निर्मल वर्मा की भारतीयता और कलात्मकता का सच

 

कृष्णमोहन 

निर्मल वर्मा का समूचा चिंतन भारतीय संस्कृति और परंपरा की पहचान और व्याख्या को समर्पित है। उनके विचारपरक निबन्धों से गुज़रते हुए पहली अनुभूति एक ऐसे लेखक से रू-ब-रू होने की होती है जो अपनी मान्यताओं के आख़िरी छोर तक पहुँच चुका है और अब उस पर पुनर्विचार या बहस-मुबाहसे की कोई ज़रूरत या गुंजाइश नहीं है। ज़रूरत है उसको बार-बार दुहराने की, ताकि तर्क, बुद्धि और इतिहास जैसे 'पश्चिमी' मूल्यों से आक्रांत भारतीय मन को वापस उसकी सहजता प्रदान की जा सके। वैचारिक निष्ठा का यह विरल उदाहरण अपनी मान्यताओं की जाँच-परख के लिए आकर्षित करता है। यहाँ हम पहले उनके वैचारिक लेखन में आई स्थापनाओं के आलोक में उनकी भारतीयता की अवधारणा पर विचार करेंगे। इसके बाद उनकी कहानियों के संदर्भ में उनकी बहुश्रुत कलात्मकता का भी तनिक परीक्षण करेंगे।


भारतीय और यूरोपीय संस्कृति की विशेषताओं को चिह्नित करते हुए निर्मल वर्मा लिखते हैं---'संस्कृति का यह भारतीय स्वरूप पश्चिम की सांस्कृतिक धारा से नितांत भिन्न है।...अतः यूरोप में वैयक्तिक चेतना और धार्मिक विश्वासों के बीच एक चौड़ी खाई खुलती गई, अपनी चेतना में मनुष्य अकेला और निस्सहाय पड़ता गया; जबकि दूसरी तरफ धर्म जीवन-धारा से कटकर केवल चर्च की एकाधिकार "सम्पत्ति" बनकर रह गया, जिसके सामने व्यक्ति घुटने टेककर पीड़ा से छुटकारा तो पा सकता था किंतु इस धरती पर सम्पूर्ण जीवन की उपलब्धि नहीं। इसके विपरीत भारतीय चेतना में इस तरह का कोई विभाजन न था, यह तथ्य उल्लेखनीय है; क्योंकि इसी में भारतीय संस्कृति का विशिष्ट पहलू छिपा है। यहाँ किसी भी समय मनुष्य की धार्मिक अंतर्दृष्टि और सांसारिक (सेक्युलर) अनुभवों के बीच विभाजन-रेखा नहीं खींची गई। मनुष्य अपने सांसारिक कार्यकलापों का अर्थ  धार्मिक प्रतीकों द्वारा उद्घाटित करता था, दूसरी ओर उसके धार्मिक अनुष्ठान उसके दैनिक जीवन के आचार-विचार से जुड़े थे।...भारतीय मनीषा का निर्माण व्यक्ति के ऐतिहासिक बोध द्वारा नहीं, मिथकों, प्रतीकों और संस्कारों के संश्लिष्ट प्रवाह में लक्षित होता है, जो इतिहास को नकारता नहीं, केवल उसकी लहरों को अपनी मूलधारा में समाहित कर लेता हैं। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि जिस विशिष्ट अर्थ में हम यूरोपीय संदर्भ के "इतिहास" का उल्लेख करते हैं, जहाँ वह जीवन के विभिन्न मोड़ों को इंगित करता है, उस अर्थ में भारत का कोई इतिहास नहीं है। वाह्य परिवर्तनों के बावजूद भारत की मूल जीवनधारा में कोई बुनियादी अंतर नहीं आया है।…..हमारी चेतना की अँधेरी मिथक-जड़ों ने खुद अक्षुण्ण रहकर इतिहास के पानी को अपने ऊपर से बह जाने दिया और दूसरी तरफ व्यावहारिक स्तर पर हमें बराबर बदलते हुए ऐतिहासिक यथार्थ से समझौता भी करना पड़ा है। दरअसल भारतीय "चरित्र" का निर्माण इन दो पाटों के बीच हुआ है।' ( 'अंतर्यात्रा', भाग एक, सं. नंदकिशोर आचार्य, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 344-5-6)


निर्मल वर्मा के लेखन में कहे हुए से कहीं अधिक महत्त्व अनकहे का है— 'सच पूछें तो मौन के इस अनछुए, अनखोजे संसार के बीच ही एक लेखक, एक कवि, एक कलाकार अपना डेरा, अपना बेसकैंप बनाता है, ताकि एक पर्वतारोही की तरह, वह अपनी रचना में उस समूचे प्रदेश को रूपायित कर सके, जो अब तक अभाषित और अपरिभाषित पड़ा था। मौन को भाषित करने के लिए नहीं, बल्कि भाषित में मौन को उजागर करने के लिए।' (वही, पृ. 474)


इस नज़रिये से अगर देखें तो सबसे पहले जो बात ऊपर दिए अंश से समझ में आती है, वह यह है कि भारतीय राष्ट्र की मूल विशेषता सांस्कृतिक है, उसकी संस्कृति धर्म पर आधारित है तथा धर्म अपने मिथक, प्रतीक, संस्कार, अनुष्ठान और कर्मकांड पर। इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी कह सकते हैं। इस  धर्म का नाम निर्मल वर्मा ने नहीं बताया है, लेकिन पश्चिम की ऐतिहासिक परिवर्तनशीलता के बरक्स इसकी सबसे बड़ी पहचान चेतना के शाश्वत प्रवाह में इसकी निमग्नता है। आधुनिक युग मे आकर भारत की चेतना में इतिहास ने ख़लल डाल दिया और उसकी यह सनातन नींद उचट गई। 19वीं सदी के पुनर्जागरण और बीसवीं सदी में हुए राष्ट्रीय आंदोलन और स्वाधीनता के यत्किंचित अनुभव भी अपने परंपरागत मार्ग के विपरीत ही था किंतु सौभाग्यवश इतिहासवाद का यह जहाज़ 'शताब्दी के ढलते वर्षों' में ख़ुद ही संकटग्रस्त हो गया और हमें अपनी अँधेरी मिथक-जड़ों की ओर लौटने का मौक़ा मिल गया।


ज़ाहिर है, यह चिंतन न केवल चयनधर्मी है, बल्कि पर्याप्त रचनात्मक भी है। इसके मुताबिक़ भारत की परंपरा हमेशा से 'धर्म' के प्रतीकों और बिम्बों से अनुशासित रही है, और अपने मूल रूप में आज भी क़ायम है। इस दृष्टिकोण में न तो भारत की भौगोलिक-सांस्कृतिक विविधता के प्रति कोई सम्मान है, न ही दार्शनिक-धार्मिक बहुलता के लिए कोई जगह। ग़ौरतलब है कि प्राचीन भारत की लोकायत, बौद्ध, जैन, न्याय-वैशेषिक और सांख्य जैसी अधिकांश विचार-परंपराएँ मूलतः पदार्थवादी-निरीश्वरवादी थीं, जिनका सीधा विरोध उन परंपराओं-कर्मकांडों से था जिन्हें निर्मल वर्मा भारतीयता का पर्याय बताते हैं।


