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Showing posts from December, 2019

#धूल_की_जगह

साहित्य, सभ्यता और मनुष्यता की जगह रज़ा पुस्तक माला योजना के तहत राजकमल प्रकाशन से पिछले साल छप कर आये महेश वर्मा के पहले कविता-संग्रह 'धूल की जगह' को पढ़ते हुए हिंदी कविता की अग्रगामी दिशा का पता चलता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए हमें वर्तमान दौर के रचनाकर्म के कुछ बुनियादी आग्रह, सरोकार और उनकी फलश्रुतियों की छानबीन करने का अवसर मिलता है। यहाँ हम उनकी कुछ कविताओं को पहले पूरा उद्धृत करेंगे, फिर संक्षेप में उनका विश्लेषण करके उनके आशयों तक पहुँचने की कोशिश करेंगे।इस कड़ी में पहली कविता "सुखान्त" लेते हैं: "सुखान्त सूखे हुए आँसुओं और अनगिन दुःख के बाद आया ठोकरें खाती रही स्त्री, उसने अपमान सहे यह छोटी नौकरी न लग जाती तो आत्महत्या करने ही वाला था सहनायक नायक भाग दो में अपनी कथा कहेगा। पहले संदेह आया फिर दुःख फिर गहरा शोक आया तब तक दम साधे झाड़ियों में छुपा रहा सुखान्त उसे अंतिम गोली, संयोग और ईश्वर की मदद हासिल है तो अंत में ऐसे आया सुखान्त आने की ताक में था जैसे : घुसपैठिया।" साहित्य में व्याप्त रूढ़िबद्ध रुचियों और अभिव्यक्तियों क

गुँथे तुमसे, बिंधे तुमसे

हम प्रथम विद्रोही ज़माने से लड़े मुक्तिबोध के सरोकारों के दायरे में संभवतः किसी भी दूसरी चीज़ से अधिक महत्व मनुष्य के रूपांतरण की प्रक्रिया का है। कोई नया अनुभव, उसका संवेदना से जुड़ाव, नवीन निष्कर्षों की प्राप्ति, संस्कारों से संघर्ष के माध्यम से उसकी ज्ञान में परिणति, और फिर उस नवीन ज्ञान के अनुकूल कर्म करने के संघर्ष में उतरे मनुष्य के व्यक्तित्व का नया रूप ग्रहण करना, मुक्तिबोध की तमाम कविताएं इस प्रक्रिया के किसी न किसी हिस्से का व्याख्यात्मक रूपांतरण हैं। ख़ास बात यह है कि यह व्यक्तित्वान्तरण कभी अकेले में या किसी ऐकांतिक प्रयत्न के परिणामस्वरूप नहीं होता। यह हमेशा सामाजिक अंतःक्रिया के दौरान होता है। इस सामाजिकता में भी सबसे अहम भूमिका किसी साथी, सहचर, मित्र, स्वजन, परिजन, आत्मीय की होती है। इस संगी से बातचीत, बहस करते, साथ-साथ चुनौतियों का सामना करते और कभी भ्रमित होने पर उससे उलाहना सुनकर सही राह पकड़ते हुए यह यात्रा तय होती है। इस संग-साथ का मुक्तिबोध इतना रोमांचक चित्र खींचते हैं कि इसकी गहनता और आवेगमयता के सामने कई बार प्रेम के चित्र भी फ़ीके पड़ जाते हैं। "अंतःकरण का आयतन

एक मेरी मुश्किल है जनता

#रघुवीर_सहाय (१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश       कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश       क्रोध होगा पर विरोध न होगा       अर्जियों के सिवाय-----रमेश       ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी       और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश                                 (आने वाला ख़तरा) (२)  कविता न होगी साहस न होगा        एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी         और  चीख़ न होगी                                      (बड़ी हो रही है लड़की) (३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है      ...................…................................       हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो       सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर        एक अपनापे की हँसी हँसते हो        जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय                                      (हँसो हँसो जल्दी हँसो) ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट ताना