अपनी केवल धार
अरुण कमल की धार
अरुण कमल की प्रसिद्ध कविता “धार” यहाँ प्रस्तुत है---
कौन बचा है जिसके आगे
इन हाथों को नहीं पसारा
यह अनाज जो बदल रक्त में
चल रहा है तन के कोने-कोने
यह कमीज जो ढाल बनी है
बारिश सरदी लू में
सब उधार का, माँगा-चाहा
नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
सब कर्जे का
यह शरीर भी उनका बंधक
अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार।
अरुण कमल के पहले संग्रह "अपनी केवल धार" की अत्यधिक चर्चित और प्रशंसित रचनाओं में से एक इस कविता के बारे में आमतौर पर यह कॉमनसेंस बना है कि कवि ने इसमें आम जन के प्रति विनम्रता और कृतज्ञता का समुचित ज्ञापन किया है। उसकी रचना और विचार का निर्माण जिन धातु-तत्वों से हुआ है उनका श्रेय वह जनसमुदाय को देता है। यानी यह कविता एक मध्यवर्गीय बौद्धिक रचनाकार की निम्नवर्गीय श्रमिकजन के प्रति कृतज्ञता के उदाहरण के रूप में भी देखी गयी है। निम्नवर्ग के प्रति मध्यवर्ग के रवैये का प्रश्न मुक्तिबोध के समय से ही कविता का केंद्रीय प्रश्न है और अगर किसी रचना में निम्नवर्ग की भूमिका का समुचित स्वीकार दिखता है तो यह निश्चय ही प्रशंसनीय है। लेकिन यहाँ प्रश्न यह है कि इस छोटी-सी कविता में एक निहायत हलके संकेत के सहारे जो कुछ कहा गया है क्या वह निम्नवर्ग की भूमिका के प्रति किसी वास्तविक सरोकार या उसकी स्वीकृति से पैदा हुआ है या फिर, बस ऐसा मान लिया गया है।
कविता की शुरुआत से ही विनम्रता, दीनता के आवरण में प्रस्तुत होती है। ज़ाहिर है कि यह किसी याचक या भिक्षुक की संवेदना का काव्यान्तरण नहीं है, क्योंकि ऐसी स्थिति में लोहे और धार का रूपक क़तई अप्रासंगिक होता। यह ज़मीन से जुड़े, खेती पर निर्भर लेकिन ख़ुद शारीरिक श्रम न करके दूसरों के श्रम से उपजे अन्न-जल का उपयोग करने वाले समृद्ध किसान और पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग की मिलीजुली भूमि से लिखी गई कविता है। अब सवाल उठता है कि इसमें व्यक्त दीनता का मनो-सामाजिक आधार क्या है।
यहां वाचक ने निम्नवर्ग से आभार सहित प्राप्त करने के लिए जिन क्रियाओं का प्रयोग किया है वे हैं, हाथ पसारना, उधार लेना, मांगना-चाहना और कर्ज लेना। इनमें उधार लेना और कर्ज लेना आत्मसम्मान युक्त क्रियाएं हैं। आवश्यकता पड़ने पर हर व्यक्ति अपने किसी नज़दीकी से कर्ज-उधार लेता है, और उसे चुकता कर देता है। कृतज्ञता वहां भी होती है, अपनी ज़रूरत के वक़्त काम आने के लिए। उधार चुका देने के बाद भी साहचर्य का एक अनकहा आश्वासन दोनों पक्षों को होता है। इस प्रकार यह क्रिया सामाजिक सहकार का एक रूप बनती है जिसमें दोनों की मनुष्यता विकसित होती है। आगे भी वे किसी की मदद करने को तैयार रहते हैं। लेकिन इस कविता का स्वर ऐसे किसी बराबरी के, परस्पर सम्मान और विश्वास पर आधारित मानवीय सहकार का संकेत नहीं करता। हाथ पसारना और मांगना-चाहना पूरबी ग्रामीण समाज की बहुत जानी-पहचानी क्रियाएं हैं। अपने से बेहतर आर्थिक स्थिति वाले किसी पड़ोसी या परिचित से छोटी-मोटी ज़रूरतों, मसलन अनाज, छाछ, नून, तेल, लकड़ी जैसी चीज़ों को सहजतापूर्वक मांगनाऔर प्राप्त करना चलता रहता है। कविता में भी इस प्रसंग में ऐसी ही चीज़ों का ज़िक्र आया है। इस प्रक्रिया में ली गई वस्तुओं को लौटाने की ज़रूरत नहीं होती। हां, उसके बदले में छोटा-मोटा काम करने, और वफ़ादार बने रहने का एक अनकहा समझौता ज़रूर होता है। आशय यह कि मांगने की दोनों प्रकार की क्रियाएं दो अलग-अलग प्रक्रियाओं से आती हैं। एक में मांगने वाले का देने वाले से लोकतांत्रिक और मानवीय रिश्ता बनता है, और दूसरे में सामंती और बंधनकारी।
