नये युग में कवि


मंगलेश डबराल के 2013 में आए संग्रह "नये युग में शत्रु" की दूसरी कविता है,'घटती हुई ऑक्सीजन'। इसका अंत इन पंक्तियों के साथ होता है:

"जगह-जगह प्राणवायु के मांगने वाले बढ़ रहे हैं
उन्हें बेचनेवाले सौदागरों की तादाद बढ़ रही है
भाषा मे ऑक्सीजन लगातार घट रही है
उखड़ रही है शब्दों की सांस।"

कविता में इससे पहले ऑक्सीजन की चौतरफ़ा हो रही कमी का ब्यौरा दिया गया है। जहाँ तक भाषा का सवाल है, उसमें 'प्राणवायु' की कमी के दो ही कारण हो सकते हैं--- उसमें संवेदनात्मक गहराई की कमी या फिर उसमें ज्ञानात्मक व्याप्ति का अभाव। हम जानते हैं कि जब हम अपनी कमज़ोरियों के प्रति सचेत नहीं रहते या विरोधी की शक्ति को नहीं समझ पाते तो रचना में सतही सचाइयों को व्यक्त करने के लिए बाध्य होते हैं। ध्यान रहे कि सच्ची आत्मालोचना की कमी से पैदा हुए अंतराल को आत्मदया अथवा आत्महीनता से भरने की कोशिश भी रचना में किसी विकृति के लिए जगह बनाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। इन अवधारणाओं की रोशनी में हम यहाँ मंगलेश डबराल की कविताओं पर विचार करेंगे।

संग्रह की अगली ही कविता है 'नये युग में शत्रु'। इसके शीर्षक को कवि ने पुस्तक के नाम के लिए चुना है, इससे ज़ाहिर होता है कि यह कविता उसके संवेदनात्मक धरातल की पहचान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। कविता के पहले वाक्य से ही यह सूचना मिल जाती है कि "अंततः हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है"। इसके बाद वह हर जगह मौजूद होता है, लेकिन मिलता कहीं नहीं। कविता के बीच में आई ये पंक्तियाँ देखें:

"कभी लगता है वह किसी फैशन परेड में शिरकत कर रहा है
लेकिन वहां सिर्फ़ बनियानों जांघियों और प्रसाधनों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहां से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झांकता हुआ टेलीविज़न देख रहा है
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है"

यहाँ फ़ैशन व्यवसाय में आए दिन आयोजित होने वाले 'इवेंट्स' को 'फैशन परेड' का नाम देकर कवि ने उस प्रक्रिया के अवमूल्यन की मानसिक भूमिका तैयार कर ली है। भाषा के स्तर पर इसमें 'परेड' शब्द, जो अन्यथा सैनिक गतिविधि से जुड़ा गरिमायुक्त शब्द है, का पहले ही अवमूल्यन सुनिश्चित हो गया है। अब प्रश्न यह है कि क्या फ़ैशन उद्योग की प्रक्रियाएँ इसी योग्य नहीं कि उनकी अवमानना की जाए।

इस बिंदु पर थोड़ा ठहरकर सोचने की ज़रूरत है। हमारे समय में इन फ़ैशन इवेंट्स की छाप इतनी गहरी है कि इसने राजनीति, अर्थनीति, धर्म, शिक्षा और स्वास्थ्य यानी सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र को इवेंट मैनेजमेंट का उदाहरण बनाकर छोड़ दिया है। भव्यता और तड़क भड़क से जुड़ी जिस 'शोमैनशिप' को हम पहले मनोरंजन जगत तक सीमित मानते थे, अब उसने अपने इस नए अवतार में देश की समूची जनतांत्रिक प्रक्रिया को एक निर्णायक मोड़ दे दिया है। यहाँ तक कि प्रतिरोध की प्रवृत्तियाँ भी इस परिघटना के गहरे असर में हैं। यह फ़ैशन उद्योग की हमारे समय में स्थापित केंद्रीयता है। इसका अवमूल्यन करने के लिए अगर हम भाषा का सहारा लेते हैं तो यह हमारे मनोलोक का विरेचन करके हमें तात्कालिक राहत भले ही दे दे, वास्तविक शत्रु के सामने हमें भुलावे में डालकर हमें कमजोर ही करेगा। फ़ैशन इवेंट्स की संस्कृति हमारी ज़मीन खिसका चुकी है, लेकिन हम खोदा पहाड़ निकली चुहिया की तर्ज पर उसमें 'बनियानों जांघियों और प्रसाधनों का ढेर' देखकर सन्तुष्ट हो रहे हैं। ज़ाहिर है, इस रवैये के साथ हम 'नये युग' क्या, किसी भी युग के ताक़तवर शत्रु से कोई वास्तविक लड़ाई नहीं लड़ सकते।


जैसा कि कविता के ऊपर दिए अंश से स्पष्ट है, 'नये युग' का शत्रु ग़रीब के घर टेलीविज़न के माध्यम से हमला करता है। ग़रीब परिवार अपनी 'ग़रीबी में से झांकता हुआ' टेलीविज़न आ रहा 'रंगीन कार्यक्रम' देखता है। इस वर्णन में ग़रीब परिवार का टेलीविज़न पर आ रहा रंगीन कार्यक्रम देखना ही मुख्य बात है। आशय यह है कि ग़रीब जिस कार्यक्रम की रंगीनी में खोया हुआ है, उसकी ग़रीबी के लिए वह भी ज़िम्मेदार है। इस कथन में ग़रीब परिवार के प्रति तिरस्कार भी यथोचित मात्रा में मौजूद है, जो 'ग़रीबी में से झांकता हुआ' जैसे वाक्यांश से स्पष्ट होता है। इसका अभिप्राय यह है कि ग़रीब होने के कारण वे उस रंगीन कार्यक्रम को देखने के सहज अधिकारी नहीं हैं, इसलिए खुलकर भरपूर उपस्थिति के साथ उसे नहीं देख सकते, लेकिन अपनी वस्तुस्थिति से पलायन करके वे उसे किसी प्रकार देख पा रहे हैं। वे अपनी ग़रीबी में से जितना झाँक कर देख रहे हैं, उससे कहीं अधिक उनकी ग़रीबी उनके देखने में से झाँक रही है। उनकी ग़रीबी की वजह से कवि को उनके देखने में जिस विडंबना के दर्शन होते हैं, वह वहाँ है ही नहीं। रंगीन कार्यक्रम देखना कोई मध्यवर्ग का विशेषाधिकार नहीं है। हर किसी के जीवन में रंग होते हैं, और जब रंग नहीं होते तो उनकी कमी होती है। ग़रीब को भी अपनी कल्पना में रंग भरने का अधिकार है।

असल में, ग़रीबों से हमदर्दी रखने वाले अधिकांश मध्यवर्गीय लोगों की नज़र में उनकी समस्या का एकमात्र समाधान आर्थिक होता है,यानी उनके काम का समुचित पारिश्रमिक न मिलना और इसके लिए उनका पर्याप्त जागरूक न होना। इसकी अनेक वजहों में एक वजह भी यहाँ दी हुई है, शासकवर्गीय संस्कृति के प्रभाव में होना। ग़रीबों के ये हमदर्द भूल जाते हैं कि काम के घंटों के बाद अवकाश और मनोरंजन की तलब ग़रीबों को भी होती है। टेलीविज़न के रंगीन कार्यक्रम शासकवर्गीय (अप)संस्कृति सही, लेकिन ग़रीबों के देख लेने भर से वो कुछ अधिक ख़राब नहीं हो जाते। यह ग़रीब की असफलता नहीं, शासकवर्ग की बहुत बड़ी सफलता है कि वह ग़रीबों के बहिर्जगत के साथ साथ उनके अंतर्जगत पर भी नियंत्रण कर चुका है। इसे सही नज़रिये से देखना होगा। जब शासकवर्गीय संस्कृति की इस जीत का महत्व हम समझ पाएंगे तो प्रतिरोध की संस्कृति का भी कुछ ख़याल आएगा, हालाँकि इसकी राह अब कठिन हो चुकी है। इसमें पहल करने वाले कवियों, कलाकारों और विचारकों को ईमानदार आत्मालोचना का सामना करना पड़ेगा, जिसके लिए अपना घर फूँकना पड़ सकता है। अभी उसकी तैयारी नहीं दिखती, इसलिए कवियों का काम ग़रीबों से सहानुभूति जताकर ही चल रहा है।

बहरहाल, इस संग्रह की ही एक अन्य कविता देखते हैं जिसका शीर्षक है 'भूमंडलीकरण'। इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

"कोई है जो मेरी तलाशी ले रहा है
मेरे लिखे हुए शब्दों को उलटी तरफ़ से पढ़ रहा है
मेरी भाषा में उगे हुए पेड़ों और पहाड़ों को समतल कर रहा है
उसकी नदियों का पानी सुखा रहा है

इन दिनों लोगों को परवाह नहीं उनके साथ क्या हो रहा है
कोई अन्याय को महसूस नहीं करता
लोग अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं"

कवि की वैचारिकी में नये युग के शत्रु के साथ भूमण्डलीकरण का रिश्ता स्वतःसिद्ध है। ग़ौरतलब है कि इस कविता में हमले का निशाना भूमण्डलीकरण के संचालक और नियामक नहीं, उसके शिकार आम लोग हैं जो अपनी कमजोरियों के चलते उसके वाहक बन गए हैं। यहाँ तक कि वे अपने साथ होने वाले अन्याय और अत्याचार को महसूस नहीं कर पाते। रघुवीर सहाय ने कभी इन्हीं आम लोगों को "मार तमाम लोग", कहकर याद किया था। उनके काव्यजगत में आम लोग अन्याय और अत्याचार के इस क़दर आदी हो जाते हैं कि वैसा न होने पर उन्हें आश्चर्य होता है (सन्दर्भ "रामदास" शीर्षक कविता)। लेकिन मंगलेश डबराल ने इस संवेदना को महज़ अपनाया नहीं है, उसका समयोचित विकास भी किया है। अब ये लोग अन्याय के आदी ही नही हैं, बाक़ायदा उसे करने वालों में शामिल हो चुके हैं। कविता में आगे देखें:

"बहुत सारे कपड़े और जूते पहन लेते हैं बहुत सारा खाना खा लेते हैं
एक महंगा मोबाइल निकालते हैं अपने अश्लील संदेशों के साथ
दंगों में मारे गए लोगों के घरों से उठाकर ले आते हैं
एक टेलीविज़न ताकि जारी रह सके मनोरंजन"

यहाँ फिर टेलीविज़न की भूमिका का 'पर्दाफ़ाश' हुआ है। यह कविता 2008 की है और पिछली   ('नये युग में शत्रु') 2012 की। शायद यह पिछली कविता में आए ग़रीब परिवार के पास रंगीन टेलीविज़न होने का स्पष्टीकरण भी है। कोई ग़लतफ़हमी न हो इसलिए एक बार फिर यह स्पष्ट कर दें कि ये वही लोग हैं जो इन दिनों अपने साथ होने वाले कृत्यों की परवाह नहीं करते। आशय साफ़ है कि पहले जो थोड़ी बहुत परवाह करते थे, उसे छोड़कर अब दंगों और लूटपाट में शामिल हो गए हैं। इस तरह इस कविता में आम लोगों और दंगाइयों के बीच का फ़र्क़ ग़ायब है।

आम लोगों में पाई जानेवाली लोभ-लालच जैसी प्रवृत्तियों की भर्त्सना मुक्तिबोध ने भी की है। इस दृष्टि से 'अँधेरे में' शीर्षक कविता में आये पागल के गीत का यह अंश ख़ासतौर पर उल्लेखनीय है:

"...ओ मेरे।आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि और अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,"

आम लोगों के अपेक्षाकृत बेहतर, आदर्शवादी और सिद्धांतवादी हिस्से को सम्बोधित इस अंश  में कवि उस पर किसी व्यभिचारी का बिस्तर बन जाने, यानी ताक़तवर लोगों के घृणित कारनामों में इस्तेमाल हो जाने का आरोप लगाता है। इसके बाद का कथन महत्वपूर्ण है जिसमें अपने लोगों की इन कमजोरियों की पड़ताल की गई है। 'दुखों के दाग़ों को तमगे-सा पहनना' यानी उनका व्यापार करना, उनके बदले किसी सुविधा, छूट या राहत की उम्मीद में अपने दुखों का दिखावा करना। इसके साथ असंग बुद्धि यानी ख़ास तरह की तटस्थता का स्वाभाविक मेल है, जो हमें न्याय का पक्ष लेने से रोक देती है।

यहाँ एक सवाल यह उठता है कि दुखों का थोड़ा बहुत प्रदर्शन कर लेना तो एक मानवीय दुर्बलता है, मुक्तिबोध ने इसे इतने कठोर पैमाने पर परखना क्यों ज़रूरी समझा। क्या (दुखों का) दिखावा करने के बाद (व्यभिचारी का) बिस्तर बनने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता। इसका जवाब ढूँढ़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि यह अंश 'बिस्तर' बनने वालों को सम्बोधित है, 'दिखावा' करने वालों को नहीं। आशय यह कि सभी 'दिखावा' करने वाले 'बिस्तर' भले न बनें, लेकिन सभी 'बिस्तर' बनने वाले 'दिखावा' ज़रूर करते हैं।

दूसरे शब्दों में, अपने लोगों की आत्यंतिक दुर्बलता और पतन ही कवि का प्रतिपक्ष है और उसकी शक्ति की खोज करते हुए मुक्तिबोध उनमें से जो अपेक्षाकृत उन्नत चेतना के हैं, उनकी संवेदना की छानबीन करते हैं। फिर उनके अंदर कमजोरी और भटकाव के स्रोत की तलाश में एक बड़ी नाज़ुक-सी, अपेक्षाकृत निर्दोष लगती हुई कमी, दुखों का दिखावा करने की प्रवृत्ति तक जाते हैं।  हमारे अंदर भटकाव के अनेक स्रोत हैं, लेकिन उसका जो सबसे अनचीन्हा, अनछुआ और मासूम स्रोत है उसमें वह भटकाव अपने सबसे परिष्कृत और सबसे सक्षम रूप में मौजूद है। अगर इस भटकाव को पहचानना और उससे लड़ना है तो उसके सबसे परिष्कृत उद्गम की पहचान ज़रूरी है। इसी तरह हम अपने अंदर छिपे शत्रु की खोज कर उसे निर्मूल कर सकते हैं। कला और संवेदना के क्षेत्र में शत्रु के सबसे सूक्ष्म और परिष्कृत रूप को निशाना बनाना चाहिए, तभी उसकी जड़ों तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ प्रस्तुत कविता में मंगलेश डबराल आम लोगों के लोभ-लालच की पहचान उनके दंगाई होने में करते हैं। इस तरह वे समस्या पर अपनी पकड़ पूरी तरह खो देते हैं। कविता में आगे देखें:

"बड़ी तेज़ी से दुनिया बनती जा रही है एक बड़ा गांव
लोभ क्रोध ईर्ष्या द्वेष के लिए अब कहीं नहीं जाना पड़ता
हर चीज़ समान रूप से मिलने लगी है हर जगह
मनुष्यों के संबंध बहुत पतले तारों से बांध दिये गये हैं
जो बात-बात में टूट जाते हैं
उन्हें जोड़ने के लिए फिर से जाना होता है बाज़ार"

भूमंडलीकृत विश्व को 'ग्लोबल विलेज' भी कहा गया है। यहीं से दुनिया को 'बड़ा सा गांव' कहने का ख़याल कवि को आया है। लेकिन मौलिक दिखने के लिए वे इस मुहावरे का प्रयोग कुछ इस तरह करते हैं कि दुनिया मे परिवर्तन की जो  दिशा कविता में दिखाई पड़ती है, ऐसा लगता है कि उसका कोई अनिवार्य संबंध गाँव बनते जाने से है। मानो जो बुराइयाँ दुनिया मे बढ़ रही हैं, उन्हीं के कारण उसे गाँव बनता हुआ कहा जा रहा है। इन पंक्तियों में यह कहा गया है कि 'लोभ क्रोध ईर्ष्या द्वेष' जो पहले शायद कहीं-कहीं मिलते थे, अब हर जगह मिलने लगे हैं। एक लोभ, एक क्रोध, एक ईर्ष्या, एक द्वेष मनुष्य के मन में अब भी कैसी उथल-पुथल मचा सकता है, इससे कवि का कुछ लेना-देना नहीं जान पड़ता। वह उनकी बाहरी अभिव्यक्तियों से संतुष्ट है।यह वैसे ही है जैसे यह कहने का फैशन चल जाए कि समाज जंगल बन गया है, और कवि उसे बिना सोचे-समझे दुहराने लगे। समाज का जंगल बन जाना, मनुष्य का पशु जैसा बन जाना, कविता का कितना चुनौतीपूर्ण विषय है, इसकी तरफ़ देखने की न उसकी क्षमता हो, न सरोकार; लेकिन इस बात को अधिक से अधिक आक्रोश और खीज के साथ दुहराना और दुहराते चले जाना उसे ज़रूरी लगता हो। इस बिंदु पर एक ही बात सोचने को रह जाती है कि कवि का यह लचर रवैया दुश्मन की ताक़त को कमतर समझने की वजह से है, या अपनी संवेदना की वजह से ही वह दुश्मन की ताक़त के बारे में ग़फ़लत में रहता है। हमारे ख़याल से पहली बात की संभावना अधिक है, क्योंकि एक बार जब आप अपनी समस्या को पहचानने में चूक करते हैं तो उसका सामना करने की तैयारी असंभव हो जाती है। बहरहाल, कविता में आगे देखें:

"कोई है जो हमारे कपड़ों में छेदों को खोज रहा है
ताकि उनमें अपने हाथ कुहनियां और पैर डाले जा सकें
कोई है जो हमारे भीतर ख़ाली जगह देख रहा है
ताकि वहां ठूसा जा सके बचा-खुचा खाना"


ज़रा याद करने की कोशिश कीजिए कि 'किसी के कपड़ों के छेद में अपने हाथ कुहनियां और पैर डालना' क्या बला है। अगर ये मुहावरा है तो किस भाषा का? याद नहीं आएगा क्योंकि मुहावरा ये है ही नहीं। ये हिंदी के एक मुहावरे 'किसी के फटे में टांग अड़ाना' का बिगड़ा हुआ रूप है। कवि ने नवाचार के प्रदर्शन की कोशिश में इसे विकृत करके निरर्थक बना डाला है। 'हमारे भीतर ख़ाली जगह देखकर उसमे बचाखुचा खाना ठूसना' भी इसी तरह का एक कुरुचिपूर्ण प्रयोग है, जिससे न कोई बिंब बनता है न कोई अर्थ निकलता है। इसी तरह के प्रयोगों से भाषा में ऑक्सीजन का क्षरण होता है, और प्राणवायु ज़हरीली हवा में बदल जाती है।


मंगलेश डबराल के इसी संग्रह के ब्लर्ब में उनके समकालीन कवि असद ज़ैदी का कहना है कि "यह इस समय हिंदी की सर्वाधिक समकालीन और विश्वसनीय कविता है। भारतीय समाज में पिछले दो-ढाई दशक के फ़ासिस्ट उभार, साम्प्रदायिक राजनीति और पूँजी के नृशंस आक्रमण से जर्जर हो चुके लोकतंत्र के अहवाल यहां मौजूद हैं और इसके बरक्स एक सौंदर्य-चेतस कलाकार की उधेड़बुन का पारदर्शी आकलन भी। ये इक्कीसवीं सदी से आँख मिलाती हुई वे कविताएँ हैं जिन्होंने बीसवीं सदी को देखा है।" इस लेख में हम इस दावे को ध्यान में रखते हुए उनकी कविताओं पर बात करेंगे। इस संग्रह में एक कविता है 'नुकीली चीज़ें'। इसकी आरम्भिक पंक्तियाँ हैं:

"तमाम नुकीली चीज़ों को छिपा देना चाहिए
कांटों-कीलों को वहीं दफ़्न कर देना चाहिए जहां वे हैं
जो कुछ चुभता हो या चुभने वाला हो
उसे तत्काल निकाल देना चाहिए
जो चीज़ें अपनी जगहों से बाहर निकली हुई हैं
उन्हें समेटकर अपनी जगह कर देना चाहिए
फूलों को कांटों के बीच नहीं खिलना चाहिए"

