टूटी हुई, बिखरी हुई

कृष्णमोहन 

शमशेर बहादुर सिंह की प्रसिद्ध कविता 'टूटी हुई, बिखरी हुई' के बारे में कई मिथक प्रचलित हैं, जिनमें से एक यह है कि शमशेर ने इसे डायरी के रूप में लिखा था, और नामवर सिंह ने इसे देखकर कहा कि यह तो कविता है। फिर इसे कविता के रूप में प्रकाशित किया गया। गोया ख़ुद कवि को भी यह भान नहीं था कि उससे कविता हो गई है। आम तौर पर इस कविता को आधुनिक हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम-कविता कहा जाता है, लेकिन इसे सबसे दुरूह कविता का दर्जा भी हासिल है। शमशेर के प्रमुख अध्येताओं में से एक विजयदेवनारायण साही के विचार हम इस शृंखला में पहले देख चुके हैं। उनके दूसरे समकालीन नामवर सिंह ने 1990 में उनकी प्रतिनिधि कविताओं का चयन करते हुए जो भूमिका लिखी उसमें साफ़ कर दिया कि शमशेर की कविताओं के स्थापत्य में प्रवेश करना उनके लिए संभव नहीं है। सो वे बाहर ही बाहर परिक्रमा करेंगे। शेष लोगों ने उन्हें 'कवियों का कवि' कहकर अपने हिस्से का फ़र्ज़ निभाया। इस कविता की पहली पंक्ति को इसका शीर्षक बनाया गया है, और उसकी तर्ज़ पर ही यह मान लिया गया कि इस कविता की कोई सुसंगत व्याख्या संभव नहीं है, बल्कि उसकी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। इसे सौंदर्य की एक वस्तु के रूप में देखना चाहिए, जिसका कुछ अर्थ टुकड़ों-टुकड़ों में भले ही निकल आये, लेकिन समग्र विश्लेषण और व्याख्या से इसका महत्व घट जायेगा। बहरहाल, यहाँ हमने इस कविता को क्रमशः पूरा उद्धृत करके हर पंक्ति की व्याख्या करने की कोशिश की है। कविता के सुधी पाठकों से आग्रह है कि वे इस व्याख्या का परीक्षण कड़े मानदंडों पर करें, और इसकी कमियों से अवगत कराएँ। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:

"टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता"

कविता की शुरूआत खुद अपनी कविता के प्रति निराशा और विषाद के भाव से हो रही है। चाय की पत्ती तोड़ने और सुखाने के बाद पाँव के नीचे मानो दली जा चुकी हो। कविता के वाचक 'मैं' (जो स्वयं कवि है, और आगे से हम उसे 'कवि' कहकर ही संबोधित करेंगे) को अपनी कविता ऐसी ही लगती है, टूटी-बिखरी। इसके बाद की पंक्तियाँ हैं:

"बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी 
चिपके
...कुछ ऐसी मेरी खाल
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी"

यहाँ 'मेरी कविता' का संबंध अपने बाद की, यानी ऊपर लिखी पंक्तियों से भी जुड़ता है। कवि की नज़र में उसकी कविता का दूसरा समानधर्मा टूटा-बिखरा बाल है, धूल से अटा और गर्दन पर चिपका हुआ। इसके बाद अन्तरालसूचक बिंदु, यानी थोड़े विचार के बाद इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी आती है। कविता मानो त्वचा है, शरीर से अलगाई हुई। बाल का अलग होना केवल रूपतः समतुल्य है, लेकिन खाल का अलग होना रचना की प्रसवपीड़ा को इंगित करता है। याद नहीं आता कि किस कवि ने रचना के जन्म की प्रक्रिया की तुलना त्वचा के शरीर से अलग होने से की है, वह भी इस नामालूम तरीक़े से। वैसे भी जिस माहौल में केंचुल छोड़ने और खाल उधड़ने के बीच अंतर करने का विवेक विरल हो चुका हो, कितने कवि ऐसी भावना को 'अफोर्ड' भी कर सकते हैं। 

कविता मिट्टी में मिली हुई-सी है। इसके आशय को समझना ज़रूरी है। 'मिट्टी में मिल जाना' का एक अर्थ है मटियामेट हो जाना, और दूसरा अर्थ है, मिट्टी में घुलामिला होना, अपनी ज़मीन से जुड़ा होना। यहाँ कवि ने इन दोनो ही अभिप्रायों को अपने कथन में शामिल किया है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ रही है, कवि का अवसाद कम हो रहा है और उसकी निराश मनोदशा में भी अपनी कविता की सार्थकता का भरोसा शामिल हो रहा है।आगे देखें:

"दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ…
ख़ाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं… जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं

ठंड भी एक मुस्कुराहट लिए हुए है
जो कि मेरी दोस्त है।"