दूसरे शब्दों में, भारतीय चिंतन की एक राह बुद्धि, विवेक, तर्क, और औचित्य की ओर जाती थी, तथा दूसरी राह जटिल कर्मकांडों और मूढ़ अंधविश्वासों के प्रचार से जनता की चेतना को कुंद करके कुलीन वर्गों की स्वार्थसिद्धि में सहायक होती थी। दोनों के अलग-अलग सामाजिक आधार रहे हैं और प्राचीन काल से लेकर अब तक उनके बीच भीषण रक्तरंजित संघर्ष छिड़ा हुआ है। जहां तक इतिहास का सवाल है तो उसके विभिन्न चरणों से होकर भारतीय समाज भी गुज़रा है। अगर ऐसा न होता तो एक समय के देवराज इंद्र का यह हश्र न होता कि आज कोई उनका नामलेवा भी नहीं बचा। कोई परम आत्ममुग्ध विचारक ही समस्त ऐतिहासिक साक्ष्यों से आँख मूँदकर ईसापूर्व पहली सहस्राब्दी में आदिम कबीलों से सामंती राज्यों की तरफ हुए संक्रमण को नकार सकता है। बहरहाल, बेहतर होगा कि निर्मल वर्मा जिस बात का ऐसा एकनिष्ठ आग्रह कर रहे हैं उसे कुछ और करीब से देखा जाए ताकि पता चल सके कि वे ठीक-ठीक क्या चाहते हैं।


निर्मल वर्मा अपने लेखों में धर्म को किसी टेक की तरह दुहराते हैं, पर साथ ही उसे भरसक अमूर्त भी बनाए रखना चाहते हैं, ताकि उसको भारतीयता का पर्याय बनाए रख सकें। एक जगह वे कहते हैं---'धार्मिक बोध से---मेरा अभिप्राय किसी एक खास धर्म या संस्थान से नहीं है, बल्कि उस धीमी आवाज से है जिसने पहली बार मनुष्य और सृष्टि के बीच फैले अँधेरे मौन को तोड़ा था।" (वही, पृ. 380-1) जर्मनी के हैडिलबर्ग विश्विद्यालय में 'भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र' शीर्षक आलेख पढ़ते हुए वे बताते हैं, 'पिछले तीन हजार वर्षों में शायद ही कोई ऐसा समय रहा हो जब भारत को "यवनों" और "म्लेच्छों" ने न घेरा हो; पहले यूनानियों और हूणों ने , फिर इस्लाम और उसके ठीक बाद ईसाई मिशनरियों और यूरोपीय विजेताओं ने।' (वही, पृ.385) यहाँ तीन हज़ार वर्षों का कालखंड बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सिर्फ़ 500 वर्ष और पीछे जाने पर आर्यों के भारत आगमन, सिंधु सभ्यता के विनाश, असुरों और दस्युओं द्वारा निर्मित नागर सभ्यता के ध्वंस के लिए 'असुरघ्न' और 'पुरंदर' इंद्र का आह्वान करने वाले ऋग्वेद के 'आध्यात्मिक' श्लोकों की याद आ जाने की संभावना थी। 'धार्मिक बोध' से आच्छादित इस  माहौल में यह कहना तो हिमाक़त ही होगी कि किसी देश में रहने के लिए उसकी नागरिकता और राशनकार्ड लेने की अनिवार्यता उसी आधुनिक युग की देन हैं, जिसके निर्मल वर्मा इतने विरोधी हैं। पुराने ज़माने में इंसानी काफ़िले नदियों के किनारे अच्छी जगह देखकर अपनी बस्तियाँ बसा लेते थे। वही उनका देस होता था, और बाक़ी परदेस। आज जिसे हम भारतभूमि कहते हैं, वह अपनी प्रकृति के कारण हमेशा से घना बसेरा रही है, और भारतीयता का विचार अगर सार्थक है तो इसी वजह से, इसके बावजूद नहीं।


ऊपर दिए उद्धरण के तुरंत बाद निर्मल वर्मा लिखते हैं---'भारतीय संस्कृति का अद्वितीय लक्षण यह नहीं है कि कैसे वह शताब्दियों से होने वाली निरन्तर और हिंस्र विदेशी घुसपैठों में जीवित रही आई, बल्कि यह है कि वह उनकी प्रभुसत्ता के बावजूद किस तरह अपने को अक्षत रख सकी। यहाँ तक कि सिकंदर की प्रसिद्ध जीवन-गाथा जो एशिया के तमाम भागों में प्रसिद्ध हुई, हिन्दू भारत द्वारा पूरी तरह उपेक्षित रही।' इसके बाद वे यूनानी, चीनी, और मुसलमान यात्रियों का हवाला देते हैं जिनसे हमें भारतीयों के बारे में पता चलता है, लेकिन भारतीय इन आगंतुकों के बारे में क्या सोचते थे इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता। यहाँ तक आते-आते लेखक भारतीयों को हिन्दू के पर्याय के रूप में चिह्नित कर लेता है, और दोनों शब्द एक-दूसरे के विकल्प के रूप में आने लगते हैं। इस पद्धति पर अगर ग़ौर करें तो पाएंगे कि भारतीयों की 'अद्वितीयता' 'दूसरे धर्मों और संस्कृतियों के प्रति चुप्पी और उदासीनता' है, जिसके चलते वे 'उनकी प्रभुसत्ता के बावजूद अपने को अक्षत रख सके'। स्पष्ट है कि इस 'अद्वितीयता' के लिए दूसरों का सन्दर्भ अनिवार्य है, लेकिन भूलभुलैया से आती-सी लगती  आवाज में लेखक उसी पृष्ठ पर घोषणा करता है---' "अन्य" संस्कृतियों के प्रति उनकी उदासीनता का एक अधिक गंभीर कारण भी था; वह यह कि उनके लिए अपनी अस्मिता को परिभाषित करने का सन्दर्भ कभी "अन्य" रहा ही नहीं जैसा वह यूरोपियों के लिए था।'


बहरहाल, इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है, क्योंकि दोमुंहापन भी उस परंपरा की एक अद्वितीय विशेषता रही है, जिसे निर्मल वर्मा भारतीयता के नाम पर स्वीकार्य बनाना चाहते हैं। यह परंपरा हिन्दू धर्म की नहीं है जिसे यह नाम बहुत बाद में समस्त ग़ैरमुस्लिम (यानी अन्य ही के संदर्भ में) भारतीय धर्मों के लिए दिया गया था। यह परंपरा उस वर्णाश्रमवाद की है, जो 'हिंदुत्व' की खाल ओढ़कर समूची भारतीय परंपरा पर अपना दावा जताने निकला है। भारत से ज्ञान, विवेक, तर्क, और मनुष्यता का समूल उच्छेद करने का अपना पुराना सपना पूरा करने यह फिर आया है। भारत ही की तरह पश्चिम की भी सभी मानववादी परंपराएँ इसके निशाने पर रही हैं और हर तरह की मनुष्य-विरोधी शक्तियाँ इस पर आँख मूँदकर भरोसा करती आई हैं।