इन पंक्तियों को पढ़कर किसी को यह लग सकता है कि ज़रूर यह व्यंग्य में लिखा गया होगा, क्योंकि समाज मे जहाँ इतना अन्याय और अत्याचार है, वहाँ कोई कवि भला नुकीली और चुभने वाली चीज़ों से कैसे बच सकता है। हिंदी कविता के प्रसंग में नुकीली और चुभने वाली चीजों की अर्थवत्ता को समझने के लिए मुक्तिबोध की कविता 'चकमक की चिंगारियाँ' का यह अंश देखने योग्य है:

"अधूरी और सतही ज़िन्दगी के गर्म रास्तों पर,
अचानक सनसनी भौंचक
कि पैरों के तलों को काट खाती कौन-सी यह आग?
जिससे नच रहा-सा हूँ,
खड़ा भी हो नहीं सकता, न चल सकता।
भयानक, हाय, अंधा दौर
ज़िन्दा छातियों पर और चेहरों पर
क़दम रखकर
चले हैं पैर
अनगिन अग्निमय तन-मन व आत्माएँ
व उनकी प्रश्न-मुद्राएँ,
हृदय की द्युति-प्रभाएँ,
जन-समस्याएँ
कुचलता चल निकलता हूँ।
इसी से, पैर-तलुओं में,
नुकीला एक कीला तेज़
गहरा गड़ गया औ' धँस गया इतना
कि ऊपर प्राण-भीतर तक घुसा आया,
लगी है झनझनाती आग,
लाखों बर्र-काँटों ने अचानक काट खाया है।
व्रणाहत पैर को लेकर
भयानक नाचता हूँ, शून्य
मन के टीन छत पर गर्म।
हर पल चीख़ता हूँ, शोर करता हूँ
कि वैसी चीख़ती कविता बनाने में लजाता हूँ।"

हमने देखा था कि स्वयं कवि ने भी 'भूमंडलीकरण' नामक कविता में यह शिकायत की थी कि कोई है जो "मेरी भाषा में उगे हुए पेड़ों पहाड़ों को समतल कर रहा है", लेकिन 'नुकीली चीज़ें' नामक उपर्युक्त कविता के अंत तक आते-आते यह भी घोषित कर देता है कि:

"...पृथ्वी आश्चर्यजनक ढंग से गोल है
और अपने तमाम कांटों को झाड़ चुकी है."

इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कवि के पास एक कार्ययोजना भी है। कविता का यह अंश देखें:

"तलवारों बंदूक़ों और पिस्तौलों पर पाबंदी लगा देना चाहिए
खिलौना निर्माताओं से कह दिया जाना चाहिए
की वे खिलौने को पिस्तौल में न बदलें
प्रतिशोध हिंसा हत्या और ऐसे ही समानार्थी शब्द
शब्दकोशों से हमेशा के लिए बाहर कर दिये जाने चाहिए
       ×          × ×            ×
हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्य का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है"

यहाँ ये समझना ज़रूरी है कि पाबंदी लगाने की यह मांग किससे और किसलिए की जा रही है। ज़ाहिर है, यह मांग सर्वशक्तिमान से तो की नहीं जा रही है। जनता से पाबंदी लगाने की बात कहने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि उसे इसका कोई अनुभव नहीं है। तो बची सत्ता जो अपने हित में जनता पर तमाम पाबन्दियाँ लगाती ही रहती है। इसने भारत में 1878 से ही तलवारों, बंदूक़ों और पिस्तौलों को रखने और उनके इस्तेमाल पर  पाबंदी लगा रखी है। आज़ाद भारत मे भी यह औपनिवेशिक पाबंदी जारी रही कि हथियार सत्ता के फ़ौजफाटे के पास रहेगा, या फिर उसके अनुकूल लोग इसका लाइसेंस पा सकते हैं। इसके बावजूद देश में हर रोज़ 'हिंसा और हत्या' का खूनी खेल खेला जाता है। इससे बचने के लिए कविता में एक ही ठोस सुझाव खिलौना-निर्माताओं के संदर्भ में दिखाई पड़ता है। इससे अधिक मासूम सुझाव मिलना मुश्किल है। दुनिया को हथियारों की होड़ में झोंका जा चुका है। पृथ्वी के किसी न किसी कोने में हर वक़्त झूठे बहानों से निर्दोष नागरिकों का संहार किया जा रहा है। इधर हमारा कवि तोप, मिसाइल और बमवर्षक विमान पर नहीं, खिलौनों में बनाई जा रही पिस्तौलों और बंदूक़ों पर पाबंदी लगाना चाहता है। अपनी सबसे अच्छी परिणति में भी यह उन अराजनीतिक भलेमानसों के तर्क से मिलता -जुलता है जो 'गंदी राजनीति' से बचाने के लिए छात्र-राजनीति पर पाबंदी लगाने की सिफ़ारिश करते हैं। "हिंसा और हथियार" पर पाबंदी लगाने का आग्रह जब सत्ता से किया जाता है तो उसका सिर्फ़ एक मतलब होता है, जनता के ऊपर हिंसा फैलाने का आरोप लगाकर उसको निहत्था करना। समूची बीसवीं सदी का यही संदेश है और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का भी जो इस संग्रह की अधिकांश कविताओं का रचना-काल है। कवि की नैतिक और भावुक मुद्रा उसके निहितार्थों को ढँकती कम और उघाड़ती ज़्यादा है। ताज्जुब है कि अगर यह सबसे विश्वसनीय कविता है, तो अविश्वसनीय कविता कैसी होती है।

इस मसले पर कवि की सदिच्छा कितनी नाकाफी है, और इसीलिए काउंटरप्रोडक्टिव भी, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि हत्यारे से उसकी अपील हत्यारों के विरोध में नहीं उनके समर्थन में चली जाती है। आज सवाल यह नहीं है कि हत्या और हिंसा पर प्रतिबंध नहीं है, मुद्दा यह है कि प्रतिबंध लगाने वाले और उनका पालन कराने की ज़िम्मेदारी सँभालने वाले ही हत्या और हिंसा को प्रश्रय दे रहे हैं। क़ानून भी आत्मरक्षा में हथियार चलाने की इजाज़त देता है। इसका लाभ हमेशा ताक़तवर और आक्रामक शक्तियाँ उठाती हैं। पूरी दुनिया में शासकवर्ग आंतरिक और वाह्य दोनों प्रकार के संघर्षों में हमेशा आत्मरक्षा के अधिकार की दुहाई देता है। अमरीका को किसी छोटे से देश पर भी चढ़ाई करनी होती है, तो उसका तर्क अपने या अपने मित्र देशों के नागरिकों की रक्षा का होता है। मानो पहाड़ी पर झरने के स्रोत से पानी पीने वाला शेर नीचे गिरते झरने से प्यास बुझाने वाले मेमने पर पानी को जूठा करने का आरोप लगा रहा हो। ऐसे में 'हत्यारे' से यह कहने का क्या परिणाम होगा कि "एक भी मनुष्य का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है"। ज़ाहिर है, वह इसका स्वागत करेगा और अपने लोगों को 'बचाने' के लिए किसी नई चढ़ाई का एलान कर देगा।


संग्रह की एक और कविता देखें, जिसका शीर्षक है 'ग़ुलामी'। इसकी आरम्भिक पंक्तियाँ हैं:

"इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता
हर कोई कुछ छिपाता हुआ दिखता है
दुख की छोटी-सी कोठरी में कोई रहना नहीं चाहता
कोई अपने अकेलेपन में नहीं मिलना चाहता
लोग हर वक़्त घिरे रहते हैं लोगों से
अपनी सफलताओं से अपनी ताक़त से अपने पैसे से अपने सुरक्षाबलों से"

'कोई' और 'हर कोई' जैसे प्रयोगों से पता चलता है कि यह कथन कवि के अनुभव में  आने वाले सभी लोगों के बारे में है, किन्हीं ख़ास तबक़ों के बारे में नहीं। ऐसा लगता है कि कवि कुछ प्रवृत्तियों से इतना आक्रांत है कि उनके अलावा किसी और का वजूद उसके भावजगत में बचा ही नहीं है। जैसे कुछ लोगों के लिए देश वही है जो बालकनियों वाले अपने घर मे रहता है, वैसे ही कवि के लिए 'लोग' का मतलब है अपने सुरक्षाबलों से घिरे रहने वाले लोग। अगर दुखी लोग अपने दुख को छिपाने और ख़ुश दिखने की कोशिश करते हैं तो यह वेदना और करुणा का विषय है, व्यंग्य का नहीं। ऐसे अधिकांश लोगों और उनके नियामकों यानी सुरक्षाबलों से घिरे रहने वाले लोगों में फ़र्क़ करना चाहिए। किसी गुमनाम शायर ने इस थीम पर क्या ही ख़ूबसूरत शेर कहा है:

"मुस्तक़िल हँसने की आदत से पता चलता है
  तुमने  सीने में  कोई दर्द छुपा  रक्खा है"

लेकिन कवि को तो 'लोगों' को लताड़ने की आदत है, मानो वह घोषित करना चाहता हो कि देखो, ऐसे 'ग़ुलामों' के बीच रहकर भी वह अपने दुख को छिपाना नहीं जानता। किसी को यह सब उच्च कोटि का मानववाद लग सकता है, जिसमें कवि मानवमात्र की चिंता में मग्न होकर शिकारी और शिकार में अंतर करना भूल गया है। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसी समदर्शिता शिकारी के पक्ष में हमेशा जाती है, शिकार के पक्ष में कभी नहीं।

कभी-कभी तो यह रवैया हत्यारों और दंगाइयों से ध्यान हटाकर हमें ख़ुद ही को अपराधी मान लेने की प्रेरणा देने लगता है। 'पशु पक्षी कीट पतंग' नामक कविता की शुरूआती पंक्तियाँ देखें:

"उन दिनों जब लगातार मनुष्यों के मारे जाने की ख़बर थी
कोई ख़ता नहीं कि हमने तब भी बख़्श दो बख़्श दो
ऐसा ही कुछ कहते हुए लोग दिखते थे
मार दो मार दो कहते हुए लोगों के सामने
और मैं अकेला था रात में
सहसा दिखे मुझे भूले-बिसरे पशु पक्षी कीट पतंग"