आरंभिक पंक्तियों की ही तरह बाहरी दृश्यों से आंतरिक भाव-स्थितियों की सूचना दी जा रही है। बाहर बाज़ार में सड़क पर खड़ी ठेलेगाड़ियाँ जैसे माल लदने की प्रक्रिया के दौरान लदाई के पूरा होने का इंतज़ार करती हैं वैसे ही 'कवि' की पसलियाँ भी हर साँस के साथ गतिशील रहती हैं। बाहर के व्यापार की तरह अंदर का कारोबार भी अहर्निश चलता रहता है। जैसे बाहर का श्रम सार्थक नहीं होता, वैसे ही अंदर की गतिविधि भी जीवन को मूल्य नहीं दे पा रही है। आँखें ख़ाली बोरों की तरह सूनी हैं। बोरों को रफ़ू करने के बाद उनमें माल भरा जाएगा। आँखों से भी यह सूनापन छँटेगा, इस उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूलने की अवस्था अंदर की है। 

ठंड का होना कठोरता और निष्ठुरता का होना है, लेकिन अगर उसे ही दोस्त बना लिया जाए तो उसमें भी नरमी का एहसास पैदा हो सकता है। दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना। यह किसी संतुलन की साधना नहीं, जीवन-स्थिति की विशेषता है। जीवन में विपरीत अवस्थाओं के ऐसे ही दोराहे मिलते हैं। 'एक मौन' शीर्षक अपनी कविता में इसे ही शमशेर---"एक दिशा नीचे है एक दिशा ऊपर है/ यात्रि ओ!/ एक दिशा आगे है/ एक दिशा पीछे है"---कहकर सूचित करते हैं। आगे चलें:

"कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई…
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िये क्या थे,
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।"

यहाँ शमशेर ने कविता का अपना आदर्श सामने रखा है---प्रकृति के कार्य-व्यापार की तरह नामालूम तरीक़े से घटने वाला। इसे ही निराला ने "मौन मधु हो जाय" और ग़ालिब ने "ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिये" कहकर व्यक्त किया है। शमशेर की कविता में मौन की जो महिमा है उसे इस आदर्श की देन मानना चाहिए। 'राग' शीर्षक कविता में आया एक मुखर मौन देखें---"उसने मुझसे पूछा, इन शब्दों का क्या/ मतलब है/ मैंने कहा: शब्द/ कहाँ हैं?/वह मौन मेरी ओर/ देखता चुप रहा।/ फिर मैंने/श्रमपूर्वक बोलते हुए कहा---कि;/ शाम हो गयी है।" 

'टूटी हुई बिखरी हुई' की अगली पंक्तियाँ हैं:

"आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं…
न जाने कहाँ।

मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार---
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप-छप-छप मेरा हृदय कर रहा है…
छप-छप-छप।"

रचना के आदर्श की याद से आरंभिक व्यथा थोड़ी मंद पड़ती है और स्वर सम पर आता है। अब अपना अधिक वस्तुगत चित्र प्रस्तुत होता है, हालाँकि कवि-स्वभाव के मुताबिक़ आत्मगत दर्पण से उभरा हुआ। प्रतिबिंबित करने की क्षमता के कारण हिंदी काव्य-परंपरा में आईना प्रायः हृदय, मन, मस्तिष्क के रूपक की तरह आता है। उपर्युक्त पंक्तियों में आकाश अंतर्मन का है, आईने की तरह जिसमें गंगा की रेत का चित्र उभर रहा है। जैसे आईने के हिलने के साथ चित्र भी हिलता है, वैसे ही गंगा की रेत भी हिल रही है। मन अपना ही है, इसलिए उसमें ख़ुद का होना भी लाज़िम है। हाँ, कीचड़ की तरह सोने की क्रिया में चाय की पत्ती, बाल और खाल जैसी अकिंचनता नहीं है। कीचड़ यहाँ रेत और गंगा के पानी से मिलकर बना है, इसलिए कोई गर्हित वस्तु नहीं है। यह नमी और सजलता का द्योतक है। मन के दर्पण में गंगा की उपस्थिति मानव-सभ्यता के एक विशिष्ट सोपान, गंगा नदी के किनारे विकसित सभ्यता की स्मृति से प्रेरित है। कवि अपने रचनात्मक संघर्ष को सभ्यता के विस्तृत धरातल पर देख पा रहा है। रचना की याद के क्षण में विगत जीवन की पीड़ा क्षीण हो गयी है, कसक बची हुई है। कहीं 'चमकने' का एक अभिप्राय यह भी हो सकता है। 