रिनेसाँयुगीन मानववाद के बारे में निर्मल वर्मा के विचार उल्लेखनीय हैं---'किसी हिन्दू की अस्मिता यूरोपीय के बरक्स आत्म की स्वायत्त सत्ता में नहीं बल्कि विश्वासों, अनुष्ठानों और जातिगत दायित्वों की उस वृहत्तर बनावट में वास करती थी जिससे उसके धर्म का गठन होता था।… उन्होंने मनुष्य की उस आदर्श छवि को ( यहाँ "को" की जगह "का" होना चाहिए, "को" अंग्रेज़ी वाक्यरचना के प्रभाव में आया है---लेखक) आयात करने से इन्कार कर दिया जो पश्चिम के मानवतावादी आदर्शों के साँचे में तैयार की गई थी, जहाँ मनुष्य ही विकास का अंतिम चरण है और इसलिए वही सारी चीजों को परखने का आधार है। यह उसी विश्वास की तार्किक परिणति है जिसमें पृथ्वी को ब्रह्मांड के केंद्र में रखा जाता था।' (वही, पृ. 396) 


रिनेसाँ (या पुनर्जागरण) युग ने मनुष्य को अपने चिंतन के केंद्र में रखा इसलिए उसे लेखक का कोपभाजन बनना पड़ा। इसका आरंभ पृथ्वी केन्द्रिकता के बीच हुआ था लेकिन इसकी 'तार्किक परिणति' तो इस रूढ़ि के ख़िलाफ़ जीवन-मरण के संघर्ष में हुई। क्या निर्मल वर्मा ब्रूनो, कापरनिकस और गैलीलियो के प्रयासों को रिनेसाँ से अलग या उसके विरुद्ध साबित करना चाहते हैं। ऐसे कुतर्कों को महज़ लापरवाह वक्तव्य मानकर छोड़ देना भूल होगी। कोई भी देख सकता है कि इसके पीछे सामाजिक विषमता का पक्षधर एक निहायत पिछड़ा हुआ दिमाग़ है, जो मनुष्य-मात्र को महत्व देने के कारण रिनेसाँ को उस ईसाइयत में गर्क कर देना चाहता है जिसके अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए वह विकसित हुआ था। इशारों इशारों में ऐसा विषवमन निर्मल वर्मा के चिंतन की सहज विशेषता है। यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण पर्याप्त होगा। हिंदू धर्म के बारे में बताने के लिए हमेशा की तरह एक बार फिर ईसाई धर्म का संदर्भ लेते हुए कहते हैं— 'वहाँ मनुष्य का जीवन सेक्युलर और धार्मिक खंडों में विभाजित नहीं है, जो सप्ताह में रविवार की सुबह कुछ घंटों के लिए समन्वित है और बाकी दिनों में एक-दूसरे को छूता भी नहीं।।' (वही, पृष्ठ 38)


बहरहाल, मानववाद पर हमले की अगली खेप में उनके चिंतन का सारतत्व छिपा हुआ है---'अगर एक बार हम मनुष्य को पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणियों से उच्चतर मान लेते हैं तब हमें तार्किक रूप से किसी एक तरह के मनुष्य को शेष मानवजाति से उच्चतर मानने से और फिर यूरोपीय सभ्यता के ढाँचे में यूरोपीय मनुष्य की किसी एक छवि या विचारधारा को, फ़ासिज़्म या साम्यवाद को अन्य विचारधाराओं से उच्चतर मानने से कोई नहीं रोक सकेगा।' (वही, पृ. 396) 


देखा आपने, निर्मल भी तर्क दे सकते हैं। इस वक्तव्य में वर्णाश्रमवादी विचारधारा के चरित्र के अनुरूप ही बाक़ायदा धमकी दी गई है, अगर मानववाद को नहीं छोड़ा गया तो फ़ासीवाद का परचम उठा लेना पड़ेगा। कहने को साम्यवाद का भी नाम ले लिया है, लेकिन वह तो मानववाद पर ही आधारित है, इसलिए उसको 'उच्चतर' मानने का प्रश्न कम से कम निर्मल वर्मा के लिए नहीं उठ सकता।


अब ज़रा सिक्के के दूसरे पहलू पर ग़ौर करें। मनुष्य को भी दूसरे जीव-जंतुओं की श्रेणी में रख देने पर मानव समाज में भी जंगल का कानून अथवा 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के नियम के लागू होने से इन्कार करना संभव नहीं होगा। जार्ज ऑरवेल की एक यादगार अभिव्यक्ति का असर लेते हुए कहा जा सकता है कि जहाँ मनुष्य और पशु एक नज़र से देखे जाएंगे, वहाँ कोई पशु तो मनुष्य नहीं बन सकेगा, अनेक मनुष्य ज़रूर पशु की हालत में पहुँ कच जाएंगे। इसे ही सामाजिक डार्विनवाद कहते हैं, जो हर फ़ासीवाद समर्थक चिंतन का अनिवार्य घटक होता है। निर्मल वर्मा की मूल चेतना वर्णाश्रमवादी है, भारतीय फ़ासीवाद जिससे नाभिनालबद्ध है। अपनी तथाकथित भारतीयता को यथासंभव रहस्यमय और आदर्शीकृत रूप देने के बावजूद यह सत्य उनके अपने वक्तव्यों से ही उजागर हो जाता है। विश्वासों, अनुष्ठानों, और जातिगत दायित्वों में इसके धार्मिक गठन का प्रसंग हम देख चुके हैं। अब ज़रा वर्णव्यवस्था को इसमें मिलने वाली केंद्रीय हैसियत पर ग़ौर करें---'हिंदुओं के लिए जब तक "अन्य" किसी तरह अपने या अपने आंतरिक तंत्र में समाविष्ट न हो, वह एक ऐसा संबोधी हो ही नहीं सकता, जिससे अर्थपूर्ण संवाद किया जा सके। अगर अस्पृश्यता की समस्या हिन्दू समाज में विवादास्पद हो सकी तो इसका कारण यह है कि शूद्र वर्ण-व्यवस्था में समाविष्ट हैं लेकिन वे तब भी समाज की परिधि पर बने रहे। वे म्लेच्छों की तरह पराए तो नहीं, लेकिन वे पूरी तरह भीतर के भी नहीं थे।' (वही, पृ. 387)


सवाल यह है कि 'शूद्र' 'म्लेच्छों' की तरह नहीं तो क्या अनार्यों की तरह 'पराए' थे। जाति, वर्ण, और नस्ल के गंदे घोल से बनी यह तस्वीर आख़िर किस भारत की है।  शूद्र अपने होते तो यही तो होता कि अस्पृश्यता निर्विवाद रहती। इसी विवाद का निर्मल वर्मा को दुख है। दलितों के प्रतिरोध को पचाने में उन्हें कामयाबी नहीं मिली। हालांकि, जहाँ कामयाबी मिल गई वहाँ उनकी ख़ुशी भी छिपाए नहीं छिपती, जैसे कि बौद्ध धर्म के मामले में---'वे पराये होते हुए भी अपने थे और अन्ततः वे बिल्कुल अपने हो गए, औए बौद्ध धर्म भारत मे लुप्त नहीं, लीन हो गया। दूसरी ओर इस्लाम और ईसाई धर्म अपने असंदिग्ध पराएपन के कारण आज तक संस्थाबद्ध रूप में भारत में अस्तित्वमान हैं।' (वही)


