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नये युग में कवि

मंगलेश डबराल के 2013 में आए संग्रह "नये युग में शत्रु" की दूसरी कविता है,'घटती हुई ऑक्सीजन'। इसका अंत इन पंक्तियों के साथ होता है: "जगह-जगह प्राणवायु के मांगने वाले बढ़ रहे हैं उन्हें बेचनेवाले सौदागरों की तादाद बढ़ रही है भाषा मे ऑक्सीजन लगातार घट रही है उखड़ रही है शब्दों की सांस।" कविता में इससे पहले ऑक्सीजन की चौतरफ़ा हो रही कमी का ब्यौरा दिया गया है। जहाँ तक भाषा का सवाल है, उसमें 'प्राणवायु' की कमी के दो ही कारण हो सकते हैं--- उसमें संवेदनात्मक गहराई की कमी या फिर उसमें ज्ञानात्मक व्याप्ति का अभाव। हम जानते हैं कि जब हम अपनी कमज़ोरियों के प्रति सचेत नहीं रहते या विरोधी की शक्ति को नहीं समझ पाते तो रचना में सतही सचाइयों को व्यक्त करने के लिए बाध्य होते हैं। ध्यान रहे कि सच्ची आत्मालोचना की कमी से पैदा हुए अंतराल को आत्मदया अथवा आत्महीनता से भरने की कोशिश भी रचना में किसी विकृति के लिए जगह बनाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। इन अवधारणाओं की रोशनी में हम यहाँ मंगलेश डबराल की कविताओं पर विचार करेंगे। संग्रह की अगली ही कविता है 'नये यु