रचना की प्रक्रिया से गुज़रते हुए कवि का उदात्तीकरण होता है। लेकिन रचना अभी दूर है। क्योंकि उसके लिए अनुभव से जितना विलगाव होना चाहिए वह अभी नहीं हो पाया है। अभी कवि का स्वर आर्द्र है। पक्षी के परों की तरह उसकी बाँसुरी गीली हो गयी है। अभी उससे मनचाहे सुर नहीं निकलते। यहाँ पतवार का प्रयोग दिलचस्प है। पतवार को जल में गीले ही रहना पड़ता है, लेकिन रचनाकार का जो पतवार है उसे जल में रहकर भी गीला नहीं होना है। कमल की तरह उसे अनुभव के जल में रहकर भी उससे विलग रहना पड़ता है। वह अवस्था अभी हासिल नहीं हो सकी है। उसके लिए उस अनुभव में प्रवेश करना होगा, उसे खंगालना होगा, जो इस आर्द्रता का कारण है। इस बिंदु पर आकर पता चलता है कि वह प्रेम का अनुभव है जिसने कवि को आप्लावित किया है। प्रेम में मिली निराशा ने उसके हृदय को तोड़ा है---

"वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है।
वह दूकान मैंने खोली है जहाँ 'प्वाइजन' का लेबल लिये हुए
दवाइयाँ हँसती हैं---
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है।"

यहाँ से कविता फ्लैशबैक में जाती है। पहली पंक्ति में प्रेम के भाव का ज़िक्र है। प्रेम में अहं की बलि सबसे पहले देनी होती है। पिछली कड़ी में भी हमने देखा था कि यह अवस्था मृत्यु के समतुल्य होती है। इसीलिए कबीर से लेकर समूची हिंदी-उर्दू काव्यपरंपरा के बेशतर हिस्से में प्रेम को मृत्यु के लगभग पर्याय के रूप में देखा गया है। मृत्यु को सँवारना यानी सार्थक बनाना। अहं के विलोप की सार्थकता प्रेम से बढ़कर दूसरी नहीं। शमशेर ने कभी सचमुच की दवा की दुकान पर काम किया था। उस अनभव का मज़ाकिया इस्तेमाल यहाँ किया है। लेकिन दफ़्तर और दुकान खोलना प्रेम समेत तमाम सांसारिक प्रसंगों के लिए परम्परापुष्ट प्रयोग भी है---"वो जो बेचते थे दवा ए-दिल/ वो दुकान अपनी बढ़ा गये।" 

यहाँ कवि ने अकुंठ मन से उस स्मृति का आह्वान किया है। दवा और ज़हर में अंतर भी कितना है! प्रेम में तो मृत्यु ही जीवन की शर्त बन जाती है। ग़ालिब कहते हैं---"मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का/उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले"। ज़हर का लेबल लगी दवाओं में एक ख़ास बात और है कि वे जीवन और मृत्यु दोनो की संभावनाओं से भरपूर हैं। आशय यह है कि वाचक के लिए भले ही प्रेम का अनुभव दुखद रहा है, पर इसके लिए जिसे प्रेम किया गया (आगे उसे हम 'प्रिय' कहकर संबोधित करेंगे) उसे दोष देना क़तई अनुचित होगा। बल्कि यह प्रेमी की ही कमज़र्फ़ी का सबूत होगा। वही दवा किसी के लिए जीवन है, किसी के लिए मृत्यु। कवि की भावभूमि में दोनो एक ही हैं। आगे इस 'दवा' का मूर्त रूप आता है:

"वह मुझपर हँस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक़ तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुम्बन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीस कर बराबर कर चुका है।"

यहाँ से कविता प्रेम के तूफ़ानी अनुभव की स्मृति में प्रवेश करती है। होठों पर एक तलुए के बल खड़ा होना किसी नटराज मुद्रा का निर्देश नहीं है। तलुआ प्रिय के मुँह का है, वाचक प्रेमी के होठों को कुचलता हुआ। उसके बालों का समय के तारों की तरह पीठ को खुरचना भी बात को ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही स्पष्ट करने वाला प्रयोग है। परिवर्तनशील समय अपना काम कर रहा है। आदि में ही अंत छुपा है। बक़ौल ग़ालिब---'मेरी तामीर में मुज़मिर है इक सूरत ख़राबी की'।

आगे चलकर तलुओं और सीने की भूमिका और स्पष्ट हुई है। आवेग और ऐंद्रियता का ज़बरदस्त चित्र है, जैसा कि प्रेम होता है, जैसा कि कविता में उसे होना चाहिए। पाखंडी नैतिकता से आपादमस्तक ग्रस्त हमारे साहित्य और समाज में ऐसे कवि को अकेला तो पड़ना ही था। आगे देखें:

"मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो---
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फ़ौवारे की तरह नाचो।

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिंगो सको, मुमकिन है तो।
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार...मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से"