निर्मल वर्मा को बताना चाहिए कि उनके भारत का असली बाशिंदा कौन है। सच तो यह है कि उनकी बाजी हमारे समाज मे पाए जाने वाले भाँति-भाँति के अंधविश्वासों, रूढ़ियों और कुरुचिपूर्ण रिवाजों पर लगी हुई है। इनका आदर्शीकरण करके, इन्हें जनसमुदाय की चेतना को कुंद करने वाले औजार में बदलते हुए भारतीयता का उनका विचार देश में फ़ासीवादियों के एजेंडे पर ही आधारित है।


जिन मुद्दों पर हमारा लिबरल तबक़ा निर्मल वर्मा पर फ़िदा होता है, उनकी 'आध्यात्मिकता' उनमें से एक है। इलाहाबाद में 1976 में लगे कुंभ पर अपने बहुचर्चित संस्मरण 'सुलगती टहनी' में निर्मल वर्मा ने अपने 'आध्यात्मिक' विचारों को व्यावहारिक धरातल पर प्रस्तुत किया है। विशुद्ध चिंतन के स्तर पर जो विचार कुछ गरिमामय होने का भ्रम पैदा करते थे, व्यवहार के तल पर उतरते ही वे अचानक हास्यास्पद और बचकाने लगने लगते हैं। कुंभ में आए साधुओं को नशे में ब्रह्मानंद की खोज करते देखकर उनकी प्रतिक्रिया कुछ यूँ होती है--- 'चरस और गांजे की तीखी गंध साँप की तरह डोलती है--- उठती है--- फुत्कारती हुई मेरी देह को भेद जाती है, बैठो, इन्हीं के साथ बैठ जाओ। भूल जाओ, तुम मनुष्य हो, दिल्ली से आए हो, कहानियाँ गढ़ते हो, यूरोप घूमे हो--- बैठ जाओ, इस धुएँ में देह और आत्मा अलग-अलग नहीं हैं--- दोनों के बीच कोई परदा नहीं, कोई दीवार नहीं--- एक-दूसरे की प्रतिच्छाया हैं।'


गाँजे और चरस के सहारे आध्यात्मिक साधना में रत रहने वाले इन परजीवियों को तनिक भी नज़दीक से जानने वाला व्यक्ति इनके कुंठित, आपराधिक और विमानवीकृत जीवन से भली-भाँति वाक़िफ़ होगा। संगठित रूप में वे पतन के उस रसातल तक पहुँच चुके हैं जहाँ से अब कभी वापस नहीं आ सकते। उनका नैतिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान असम्भव है। इसका पता उनकी जीवन-शैली, उनके सरोकारों तथा उनके बीच छिड़ने वाले आपसी विवादों के स्तर से लगाया जा सकता है। हाँ, समाज में बर्बरता का नंगा नाच करने की ताक़त अभी उनमें बाक़ी है। लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों में यक़ीन करने वाले प्रत्येक भारतीय को अभी उनके उन्मादी आंदोलनों का सामना करना है। इसीलिए विचार के क्षेत्र में उनका आदर्शीकरण करके उन्हें शह देने चाली प्रवृत्तियों को जवाब देने में कोई कोताही करना हमारे लिए अक्षम्य है।


बहरहाल, इन विचारशून्य बाबाओं के बीच कुंभ में घूमते हुए निर्मल वर्मा को अनेक अटपटे अनुभव होते हैं लेकिन वे उनसे प्रभावित होने का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं। घूमते-घूमते वे एक पड़ाव के अंदर गुरुजी के निजी तम्बू तक पहुँच जाते हैं। ये गुरुजी हाल ही में चले सत्ता संघर्ष के परिणामस्वरूप, सम्भवतः, समझौते के उम्मीदवार के बतौर इस पद तक पहुंचे हैं। उनका विरोधी चेला उन्हें 'मिट्टी का माधो' बताता है जो 'एक चोट में ढेर हो जाएगा', और बदले में समर्थक चेला ललकारता है; 'हमारे महाराज ऊपर से भोले दीखते हैं—भीतर से बम के गोले हैं। सारी माया देखे हैं— कोई हाथ तो लगाए भला।' अचानक गुरुजी की नजर लेखक पर पड़ती है और स्वभावतः किसी आगंतुक के सामने इस चर्चा से बचने के लिए वे उन्हें लेकर बाहर चले आते हैं। निर्मल वर्मा को उनके दर्शन से अत्यधिक शांति मिलती है— 'एक ऐसा सकून जो शायद केवल उन लोगों को मिल पाता है, जिनके माँ-बाप पहले गुजर चुके हों।' अंततः बूढ़े गुरुजी उन्हें ताल्सताय जैसे दिखने लगते हैं, जैसा कि सागर तट पर उन्हें गोर्की ने देखा था। संवाद कुल इतना है कि एक अजनबी के सामने अपनी पोल खुलने के डर से अचकचाए गुरुजी दो बार पूछते हैं, 'कभी मुझे पहले देखा है', और एक बार पूछते हैं?, 'कहाँ से आ रहे हो?' और अंत में शिविर से बाहर जाने के रास्ते के बाबत पूछते हैं, 'अकेले चले जाओगे या तुम्हारे साथ आऊँ।' इन्हीं निरर्थक संवादों और बाबाओं की वेशभूषा से निर्मल वर्मा अभिभूत हो जाते हैं।


यही उनकी पद्धति है, ऐसे प्रसंगों की उनके लेखन में भरमार है। एक और देख लें, जिससे वे सर्वाधिक प्रभावित हुए थे। मेले में एक छप्पर तले उन्हें चिलम खींचता एक युवा साधु मिलता है जो 'बिलकुल रामकृष्ण परमहंस की तरह' दिखता है। वह उन्हें बुलाता है और पास आने पर 'दुतकारता' है, 'जूते उतारकर आओ'। चिलम से मुँह हटाकर अगली बात वह कहता है, 'तुम्हें कुछ लेकर आना चाहिए था।' निर्मल वर्मा कुछ नहीं समझ पाते तो वह सामने जल रही आग में से कुरेद कर एक अधजली लम्बी सूखी डंडी बाहर निकालता है और कहता है, 'तुम्हें इस लकड़ी को अपने कंधे पर रखकर चलना चाहिए।' उसकी चिलम और उसके सवाल उसकी पोल खोलने के लिए काफ़ी है। एक अपटूडेट आदमी को अपनी डॉट खाकर नंगे पाँव आते देख वह मन ही मन मुसकराया होगा, क्योंकि इसकी उसे आदत पड़ चुकी होगी। कुछ लाने वाली बात पर अगर वे अधिक कुछ नहीं, एक पुड़िया गाँजा निकाल कर अर्पित कर देते तो 'सुलगती टहनी' की नौबत ही न आती। हो सकता है कि एक नया और अनाड़ी चेला पाकर वह जाड़े की रात में उससे अपने अलाव के लिए कुछ लकड़ी ही मँगाना चाहता हो, इसलिए उसने अधजली लकड़ी की बात की हो। पर यह सुनते ही निर्मल वर्मा वहाँ से भाग खड़े होते हैं। इस प्रकरण का वे जो मतलब निकालते हैं वह उनकी मनोदशा की मिसाल है---


'मैं चला आया। पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। मैं कतरा गया था। ऐन मौके पर किसी विराट चमत्कार से वंचित रह गया था। बहुत देर तक राख और लपटों के बीच उनका स्वर मेरे कानों में गूंजता रहा, जैसे वह बार-बार मुझसे कह रहे हों, लो यह लकड़ी, पेड़ की एक शाख, जिसे सलीब बनाकर जीसस अपने कंधे पर ढोते हुए गोलगोथा के टीले पर चढ़े थे। यह वही टहनी है...जिस पर कृष्ण बैठे थे, पैर तीर बिंधे हुए, लहूलुहान, क्षत-विक्षत, हवा में झूलती अनेक शाखाओं के बीच समूची गीता का मर्म खून के कतरों में बूँद-बूँद टपक रहा था...'