अब यहां से कविता में एक मूलभूत अंतर्विरोध उभरता है। अगर दीनता का स्वर प्रामाणिक है तो, लोहे और धार का रूपक क्यों? धार तो लोहे को अर्थ देती है। धार के बिना कलम हो या तलवार, किस काम की? धार की हैसियत इस संदर्भ में रहीम के प्रसिद्ध दोहे में आए "पानी" जैसी है, जिसके बिना "मोती, मानुस, चून" बेपानी हो जाते थे। और अगर लोहे और धार वाली बात सही है तो वाचक की ऐसी दीन-हीन मनोदशा क्यों है।
जो हो, एक बात तो संग्रह और कविता के नाम से भी स्पष्ट है कि स्वयं कवि का दृढ़ आग्रह लोहे और धार के रूपक के पक्ष में है। धार-धारक की अपने वाचक की हैसियत से समझौता करने का उसका कोई इरादा नहीं है।
ग़ौरतलब है कि लोहे और धार का रिश्ता बड़ा सूफ़ियाना क़िस्म का होता है। धार लोहे को अर्थ देती है, लेकिन उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता। वह लोहे में ही विलीन रहती है। लेकिन यहां धार का एक ऐसा दावेदार है जो धार के एवज में 'सारा लोहा' मांगे ले रहा है। उसका सारा अस्तित्व ही अकर्मण्य क़िस्म के उपभोग पर निर्भर हो गया है। इसकी हिफ़ाज़त के लिए वह सामंती-परजीवी क़िस्म के संबंध का भी आदर्शीकरण करने लगता है। यह चीज़ एक दूसरी स्थिति की तरफ़ इशारा करती है, औपनिवेशिक लूट की तरफ़ जो आज़ादी के बावजूद हमारे देश का एक बड़ा सच है। जिस तरह से देशी-विदेशी कंपनियां हमारी ज़मीन से लोहा समेत तमाम कच्चा माल निकाल ले जाती हैं और उन्हें तैयार माल के रूप में हमें वापस कर देती हैं, कुछ वैसी ही स्थिति यहां भी दिखती है। कहने को तो वे भी कहती ही आई हैं कि हमने आपको केवल सभ्यता दी, विज्ञान दिया, और तंत्र दिया। संसाधन और क्षमताएं तो सब आपके पास थीं ही। दिमाग़ आपका था, ज्ञान हमने दिया। शक्ति आपके पास थी, लेकिन सोई हुई। हमने आपको सदियों की नींद से जगाया। आपको बताया कि आपके अतीत में गर्व करने को क्या है, और शर्म करने को क्या!
दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे मध्यवर्ग और बौद्धिक वर्ग ने निम्नवर्ग के साथ ऐसा ही सामंती- औपनिवेशिक पद्धति का रिश्ता बनाया है। यहाँ मुक्तिबोध की "बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास" और "ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन" जैसी अनेक काव्यपंक्तियां याद आती हैं। लेकिन हमारा कवि यहाँ मध्यवर्ग की सबकुछ खा-हड़प जाने की भूमिका की भर्त्सना नहीं करता। उलटे वह एक बौद्धिक और रचनाकार को आगे कर मध्यवर्ग के रवैये का आदर्शीकरण करता है। उसकी कृतज्ञता और मनुष्यता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कोशिश करता है। इसके बावजूद दोनों के बीच बने संबंध की शोषणमूलक प्रकृति पर पर्दा नहीं पड़ता बल्कि वह और उजागर होने लगती है। सुविधासम्पन्न वर्ग की लुटेरी प्रवृत्ति पर लीपापोती के संवेदनागत उद्देश्य से प्रेरित होकर वह उधार और कर्ज से लेकर याचना और पोषण के लिए कृतज्ञता की मुद्रा तक अपनाता है। बात "शरीर के बंधक होने" तक आ जाती है। यह घनघोर सामंती मुहावरा भी ख़ासा मानीख़ेज़ है। यह उसी पाखण्डी भावभूमि की उपज है जिससे आगे चलकर गरीबों और दलितों की हत्यारी सामंती शक्तियों को लगाम लगाने की अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारियों से पीछा छुड़ा चुके हमारे नेतागण उन्हीं शक्तियों से दलितों को छोड़ देने और बदले में ख़ुद उन्हें गोली मार देने और ज़िंदा जला देने की अपील करते नहीं थकते।
अरुण कमल की प्रसिद्ध कविता “धार” यहाँ प्रस्तुत है---
कौन बचा है जिसके आगे
इन हाथों को नहीं पसारा
यह अनाज जो बदल रक्त में
