव्यक्ति' के ख़तरे उठाने की बात की थी अभिव्यक्ति का ठोस संदर्भ कविता में वर्तमान आतताई व्यवस्था के खिलाफ जारी जन-संघर्ष में शामिल होकर इसे बदलने का था ताकि बेहतर मानवीय व्यवस्था का निर्माण किया जा सके। अभिव्यक्ति का संघर्ष वर्तमान के ठोस संदर्भों से जुड़ा हुआ है जबकि परम अभिव्यक्ति 'अनखोजी निज समृद्धि का चरम उत्कर्ष' बनकर आती है। असल में, दोनों के बीच वही अंतर है जो तात्कालिक कार्यनीति और दीर्घकालिक रणनीति के बीच होता है। 'अभिव्यक्ति' वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का तात्कालिक कार्यभार है, जबकि 'परम अभिव्यक्ति' वह दूरगामी लक्ष्य जिसने मानव जीवन समानता (equality) की अपनी आदिकालीन आकांक्षा की पूर्ति सभ्यता की सारी उपलब्धियों के साथ करके अपने जीवन की चरितार्थता को, उसके चरम प्रतिफलन को प्राप्त कर सकेगा। काव्यनायक ने जबसे मध्यवर्गीय विश्व दृष्टिकोण छोड़करसर्वहारा का दृष्टिकोण अपनाया तब से उसे इन दोनों लक्ष्यों की एकता और उसकी वाहक, जनता की भूमिका का ज्ञान हुआ। इसीलिए, कविता के अंत में उसने भविष्य के चरम उद्देश्यों की खोज जनसमुदाय के वर्तमान सदस्यों और उनकी संघर्षशील परंपराओं के संदर्भ में की।

अंत में, एक बात ध्यान देने की ओर है कि कविता के आरंभ में 'परम अभिव्यक्ति' को 'अब तक न पायी गयी' कहा गया है जबकि अंतिम पंक्तियों में इसे 'खोई हुयी' बताया गया है। यह फ़र्क़ मानव-सभ्यता के विकास के रहस्य को समझने में काव्यनायक को मिलने वाली कामयाबी की वजह से पड़ा है। पहले जब वह चरम मानवीय लक्ष्य को जनता के वर्तमान संघर्ष से अलग किसी रहस्यमय उपलब्धि के रुप में पाना चाहता था, इस बात से अनभिज्ञ था कि अपने आदिम रूप में ही सही लेकिन साम्य और सामंजस्य कभी उसकी धरोहर थे, जो विकास के एक निश्चित चरण में वर्ग-विभेद जैसे कुछ कारणों के पैदा हो जाने से तिरोहित हो गए थे। जनसमुदाय की स्मृति, परंपरा और ज्ञान के साथ एकाकार हो जाने के बाद उसने यह भी समझा कि वर्तमान की काररवाइयों में ही भविष्य के बीज छुपे हुए हैं, और जनता ही इतिहास का निर्माण करती है। कविता के अंत में 'खोने' की बात मानो आरंभ में पूछे गए सवाल 'कौन मनु?' का ही सकारात्मक जवाब है।











Comments

  1. बहुत ही उत्कृष्ट लेख है सर
    शुरू में जब मैं कविता का केवल पाठ कर रहा था तब मुझे अच्छे तरीके से कविता अर्थ नही समझ आ रहा था परंतु अब आपका लेख पढ़ कर मैं समझ पाया हु।🙏🙏
    आपका बहुत बहुत आभार सर

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  2. यह कहना कि "अंधेरे में" एक काल्पनिक लोक के स्मरण की कविता है।उतना ही झूठ है जितना कि कल्पना का वास्तविकता में होना।और वे बातें इस सारगर्भित-प्रसंस्कृत लेख से स्पष्ट हो जाती है।कोई जो जीता और देखता है, उसे जरूरी नहीं कि उसी सन्दर्भों में व्यक्त करे।जो मुक्तिबोध के इस कालजयी रचना के बारे में भी कहा जा सकता है।यह कहना अतिश्योक्ति नहीं लग रहा है कि आपका ये लेख प्रस्तुत कविता "अंधेरे में" के हर दरवाज़े को पूरी तरह खोल पाने में समर्थ है।

    श्री चरणों में सादर प्रणाम!

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