हो भी क्यूँ न! एक विवेकानंद अपने रामकृष्ण से, एक गोर्की अपने ताल्सताय से बिछड़ जो गया था।


सच तो यह है कि निर्मल वर्मा की बाजी हमारी जनता में पाए जाने वाले भाँति-भाँति के अंधविश्वासों, रूढ़ियों, कर्मकाण्डों और भाग्यवादी विश्वासों पर लगी हुई है। इनका आदर्शीकरण करके, इन्हें उनकी चेतना को कुन्द करने वाले कारगर औजार में बदलते हुए वे इस देश में अंग्रेज़ों के ही एजेंडे को पूरा कर रहे हैं। जिन संकीर्ण वर्णाश्रमवादी विश्वासों की वकालत वे इतने विश्वास के साथ भारतीयता के रूप में करते हैं उसकी भी यह भारतव्यापी, एकीकृत और वर्चस्वशाली हैसियत अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित भारत के वैचारिक 'स्टोरियोटाइप' की देन है जो ब्रिटिश नौकरशाही के माध्यम से फलीभूत हुई थी। उपनिवेशवादियों की मानस-संतान यह वर्णाश्रमवाद इसीलिए अपने मूल संस्करण के मुकाबले अधिक जड़ और हिंस्र तथा कम परिष्कृत है। पिछले दो सौ बरसों में इसने एक भी ऐसा दिमाग़ नहीं पैदा किया जिसने भारतीय सभ्यता के किसी भी क्षेत्र में कुछ जोड़ा हो। रहा सवाल वर्तमान का तो इसके एक प्रतिनिधि निर्मल वर्मा का पिलपिला चिंतन हमारे सामने है, जिसका आलम यह है कि जहाँ हाथ रख दीजिए वहीं काई की तरह फटता चला जाता है।


निर्मल वर्मा को प्रायः स्मृति का कहानीकार माना गया है। अगर इसका अर्थ उनकी बहुत-सी कहानियों का "अतीत काल" (पास्ट टेंस) में होना है तो यह बात कही जा सकती है, अन्यथा नहीं। दरअसल, उनकी कहानियां स्मृति का भ्रम खड़ा करती हैं। स्मृति के नहीं वह स्मृति के मिथकीकरण के रचनाकार हैं। स्मृति में एक विशेष प्रकार की निरंतरता होती है, एक क्रमिक प्रवाह, परस्पर कार्य-कारण संबंध से जुड़ा हुआ। वह चयनपरक  होने के बावजूद तर्कसंगत होती है। मिथक में ये सारी चीज़े सिरे से ही ग़ायब होती हैं। अपने मूल चरित्र में ही यह खंडित, अतर्क्य और रहस्यमय होता है। अतीत के बारे में यह बताता कम, छुपाता ज़्यादा है। हमारी सामूहिक चेतना का नहीं, यह हमारे सामूहिक भ्रमों का प्रतिनिधित्व करता है।


निर्मल वर्मा की रचनाओं के मामले में यह समस्या अधिक गंभीर हो जाती है क्योंकि उनकी रचनाओं में सक्रिय मिथक किसी सहज प्रक्रिया की देन नहीं, उनके कठोर दार्शनिक विश्वासों की परिणतियाँ हैं। मनुष्य को चेतना के स्तर पर प्रकृति के दूसरे उपादानों के समतुल्य मानने और चित्रित करने का आग्रह ही उनके पात्रों को इतना निष्क्रिय और उबाऊ बना देता है। वे हाड़-माँस के इंसान नहीं लेखक के अमूर्त विचारों के पुतले बनकर रह जाते हैं।


इन पात्रों की विशेषता यह है कि अपने निहायत संकीर्ण और ओछे दुखों को चुभलाते हुए ये रटे हुए संवादों की तरह बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। इसीलिए न तो इन के अंदर कोई आवेग पैदा होता है जो इन्हें कर्मण्यता की तरफ ले जा सके, न इनके पाठकों के मन में इनकी दशा के प्रति कोई वेदना या विक्षोभ जन्म लेता है। इन पात्रों का दुख किसी परिपक्व पाठक के मन में हास्य, खीज, क्रोध, दया इत्यादि तो पैदा कर सकता है, लेकिन सहानुभूति नहीं। इसकी मुख्य वजह यह है कि इनकी पीड़ा का वास्तविक कारण वे परिस्थितियां नहीं हैं जिनका ये सामना करते हैं बल्कि इनकी दुर्बलता है, और यह दुर्बलता भी इनकी अपनी न होकर इनके स्रष्टा के वैचारिक हठ का नतीजा है।


मिसाल के तौर पर "परिंदे" की लतिका की समस्या यह है कि अपने पूर्व प्रेमी की मृत्यु के बाद उसे लगता है कि अब "वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है।" इस प्रेत-छाया से वह मुक्ति चाहती है इसीलिए ह्यूबर्ट के प्रस्ताव से इनकार नहीं कर पाती, लेकिन मुक्ति की तरफ़ कोई क़दम बढ़ाना उसे गवारा नहीं है। वह मानवीय भावनाओं की गहराई से अछूती है। वह तैरना तो चाहती है, भींगना नहीं चाहती। पहला प्रेम भी बहुत कुछ प्लैटोनिक था। वह प्रेमी से जो कहना चाहती थी "कहती नहीं" सिर्फ़ सोचती भर थी। "सोचा था कभी कहूँगी, वह 'कभी' कभी नहीं आया। इसी वजह से कथाकार की स्थिति भी विडंबनात्मक हो जाती है। लतिका की रचना उसने इंद्रिय संवेदनों के धरातल पर नहीं, वैचारिक तराजू पर तोल कर की है। लेकिन इस चरित्र के प्रति उसे सारी दुनिया की संवेदना चाहिए। वह आसान रास्ता अपनाता है, एक प्रेमी को मारने के बाद दूसरे संभावित प्रेमी के सिर पर नंगी तलवार लटका देता है। लतिका इसे नियति का संकेत मानकर डर जाती है। लेकिन इसका मानवीय नियति से कोई लेना-देना नहीं है, बशर्ते मृत्यु को ही मानवीय नियति का पर्याय न मान लिया जाए। संवेदना जगाने और त्रासदी दिखाने के लिए मृत्यु पर ऐसी निर्भरता कथाकार की रचनात्मक कमजोरी का सुनिश्चित साक्ष्य है। निर्मल वर्मा की वैचारिक दृढ़ता का एक प्रमाण यह भी है कि मानवीय नियति का संकेत  वे परिंदों के माध्यम से करना पसंद करते हैं। आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के झुंड को देखकर  लतिका को याद आता है, "हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले  ये परिंदे मैदानों की ओर उड़ते हैं,  कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ के दिनों की,  जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएंगे.....क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुखर्जी,मिस्टर ह्यूबर्ट-----लेकिन कहां के लिए, हम कहां जाएंगे?"