चल रहा है तन के कोने-कोने
यह कमीज जो ढाल बनी है
बारिश सरदी लू में
सब उधार का, माँगा-चाहा
नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
सब कर्जे का
यह शरीर भी उनका बंधक
अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार।
अरुण कमल के पहले संग्रह "अपनी केवल धार" की अत्यधिक चर्चित और प्रशंसित रचनाओं में से एक इस कविता के बारे में आमतौर पर यह कॉमनसेंस बना है कि कवि ने इसमें आम जन के प्रति विनम्रता और कृतज्ञता का समुचित ज्ञापन किया है। उसकी रचना और विचार का निर्माण जिन धातु-तत्वों से हुआ है उनका श्रेय वह जनसमुदाय को देता है। यानी यह कविता एक मध्यवर्गीय बौद्धिक रचनाकार की निम्नवर्गीय श्रमिकजन के प्रति कृतज्ञता के उदाहरण के रूप में भी देखी गयी है। निम्नवर्ग के प्रति मध्यवर्ग के रवैये का प्रश्न मुक्तिबोध के समय से ही कविता का केंद्रीय प्रश्न है और अगर किसी रचना में निम्नवर्ग की भूमिका का समुचित स्वीकार दिखता है तो यह निश्चय ही प्रशंसनीय है। लेकिन यहाँ प्रश्न यह है कि इस छोटी-सी कविता में एक निहायत हलके संकेत के सहारे जो कुछ कहा गया है क्या वह निम्नवर्ग की भूमिका के प्रति किसी वास्तविक सरोकार या उसकी स्वीकृति से पैदा हुआ है या फिर, बस ऐसा मान लिया गया है।
कविता की शुरुआत से ही विनम्रता, दीनता के आवरण में प्रस्तुत होती है। ज़ाहिर है कि यह किसी याचक या भिक्षुक की संवेदना का काव्यान्तरण नहीं है, क्योंकि ऐसी स्थिति में लोहे और धार का रूपक क़तई अप्रासंगिक होता। यह ज़मीन से जुड़े, खेती पर निर्भर लेकिन ख़ुद शारीरिक श्रम न करके दूसरों के श्रम से उपजे अन्न-जल का उपयोग करने वाले समृद्ध किसान और पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग की मिलीजुली भूमि से लिखी गई कविता है। अब सवाल उठता है कि इसमें व्यक्त दीनता का मनो-सामाजिक आधार क्या है।
यहां वाचक ने निम्नवर्ग से आभार सहित प्राप्त करने के लिए जिन क्रियाओं का प्रयोग किया है वे हैं, हाथ पसारना, उधार लेना, मांगना-चाहना और कर्ज लेना। इनमें उधार लेना और कर्ज लेना आत्मसम्मान युक्त क्रियाएं हैं। आवश्यकता पड़ने पर हर व्यक्ति अपने किसी नज़दीकी से कर्ज-उधार लेता है, और उसे चुकता कर देता है। कृतज्ञता वहां भी होती है, अपनी ज़रूरत के वक़्त काम आने के लिए। उधार चुका देने के बाद भी साहचर्य का एक अनकहा आश्वासन दोनों पक्षों को होता है। इस प्रकार यह क्रिया सामाजिक सहकार का एक रूप बनती है जिसमें दोनों की मनुष्यता विकसित होती है। आगे भी वे किसी की मदद करने को तैयार रहते हैं। लेकिन इस कविता का स्वर ऐसे किसी बराबरी के, परस्पर सम्मान और विश्वास पर आधारित मानवीय सहकार का संकेत नहीं करता। हाथ पसारना और मांगना-चाहना पूरबी ग्रामीण समाज की बहुत जानी-पहचानी क्रियाएं हैं। अपने से बेहतर आर्थिक स्थिति वाले किसी पड़ोसी या परिचित से छोटी-मोटी ज़रूरतों, मसलन अनाज, छाछ, नून, तेल, लकड़ी जैसी चीज़ों को सहजतापूर्वक मांगनाऔर प्राप्त करना चलता रहता है। कविता में भी इस प्रसंग में ऐसी ही चीज़ों का ज़िक्र आया है। इस प्रक्रिया में ली गई वस्तुओं को लौटाने की ज़रूरत नहीं होती। हां, उसके बदले में छोटा-मोटा काम करने, और वफ़ादार बने रहने का एक अनकहा समझौता ज़रूर होता है। आशय यह कि मांगने की दोनों प्रकार की क्रियाएं दो अलग-अलग प्रक्रियाओं से आती हैं। एक में मांगने वाले का देने वाले से लोकतांत्रिक और मानवीय रिश्ता बनता है, और दूसरे में सामंती और बंधनकारी।