इसके बाद वाचक का सामना तीन बिल्लियों, मेंढक, सरीसृपों, मच्छरों, कबूतरों, झींगुरों, हरे-नीले रंग के छोटे-छोटे कीड़ों, पेड़ और उस पर सोई चिड़िया से होती है। इसके बाद कविता इन पंक्तियों के साथ ख़त्म हो जाती है:

"उनके सामने मैं लाचार था
मनुष्य होने की शर्म में डूबा हुआ
मनुष्य होने से बचने की कोशिश करता हुआ
मैं होना चाहता था पशु पक्षी कीट पतंग या ऐसा ही कुछ।"

अपनी जान बख़्श देने की याचना करने वाला भी मनुष्य है और उसे मार देने की ललकार लगाने वाला भी। कवि की हमदर्दी मारने वाले के साथ नहीं है। फिर वह मनुष्य होने पर शर्मिंदा क्यों है? वह अपनी पहचान मारे जाने वाले के बजाय मारने वाले के साथ क्यों जोड़ लेता है? जबकि सचाई यह है कि पशु पक्षी कीट पतंग भी इसी मानवद्रोही व्यवस्था के शिकार बन रहे हैं। मनुष्यों के विशाल बहुमत की तरह वे भी उजाड़े जा रहे हैं, विलुप्त हो रहे हैं। मंगलेश डबराल की वैचारिकी में इसके कारणों की खोज करें तो पता चलता है कि यह ग्लानि के कारण हो सकता है, जो उनके मुताबिक़ एक क्रांतिकारी विचार है। इस 'क्रांतिकारी विचार' के अनेक समर्थक मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में इसकी मौजूदगी की कल्पना करते हैं:

"मानो मेरे कारण ही लग गया
मार्शल लॉ वह
मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,
मानो मेरे कारण ही दुर्घट
हुई यह घटना।"

यहाँ 'अँधेरे में' शीर्षक कविता में पागल के पूर्वोक्त गीत से उद्वेलित होकर वाचक देश मे आए फ़ासिस्ट उभार के लिए अपनी निष्क्रिय चेतना को दोषी ठहराता है, लेकिन यह उसकी आत्मालोचना है आत्मग्लानि नहीं। इससे पहले वह रात में फ़ासिस्ट जुलूस को देखकर और उसमें चल रहे सफ़ेदपोश षड्यंत्रकारियों को पहचानकर भयभीत हुआ था, लेकिन इस द्वंद्व से गुज़रकर वह महसूस करता है:

"उसी प्रकार अब
आतंक चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प-शक्ति के लोहे का मज़बूत
ज्वलंत टायर!!"

आत्मालोचना और आत्मग्लानि में यही अंतर है। आत्मालोचना करने वाला अपनी कमजोरियों पर क़ाबू पाकर अंततः निर्णायक संघर्ष में उतरता है, लेकिन आत्मग्लानि में डूबने वाला सही और ग़लत का फ़र्क़ भुलाकर अंततः ताक़तवर के ही पक्ष को मज़बूत करता है। जनता उनकी असलियत को समझने में भले ही चूक जाए, सत्ताएँ इनकी सेवा का मूल्य समझने में कभी ग़लती नहीं करतीं। बहरहाल, आत्मग्लानि के प्रवक्ता इस प्रक्रिया में मुक्तिबोध जैसे कवि की दुर्व्याख्या करने से बाज नहीं आते। इस संग्रह में 'शमशेर और मुक्तिबोध की स्मृति में' लिखी गई कविता 'दो कवियों की जोड़ी' की इन पंक्तियों को देखें:

"यातना के सबसे बीहड़ कवि को यातना ही मिली
कड़ी मारें और एक से एक दुःस्वप्न
वही था प्रेम के कवि का एक सच्चा दोस्त
वह एक जंगल की तरह था बार-बार अपने पत्ते गिराता हुआ
अपने शब्दों को काटता
उसे चौराहे ही मिले जीवन में भागता रहा दम छोड़"

वैसे तो इस अंश की हर पंक्ति में मुक्तिबोध के अवमूल्यन का प्रयास है, लेकिन विस्तारभय से हम यहाँ केवल दो-तीन प्रयोगों का तनिक परीक्षण करेंगे। अंतिम पंक्ति में आया प्रसंग साफ़ तौर पर 'अँधेरे में' का है। 'अँधेरे में' का वाचक जब तक अनिश्चय की स्थिति में रहता है, उसके कथन में बार-बार यह पंक्ति आती है,"भागता मैं दम छोड़/घूम गया कई मोड़"। लेकिन जब वह जनक्रांति में शामिल हो जाता है, टेक बदल जाती है, "कहीं आग लग गई/कहीं गोली चल गई"। ज़ाहिर है कि मंगलेश डबराल की रुचि मुक्तिबोध के संघर्ष वाले पक्ष को नकारने और उन्हें किसी यातनाग्रस्त व्यक्ति की तरह प्रस्तुत करने में है। उनकी कविता में प्रयुक्त फ़ैंटेसी के शिल्प के कारण उन्हें 'एक से एक दुःस्वप्न' मिले कहने का भी यही अर्थ है। उन्हें अपने शब्दों को बार-बार काटने वाला कहने का शाब्दिक अर्थ भले ही कोई खींचतान कर, अपनी कविताओं में संशोधन करने वाला साबित कर ले, लेकिन उसका काव्यगत अर्थ तो उनकी संशयग्रस्त छवि का ही निर्माण करेगा। इधर कुछ सत्ताचतुर लोगों ने जबसे अज्ञेय को उनके मुकाबले खड़ा करने की कोशिश नये सिरे से शुरू की है तब से यह उनके स्वनामधन्य प्रशंसकों का प्रिय शगल बन गया है। बहरहाल, मुक्तिबोध की कविताओं की आग में ऐसे लोग पतंगों की तरह अपनी आहुति देते रहते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि कीट-पतंग बनने की कवि की इच्छा की भी इस प्रकार किंचित पूर्ति हो जाती है।


प्रत्येक समय, समाज और भाषा में स्मृति और यथार्थ की अंतःक्रिया कविता की सबसे महत्वपूर्ण विषयवस्तु होती है। मंगलेश डबराल भी अपनी कविताओं में स्मृति की भूमिका पर बहुत जोर देते हैं। इस संग्रह में भी इस थीम के इर्दगिर्द कई कविताएँ हैं। इनमें से एक कविता "बची हुई जगहें" (2012) की आरंभिक पंक्तियाँ देखें:

"रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूं
चश्मा कहां रख दिया है क़लम कहां खो गया है
अभी-अभी यहां नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहां चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की किस्तें चुकाना भूल जाता हूं
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूं कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया"

कविता और जीवन दोनों में स्मृति की भूमिका निर्विवाद है। अतीत में अपने साथ हुए अन्याय और संघर्ष की याद ही वर्तमान में मनुष्य को बदलाव के लिए जूझने की प्रेरणा देती है। कविता में इस स्मृति का रूपांतरण जब हो पाता है तो वह कविता सार्थक और मार्मिक होती है। इसीलिए शासकवर्ग अपने तंत्र के माध्यम से लोगों के अन्याय और संघर्ष की स्मृति को नष्ट और भ्रष्ट करने की कोशिश करता है। मुश्किल यह है कि कवि ने स्मृति की भूमिका को वैचारिक रूप से तो अपना लिया है लेकिन उसे आत्मसात नहीं कर सका है। इसलिए जैसे ही वह इसके ब्योरों में जाता है, उथली अभिव्यक्ति करने लगता है।

उपर्युक्त अंश की अंतिम तीन पंक्तियों से यह सचाई उजागर होती है। इनमें कवि भूलने के तमाम वाक़यों की बात करते-करते अचानक भूलने की संभावित वजह का ज़िक्र कर देता है। हाथ के काम और दिमाग़ में मेल न होने का अर्थ है कि दिमाग़ जिस प्रकार या स्तर का है काम उस प्रकार या स्तर का नहीं है। यह एक ग़लत धारणा है क्योंकि हाथ के काम और दिमाग़ में इतनी दूरी सम्भव नहीं है। हमारे हाथ का काम ही हमारे दिमाग़ को आकार देता है, और हमारा दिमाग़ भी हमारे हाथ के काम का परिष्कार करता है। लेकिन हममें से बहुत से लोगों को यह लगता है कि हमें वह काम और वह अवसर नहीं मिला, हम जिसे डिज़र्व करते थे। यह एक ख़ास तरह की आत्ममुग्धता है, जो आत्मदया की तरफ़ ले जाती है। इससे ग्रस्त लोगों के पास भी अन्याय और संघर्ष की स्मृति होती है लेकिन वह इतिहाससम्मत नहीं होती। उनके अंदर एक शिकार ग्रन्थि बन जाती है। उन्हें हमेशा अपना और अपने समर्थकों का पक्ष ही सही लगता है, और उसका विरोध करने वाले ग़लत और अन्यायी लगते हैं। इस तरह शुरुआत में ही यथार्थ से उनकी पकड़ छूट जाती है। वे वस्तुगत यथार्थ की जगह आत्मगत यथार्थ में जीने लगते हैं। उनके साथ सबसे बुरी बात यह होती है कि उनकी आत्मालोचना की क्षमता समाप्त हो जाती है। इस 'अन्यायपूर्ण' दुनिया में येन केन प्रकारेण जीतना ही उनका एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। इस व्यतिक्रम का असर कविता में इसके बाद अगली ही पंक्ति में नज़र आ जाता है, जब कवि ऐसी ग़ैररचनात्मक पंक्ति लिखता है, "जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया"। असल में, यह उक्ति केदारनाथ सिंह की एक प्रसिद्ध काव्यपंक्ति "भूलता तो यह भी जा रहा हूँ कि भूलता जा रहा हूँ मैं" की पुनर्प्रस्तुति मात्र है। इस बात पर पर्दा डालने के लिए ही कवि ने "भूलने" को "याद न रहना" कहा है।

खोने, ख़त्म होने और विलीन हो जाने वाली चीज़ें स्मृति में मौजूद रहती हैं। इस मौजूदगी को कवि 'ख़ाली जगह' कहता है। आशय यथार्थ में अनुपस्थिति और स्मृति में उपस्थिति से है। "बची हुई जगहें" की कुछ और पंक्तियाँ देखें:

"इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा मेरा शहर एक ख़ाली जगह है"