प्रेम के चरमोत्कर्ष के चित्र के बाद उसके प्रभावों की एक पूरी चित्र-शृंखला आती है। ख़ास बात यह है कि आरंभ में प्यास के पहाड़ों पर लिटाने का आग्रह है, पर बाद के सभी चित्र सीधे प्रकृति से लिये गये हैं। यहाँ प्यास के पहाड़ों का अर्थ समझना ज़रूरी है। 'चुका भी हूँ मैं नहीं' शीर्षक कविता में शमशेर ने कहा था---'जब करूँगा प्रेम/पिघल उठेंगे युगों के भूधर'। प्रेम के संदर्भ में युगों के 'भूधर' यानी पहाड़ कौन से हैं, और वे किस 'प्यास' से निर्मित हैं इसे समझने के लिए किसी विशेषज्ञता की ज़रूरत नहीं है। ये हमारे समाज मे युगों से निर्मित सामंती-औपनिवेशिक नैतिकता की चट्टानें हैं जो सदियों से हमारे सीने पर रखी हैं। कवि अपनी भावना, या अपनी कविता की कल्पना एक ऐसे झरने की तरह करता है जो प्यास के पहाड़ों को भी तृप्त कर सकता है। यह उम्मीद कि उसे इसका मौक़ा मिलेगा, उसे बेचैन किये हुए है। उसके आग्रह को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। युगों के भूधर के पिघलने के बिंब की सहज सादृश्यता पहाड़ से गिरने वाले झरने के चित्र से है, इसलिए दोनों एक दूसरे के पूरक माने जा सकते हैं।

सूरज की किरनों में जलने देने की कामना भी एक विशिष्ट अभिप्राय से युक्त है। सूरज की किरनें गर्म होती हैं लेकिन उनमें कोई जल नहीं सकता, आँच और लपट फेंकने की तो बात ही क्या। इसी कविता में एक बार और 'जलाने' का प्रसंग आता है जिसे हम आगे देखेंगे। दोनों ही मौक़ों पर इसका संबंध 'जलन' से है, ईर्ष्या की दाहकता जो 'जलने' वाले के लिए जितनी तकलीफ़देह होती है, 'जलाने' वाले के लिए उतनी ही आनंददायक। यहाँ 'उसकी आँच और लपट में फ़ौवारे की तरह नाचने' की संभावना से यह पता चलता है। ज़ाहिर है, प्रेम में कवि के साथ कुछ मौलिक प्रयोग भी प्रिय के हाथों हो रहे हैं। उसे झूठी सच्ची ईर्ष्या की आग में जला कर उस पर क़ाबू पाने की कोशिश उनमें से एक है। यही है जीवन और मृत्यु दोनो से संपृक्त प्रेम जिसका कटु-मधु स्वाद कवि ने चखा है, और अब उससे उबरने के लिए उसकी स्मृति का आह्वान कर रहा है।

एक बार प्रेम के माध्यम से जीवन और मृत्यु के शिखर को छू लेने के बाद प्रकृति से पूर्ण तादात्म्य की अवस्था आ जाती है। 'जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने' की बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह कवि की विशिष्ट कथन-भंगिमा की सूचना देती है। उस फूलों पर पड़ती है और कभी उससे टपक भी जाती है। उस टपकी हुई ओस में फूल का भी कुछ रस-गंध शामिल हो जाता है, लेकिन कवि इसे इस तरह देखता है कि उस के साथ ख़ुद फूल ही टपक रहा है। इस अंदाज़ को समझ लेने से 'झरने की तरह तड़पने' और 'सूरज की किरनों में जलने' के अभिप्राय कुछ और साफ़ हो सकते हैं। 'अपने पलकों की उनींदी जलन को भिंगोने' की संभावना से एक बात तो साफ़ होती है कि 'जलने' और 'टपकने' की यह पूरी प्रक्रिया इसी लिए स्वीकार्य है कि प्रिय को इससे कुछ ख़ुशी और राहत हासिल हो सके। इशारा प्रेम में आत्म के समर्पण का है, जो वैसे तो स्वाभाविक लगता है, लेकिन उसका नतीजा अच्छा नहीं निकलता। दूसरी बात यह कि यहाँ आश्चर्यजनक रूप से 'पलक' जो स्त्रीलिंग है कि साथ 'अपने' का प्रयोग हुआ है, पुल्लिंग के साथ होना चाहिए। यह किसी प्रकार की टाइपिंग की त्रुटि है या इसके कुछ और कर्ण हैं, मैं समझ नहीं सका। एक बार अपने गुरु दूधनाथ सिंह से, जो शमशेर पर अपनी एक नज़र रखते थे, मैंने यह प्रश्न किया तो उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया कि 'जो लिखा है वही पढ़ो'।

