एक मेरी मुश्किल है जनता

#रघुवीर_सहाय



(१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश

      कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश

      क्रोध होगा पर विरोध न होगा

      अर्जियों के सिवाय-----रमेश

      ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी

      और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश

                                (आने वाला ख़तरा)

(२)  कविता न होगी साहस न होगा

       एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी

        और  चीख़ न होगी

                                     (बड़ी हो रही है लड़की)

(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है

     ...................…................................

      हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो

      सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर

       एक अपनापे की हँसी हँसते हो

       जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय

                                     (हँसो हँसो जल्दी हँसो)

ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति, और दूसरी इस प्रवृत्ति का विरोध करने वाली शक्तियों की अत्यंत निराशाजनक अनुपस्थिति। अगर हम इन कविताओं के रचनाकाल पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ़ यह दौर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तानाशाही शक्तियों के उभार का है तो दूसरी तरफ़ नक्सलबाड़ी  आंदोलन के बर्बर दमन और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जबरदस्त छात्र-युवा आंदोलन का भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं की परिणति इमर्जेंसी में हुई थी। साफ़ दिखता है कि ऊपर उल्लिखित कविताओं में सत्ता की पहचान तो काफी हद तक अचूक है लेकिन जनता के संघर्षों को इनमे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। नतीजे के तौर पर इन कविताओं में घनघोर निराशावाद और भविष्यहीनता का माहौल दिखाई पड़ता है। सवाल यह है कि रघुवीर सहाय जिन्होंने स्वयं भी दिनमान के संपादक के रूप में उस दौर में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी कविता में कैसे जनता की शक्ति और उसके संघर्षों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हो गए। यह सवाल इसलिए निर्णायक है कि इसके जवाब से उनके निराशावाद के स्रोत और उसकी वैधता का पता चलेगा। इसका जवाब ढूंढने के लिए हम उस दौर की उनकी कुछ और कविताओं के माध्यम से उनके भावजगत में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।

उनकी प्रसिद्ध कविता "आने वाला ख़तरा" की आरंभिक पंक्तियां हैं:

"इस लज्जित और पराजित युग में/ कहीं से ले आओ वह दिमाग़/ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता/कहीं से ले आओ निर्धनता/जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती/और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो....."

आम लोगों में पाई जाने वाली कमज़ोरियाँ ही इस कविता का प्रतिपक्ष है। इस बात के लिए निस्संदेह रघुवीर सहाय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहने का आसान रास्ता न अपनाकर जनता को उसकी कमज़ोरियों की याद दिलाने की कोशिश की। अफ़सोस यह है कि यह आलोचना उन्होंने जनता का एक सदस्य अथवा हमसफ़र बनकर नहीं, नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े अभियोजक के रूप में की। कबीर ने गुरु की जो कल्पना की है उसमें सच्चे आलोचक के भी दर्शन होते हैं:

गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट
अंतर   हाथ   सहार   दै    बाहर   मारै    चोट

प्रेमचन्द ने गोदान के पहले ही पेज पर होरी से कहलवाया था कि "जब दूसरे के पांवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुसल है"। लेकिन रघुवीर सहाय को लोग अपनी किसी परिस्थिति के कारण नहीं, "आदतन" ख़ुशामद करते दीख पड़ते हैं। वह भी इतने सर्वव्यापी ढंग से कि ऐसा न करने वाले को मानो दिन में चिराग़ लेकर ढूँढना पड़ता है। मुक्तिबोध भी आम लोगों की कमज़ोरियों को चिह्नित करते हैं लेकिन वे लोग उनकी आत्मा के अंश से गढ़े जाते हैं इसलिए वे कभी अकेले नहीं छूटते। "अँधेरे में" का यह अंश देखें:

"अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया!!/ बताओ तो किस- किस के लिए तुम दौड़ गए/करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए,/ बन गए पत्थर;/ बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,/ दिया बहुत-बहुत कम,/ मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!"