स्मृति में मौजूद ये जो ख़ाली जगहें हैं उनमें वे चीज़ें और लोग भी मौजूद रहते हैं जो समय के प्रवाह में खो गए। कवि उन्हें उनका 'दूसरा जीवन' मानता है। 'भूलने के विरुद्ध' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखें:

"पहला नहीं हमेशा दूसरा
हमेशा दूसरा जीवन दूसरा प्रकाश दूसरा अंधकार
क्योंकि मैं दूसरा हूं पहला नहीं दूसरा
×       × ×          ×
मैं दूसरा हूं हर वक़्त पहले की स्मृति में पहले की जगह पर
पहला हमेशा ढहाया हुआ है नष्ट किया हुआ
मैं उसके मलबे की तरह बचा हुआ दूसरा हूं उसके अंत का गवाह"

इस तरह हम देखते हैं कि कवि स्मृति के विविध रूपों को भरसक हाइलाइट करता चलता है, लेकिन अपनी संवेदनात्मक कमजोरी के कारण वह हर बार कोई न कोई आत्मविरोधी वक्तव्य प्रस्तुत करके अपने सरोकारों की ख़बर भी दे देता है। इस संग्रह की एक अन्य कविता है 'दो जीवन'। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ हैं:

"दिन भर एक जीवन में दौड़ता भागता थका हुआ
मैं एक दूसरे जीवन में शरण लेता हूं"

वैसे तो स्मृतियाँ शरण लेने के लिए नहीं होतीं क्योंकि उनमें दैनिक जीवन की दौड़भाग से अधिक पीड़ा और दुख है, लेकिन  कवि ने स्मृति के जिस अवसरवादी रूप को अपनाया है, वह उसके अंदर संघर्षशीलता की जगह पलायनवाद को प्रेरित करे तो कुछ आश्चर्य नहीं। आगे की पंक्तियाँ देखें:

"बाज़ारों की चकाचौंध में भटकता अचानक चल देता हूं
उनके पिछवाड़े के अंधेरे में
दिन भर के नुकीले पत्थरों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से परेशान
रात के पानी मे तैरता हुआ चला जाता हूं
टहलने लगता हूं तारों के रास्तों पर"

इस तरह स्मृति की शरण मे जाना कवि को राहत की बात लगती है। वहाँ वह अपने साथ दूसरों का जीवन भी जीता है। उसे लगता है कि उसे बहुत से लोगों की अधूरी यात्राएँ करनी हैं और उसके पास बहुत से लोगों का सामान है। कुछ और पंक्तियाँ देखें:

"लेकिन मैं दो जीवन में एक साथ हूं
हर चीज़ के दोनों रुख़ देख लेता हूं
एक जीवन को दिन-भर पहनता-ओढ़ता हुआ जागता रहता हूं
दूसरे को रात में चादर की तरह ओढ़कर सो जाता हूं"

यहाँ आकर बरबस ही कबीर का वह दोहा याद हो जाता है:

"सुखिया सब संसार है खावे और सोवे
 दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे"

यहाँ स्मृति की "शरण में जाना", हर चीज़ के '"दोनों रुख़" को देख लेना और "दूसरे को रात में चादर की तरह ओढ़कर" सो जाना जैसी क्रियाएँ ध्यान देने योग्य हैं। एक बात साफ़ है कि कविता के वाचक का यह 'दूसरा जीवन' काफी राहत और समझदारी भरा है। दिन के कोलाहल यानी उसके वर्तमान जीवन की परेशानियों से निज़ात दिलाने वाला। ऐसे में उसकी स्मृति में अन्याय और संघर्ष की हैसियत अनुपयोगी और अवांछनीय चीज़ों की ही हो सकती है। ज़ाहिर है कवि ने स्मृति को किसी औज़ार की तरह इस्तेमाल तो कर लिया है, लेकिन उसका भावबोध उसको आत्मसात नहीं कर सका है।

मंगलेश डबराल की संवेदना में नींद की भूमिका और स्मृति से उसका संबंध ख़ासतौर पर ग़ौरतलब है। 'सोने से पहले' शीर्षक कविता की शुरूआती पंक्तियाँ देखें:

"सोने से पहले मैं सुबह के अख़बार समेटता हूं
दिन भर की सुर्ख़ियां परे खिसका देता हूं
मैं अत्याचारी तारीख़ों और हत्यारे दिनों को याद नहीं रखना चाहता
मैं नहीं जानना चाहता कितना रक्त बहाकर बनाये जा रहे हैं राष्ट्र
मैं वे तमाम तस्वीरें औंधी कर देता हूं
जिनमें एक पुल ढह रहा है कुछ सिसकियां उठ रही हैं
एक चेहरा जान बख़्श देने की भीख मांग रहा है
एक आदमी कुर्सी पर बैठा अट्टहास कर रहा है

क्या रात भर मुझे एक तानाशाह घूरता रहेगा"

दिन के कोलाहल से बचने के लिए स्मृति की शरण मे जाने की इच्छा से ही यह लगा था कि वाचक ने स्मृति का कोई सुखद संस्करण अपने लिए रच लिया है। वही बात यहाँ पुष्ट हो रही है। यही कवि का अभिप्रेत 'दूसरा जीवन' है, जिसके बारे में उसने कहा था कि वह 'पहले के अंत का गवाह' है। लेकिन अब वह 'तानाशाह' के घूरने से बचने के लिए विस्मृति की शरण मे जाने को तैयार हो गया है। 

आगे बढ़ने से पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि सोना अपने आप में ही किसी विस्मृति या पलायन के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। कवि के एक समकालीन कवि वीरेन डंगवाल ने सोने की क्रिया का रचनात्मक इस्तेमाल किया है जिसमें अतीत की कठोर स्मृति और वर्तमान की चेतना बनी रहती है। उनके 'दुष्चक्र में स्रष्टा' नामक संग्रह से 'पाइप के पानी की नींद' शीर्षक कविता का यह अंश देखने योग्य है:

"रात को पाइपों के भीतर
पानी सो जाता है एक बहुत लम्बी तरल नींद
उसी नींद में छूता है उँगली बढ़ा-बढ़ाकर
नदी को
हिमशिखरों को
चट्टानों के काई लगे चिकने पेट
और चाँदनी में चमकते देवदारु की छाया को
सोते में भी कोशिश करता है
जहाँ तक हो बचकर रहे
रात-दिन उत्सर्जित होते तेज़ाब से।"

कोई सोच सकता है कि 'सोने से पहले' का उक्त वृत्तांत वाचक के मन की पीड़ा और उसके ऊपर पड़ने वाले दबाव की निशानदेही है। जैसे आदमी तकलीफ़ में कहता है कि जाओ मैं सब कुछ छोड़ता हूँ, वैसे ही यहाँ भूलने की बात कही गई है। जैसे निराला ने कभी कविकर्म के बारे में तकलीफ़ के साथ कहा था, "हो इसी कर्म पर वज्रपात"। अगर इसके पक्ष में कविता से कुछ साक्ष्य मिलते तो यह संभावना सचमुच स्वागत योग्य थी। लेकिन  मंगलेश डबराल की कविता भूलने की क्रिया को सेलिब्रेट करती है। इसी कविता की कुछ पंक्तियाँ और देखें:

"सोने से पहले मैं किताब बंद कर देता हूं
जिनके पेड़ पहाड़ मकान मनुष्य सब काले सफ़ेद अवसाद में डूबे हैं
और प्रेम एक उजड़े हुए घोंसले की तरह दिखाई देता है
सोने से पहले मैं तमाम भयानक दृश्यों को खदेड़ता हूं"

'प्रेम के घोंसले के उजड़ने' जैसे दृश्यों के लिए "खदेड़ने" की क्रिया के प्रयोग से कवि के वास्तविक मंतव्य का पता चलता है। यह सब करने में उसे कोई तकलीफ़ नहीं हो रही, बल्कि तकलीफ़ों से छुटकारा मिल रहा है। इसीलिए कविता का अंत भी द्वंद्वहीन, प्रशांत, लगभग निर्वेद की-सी अवस्था में होता है:

"सिगरेट बुझाता हूं चप्पलें पलंग के नीचे खिसका देता हूं
सोने से पहले मैं एक गिलास पानी पीता हूं
और कहता हूं पानी तुम बचे रहना
एक गहरी सांस लेता हूं
और कहता हूं हवा तुम यहां रहो
मेरे फेफड़ों और दीवारों के बीच
सोने से पहले मैं कहता हूं
नींद मुझे दो एक ठीक-ठाक स्वप्न।"

क़िस्सा कोताह यह कि बारह बरस के लंबे अंतराल के बाद यह संग्रह जिन उम्मीदों के साथ आया था, उन पर आंशिक रूप से भी खरा नहीं उतर सका। इसके कुछ और नमूने देख लें। 'लोकतंत्र के अहवाल' का मसला ही देखना हो तो इस संग्रह की कविता 'हमारे शासक' को ले सकते हैं। इसकी मुद्रा तो व्यंग्य की है लेकिन यह लद्धड़ गद्य का एक उदाहरण बनकर रह गई है। इस कविता का एक अंश देखें:

"हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोरात करोड़पति जो करोड़पति रातोरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं

हमारे शासक हर वक़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह नहीं करते हैं
जो लोग देश से बाहर जाकर विदेश में संपत्ति बनाते हैं
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये
कि संपत्ति बनाने के लिए विदेश चला जाये
तो देश की आय काफी बढ़ जाये"

विगत दो-ढाई दशक के यथार्थ का एक 'रचनात्मक' रूपांतरण 'शहर में एकालाप' नामक कविता की इन पंक्तियों में देखें:

"आधा शहर रात में दिन है आधा शहर दिन में रात है
आधा शहर खानपान है आधा शहर गहरा नाबदान है
आधा शहर धमनियों में दौड़ती शराब है
आधा शहर थूक बलगम और पेशाब है"