नामवर सिंह ने  इस प्रश्न को 19वीं सदी के रूसी लेखक चेरनिशेव्स्की के महान उपन्यास  "क्या करें" जैसी कृति में व्याप्त युगीन प्रश्न के समतुल्य माना था। जैसे रूसी समाज 19वी शताब्दी में यह पूछ रहा था कि हम क्या करें उसी तरह आज़ादी के बाद भारतीय समाज में यह सवाल उठ रहा था कि हम कहां जाएंगे, किस दिशा में जाएंगे। ऐसे ही लालबुझक्कड़ी विश्लेषणों के बल पर नामवर सिंह रचना के बड़े पारखी मान लिए गए हैं। आइए देखें कि लतिका के इस सवाल का वास्तविक आशय क्या है।


दिलचस्प है कि "परिंदे" कहानी के इस सवाल का जवाब एक दूसरी कहानी के परिंदे ही देते हैं, "कव्वे और काला पानी" के पहाड़ी क़स्बे में रहने वाले असंख्य कव्वे। इस क़स्बे के बारे में मान्यता है  कि यहां के सभी निवासी मरने के बाद कव्वे बनते हैं, और इसके बाद मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार भवाली से आने वाले बादल भी यहीं बरस जाते हैं, आगे नहीं जाते। उनके लिए यह क़स्बा काले पानी की तरह है। काला पानी, यानी मुक्ति से पहले का अनिवार्य बसेरा। कव्वेऔर बादलों के लिए, ज़ाहिर है मनुष्यों के लिए भी।


निर्मल वर्मा की तमाम कहानियों का घटनास्थल यही कालापानी  है। असंख्य योनियों में पृथ्वी पर भटकता मनुष्य  कर्मफलों का हिसाब-किताब करता  अंततः मुक्त होता है।  वह कहीं और से आया है, कुछ समय के लिए यहां रुका है,फिर कहीं और उड़ जाएगा। यह पृथ्वी उसका ट्रांजिट स्टेशन है, वैसे ही  जैसे कव्वों के लिए वह क़स्बा। इसलिए "कव्वे और काला पानी" के कथानायक बाबू का भाई वहां बाबा बना बैठा है। जब कथानायक वहां "पहली बार" आने की बात कहता है  तब "केसर-सी लाल और मस्ती में धुत्त आंखों वाला" एक दूसरा बाबा उसकी इस बात पर संदेह करता है। किसी को क्या पता कि वह वहां "कितनी बार" आ चुका है। कहानी में इस बात को लेकर बड़ा रहस्य बुना गया है कि क्यों कथानायक इतने दिनों बाद मिलने के बावजूद अपने भाई के पास दो-चार दिन भी रुकने को तैयार नहीं है। हालांकि इसकी वजह  का संकेत देते हुए वह कहता है  कि घर में एक ही सन्यासी काफी है। स्पष्ट है कि वह कव्वा बनने से डरता है। तब उसका भाई उसे उलाहना देता है, "तुम लिखते हो, लेकिन जब कोई अभूतपूर्व सच्चाई रास्ते में मिल जाती है तो तुम किनारा करके भाग निकलते हो, जैसे जीने का सच्चाई से और सच्चाई का लिखने से कोई नाता नहीं है"।


यह है जीवन और सचाई का असली रिश्ता। ज़ाहिर है कि यह उस प्रश्न का जवाब भी है जो उस दिन लतिका के मन में उठा था, हम कहां जाएंगे। चौरासी लाख योनियों के विराट संजाल से गुज़रने की संभावना होने पर अपने गंतव्य को लेकर जिज्ञासा स्वाभाविक है। निर्मल वर्मा के प्रसंग में कहानी के अंत से कहानी का संदेश न मिलने की शिकायत करने वालों को उनके अन्यतम प्रशंसक नामवर सिंह ने जीवन का सत्य पाने के लिए जीवन का अंत कर डालने की सलाह दी थी। कैसा सुखद संयोग है कि स्वयं निर्मल वर्मा पहले से ही इस पर अमल किये हुए थे।


मुक्ति और मोक्ष की बात को जाने भी दें तो मानवीय भावनाओं और रिश्तों का सवाल साहित्य का केंद्रीय मुद्दा है। निर्मल वर्मा भी अपनी कहानियों को इन्हीं के इर्द-गिर्द बुनते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कहानी "अंधेरे में" का नैरेटर एक बच्चा है जिसकी माँ उसके पिता के मित्र वीरेंद्र चाचा से, संभवतः अपने विवाह के पहले से, प्रेम करती थी। शिमला प्रवास के दौरान वह कुछ समय के लिए घर छोड़कर चली जाती है, फिर जैसे गई थी वैसे ही लौट आती है। कहानी बच्चे की नज़र से घटनाओं का बयान करती है। इस कहानी के पात्रों को भी लेखक ने अपनी निरंकुश सत्ता का शिकार बना डाला है। सबसे पहले उसने बच्चे को अतिरिक्त हमदर्दी दिलाने के लिए बीमार कर दिया है। माँ अपने ही राग-रंग में खोई हुई है। पिता हाईप्रोफ़ाइल है जिससे बच्चे की मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती है। यानी बच्चा भरपूर बेचारा है। अब बच्चे की मासूमियत और कथाकार की प्रौढ़ता के बीच संघर्ष होता है। इसका नतीजा यह निकलता है कि यह बच्चा एक तरफ़ तो अपनी स्वाभाविक नादानी और भोलेपन का परिचय देता है, वहीं कभी-कभी ऐसे सूत्र बोलता है मानो वह कथाकार का माउथपीस हो। समय-समय पर संयोग भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। संयोग से ही उसके हाथ वीरेंद्र चाचा की लाइब्रेरी में वह एल्बम आ जाता है जिसमें उसकी माँ का, विवाह से पहले का फोटो लगा है। फोटो देखकर उसे लगता है इस चेहरे में कुछ ऐसा है जिसका मुझसे कोई संबंध नहीं, बाबू से कोई संबंध नहीं। फोटो माँ का था लेकिन उसमें माँ कहाँ थी?" माँ के चले जाने के बाद वह सोचता है, "पहले मैं हर चीज़ को दूसरे की आंखों से देखता था----और निश्चिंतता थी। अब उनके पीछे एक रहस्य है, डर है जो मेरा अपना है, और जिसे कोई नहीं जानता।" यानी, किसी परपुरुष से सम्बंध रखने से पिता का पितृत्व नहीं माँ का मातृत्व संदिग्ध होता है, बच्चे की नज़र में।