बहरहाल, ये  अवस्थाएँ प्रकृति के सहज कार्य-व्यापार का अंग बन जाने की ही सूचना देती हैं। मनुष्य के रूप में प्रकृति का एक विशिष्ट अंग बन जाने की शुरूआत इसके बाद होती है। अब पहाड़, झरना, सूरज, फ़ौवारे, ओस, फूल जैसा सहज संबंध तो परस्पर नहीं रह जाता, लेकिन उसमें अनिवार्यतः वैसी बनावट भी नहीं होती जिसे सभ्यता की पहचान मान लिया गया है। इसके लिए शमशेर ने एक विलक्षण सादृश्य ढूँढ़ा है---'दरवाज़े की चूलों की चरमराहट की आवाज़', जैसे वे कोई सवाल कर रही हों। यह आवाज़ प्राकृतिक न होकर भी उतनी ही अकृत्रिम है, यांत्रिक होकर भी उतनी ही मानवीय ('शर्मीली') है। आगे देखें:

"हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।"

आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुस्कुराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ।"

इसी प्रकार की अनेक विषम स्थितियों को झेलने के बाद प्रेम का वांछनीय रूप सामने आता है। सबसे पहले तो 'मैं' और 'तुम' के बीच बराबरी होनी चाहिए। दोनो के लिए प्रेम का एक ही अर्थ होना चाहिए---"तुम मुझसे (वैसे ही) प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।" जैसा रिश्ता मछलियों का पानी से और हवा का सीने से है। ध्यान दें कि मछलियाँ लहरों में 'फँसने नहीं आतीं', अपनी मनमर्जी से रहती हैं, लेकिन उसके बग़ैर जी भी नहीं सकतीं। दूसरी तरफ़ हवा की मौजूदगी 'मेरे सीने' को भले ही दबा न पाती हो, लेकिन उसकी अनुपस्थिति उसे निष्प्राण कर सकती है। दोनो एक दूसरे के लिए अपरिहार्य होकर भी किसी प्रकार का बंधन, अंकुश अथवा दबाव नहीं बनते। यही प्रेम का मानवीय-लोकतांत्रिक आदर्श है। आईने अंतर्मन के हैं जो पहले भी आ चुके हैं। रोशनाई में घुलना चेतन अवस्था से आगे बढ़कर अवचेतन के गाढ़े और चमकीले रंग में विलीन होने का सूचक है। आसमान भी अंतर्जगत का है। जैसे मुक्तिबोध अंतर्जगत की सूचना खोह-कंदरा, कोठरी-बावड़ी से देते हैं। वैसे ही शमशेर आसमान, ब्रह्माण्ड, चाँद-सूरज और तारों के माध्यम से देते हैं। 'मुझे लिखो और पढ़ो' का अर्थ है, मुझे समझो और समझाओ। मुस्कुराहट दोस्ताना है। 'मार डालो' यानी प्रेम करने की सामर्थ्य दो। दरअसल, यह वार्तालाप एक तरह की मित्रतापूर्ण छेड़ है, जो प्रेम की मानवीय समझ को संभव बनाने के लिए अवचेतन के प्रति कृतज्ञता से उपजी है। इसीलिए, अंत में वाचक ख़ुद को 'आईनों' की ज़िंदगी बताने जैसी शेखी मारता है, जो अन्यथा शमशेर के स्वभाव को देखते हुए असंभव था। 

ठीक इसी बिंदु पर पलटवार होता है। प्रेम जैसा गहन अनुभव केवल चेतना के स्तर पर टिका नहीं होता। वह अवचेतन के गहरे तल में भी अपना घर बना चुका होता है। इसीलिए, केवल बौद्धिक समझदारी से उसके संकट हल नहीं होते। एक दूसरा हमला होता है जो अधिक घातक होता है। ऊपर की पंक्तियों में यही घटना घटती है। अभी वाचक प्रेम के लोकतांत्रिक रूप की समझ हासिल करके उसके त्रासद अनुभव से मुक्त होने की प्रक्रिया में ही है कि उस प्रेम की तूफ़ानी स्मृति उस पर टूट पड़ती है। इन पंक्तियों में इसी प्रक्रिया का रचनात्मक रूपांतरण है। भोर के सपने की तरह सच और झूठ के बीच की यह अनुभूति अंततः उस स्मृति की जकड़ से मुक्त कराएगी।

"एक फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कम्बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया।

उसमें काँटे नहीं थे---सिर्फ़ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
साया किये हुए थी...जहाँ मेरे पाँव
खो गये थे।"