यह है कवि की वर्गीय दृष्टि और वंचित तबक़ों के प्रति उसका नज़रिया। इस संग्रह से ऐसे अंतहीन उदाहरण दिये जा सकते हैं, लेकिन फ़िलहाल हम भाषा और विचार को बरतने की कवि की शैली की थोड़ी और छानबीन करके इस प्रकरण को ख़त्म करेंगे। हिंदी में पिछले दिनों किसी क्रिया पर केंद्रित कविता लिखने का चलन देखने में आया है। अंदाज़ ये होता है मानो उस क्रिया को पुनर्परिभाषित किया जा रहा हो। नरेश सक्सेना ने 'गिरने' पर कविता लिखी और राजेश जोशी ने 'झुकने' पर। इसी क्रम में मंगलेश डबराल ने 'छूने' पर कविता लिखी है, जिसका शीर्षक है 'छूना'। इसकी शुरूआती पंक्तियाँ देखें:

"उन चीज़ों को छुओ जो तुम्हारे सामने मेज़ पर रखी हैं
घड़ी क़लमदान एक पुरानी चिट्ठी
बुद्ध की प्रतिमा बर्टोल्ट ब्रेष्ट और चे गेवारा की तस्वीरें"

कविता का यह शुरूआती हिस्सा बिलकुल निरर्थक है। यह मेज़ पर रखी चीज़ों की सूची भर है, जिन्हें छूने या न छूने का कोई अर्थ नहीं है। कवि यहाँ यह आभास देना चाहता है कि वह इनसे जुड़ने की प्रेरणा दे रहा है, लेकिन उसके कथन की भंगिमा और भाषाई प्रयोग इसे हास्यस्पद बना देते हैं। बुद्ध, ब्रेष्ट और चे की तस्वीरें देखने के लिए हैं, छूने के लिए नहीं। सफ़ाई वग़ैरह के सिलसिले में उन्हें छूना पड़ सकता है, लेकिन यह कहना छूने की क्रिया की पैरोडी बनाने जैसा होगा। कुछ और पंक्तियाँ देखें:

"अपने माथे को छुओ
और देर तक उसे थामे रहने में शर्म महसूस मत करो
×        × ×          ×
इस तरह मत छुओ जैसे भगवान महंत मठाधीश भक्त चेले
एक दूसरे के सिर और पैर छूते हैं"

अपने माथे को छूना भी कोई प्रचलित प्रयोग नहीं है। इसीलिए दूसरी पंक्ति में सिर को 'थामे रहना' कहना पड़ा। माथे को 'थामे रखने' के लिए भी उसे 'छूने' की बात अधूरी थी और इससे कोई बिंब भी नहीं बनता था। बुखार का पता लगाने के अलावा माथा छूने का कोई अर्थ नहीं निकलता। 'माथा थामे रखने' में किसी प्रकार की चिंता या परेशानी की बात निहित है, इसलिए 'माथा पकड़ना' इसके उपयुक्त प्रयोग था। लेकिन कवि को छूने की क्रिया के प्रयोग करने थे, और कोई रचनात्मक प्रयोग उससे हो नहीं सका। 

इसी तरह, पैर छूना तो हिंदी का मुहावरा है, लेकिन सिर-पैर छूने का कोई मतलब नहीं निकलता। न तो यह हिंदी का मुहावरा है, न ही इससे कोई चित्र बनता है जिससे भविष्य की कोई राह खुलती हो। भाषा में मुहावरे का मनमाना प्रयोग करने से भाषा की शक्ति क्षीण होती है। कोई नया प्रयोग भी तभी उचित है जब वह कोई नया अर्थ खोलता है, या बिंब बनाता है। इस बात को समझने के लिए राजेश जोशी की कविता 'मैं झुकता हूँ' कि ये पंक्तियाँ देखें:

"रोटी का कौर तोड़ने और खाने के लिए
झुकता हूँ अपनी थाली पर
जेब से अचानक गिर गई कलम या सिक्के को
उठाने को
झुकता हूँ

झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं
जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है
किसी शक्तिशाली के सामने
जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आँखें।"

यहाँ हम देखते हैं कि 'थाली पर झुकना' भी कोई मुहावरा नहीं है, लेकिन उसमें झुकने की क्रिया का सार्थक प्रयोग हुआ है और उससे एक बिंब भी बनता है। इससे एक संभावना की राह खुलती है कि हो सकता है भविष्य में खाने के लिए थाली पर झुकना कभी मुहावरे के रूप में प्रयोग होने लगे।

कवि की संवेदना में यथार्थ कैसे अपने सबसे सतही, संख्यात्मक रूप में आता है इसका एक नमूना 2006 में लिखी गई कविता 'ताक़त की दुनिया' की इन आरंभिक पंक्तियों में देख सकते हैं:

"ताक़त की दुनिया में जाकर मैं क्या करूंगा
मैं सैकड़ों हज़ारों जूते चप्पल लेकर क्या करूंगा
मेरे लिए एक जोड़ी जूते ही ठीक से रखना कठिन है
हज़ारों लाखों कपड़ों मोज़ों दस्तानों का मैं क्या करूंगा
मैं इतने सारे कमरों का क्या करूंगा"

आज की दुनिया में ताक़त का जो खेल चल रहा है उसे समझना और आम लोगों की तरफ़ से उसमें हस्तक्षेप करना ही हमारे समय के कवियों और बुद्धिजीवियों की प्रमुख ज़िम्मेदारी है। यहाँ हमारे कवि को ताक़त की दुनिया जूते चप्पल मोज़ों और दस्तानों के ढेर में दिखाई पड़ रही है। ऐसा लगता है जैसे कवि जानबूझकर यथार्थ की पैरोडी बना देने पर आमादा है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ भी देखते चलें:

"मैं कोई दरिंदा नहीं जो किसी धरती पर बम गिराने चला जाऊंगा
मैं मनुष्य हूं
तेल पीते और ख़ून चूसते हुए मैं क्यों बिता दूंगा अपना जीवन।"

इस कवि को कोई बताए कि दरिंदा का अर्थ जानवर  होता है। जंगली और मांसभक्षी वह भले ही हो लेकिन अकारण हिंसा नहीं करता। 2004 में लिखी गई 'पशु पक्षी कीट पतंग' नामक कविता में मनुष्य होने पर शर्मिंदा था और पशु पक्षी कीट पतंग बनना चाहता था। अभी वह मनुष्य होने पर गौरवान्वित है और पशु न होने का दम भर रहा है। दो ही साल में विचारों में इतना परिवर्तन। यह भाषा के प्रति असावधानी से अधिक भावबोध की अक्षमता का मामला मालूम पड़ता है।

बहरहाल, ताक़त की दुनिया को समझने के प्रसंग में मनमोहन की कविता 'कमजोर की ताक़त' का यह अंश देख लें जो समाज के शक्ति-समीकरण में हस्तक्षेप भी करती है और मंगलेश डबराल जैसे कवियों के दृष्टिकोण की सीमा को भी उजागर करती है:

"कई बार कमजोर की ताक़त को भी
उसकी कमजोरी समझा जाता है
सिर्फ़ इसलिए कि वह ताक़तवर की ताक़त के साथ
या उसके मुकाबले में खड़ी नहीं पाई जाती

क्योंकि माना जाता है कि ताक़त तो सिर्फ़ ताक़तवर के पास है
ख़ुद कमजोर भी यही मानता है
और सोचता है कुछ बनी बनायी ताक़त मैं भी जमा कर लूँ
और ताक़त के उस खेल में शरीक हो जाऊँ
जिसकी शर्तें तय हों"

ज़ाहिर है, ताक़त भी दो प्रकार की होती है। सत्ता के लिए ताक़त का अर्थ अलग होता है और जनता के लिए अलग। लेकिन इस बात को समझने के लिए जनता के भावबोध के साथ एकाकार होना पड़ता है। कवि मंगलेश डबराल जनपक्षधरता का स्वांग तो भरते हैं, लेकिन उसके लिए आवश्यक आत्मसंघर्ष में नहीं उतरते। नतीजा यह निकलता है कि विश्लेषण की ज़रा सी आँच पाते ही उनकी बहुप्रचारित कविताओं की कलई उतर जाती है।


पुनश्च:

कवि मंगलेश डबराल ने अपने संग्रह पर मेरे लेख के जवाब में अपने फ़ेसबुक वाल पर यह प्रतिक्रिया पोस्ट की है। इसमें कुल छह पैराग्राफ़ हैं। मैं यहाँ क्रमशः एक-एक पैराग्राफ़ उद्धृत करते हुए उनपर कुछ अपनी बात कहूँगा।

(1)" कुछ दोस्तों ने बताया कि एक हिंदी अध्यापक ने मेरे सात साल पुराने कविता-संग्रह ‘नए युग में शत्रु’ का गहन-गंभीर अध्ययन करके अपने समस्त हरबे-हथियार के साथ उस पर धावा बोल दिया है. विवश, उसे पढने पर पता चला कि अध्यापक महोदय ने अपने आलेख को करीब 7500 शब्दों तक सीमित रखा हालांकि संभावनाएं और भी थीं. आलेख में उनके विशेषणों, कृपा-कटाक्षों पर कोई प्रतिक्रिया करना वाजिब नहीं होगा क्योंकि हिंदी आलोचना में यह कोई नयी चीज़ नहीं है और सबको अभिव्यक्ति का समान अधिकार है. लेकिन उन्होंने मेरे हिंदी-ज्ञान का उपहास करते हुए काफी कुछ कहा है, और बावजूद इसके कि अच्छी हिंदी शायद वही महाशय लिखते हैं, उसमें कुछ संशोधन मुझे ज़रूरी लगते हैं. उपहास्य बिंदु और उनके उपचारात्मक सुझाव इस तरह हैं:"

इस भूमिका में एक ही बात उल्लेखनीय है कि कवि महोदय ने मुझे 'एक हिंदी अध्यापक' माना है, और इसके बावजूद अभिव्यक्ति के मेरे अधिकार को स्वीकार किया है। इस पर मैं यही कह सकता हूँ कि हिंदी में अनेक पेशों से जुड़े लोग लेखन करते हैं और पेशे की वजह से किसी को अभिव्यक्ति का अधिकार है अथवा नहीं, यह प्रश्न कभी नहीं उठा। हाँ, मसला जब भाषा और साहित्य का हो तो किसी हिंदी अध्यापक का दायित्व बढ़ जाता है, क्योंकि एक संस्था के रूप में उसे हमारे समाज ने यही भूमिका दी है। वह अपनी इस भूमिका को किसी साहित्यिक मुद्दे पर अपना पक्ष प्रस्तुत करके और उस पर खुले विचार-विमर्श के माध्यम से ही निभा सकता है। इस प्रकरण में मेरी कुल इतनी ही भूमिका है।

(2) "उनके अनुसार, ‘पैर छूना’ एक मुहावरा है, लेकिन ‘सर छूना’ कोई मुहावरा नहीं है. दरअसल, दोनों ही मुहावरे नहीं, बल्कि क्रियाएं हैं. पहली क्रिया  हिंदी में आशीर्वाद-प्राप्ति, स्वार्थ-साधन और कभी-कभी स्वजनों-बुजुर्गों के सम्मान में संपन्न की जाती है और दूसरी क्रिया को महंत-मठाधीश, कर्मकांड करते पुरोहित, तिलक-त्रिपुंड लगाते लोग अंजाम देते हैं. पुराने वक्तों में स्पर्श-उपचार (healing by touch) ईसाइयत में खूब प्रचलित था और भारत भूमि पर पति परमेश्वर लोग भी अपनी पहली, दूसरी या तीसरी पत्नी को इस पद्धति से भी स्वीकार करते थे. अध्यापक जी ने इसके लिए ‘माथा पकड़ना’ बेहतर माना है; हाँ, माथा पकड़ना भी एक क्रिया है, खासकर तब जब शराब आपका माथा पकड़ लेती है या कोई व्यक्ति ऐसे कुतर्क करता है कि आपका माथा पकड लेता है और आप भी अपना माथा पकड़ कर बैठ जाते हैं. ये सभी वर्चस्व और ताकत के तंत्र से जुड़े क्रिया-कलाप हैं."