अब यहां से कविता में एक मूलभूत अंतर्विरोध उभरता है। अगर दीनता का स्वर प्रामाणिक है तो, लोहे और धार का रूपक क्यों? धार तो लोहे को अर्थ देती है। धार के बिना कलम हो या तलवार, किस काम की? धार की हैसियत इस संदर्भ में रहीम के प्रसिद्ध दोहे में आए "पानी" जैसी है, जिसके बिना "मोती, मानुस, चून" बेपानी हो जाते थे। और अगर लोहे और धार वाली बात सही है तो वाचक की ऐसी दीन-हीन मनोदशा क्यों है।
जो हो, एक बात तो संग्रह और कविता के नाम से भी स्पष्ट है कि स्वयं कवि का दृढ़ आग्रह लोहे और धार के रूपक के पक्ष में है। धार-धारक की अपने वाचक की हैसियत से समझौता करने का उसका कोई इरादा नहीं है।
ग़ौरतलब है कि लोहे और धार का रिश्ता बड़ा सूफ़ियाना क़िस्म का होता है। धार लोहे को अर्थ देती है, लेकिन उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता। वह लोहे में ही विलीन रहती है। लेकिन यहां धार का एक ऐसा दावेदार है जो धार के एवज में 'सारा लोहा' मांगे ले रहा है। उसका सारा अस्तित्व ही अकर्मण्य क़िस्म के उपभोग पर निर्भर हो गया है। इसकी हिफ़ाज़त के लिए वह सामंती-परजीवी क़िस्म के संबंध का भी आदर्शीकरण करने लगता है। यह चीज़ एक दूसरी स्थिति की तरफ़ इशारा करती है, औपनिवेशिक लूट की तरफ़ जो आज़ादी के बावजूद हमारे देश का एक बड़ा सच है। जिस तरह से देशी-विदेशी कंपनियां हमारी ज़मीन से लोहा समेत तमाम कच्चा माल निकाल ले जाती हैं और उन्हें तैयार माल के रूप में हमें वापस कर देती हैं, कुछ वैसी ही स्थिति यहां भी दिखती है। कहने को तो वे भी कहती ही आई हैं कि हमने आपको केवल सभ्यता दी, विज्ञान दिया, और तंत्र दिया। संसाधन और क्षमताएं तो सब आपके पास थीं ही। दिमाग़ आपका था, ज्ञान हमने दिया। शक्ति आपके पास थी, लेकिन सोई हुई। हमने आपको सदियों की नींद से जगाया। आपको बताया कि आपके अतीत में गर्व करने को क्या है, और शर्म करने को क्या!
दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे मध्यवर्ग और बौद्धिक वर्ग ने निम्नवर्ग के साथ ऐसा ही सामंती- औपनिवेशिक पद्धति का रिश्ता बनाया है। यहाँ मुक्तिबोध की "बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास" और "ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन" जैसी अनेक काव्यपंक्तियां याद आती हैं। लेकिन हमारा कवि यहाँ मध्यवर्ग की सबकुछ खा-हड़प जाने की भूमिका की भर्त्सना नहीं करता। उलटे वह एक बौद्धिक और रचनाकार को आगे कर मध्यवर्ग के रवैये का आदर्शीकरण करता है। उसकी कृतज्ञता और मनुष्यता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कोशिश करता है। इसके बावजूद दोनों के बीच बने संबंध की शोषणमूलक प्रकृति पर पर्दा नहीं पड़ता बल्कि वह और उजागर होने लगती है। सुविधासम्पन्न वर्ग की लुटेरी प्रवृत्ति पर लीपापोती के संवेदनागत उद्देश्य से प्रेरित होकर वह उधार और कर्ज से लेकर याचना और पोषण के लिए कृतज्ञता की मुद्रा तक अपनाता है। बात "शरीर के बंधक होने" तक आ जाती है। यह घनघोर सामंती मुहावरा भी ख़ासा मानीख़ेज़ है। यह उसी पाखण्डी भावभूमि की उपज है जिससे आगे चलकर गरीबों और दलितों की हत्यारी सामंती शक्तियों को लगाम लगाने की अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारियों से पीछा छुड़ा चुके हमारे नेतागण उन्हीं शक्तियों से दलितों को छोड़ देने और बदले में ख़ुद उन्हें गोली मार देने और ज़िंदा जला देने की अपील करते नहीं थकते।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 19 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteजी।
ReplyDeleteआपका विश्लेषण तर्कसंगत है। वाकई बहुत सामंती और पाखंडी जगह से लिखी गई कविता है।
बहुत अच्छा विश्लेषण
ReplyDelete👌🏻
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