उस प्रिय व्यक्ति की याद 'उषा' यानी रात के अंत और सुबह की शुरूआत के वक़्त की तासीर लेकर आती है। दुख और निराशा की रात बीतने को है और दिन का उजाला नये जीवन का संदेश लेकर आने को है। लेकिन यह सब अभी भविष्य के गर्भ में है। यह इस पर निर्भर करेगा कि वाचक विगत प्रेम की स्मृति से गुज़रकर सही-सलामत निकल आता है या नहीं। फूल के साथ काँटों के होने की परिपाटी है, लेकिन उस त्रासद रिश्ते की याद भी ऐसी मारक है कि गुज़रा हुआ कोई तकलीफ़देह अनुभव याद नहीं आता। बस एक ज़ुल्फ़ है जो हमेशा से घनी धूप में साया करने के काम आती रही है। इसके पेंचो-ख़म से थोड़ी बहुत दिक़्क़त इश्क़ के कारोबार में पड़ती थी लेकिन यहाँ वह भी ग़ायब है। माशूक़ के ज़ुल्फ़ की लंबाई जो कभी पता ही नहीं चल पाती थी, वह खुल कर सामने आ गयी है। अब उसके साये में अगर आशिक़ के पाँव खो गये, यानी वो कहीं आने-जाने से मजबूर हो गया तो यह कुछ अजब नहीं हुआ।

"वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िन्दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा---
और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ़ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गयी है।
जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी।"

गुल उर्दू कविता में माशूक़ का एक परम्परागत रूपक है। शमशेर खड़ी बोली की उर्दू काव्य-परंपरा से भी समान संसक्ति रखते थे। इस अंश की पूरी शैली वहीं से ली गई है। 'मोतियों को चबाना' और 'सितारों को कनखियों में घुलाना' भी माशूक़ के जलवों और उसकी अदाओं के घातक रूप की एक झलक दिखाते हैं। गुल यानी फूल की ख़ुशबू से आगे बढ़कर वह माशूक़ एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर ख़ुद को मानो उसपर बिखेर देता है। इत्र की बरसात होती है, और वाचक को लगता है कि वह 'उसकी बूँदों में बसी हुई साँस' है। साँस द्रव में बसी हुई भाप ही का रूपक है, जो जीवन की सचाइयों का ताप पाकर अब बूँद को छोड़कर उड़ जाने वाली है। इसके बाद शमशेर एक बार फिर अन्य लोगों को संबोधित करते हुए मज़ाकिया ढंग से कहते हैं, (मैं जानता हूँ कि ईर्ष्या के कारण) मेरे प्रेम की ये बातें तुम्हारे दिलों में फंदे की तरह अटक-खटक जाती होंगी। कविता में आगे बढ़ते हैं:

"मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गयी थी।"

माशूक़ के आगे सिजदा करना इश्क़ की बुनियादी रस्म है लेकिन इश्क़ की स्मृति से मुक्त होने के बाद इसकी ज़रूरत नहीं रह जाती। यानी चेतन और अवचेतन दोनो स्तरों पर इससे गुज़र जाने के बाद उस अनुभव का वाष्पीकृत उदात्त रूप ही बचा रहता है,  जिससे आगे फिर किसी अन्य 'बूँद' की रचना संभव है। इसीलिए पुरानी आदत के मुताबिक़ वाचक जब सिजदा करने को झुकता है तो उसे पता चलता है कि माशूक़ के पाँव अपनी राह ले चुके हैं। सिर्फ़ उसकी आँखें उस दिशा में जाती हैं, ज़ाहिर है लौट आने के लिये।

यहाँ आकर कविता का मुख्य भाग संपन्न हो जाता है। प्रेम का जो आविष्ट कर लेने वाला अनुभव था, मानो एक ज़ख्म था रिसता और टीसता हुआ, वह शांत हो गया। वह याद जो पीछा करती थी, बेचैन रखती थी, स्मृति में उसे फिर से जी लेने पर वह अतीत की चीज़ बन गयी जिसकी कसक भी मीठी होती है।  लेकिन कविता पूरी नहीं हुई। ग़मे-इश्क़ के बाद भी ग़मे-रोज़गार बचा रह जाता है। इसने भी मुखौटा प्रेम और मित्रता का पहना है। इसकी वास्तविकता को समझकर भी वाचक इससे जुड़ता है। नसों को तोड़ देने वाले उत्कट आवेग से भरे प्रेम के बाद सांसारिक राहो-रस्म निभाने वाली दिल्लगी। यह भी एक अनुभव है और कवि हर अनुभव के प्रति सच्चा है। सो इसका भी आख्यान कविता में वह अपने विशिष्ट गरिमामय ढंग से प्रस्तुत करता है:

"जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा
तुम्हारे हाथ आया।
बहुत उसे उलटा-पलटा---उसमें कुछ न था---
तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं' लगा था। तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था।"