आलोचना मुक्तिबोध की भी पर्याप्त कठोर है लेकिन वे अपने लोगों से मुख़ातिब होते हैं, उनसे संवाद करते हैं, और उनकी लानत-मलामत करते हुए भी अफ़सोस और दुख महसूस करते हैं।इसीलिए वे अपने पाठकों को रूपांतरण की राह में आगे बढ़ने को प्रेरित कर पाते हैं।

इधर रघुवीर सहाय की कविता में "निर्धनता" है जो "अपने बदले में" कुछ न कुछ मांगती रहती है। ज़ाहिर है, यह शिकायत ग़रीबों से है जो बक़ौल कवि मानो अपना पेट बजाकर हमेशा कुछ मांगा ही करते हैं। बदले में एक बार फिर हमारा कवि ऐसा न करने वालों को "कहीं से" ढूंढ कर लाने की मांग करता है और आत्मसम्मान के सबूत के रूप में उन्हें "एक बार" आंख से आंख मिलाने को कहता है। यह नाज़ुक मसला ग़रीब और दुखी लोगों के प्रति नज़रिए से जुड़ा हुआ है। हर संवेदनशील कवि को इसका सामना करना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक कवि इस पर एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं देता। यहां हम आधुनिक हिंदी कविता के दो निर्माता कवियों की इसी विषय पर लिखी कविता उद्धृत करके उनकी संवेदना के बीच मौजूद फांक का अनुभव करेंगे। पहली कविता निराला की "भिक्षुक" है और दूसरी पंत की "वह बुड्ढा"। आइए पहले निराला की कविता का आरंभिक अंश देखें:

"वह आता------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,/ चल रहा लकुटिया टेक,/ मुट्ठी भर दाने को----- भूख मिटाने को/ मुँंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"   

अब पंत की कविता "वह बुड्ढा" की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें:

"बैठ , टेक धरती पर माथा,/ वह सलाम करता है झुककर,/ उस धरती से पांव उठा लेने को/ जी करता है क्षणभर।...................गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,/ लुंगी से ढाँपे तन,/ नंगी देह भारी बालों से,/ वनमानुष सा लगता वह जन/ भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,/ खड़ा हो, जाता वह नर,/ पिछले पैरों के बल उठ/ जैसे कोई चल रहा जानवर!/ काली नारकीय छाया निज/ छोड़ गया वह मेरे भीतर,/ पैशाचिक-सा कुछ दुखों से/ मनुज गया शायद उसमें मर!"

सम्भव है पन्त की कविता उस गरीब बुड्ढे व्यक्ति के प्रति हमदर्दी से शुरू हुई हो, लेकिन तुरन्त ही उनका आभिजात्य उनके मन में उसके प्रति नफ़रत भर देता है, और अंततःउसे जानवर के स्तर तक गिरा देता है। जबकि निराला की कविता में, भीख मांगने की मजबूरी में भी एक मनुष्य की भावनाओं का आलोड़न और उसको देखने वाले के मन में उसकी प्रतिक्रिया का मार्मिक अंकन हुआ है। यह जनसमुदाय से आत्मिक और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए कवि की संवेदना और जनता के प्रति सहानुभूति के बनावटी आग्रह के बीच का फ़र्क़ है। दूसरी श्रेणी के कवि जनता का पक्ष चुनने के अपने निर्णय को इतना अधिक महत्व देते हैं कि मनमाफ़िक परिवर्तन न होने पर वे जनता पर ही खीज और झल्लाहट उतारने लगते हैं। रघुवीर सहाय की कविताएं उनको इसी श्रेणी में ले जाती हैं।

निर्धनता का अपने बदले में कुछ मांगना मूलतः "आत्मदया" की प्रवृत्ति है, यानी अपनी दुरवस्था का प्रदर्शन करके पूरी दुनिया से प्रेम, सहानुभूति वगैरह की अपेक्षा रखना। हमारे समाज की यह एक गहरी समस्या है जिसका सामना हमारे अनेक कवियों ने किया है। इनमे से रघुवीर सहाय से किंचित वरिष्ठ दो कवियों मुक्तिबोध और त्रिलोचन का एक-एक उद्धरण देखते हैं:

"दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,/अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,/ असंग बुद्धि व अकेले में सहना,/ ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,/ अब तक क्या किया,/ जीवन क्या जिया!!"                   (मुक्तिबोध,"अंधेरे में")

"जिस समाज मे तुम रहते हो/यदि उसकी करुणा ही करुणा/ तुमको यह जीवन देती है/ जैसे दुर्निवार निर्धनता/ बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती/ तो यह जीवन की भाषा में/ तिरस्कार से पूर्ण मरण है।"    (त्रिलोचन, "जिस समाज में तुम रहते हो")                                                                                 
इन दोनों कविताओं में लोगों की आत्महीनता और आत्मदया की प्रवृत्ति को पहचानकर उसका प्रतिवाद किया गया है, लेकिन इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के प्रति हमदर्दी के साथ। यह हमदर्दी इस समझ से आती है कि ये कमज़ोरियाँ आम लोगों में उनकी परिस्थितियों के चलते आती हैं और मानव समाज के एक सदस्य के रूप में कहीं न कहीं हम भी उन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन कमज़ोरियों में साझा करते हैं। मुक्तिबोध की कविता का पात्र "दुखों के दाग़ों को तमगे सा" पहनता है लेकिन समाज से कटे होने के कारण (असंग बुद्धि ) अपने मानसिक उद्वेलन को अकेले में सहता है जिससे उसकी ज़िन्दगी तहख़ाने में बदल जाती है।

त्रिलोचन की कविता में समाज की करुणा पर पूरी तरह से आश्रित व्यक्ति का जीवन भी "मरण" के ही समान माना गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति के शिकार व्यक्ति पर कोई आक्षेप न करते हुए उसे सहारा देकर सचाई बताने का यत्न किया गया है। इधर रघुवीर सहाय की कविता में जो मनोवृत्ति सक्रिय है उसे ग़रीबों और भिखारियों में कोई फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता। ग़रीबों से सिर्फ़ एक बार आंख मिलाने की मांग कुछ इस तरह की गई है जैसे आजकल कुछ लोग मुसलमानों से देशभक्ति प्रदर्शित करने का आग्रह करते हैं। अच्छा! तो आप ग़रीब होने के बावजूद आत्मसम्मान रखते हैं। ठीक है, एक  बार आंख से आंख मिलाकर दिखाइए।

दरअसल, ये अतिसरलीकरण के दोष से ग्रस्त वक्तव्य हैं, जिनकी वास्तविक चोट उन्हीं लोगों पर पड़ती है जिनकी तरफ़दारी का दम कवि भरता है। यह कहने पर कि लोगों में शर्म, ग़ैरत और प्रतिरोध जैसे गुणों का ख़ात्मा हो गया है, चोट उन्हीं पर पड़ती है जो इन मानवीय गुणों को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। जो सचमुच बेग़ैरत और चाटुकार हैं उन्हें तो इस विचार से राहत ही मिलती है कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिस तरह सभी भारतीयों को भ्रष्ट कहने पर भ्रष्टाचारी की तो बांछें खिल जाती हैं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो व्यक्ति इन प्रलोभनों से परहेज कर रहा है, वह अपने को अकारण लांछित होता हुआ पाता है। इसी तरह आमलोगों को आदतन ख़ुशामद करने वाला, ग़रीबी का सौदा करने वाला, और आत्मसम्मान से हीन कहने पर जनसमुदाय में व्याप्त इन प्रवृत्तियों को बच निकलने की राह मिल जाती है-----जब सभी ऐसे ही हैं तो कोई क्या कर सकता है-----और इन प्रवृत्तियों से जूझने वाले लोग अन्यायपूर्ण ढंग से ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाते हैं। इस प्रकार तमाम सदिच्छा के बावजूद ऐसे अतिसरलीकृत वक्तव्यों के निहितार्थ जनविरोधी होते हैं।

इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि आम लोगों में व्याप्त "ख़ुशामद" की जिस कमज़ोरी को यह कविता अपना निशाना बनाती है, उसके एक निकृष्ट रूप "आदतन ख़ुशामद" को अपने प्रतिपक्ष के रूप में चुनती है। यह चुनाव ही तय कर देता है कि कविता कोई नई ऊंचाई नहीं पा सकेगी। ख़ुशामद करने का आदी होने का अर्थ है, उसीमें संतुष्टि व सुख पाना, ग़ुलामी की मानसिकता में रच-बस जाना। ऐसे लोग भला किस सम्मान के योग्य होंगे? इस तरह अपने प्रतिपक्ष के हीनतर रूप को हमले के लिए चुनकर कविता अपने पतन की राह ख़ुद चुन लेती है।

रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता "रामदास" का विषय भी आम लोगों का आचरण है। ये लोग न केवल खुलेआम हुई हत्या के निष्क्रिय दर्शक हैं, बल्कि कविता के अंत तक आते-आते इस हत्या की अनिवार्यता के उत्साही समर्थक हो जाते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें---

"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"

यहाँ पहले तो हत्या का तमाशा देखते लोग हत्या होने के बाद मानो राहत की साँस लेते हैं, और उसकी अनिवार्यता का बखान करते हैं---कहा नहीं था......। इसके बाद वे इसका उत्सव-सा मनाने लगते हैं। हत्यारे के चले जाने के बाद बार-बार एक दूसरे को मृत रामदास का शव दिखाकर उसकी मौत का भरोसा दिलाते हैं। इतना ही नहीं वे उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए खोजते हैं, जिन्हें हत्या की अनिवार्यता में संदेह था। ज़ाहिर है वे इस रीत-नीत से असहमत लोग रहे होंगे। लेकिन वे भी गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हैं। उन्हें खोजना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना आदतन ख़ुशामद न करने वालों को खोजना था। कवि जैसे कह रहा हो कि कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जिसे हत्यारे की कामयाबी पर शक न हो।

दूसरी तरफ़, आम लोगों के रवैये में किसी प्रकार के अफ़सोस की झलक तक नहीं है। कवि का रुख़ भी उनके प्रति उतना ही निष्करुण है। वह लोगों के वहां खड़े रह जाने को उनकी "निडरता" की संज्ञा देकर उन पर अत्यधिक कठोर व्यंग्य करता है। लोगों की कमज़ोरियों या उनके पतन को वह मानो उनका चुनाव मानता है,और ख़ुद मनुष्यता का लबादा ओढ़कर कहीं ऊँचाई पर खड़ा रहता है।

इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि लोग ऐसी कमज़ोरियों का प्रदर्शन नहीं करते। हत्यारे का सामना होने की आत्यंतिक स्थिति को छोड़ भी दें तो किसी की जान बचाने के लिए कई बार उन्हें अपनी मामूली सुविधाओं को छोड़ने में भी परेशानी होती है। आए दिन ऐसा देखने में आता है कि दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति सड़क पर छटपटाता रहता है और लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं। यही लोग दंगाइयों और अपराधियों को चुनाव भी जिताते हैं। लेकिन क्या यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू नहीं है? यही आम लोग दूसरों के लिए जान भी देते हैं, ग़रीब और मासूम लोगों के इंसाफ के लिए लड़ते हैं, और मनुष्यता की नई से नई नज़ीर पेश करते हैं। यह बात और है कि हमारी व्यवस्था और ख़ासकर मीडिया की दिलचस्पी ऐसी चीज़ों में नहीं है इसलिए इनकी कहानियाँ कम सुनाई पड़ती हैं, लेकिन ये हर कहीं होते हैं। इसीलिए जब कोई कवि इनके होने से इनकार करता है तो वह जाने-अनजाने सत्ता और व्यवस्था की हाँ में हाँ मिला रहा होता है।