इस बिंदु पर कुछ कहने से पहले मैं अपने लेख के प्रासंगिक अंश को यहाँ उद्धृत कर देता हूँ ताकि स्पष्ट हो जाए कि कवि को ठीक-ठीक किस बात पर एतराज है---

'अपने माथे को छूना भी कोई प्रचलित प्रयोग नहीं है। इसीलिए दूसरी पंक्ति में सिर को 'थामे रहना' कहना पड़ा। माथे को 'थामे रखने' के लिए भी उसे 'छूने' की बात अधूरी थी और इससे कोई बिंब भी नहीं बनता था। बुखार का पता लगाने के अलावा माथा छूने का कोई अर्थ नहीं निकलता। 'माथा थामे रखने' में किसी प्रकार की चिंता या परेशानी की बात निहित है, इसलिए 'माथा पकड़ना' इसके उपयुक्त प्रयोग था। लेकिन कवि को छूने की क्रिया के प्रयोग करने थे, और कोई रचनात्मक प्रयोग उससे हो नहीं सका। इसी तरह, पैर छूना तो हिंदी का मुहावरा है, लेकिन सिर पैर छूने का कोई मतलब नहीं निकलता। न तो यह हिंदी का मुहावरा है, न ही इससे कोई चित्र बनता है जिससे भविष्य की कोई राह खुलती हो। भाषा मे मुहावरे का मनमाना प्रयोग करने से भाषा की शक्ति क्षीण होती है।'

कवि के जवाब के उपर्युक्त अंश से ऐसा लगता है कि मुहावरे के अर्थ को लेकर कुछ भ्रम की स्थिति है। मुहावरे का अर्थ होता है भाषा में कोई ऐसा प्रचलित प्रयोग जो अपने सामान्य अर्थ से अलग कोई विशेष अर्थ प्रदान करता हो। जैसे पैर छूना मुहावरा है क्योंकि यह अभिवादन करने का विशेष अर्थ देता है। मान लीजिए आप यह देखने के लिए कि पैर में कुछ लगा तो नहीं है, अपना पैर ख़ुद छूते हैं तो यह क्रिया होगी। किसी भाषा में कोई बात कैसे कही जाती है, उसका लबो-लहजा क्या है उसे भी उस भाषा का मुहावरा कहा जाता है। जैसे 'एक कप चाय पीना' हिंदी का मुहावरा है, और 'टु टेक ए कप ऑफ टी'अंग्रेज़ी का। अगर आप हिंदी में 'चाय लेना' क्रिया का प्रयोग कर रहे हैं तो यह वैसे ही ग़लत मुहावरा हो जाएगा जैसे 'टु ड्रिंक टी' या 'टु ड्रिंक सिगरेट' है। ध्यान रखें कि इन बातों का हिंदी के व्याकरण से निर्धारण नहीं होता बल्कि जनसमुदाय में प्रचलित प्रयोगों से ये मुहावरे बनते हैं। बहुत से विद्वान भाषा की चर्चा होते ही व्याकरण की सीमाओं पर प्रकाश डालने लगते हैं। उन्हें ये जानना चाहिए कि भाषा का मुहावरा ही उसे विकसित करता है और व्याकरण को भी संशोधन-परिमार्जन के लिए प्रेरित करता है।मुहावरा भाषा की जान होता है। प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध या शमशेर पर और चाहे जो आरोप लगे हों, मुहावरे के ख़िलाफ़ जाने का आरोप मेरी जानकारी में नहीं लगा।किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि ग़लत मुहावरा कौर में आए बाल की तरह होता है, जिसे निगलना नामुमकिन है। हमारी हिंदी में यह विवेक क्षीण से क्षीणतर होता गया है। अपनी भाषा से हमारे प्यार का यह आलम है कि कोई कुछ भी लिखकर चला जाता है, और उससे सवाल पूछना गुनाह मान लिया गया है।

अब मौजूदा प्रसंग को देख लें। मैंने भी यही कहा था कि सिर छूना कोई मुहावरा नहीं है। कवि ने 'सिर-पैर छूने' का प्रयोग किया था, जिसमें 'सिर छूना' कोई अर्थ नहीं दे पा रहा था, इसलिए यह कहा गया। कविवर ने इसके प्रयोग के दो तीन मौक़े बताए हैं, जब उनके मुताबिक़ 'सिर छूने' की क्रिया सम्पन्न की जाती है। इससे मेरा कोई एतराज नहीं है। लेकिन इनमें से किसी मौक़े की सूचना केवल 'सिर छूने' के प्रयोग से नहीं होती। जैसे पहले ही मौक़े को लें तो 'सिर छूने' की जानकारी से पता नहीं चलता कि 'महंत-मठाधीश, कर्मकांड करते पुरोहित, तिलक-त्रिपुंड लगाते लोग' क्या कर रहे हैं। इसके लिए कम से कम ये कहना होगा कि 'सिर छूकर आशीर्वाद दिया' या 'त्रिपुंड लगाया'। बात छोटी सी थी लेकिन मुहावरे से दूर थी इसलिए कहना पड़ा। 'माथा पकड़ने' की बात भी कवि के 'माथा थामने' के प्रयोग की निरन्तरता में थी।

(3) "‘छेद खोजना’ पर भी आपत्ति की गयी है, लेकिन ‘फटे में पैर डालना’ पर नहीं हालंकि दोनों प्रायः समानार्थक हैं. लेकिन ‘छेद खोजना’ में यह व्यंजना भी मौजूद है कि कोई ‘फटा हुआ’ न हो तब भी बाज़ार के ज़रिये सक्रीय पूंजी और साम्राज्य की शक्तियां हमारे अस्तित्व के छेदों को खोज रही हैं. संभव है, ‘छेद खोजना’ किसी हिंदी मुहावरा कोश में न हो, लेकिन जैसा कि हम बहुत से लोगों के गुरु और महाकवि-नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कोई नया शब्द गढ़ने पर की गयी एक आपत्ति के जवाब में कहा था,  ‘यह शब्द आपके शब्दकोश में नहीं है? कोई बात नहीं, कल से हो जाएगा"

इस पर भी कुछ कहने से पहले मैं अपने लेख के प्रासंगिक अंश को उद्धृत कर देता हूँ----

'ज़रा याद करने की कोशिश कीजिए कि 'किसी के कपड़ों के छेद में अपने हाथ कुहनियां और पैर डालना' क्या बला है। अगर ये मुहावरा है तो किस भाषा का? याद नहीं आएगा क्योंकि मुहावरा ये है ही नहीं। ये हिंदी के एक मुहावरे 'किसी के फटे में टांग अड़ाना' का बिगड़ा हुआ रूप है। कवि ने नवाचार के प्रदर्शन की कोशिश में इसे विकृत करके निरर्थक बना डाला है।'

कवि ने 'छेद खोजना' भी प्रयोग किया था हालाँकि मैंने उसका उल्लेख नहीं किया। बहरहाल कवि ने उसका प्रयोग जिस अर्थ में यहाँ बताया है, उसके लिए हिंदी में दरार खोजना, खाई खोदना, दीवार उठाना इत्यादि अनेक प्रचलित प्रयोग हैं, लेकिन छेद खोजने का कोई प्रयोग आज तक दिखा नहीं। यहाँ किसी नए शब्द के निर्माण की बात नहीं है। छेद का प्रयोग दूरी या अंतराल के अर्थ में हिंदी में नहीं होता। अगर आप इस अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं तो उस नए प्रयोग से कोई सेंस निकलना चाहिए, कोई बिंब बनना चाहिए। ऐसा न होने पर नया मुहावरा बनने की संभावना नहीं रह जाती है। छेद खोजना का समानार्थी एक शब्द हिंदी में प्रचलित है 'छिद्रान्वेषण'। लेकिन एक तो इसका अर्थ कुछ और है, दूसरे मुहावरे के मामले में पर्याय काम नहीं आते। जैसे लंबोदर गणेश को कहते हैं, लेकिन लंबा पेट कह देने से यही बोध नहीं होगा।

(4) "‘दरिंदा’ नामक शब्द पर सख्त एतराज़ करते हुए कहा गया है कि कोई बताये मुझ नादान को सही अर्थ! और फिर सही अर्थ भी बताया गया है: ‘जानवर.’ बेशक, अभिधा में. लेकिन कौन सा जानवर? सभी?  क्या अध्यापक महोदय बकरी, भेड, लोमड़ी, गाय-भैंस-बैल को दरिन्दे मानते हैं? दरिंदा सिर्फ वह जंगली जानवर है जो हिंसा करता है, फाड़ डालता है (दुनिया में कोई भी पशु, व्यक्ति, हत्यारा, तानाशाह, फासिस्ट, नात्सी, मर्दवादी अकारण हिंसा नहीं करता). अंग्रेज़ी में ‘दरिंदा’ को Predator और Beast of prey कहते हैं. नरभक्षी, जीवभक्षी, हत्यारा, खूख्वार भी उसके अर्थ हैं. अर्थात वह अभिधा के अलावा व्यंजना भी है. हिटलर, मुसोलिनी और फ्रांको आदि दरिन्दे थे और मेरी कविता में ‘तेल पीने और खून चूसने’ के इस्तेमाल का सन्दर्भ अमेरिकी साम्राज्यवाद है जिसने तेल के शोषण के कई अरब देशों के जीवन को नरक बना दिया."