कविता में एक नया चरित्र आ चुका है। इसके बाद 'तुम' से अभिप्राय इसी दूसरे प्रेमपात्र से होगा। पहचान के लिए  हम इसे 'मित्र' कह सकते हैं। व्यावहारिकता की कसौटी पर कसे जाने वाले इस रिश्ते की शुरूआत ही मोलतोल से होती है। पहले प्रेम की वंचना से विदीर्ण वाचक की हालत खुले-फटे लिफ़ाफ़े जैसी है, जिसमे ज़ाहिर है, अंदर कुछ नहीं है। बेकार समझकर छोड़ देने के बाद उसे वाचक के व्यक्तित्व का कुछ बोध होता है। वह उसकी ओर उन्मुख भी होता है, लेकिन फिर 'कुछ सोचकर' उसकी ओर हाथ न बढ़ाने का फ़ैसला करता है। वह शक्ति और सत्ता के समीकरणों से संचालित होता है, व्यक्ति की हैसियत को ध्यान में रखकर संबंध बनाता है। मानवीय सहजता का आदी वाचक इस पहली मुलाक़ात की झेंप को 'यों ही' मिलने की बात कहकर मिटाता है। बहरहाल, रिश्ता बनता है। आगे देखें:

"मेरी याददाश्त को तुमने गुनहगार बनाया---और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया। और तब
मैंने कहा---अगले जनम में। मैं इस
तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
डूबते ग़मगीन पहाड़ मुसकराते हैं।"

'याददाश्त को गुनहगार बनाने' का सीधा संबंध उस सोच से है जिसके चलते अतीत में वाचक की उपेक्षा हुई थी। वाचक की वर्तमान दशा (खुले फटे लिफ़ाफ़े जैसी) प्रेम के चलते हुई है, और उसी की स्मृति भी बनी हुई है। इसलिए यह 'गुनाह' भी पिछले प्रेम का ही है। वैसे तो  प्रेम हमेशा ही व्यावस्थाप्रेमियों की नज़र में अपराध रहा है, लेकिन यहाँ 'मित्र' की भूमिका जैसी है उसमें प्रेम से अधिक, प्रेम में प्राप्त वंचना से उसे एतराज़ होगा। यानी, ऐसे प्रेम से क्या फ़ायदा जिसमें इंसान की ऐसी दुर्दशा हो जाए। ऐसे प्रेम की याद को लिये/लिये फिरना किस गुनाह से कम है। आगे इसे लेकर ख़ूब उलाहने दिये गये होंगे, लानत-मलामत की गयी होगी, जिसे वाचक 'सूद बढ़ाकर वसूलना' कहता है। इस जीवन में तो 'मित्र' की अपेक्षाओं पर खरा उतरना संभव नहीं दीखता इसलिए वाचक अगले जन्म की चर्चा करता है। शाम के पानी में डूबने की बात से घुटन और विवशता की कैफ़ियत पैदा हुई है, मुस्कान की उदासी जिसे और गाढ़ा बनाती है। आगे देखें:

"मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी---मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो। तुमने मेरी 
कविता की ख़ूब दाद दी।
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया:
और जब लपेट न खुले---तुमने मुझे जला दिया।
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे, और वह
मुझे अच्छा लगता रहा।"

उपर्युक्त अंश की दूसरी पंक्ति से पता चलता है कि बातें 'अपनी ही' हों ये ज़रूरी नहीं। कोई 'दूसरा' भी संभावित है, मित्र की बातें जिससे प्रेरित हैं। प्रशंसा भी रणनीतिक हो सकती है। यानी तुमने जो कुछ कहा, सच और झूठ की परवाह किये बग़ैर मैं स्वीकार करता गया। लगाव में ऐसी स्थिति आ सकती है, बल्कि अकसर आती है। वाचक ने हर व्याख्या, हर स्पष्टीकरण को अपना तो लिया, मगर उनके अनुकूल आचरण संभव नहीं था। सत्य एकमुखी होता है। उसके अनुरूप आचरण संभव है। झूठ स्वभाव से ही चंचल है। उसकी संगति अपने ही जैसे किसी अवसरवादी से तो बैठ सकती है, निष्ठावान से नहीं। लपेट न खुलने का यही आशय है। लेकिन असत्य को स्वीकार करने के बाद उसका निर्वाह न कर पाने का दण्ड भी तो भुगतना ही होगा। जलने-जलाने का क़िस्सा हम पहले भी देख चुके हैं। जलाने की क्रिया यहाँ बिना आग के सम्पन्न होती है। असल में यह ईर्ष्या का पर्याय बनकर आई है। ग़ैर से जो रस्मो-राह ढँके-छिपे थी, वो प्रकट हो गई। जब बहानों से काम न चला, तो निर्ममता से काम लिया गया। लेकिन जलाने की कोशिश कामयाब नहीं हो पायी। मित्र की ख़ुशी के लिए भले ही उसका अभिनय कर लिया जाए।कारोबारे-इश्क़ का यह भी एक रंग है, जिसका अनुभव वाचक को अच्छा लगता रहा। बक़ौल मीर---'मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में/ तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया।' कविता में आगे देखें:

"एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गयी है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं-सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग।

आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गयी थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है।

अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता :
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ---
तुम्हारी बरकत!"