यह सच है कि हमारे देश के आम लोग ग़ुलामी, बंटवारे और आज़ादी के बाद भी जारी लूटतंत्र के इस क़दर सताए हुए हैं कि अनेक बार वे सामान्य मानवीय भावनाओं से भी वंचित जान पड़ते हैं। न्यूनतम मानवीय गरिमा से वंचित अपने देशवासियों को देखकर कवि उनसे प्रेम के कारण उनकी आलोचना करे और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन अगर वह जनसमुदाय के पतन से अछूता रह जाने के जोश में मानवता को आभिजात्य की तरह धारण करता है और बाक़ी लोगों को लताड़ लगाता है तो उसे जनपक्षधर कवि कहना मुश्किल है। आइए देखें मुक्तिबोध ऐसी स्थिति का सामना होने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं:

" ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,/ अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/ भूतों की शादी में कनात से तन गए,/ किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,"

आलोचना यहाँ भी सख़्त है, लेकिन आलोचना करने वाला ख़ुद को भी अपने देशवासियों के पतन का भागीदार और ज़िम्मेदार पाता है। अपने मन को सम्बोधित करके यह सब कहने का यही अभिप्राय है। अपने देशवासियों की नियति से आज़ाद होकर उसने शुद्धता का कोई बाना नहीं ओढ़ रखा है। "अँधेरे में" नामक इस कविता में अन्यत्र भी इस आशय के वक्तव्य हैं,मसलन:

"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।

असल में, रघुवीर सहाय की चेतना में जनता एक अचेतन समुदाय की तरह आती है जिसे कुछ ज्ञानवान लोग सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी यह धारणा इतनी मज़बूत है कि उनके अपने समय में चलने वाले जनसंघर्ष भी इस पर खरोंच नहीं डाल पाते। जनता की शक्ति और उसकी भूमिका की समझ से कटी हुई यह चेतना किसी दौर में सीमित रूप से जनपक्षधर भूमिका  भले ही निभा ले, वर्तमान संक्रमणकालीन दौर की लोकतांत्रिक चेतना से नहीं जुड़ पाती। जनता की भूमिका का अवमूल्यन करने वाली उनकी चेतना की एक और बानगी देखते चलें:

"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसन्द है"(आज का पाठ है)

इस श्रृंखला में हमनेे जानबूझकर अब तक रघुवीर सहाय के एक परिपक्व संग्रह की सबसे  चर्चित और प्रशंसित कविताओं का विश्लेषण किया है ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं से ही उनकी सीमा भी प्रकट हो। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर इस मूल्यांकन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की जनता के प्रति अवमानना भरा रुख़ उनके किसी ख़ास दौर की विशेषता है। दरअसल, यह उनकी चेतना का ट्रेडमार्क है। इस बात को समझने के लिए हम उनके आरम्भिक और परवर्ती दौर की एक -एक कविता पर ग़ौर करेंगे। पहले एक शुरूअाती कविता "दुनिया"(1957) की  अंतिम पंक्तियों पर नज़र डालें:

"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"

ये पंक्तियां अपनी मिसाल आप हैं और इनपर कुछ भी कहना ग़ैरज़रूरी है। कवि की परवर्ती दौर की एक छोटी सी कविता "जब उसको गोली मारी गयी"(1984) देखें:

"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"

जैसा कि स्पष्ट है इस कविता में एक हत्या के बाद खिंची हुई तस्वीर के माध्यम से बात की गई है। चूल्हे पर पकता खाना और मृतक के बेटे का चेहरा भी तस्वीर में आ गया है। वैसे तो यह विवरण तथ्यपरक और मार्मिक हो सकता था, लेकिन कवि को संभवतः विश्वास नहीं है कि किसी की हत्या का शोक उसके यानी स्वयं कवि के अलावा किसी और को हो सकता है चाहे वह मृतक का अपना  बेटा ही क्यों न हो। "बैठकर अपना मुँह दिखलाने" की बात से लगता है कि फ़ोटो में अपना चेहरा ठीक से आए इसके लिए प्रयास किया गया है, ख़ास तौर पर तब जब मृतक का चेहरा ढँका है। शव के चेहरे को ढँकना अत्यंत सामान्य प्रथा है और उसकी फोटो में उसके किसी प्रियजन की तस्वीर आ जाना भी उतनी ही सामान्य बात। ग़ौरतलब यह है कि कवि इस तकलीफ़देह परिस्थिति में भी चीजों को देखने का कौन सा कोण खोज लाता है। उसके संयोजन में यह सब मृत व्यक्ति के प्रति उपेक्षा और किंचित विश्वासघात की तरह प्रकट होता है। इस कविता में "रामदास" की संवेदना की निरंतरता को आसानी से पहचाना जा सकता है, बस समय के साथ तमाशा देखते लोगों की भीड़ में रामदास का बेटा भी न केवल शामिल हो गया है बल्कि अपना दयनीय चेहरा दिखाकर उसने संभवतः "निर्धनता के बदले कुछ मांगने" का कारोबार भी शुरू कर दिया है।