ये और ऐसे ही दूसरे "सत्य" कहानी से प्रकट न होकर दार्शनिक उक्तियों के रूप में सामने आते हैं। यहाँ तक कि एक मासूम बच्चे के मुँह से। कहानी में सब कुछ है अकारण होता है। सारे पात्र मनमाने ढंग से स्वतंत्र हैं। वे कभी कुछ करते हैं, कभी कुछ। उनके व्यवहार का सांसारिक स्तर पर कोई आधुनिक या लोकतांत्रिक स्पष्टीकरण नहीं मिलता। दार्शनिक स्तर पर ऐसा लगता है कि कार्यकारण की श्रृंखला को तोड़कर कथाकार ने अपने लिए मुक्ति का रास्ता आसान कर लिया है, लेकिन इससे कहानी की मुश्किल बढ़ गई है। अगर संयोग से वही एल्बम बच्चे के हाथ न आ गया होता या माँ के जाने से पहले की आखिरी रात उसने माँ-पिता की बातचीत न सुनी होती, तो वह सत्य उसकी और पाठक की पहुँच से दूर ही रहता। कहानी में वांछित प्रभाव उत्पन्न करने के लिए मृत्यु के अतिरिक्त संयोग पर निर्भरता निर्मल वर्मा की एक प्रमुख विशेषता है।


कथाकार सिर्फ़ इशारे करता है, कहानी में रिश्तों को बनते-बिगड़ते हुए नहीं दिखाता। ऐसी हालत में इशारे भी ज़रूरत से ज़्यादा करने पड़ते हैं। पशु, पक्षी, प्रकृति और नियति सब पाठक की आँख में उंगली डालकर बताने लगते हैं, लेकिन इन पात्रों के मुँह से दो सीधे सच्चे बोल नहीं निकलते। इस कहानी में भी सब कुछ अनुमान पर निर्भर है। इसीलिए ये सारी बातें बनावटी और निष्प्राण हैं। इनकी भावनाएं थोथी हैं, सुख और दुख का भी बहाना भर है। लेखक के कठोर अनुशासन ने इन्हें इनकी छाया में बदल दिया है। ये कहानियां छाया-नृत्य से अधिक कुछ भी नहीं हैं।


गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज की यही प्रविधि "सूखा" नामक कहानी में भी दिखाई पड़ती है। डॉक्टर देव बहुत साल पहले इस शहर में एक रात रुके थे, रेस्ट हाउस में। तब उनकी मुलाकात शकुन की माँ से हुई थी, इसका कोई उल्लेख कहानी में नहीं है। अब वह दुबारा आए हैं। वे शकुन से उसके घर की अवस्थिति के बारे में पूछते हैं। उधर शकुन की माँ भी अपने तरीक़े से उत्सुक जान पड़ती है। डॉक्टर देव जो बाहर आने-जाने में अत्यंत अन्यमनस्क हैं, उस अपरिचित से शहर में अकेले निकल जाते हैं और शकुन के घर भी हो आते हैं, उसकी माँ से मिलकर। पिता की मृत्यु पहले ही हो चुकी है। यही उचित भी था, वरना भारतीयता दरक सकती थी। मरने से पहले डॉक्टर देव एक बार यहाँ ज़रूर आना चाहते थे, और उनका ख़याल था, यह आख़िरी मौक़ा है। अब भी रस निष्पत्ति नहीं हुई? लीजिए तीन महीने बाद वे चल भी बसे। ज़िंदा रहते तो नौबत डी एन ए टेस्ट तक की आ सकती थी। कहानी पूरी फ़िल्मी है, लेकिन कहा कुछ नहीं गया है, इसलिए हम भी कुछ नहीं कहेंगे।


रिश्ते तभी बनते हैं और भावनाएँ तभी सच्ची और असरदार होती हैं जब वे सांसारिक स्थितियों के बीच अंतःक्रिया के दौरान अस्तित्व में आती हैं, लेकिन निर्मल वर्मा के पात्र तो मानवीय स्थिति के आमंत्रण को कभी स्वीकार ही नहीं करते। आत्मपीड़ा में आनंद ढूंढ़ते हुए वे दार्शनिक चर्चाओं में लगे रहते हैं। कथाकार का उद्देश्य भी यही जान पड़ता है। वह जानता है कि सांसारिक सत्य कुछ भी नहीं है। असली चीज़ है आंतरिक सत्य। इसलिए उसके पात्रों को ग़लत दिशा नहीं पकड़नी चाहिए। सांसारिक समस्याएं तो निमित्त मात्र हैं फिर वह सूखा हो या फ़ासिज़्म। नियति के बंधनों से जकड़े मनुष्य की खोज तो चरम सत्य की है। इन पात्रों को हमेशा यह बात याद दिलाई जाती है। इसलिए छोटे से छोटे संकट के अवसर पर ये भावुक हो जाते हैं, क्योंकि इन्हें बड़ा "संकट" याद आ जाता है। यही बड़प्पन इन्हें निष्क्रिय बनाए रखता है। 


अंतर्जगत और बहिर्जगत का यह घनघोर असंतुलन उस कलागत रचाव और अन्विति को असंभव कर देता है, जिसकी कल्पना उनकी रचनाओं में की गई है। 'सूखा' में तो यह स्थापित ही कर।दिया गया है कि बाहर के सूखे से बड़ा होता है भीतर का सूखा। 'डेढ़ इंच ऊपर' नामक कहानी में जर्मन गेस्टापो (हिटलर के जासूसों का दस्ता) जब नैरेटर की पत्नी को पैम्फलेट और पर्चियां रखने के जुर्म में कभी न लौटने के लिए उठा ले जाते हैं तब नैरेटर की दिलचस्पी का केंद्र यह बात बन जाती है---'उस रात से पहले तक मैं और वह एक ही कमरे में सोते थे, प्रेम करते थे...और इसी कमरे में कुछ ऐसी चीज़ें भी थीं जो उसका रहस्य थीं, जिसमें मेरा कोई साझा नहीं था।' किसी मनुष्य की निजता और।गोपनीयता के प्रति उसके मन में कोई सम्मान नहीं है, क्योंकि स्वयं मनुष्यता ही उसके लिए बाधा बन गई है। फ़ासिस्टों के हाथों लोगों का मरना एक तरह से उनकी मुक्ति ही है---'नहीं जनाब, भयानक चीज मरना नहीं है। लाखों लोग रोज मरते हैं और आप चूं भी नहीं करते। भयानक चीज यह है कि मृत आदमी अपना हमेशा के लिए अपना भेद अपने साथ ले।जाता है और हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। एक तरह से वह हमसे मुक्त हो जाता है।' अंत में उसे इस बात से तसल्ली मिलती है कि सम्भवतः उसके हित की सोचकर उसकी पत्नी ने उसे यह सब नहीं बताया होगा, वरना वह जर्मनों की पूछताछ के सामना न कर पाता। विकल्पहीनता की स्थिति में तो वह उनकी मारपीट झेल गया, लेकिन अगर उसके सामने बता सकने के विकल्प होता तो उसकी यातना बढ़ जाती।