इस साहचर्यजनित लगाव के प्रभाव से उबरने के लिए भी इस स्मृति का आह्वान ज़रूरी है। एक बार फिर उस अनुभव से गुज़रना, ख़ासकर उसके सबसे मोहक हिस्से से। इस अंश में यही क्रिया घटित होती है। अंत मे वाचक स्पष्ट करता है कि उसने ईर्ष्या का ताप महसूस नहीं किया, शायद इसीलिए वह इस कोशिश को अच्छा लगने वाला बता सका। ईर्ष्या से जलने की प्रवृत्ति होती तो हर घण्टे दूसरा जन्म लेना पड़ता क्योंकि वैसी स्थितियाँ तो बार-बार आती रहती हैं। लेकिन अगर कोई अपने से अलग दो व्यक्तियों के परस्पर जुड़ाव के मानवीय सारतत्व की सराहना कर सके तो उसे अपने वर्तमान की चरितार्थता का बोध होगा। 'इसी शरीर में अमरता' का रहस्य यही है। बरकत का अर्थ वैसे तो वृद्धि है, लेकिन यहाँ इसका जिस तरह प्रयोग हुआ है उससे 'तुम्हारी बरकत हो' के  बजाय 'तुम्हारी दी हुई बरकत' यानी तुम्हारी मेहरबानी का किंचित उलाहना भरा स्वर सुनाई पड़ता है। कविता का अंतिम अंश है:

"बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुज़र गये
मुझको लिये, सबके सब। तुमने समझा
कि उनमें तुम थे। नहीं, नहीं, नहीं।
उनमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं। फ़क़त।"

यहाँ तीर माने किनारा है और पर माने पंख। साबुत नहीं, पंख को निर्मित करने वाले असंख्य फाहानुमा शल्क, जो कई बार पंख से अलग होकर हवा में तैरते हुए नॉस्टैल्जिक दृश्य बनाते हैं। नाव तो है ही। यानी जल, थल, और वायुमार्ग से होकर गुज़रनेवाला यह जीवन का कारोबार था। अपनी विराटता और भव्यता में जारी इस कारोबार में अस्तित्व और अनस्तित्व के धूपछाँही रंगों के बीच इंसान का जीवन भी गुज़रता है, प्रकृति के अंग के रूप में। बस, यही सच है। बाक़ी अपने आप को अधिक महत्व देना व्यर्थ है।

इस तरह 'टूटी हुई बिखरी हुई' प्रेम के दुर्निवार सम्मोहन से गुज़रकर उससे मुक्त होने की कविता है। विक्षोभ, निराशा और हीनता से शुरू करके यह निर्वेद और आत्मोपलब्धि तक कि यात्रा करती है। लगाव और अलगाव के द्वंद्व की रचनात्मक परिणति ही इसे इस क़दर जादुई बनाती है। बेशक इसमें शमशेर की प्रतिभा का उत्कर्ष भी शामिल है। इसे हिंदी की श्रेष्ठतम प्रेमकविता भी कहा गया है, लेकिन मेरी समझ से यह नयी जीवनदृष्टि का प्रस्ताव रखने के कारण अधिक विचारणीय है। जीवन के सबसे बुनियादी संवेग के रूप में प्रेम यहाँ इसका माध्यम ज़रूर बनता है, पर यह कविता उस तक सीमित नहीं रहती। प्रत्येक मानवीय संबंध की विडंबना यह है कि उसमें अंततः शासक और शासित का प्रश्न उठ खड़ा होता है। इसका समाधान समतामूलक-लोकतांत्रिक दृष्टि से ही किया जा सकता है। इसके बग़ैर मानव जीवन को चरितार्थ करने वाला प्रेम जैसा गहन अनुभव भी त्रासद अंत तक पहुँचने को अभिशप्त है। बहरहाल, इस प्रक्रिया में भी कोई अगर अपने अनुभवों के प्रति सच्चा है और दिलो-दिमाग़ से खुला है, ख़ाली नहीं है, तो वह आत्मिक पहचान और उपलब्धि कर सकता।है।

Comments

  1. सर आपने इस लेख में समन्वय की विराट चेष्टा सहित गालिब से लेकर अनेकानेक शायरों से जोड़ते हुये शमशेर की ' टूटी हुई बिखरी हुई ' अद्भुत एंव दिलचस्प लेख उपलब्ध कराने के लिये तहे दिल से आभार सर।शमशेर को समझने की एक नई दृष्टि मिली साथ ही इस कविता के व्याख्या जिस सलीके एंव सटीकता के साथ भावों को पकड़ते , अनुभूत करते ,एंव ताड़ते हुये उनके रूपकों को स्पष्ट किया गया है वह स्वंय में अनुपम सा है ।
    इस लेख को पढ़कर शमशेर की कविता का भावार्थ एंव विचारार्थ कविता की मनोभूमि बारीकी से स्पष्ट है।

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