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निर्मल वर्मा की भारतीयता और कलात्मकता का सच

  कृष्णमोहन  निर्मल वर्मा का समूचा चिंतन भारतीय संस्कृति और परंपरा की पहचान और व्याख्या को समर्पित है। उनके विचारपरक निबन्धों से गुज़रते हुए पहली अनुभूति एक ऐसे लेखक से रू-ब-रू होने की होती है जो अपनी मान्यताओं के आख़िरी छोर तक पहुँच चुका है और अब उस पर पुनर्विचार या बहस-मुबाहसे की कोई ज़रूरत या गुंजाइश नहीं है। ज़रूरत है उसको बार-बार दुहराने की, ताकि तर्क, बुद्धि और इतिहास जैसे 'पश्चिमी' मूल्यों से आक्रांत भारतीय मन को वापस उसकी सहजता प्रदान की जा सके। वैचारिक निष्ठा का यह विरल उदाहरण अपनी मान्यताओं की जाँच-परख के लिए आकर्षित करता है। यहाँ हम पहले उनके वैचारिक लेखन में आई स्थापनाओं के आलोक में उनकी भारतीयता की अवधारणा पर विचार करेंगे। इसके बाद उनकी कहानियों के संदर्भ में उनकी बहुश्रुत कलात्मकता का भी तनिक परीक्षण करेंगे। भारतीय और यूरोपीय संस्कृति की विशेषताओं को चिह्नित करते हुए निर्मल वर्मा लिखते हैं---'संस्कृति का यह भारतीय स्वरूप पश्चिम की सांस्कृतिक धारा से नितांत भिन्न है।...अतः यूरोप में वैयक्तिक चेतना और धार्मिक विश्वासों के बीच एक चौड़ी खाई खुलती गई, अपनी चेतना में मन