इस प्रसंग का आशय यह है कि अगर उसे कुछ पता होता तो वह यातना की नौबत आने के पहले ही उसे उगल देता। पत्नी यह बात जानती थी। लेकिन नैरेटर इस स्थिति का भी आदर्शीकरण करता है---'चुनने की खुली छूट से बड़ी पीड़ा कोई दूसरी नहीं।' यहाँ अपनी तरफ़ से यह जोड़ना हमें ज़रूरी लगता है कि यह 'पीड़ा' असुरक्षाजन्य है, और नियति के ग़ुलाम इसका स्वाद नहीं जानते।


अपने पात्रों के वाह्य जीवन-प्रसंगों पर किन्हीं 'विश्वासों, मिथकों और मान्यताओं' को थोपने का कथाकार का आग्रह कैसे उन्हें नितांत आत्मकेन्द्रित और संशयग्रस्त चरित्रों में बदल देता है इसके कुछ और नमूने देख लें। 'माया दर्पण' की तरन युवा इंजीनियर के साथ कुछ वक़्त बिताने के बाद सोचती है कि—'ज़िन्दगी में केवल एक बार जीना होता है और उसे उसके अलावा कोई और नहीं जिएगा।... वह अपनी ज़िन्दगी स्वयं जिएगी... उसे यहाँ अब रहने के लिए किसी का मोह पीछे नहीं खींचेगा...।'


बहुत ख़ूब। बेशक उसे ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन तभी वह बूढ़े पिता को अपने अतीत के सुनहरे दिनों की एक तस्वीर में खोया हुआ देखती है। उसे 'क्षण भर के लिए भ्रम होता है, क्या बाबू सचमुच वहाँ हैं, जहाँ खड़े दीखते हैं? क्या इस घड़ी उनके संग कोई नहीं?'


है क्यों नहीं! उनका अतीत है। कोई यूरोपीय थोड़े हैं कि वह व्यतीत हो जाएगा। फिर किसी भारतीय कन्या का वृद्ध पिता की सेवा करने, उसकी शाम की बैठक में हर ऐरे-गैरे को हुक़्क़ा-पानी परोसने के बजाय प्रेमी अथवा पति के बारे में सोचना वैसे भी गुनाह है। सो तरन झट समझ जाती है—'बाबू उसे कभी नहीं छोड़ेंगे और वह भी उनसे कभी अलग नहीं हो सकेगी।' बात अगर इतनी ही होती तो भी ग़नीमत थी। अपने संशयों के अनुकूल जीने का हक़ सबको है। लेकिन वाह्यजीवन के स्तर पर वह जिन चीज़ों से अभिभूत होती है, वे हैं बाबू का भर्राया गला और आँखों में छलछलाई कातरता। यही लिजलिजी भावुकता इन कहानियों की विशेषता है। यह स्वयं कथाकार के छिछले और रोमानी भाव-बोध की देन है। कहानी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मानवीय प्रयासों की मांग करती है। लेकिन वैचारिक और संवेदनात्मक कारणों से उन्हें असम्भव कर दिया जाता है। बदले में, कहानी का ढाँचा दोषपूर्ण हो जाता है। एक पहिए की बैलगाड़ी की तरह वह अपने दायरे में निरर्थक चक्कर काटने को अभिशप्त होती है।


अपने विचारों की तरह निर्मल वर्मा को अपने भाषिक संस्कार के लिए भी अंग्रेज़ों का आभारी होना चाहिए। ऐसा लगता है कि उनके दिमाग में आने वाली विचार-तरंगें पहले अंग्रेज़ी वाक्यों में ढलती हैं, फिर वे उनका उल्था हिंदी में करते हैं। इस प्रक्रिया में हिंदी के स्वभाव से कोई लेना-देना नहीं होता। यही वजह है कि उनके यहाँ हास्यास्पद क़िस्म के वाक्य दिखाई पड़ते हैं---(शब्दों पर ज़ोर हमारा है।)


'जब हम कभी मौत, यातना या दुर्घटना की बात सुनते हैं या सुबह अख़बार में पढ़ते हैं तो हमें यह विचार कभी नहीं आता कि ये चीजें हम पर हो सकती हैं।' ('डेढ़ इंच ऊपर' नामक कहानी से)


'जर्मन अधिकारियों की आंखों में यह सबसे संगीन अपराध था। (वही)


'वे मुझे पीटते थे मुझे इसकी यातना नहीं थी।' (वही)


'मैंने उसे काफी वर्षों बाद पालना शुरू किया था।' (वही)


'उसे डर लगा रहता है कि कहीं आप इस पर बेईमानी न कर बैठें और आप इसलिए सहमे रहते हैं कि कहीं वह आँख बचाकर आप पर न झपट पड़े।' (वही)


यहाँ अंडरलाइन किये हुए शब्दों की जगह सही प्रयोग क्रमशः इस प्रकार होंगे----'हमारे साथ', 'दृष्टि में', पीड़ा', 'बहुत', और 'के प्रति'। 


विस्तारभय से यहाँ सिर्फ़ एक कहानी में अंग्रेज़ी मुहावरे की अनुचित दखलंदाज़ी से बिगड़े हुए कुछ वाक्यों को दिया गया है। ज़ाहिर है निर्मल वर्मा की भाषा का चरित्र हिंदी के स्वभाव के विपरीत है। यही वजह है कि निर्मल वर्मा के पात्र चाय और कॉफी 'पीते' नहीं 'लेते' हैं। 'उड यू लाइक टु' की तर्ज पर बने हिंदी वाक्य भी अपना अर्थ बदल लेते हैं। निर्मल वर्मा के अनेक पात्र इसी तरह वर्तमान और भविष्य को गड्डमड्ड कर देते हैं। मसलन, अगर उन्हें कहना है कि 'मैं चाय पीना चाहता हूँ', तो वे कहेंगे, 'मैं चाय पीना चाहूँगा'। 


ऐसे तो अभी चाय नहीं मिलेगी। जब चाहेंगे तब देखा जाएगा।


निर्मल वर्मा के बिम्बधर्मी शिल्प की कुछ थोड़ी सी रूढ़ियाँ हैं। उनके यहाँ प्रकृति लगभग हर कहीं अपने सहयोगी मानव चरित्रों के अवसाद विषाद का संकेत करने के लिए वीरान, उदास, मटमैली, पीली, मुरझाई सी धूप में धुली, धुंध कोहरे और सीलन से युक्त होती है, जिसके मौन को पतझर में उड़ते पत्तों की खरखराहट और पहाड़ों की सन्नाटे भरी दुपहर की आवाज तोड़ती है। 'तितीरी' या 'ऊनी' धूप का कोई चकत्ता किसी न किसी फांक से होकर कमरे में आकर बैठ जाता है। अगर रात हुई तो कोई और रोशनी मसलन 'पीली चाँदनी' यही काम करती है। हर जलने वाली वस्तु 'धुंधुआती' है और हर आवाज़ करने वाली चीज़ 'रिरियाती' है। चीज़ 'रिरियाती' है। किस्सा कोताह यह कि अगर इन रचनाओं पर सचमुच कोई बहस चल सके तो रहस्य का यह सारा आवरण तार-तार हो सकता है, और सचाई बेनक़ाब हो सकती है। बक़ौल ग़ालिब—


'भरम खुल जाये ज़ालिम तेरी क़ामत की दराज़ी का

अगर  इस  तुर्रा-ए-पुर  पेचोख़म  का  पेचोख़म  निकले'




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