इस प्रतिवाद से संबंधित मेरे लेख का यह हिस्सा भी देख लें----

'इस कवि को कोई बताए कि दरिंदा का अर्थ जानवर  होता है। जंगली और मांसभक्षी वह भले ही हो लेकिन अकारण हिंसा नहीं करता। हम पहले देख चुके हैं कि 2004 में लिखी गई 'पशु पक्षी कीट पतंग' नामक कविता में कवि मनुष्य होने पर शर्मिंदा था और पशु पक्षी कीट पतंग बनना चाहता था। अभी वह मनुष्य होने पर गौरवान्वित है और पशु न होने का दम भर रहा है। दो ही साल में विचारों में इतना परिवर्तन। यह भाषा के प्रति असावधानी से अधिक भावबोध की अक्षमता का मामला मालूम पड़ता है।'

यह भी एक महत्वपूर्ण बात है। कोई भी देख सकता है कि मैंने जानवर के साथ जंगली और मांसभक्षी विशेषण भी लगाया था इसलिए कविवर का वह सात्विक रोष व्यर्थ है जिससे उन्होंने मुझसे प्रश्न किया है कि "कौन सा जानवर?" हाँ, अकारण को थोड़ा और स्पष्ट कर देता हूँ, बिना किसी उचित कारण के। जैसे शेर है। प्रकृति ने उसे जैसा बनाया है उसमें वह आहार और अपने इलाक़े की रक्षा के लिए दूसरे जीवों को मारने और उन्हें खाने के लिए बाध्य है। कविवर ने दरिंदे के जितने विशेषण दिए हैं उन सब पर वह खरा उतरता है। तो क्या करना चाहिए? उसे हिटलर, मुसोलिनी और फ्रांको का प्रतीक बना देना चाहिए? 

चलिए शेर के साथ थोड़ी गरिमा जुड़ी हुई है, किसी दूसरे निंदित जंतु मसलन भेड़िये को लेते हैं। दूसरे जीवों और मनुष्यों के लिए भी यह पर्याप्त भयावह है। परंपरा से इसका नकारात्मक अर्थों में प्रयोग भी होता आया है। आज जब हमारा समूचा वन्य जीवन ख़तरे में पड़ा है, हमारी जैव-विविधता नष्ट हो रही है, ऐसे समय में क्या मानवता के घृणित अपराधियों की उपमा देने के लिए इन्हें इस्तेमाल करना चाहिए। आप अभिधा और व्यंजना की बात करते हैं। व्यंजना में आप ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते जो अभिधा में आपत्तिजनक हो। अतीत में कई बार किसी की अकर्मण्यता को दिखाने के लिए उसे लूला-लंगड़ा, गूंगा-बहरा कह दिया जाता था। उस समय कई मामलों में चेतना की कमी थी। लेकिन अब यह समझ आ गई है कि ऐसे प्रयोगों की पहली चोट उन विकलांग लोगों पर पड़ती है, जिनकी प्राकृतिक निरुपायता को किसी दोष का रूपक बना लिया गया। 

कविता पर आपत्ति की एक और वजह यह थी कि कविवर ने इसी संग्रह में एक कविता दी है जिसमें वे मनुष्य होने पर शर्मिंदा होते हैं, और पशु पक्षी कीट पतंग बनना चाहते हैं। उन्हीं के अंदाज़ में यह पूछा जा सकता है कि कौन सा पशु। क्या मांसाहारी होने से कोई पशु ख़राब हो जाता है, और शाकाहारी होने से अच्छा। 

(5) "ग्लानि को ‘क्रांतिकारी विचार’ कहने के लिए भी कुछ मलामत मेरी हुई है. हालंकि मुक्तिबोध की ‘अँधेरे’ में तो ग्लानि का महान दस्तावेज़ है, लेकिन कार्ल मार्क्स को भी सुन लीजिये जो जर्मन दार्शनिक आर्नोल्ड रूज़ को लिखे एक पत्र में कहते हैं: ‘मैं तुम्हें मुस्करा कर यह कहते हुए देख रहा हूँ: इससे भला क्या होगा? क्रांतियाँ ग्लानि से पैदा नहीं होतीं. और मेरा जवाब है: ग्लानि अपने आप में एक क्रांति है; वह सचमुच जर्मन देशभक्ति पर फ्रांस की क्रान्ति की विजय है....ग्लानि वह क्रोध है जो पलट कर अपने पर ही आता है. और अगर एक पूरा देश ग्लानि महसूस करता हो तो वह आक्रमण करने के लिए बेचैन एक शेर की तरह होता है.’ बाद में महान इतालवी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने भी इसी आशय की बात कही और ब्रेष्ट एक कविता में हिटलर के समय ‘अपनी ज़र्द पड़ी हुई माँ जर्मनी’ को संबोधित करते हुए कहते हैं: ‘दूसरे लोग उसकी शर्म के बारे में कहते रहेंगे/मैं अपनी शर्म की बात करूँगा.’ आज अगर हमारे समाज में क्रान्ति तो दूर, किसी परिवर्तन की भी आहट नहीं है तो इसका कारण यह भी है कि बदलाव का उत्प्रेरक कहे जाने वाले मध्य वर्ग में कोई ग्लानि-भाव शेष नहीं है."

इससे संबंधित अंश भी देख लें---

'यहाँ 'अँधेरे में' शीर्षक कविता में पागल के पूर्वोक्त गीत से उद्वेलित होकर वाचक देश मे आए फ़ासिस्ट उभार के लिए अपनी निष्क्रिय चेतना को दोषी ठहराता है, लेकिन यह उसकी आत्मालोचना है आत्मग्लानि नहीं। इससे पहले वह रात में फ़ासिस्ट जुलूस को देखकर और उसमें चल रहे सफ़ेदपोश षड्यंत्रकारियों को पहचानकर भयभीत हुआ था, लेकिन इस द्वंद्व से गुज़रकर वह महसूस करता है---"उसी प्रकार अब/आतंक चक्के पर चढ़ाया जा रहा/संकल्प-शक्ति के लोहे का मज़बूत/ज्वलंत टायर!!" आत्मालोचना और आत्मग्लानि में यही अंतर है। आत्मालोचना करने वाला अपनी कमजोरियों पर क़ाबू पाकर अंततः निर्णायक संघर्ष में उतरता है, लेकिन आत्मग्लानि में डूबने वाला सही और ग़लत का फ़र्क़ भुलाकर अंततः ताक़तवर के ही पक्ष को मज़बूत करता है।'

कविवर ने यहाँ मार्क्स और ग्राम्शी के प्राधिकार का इस्तेमाल करने की व्यर्थ कोशिश की है। जो उद्धरण उन्होंने दिए हैं, उसीसे पता चलता है कि उन लोगों ने ग्लानि को क्रांतिकारी विचार, अगर कहा भी है तो, राष्ट्र के प्रसंग में और किसी विशेष सन्दर्भ में कहा है। किसी का कहा हुआ कोई विचार सार्वभौम नहीं होता। उन बातों के सहारे मुक्तिबोध की कविता को ग्लानि का दस्तावेज़ बताना जाने-बूझे विकृतीकरण का मामला है। इस पर मैं अपने लेख में टिप्पणी कर चुका हूँ और ज़रूरत पड़ने पर आगे भी बात करूँगा।

(6)"बहरहाल, अध्यापक महोदय ने मुक्तिबोध की महान कविता ‘अँधेरे में’ के काव्य-नायक के लिए बार-बार ‘पागल व्यक्ति’, ‘पागल का गीत’ इस्तेमाल किया है. अब कहने को क्या बाकी है? ‘कब मुक्त होंगे मेरे जन’ की चिंता में डूबा और अपने समय और समाज की यंत्रणा से संतापित वह काव्य-नायक अगर ‘पागल’ की तरह ‘गीत’ गा रहा है तो यह एक स्वनामधन्य समझ ही है. लेकिन किमाश्चर्यम! कहते हैं, अध्यापक महोदय पहले आज़ादी के बाद लिखने वाले हिंदी के शायद सबसे बड़े कवि रघुवीर सहाय पर भी नज़ला गिरा चुके हैं.---मंगलेश डबराल"

मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' को लेकर कविवर कितने जागरूक हैं, इसका पता इस टिप्पणी से चल जाता है। उस कविता में पागल एक स्वतंत्र पात्र की तरह आता है, और अपना गीत गाता है। मुक्तिबोध के शब्दों में इसका 'गद्यानुवाद' कविता में दिया गया है जो इन प्रसिद्ध पंक्तियों से शुरू होता है--ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन। मेरे लेख के ऊपर उद्धृत अंश में इसे ही 'पागल का पूर्वोक्त गीत' कहा गया है। इससे पहले मेरे लेख में आए इस प्रसंग को देख लें---

'आम लोगों में पाई जानेवाली लोभ-लालच जैसी प्रवृत्तियों की भर्त्सना मुक्तिबोध ने भी की है। इस दृष्टि से 'अँधेरे में' शीर्षक कविता में आये पागल के गीत का यह अंश ख़ासतौर पर उल्लेखनीय है:'

ज़ाहिर है कवि महोदय हर मामले में सतही टिप्पणियाँ करने के आदी हो चुके हैं। उन्हें बता दूँ कि रामविलास शर्मा और नामवर सिंह दोनों इस कविता के मामले में अगर किसी एक बात पर सहमत हैं तो इसी बात पर कि इसका पागल, काव्यनायक का ही  प्रतिरूप है, लेकिन मैंने मुक्तिबोध पर आज से पंद्रह साल पहले छपी अपनी किताब में इस प्रसंग पर विस्तार से लिखा है, और इससे असहमति ज़ाहिर की है। 

फ़िलहाल इतना ही। थोड़ा कहा ज़्यादा समझना।



Comments

  1. तीखी बहस और सार्थक निष्कर्ष।

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