कवि के मनोजगत की बुनावट को समझने के लिए इससे बेहतर साक्ष्य मिलना मुश्किल है।यहाँ यह भी नोट करना चाहिए कि जनता की शक्ति और उसकी प्रवृत्ति पर सहज अविश्वास कवि को कमजोर करता है, और वह अंततः इस स्थिति में नहीं रह जाता कि सत्ता के विरुद्ध अपने रवैये को बनाए रख सके। इसका पता रघुवीर सहाय की एक चर्चित कविता 'दो अर्थ का भय' के विश्लेषण से चलता है। कविता इस प्रकार है:

"मैं अभी आया हूं सारा देश घूमकर
पर उसका वर्णन दरबार में करूंगा नहीं
राजा ने जनता को बरसों से देखा नहीं
यह राजा जनता की कमजोरियां न जान सके          इसलिए मैं
जनता के क्लेश का वर्णन करूंगा नहीं
इस दरबार में

सभा में विराजे हैं बुद्धिमान
वे अभी राजा से तर्क करने को हैं
आज कार्यसूची के अनुसार
इसके लिए वेतन पाते हैं वे
उनके पास उग्रस्वर ओजमई भाषा है

मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रंदन
भाषा में शब्द नहीं दे सकता
क्योंकि जो सचमुच मनुष्य मरा
उसके भाषा न थी

मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो
ख़तरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे
तो किस तरह उन को चेतावनी देने की भाषा बेकार हो चुकी होगी
एक नई भाषा दरकार होगी
जिन्होंने मुझसे ज्यादा झेला है
वे कह सकते हैं कि भाषा की ज़रूरत नहीं होती साहस की होती है
फिर भी बिना बतलाये कि एक मामूली व्यक्ति एकाएक कितना विशाल हो जाता है
कि बड़े-बड़े लोग उसे मारने पर तिल जायें
रहा नहीं जा सकता

मैं सब जानता हूँ पर बोलता नहीं
मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है
पुलिस के दिमाग़ में वह रहस्य रहने दो
वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं
जहाँ सुना नहीं उनका ग़लत अर्थ लिया और मुझे मारा
इसलिए कहूँगा मैं
मगर मुझे पाने दो
पहले ऐसी बोली
जिसके दो अर्थ न हों"

इस कविता का ढाँचा शुरू से ही सत्ता बनाम जनता का है। शीर्षक से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि भाषा की द्विअर्थकता के पक्ष में नहीं है, क्योंकि वह अपनी कविता को असंदिग्ध रूप से शासकों के ख़िलाफ़ बनाए रखना चाहता है। वह नहीं चाहता कि इसका कोई भी अन्य अर्थ निकले। लेकिन अंत तक आते-आते शीर्षक का कुछ अलग ही मंतव्य प्रकट होता है। इस कविता के वाचक 'मैं' से कवि की सहमति और सौमनस्य पर्याप्त स्पष्ट है। वह कवि का माउथपीस हो या नहीं, लेकिन कवि के अपने पक्ष का ही प्रतिनिधि है।

रघुवीर सहाय की कविता में अक्सर किसी आम आदमी की हत्या होती है। इस कविता में भी ऐसा होता है। ख़ास बात यह है  कि कविता का वाचक  मृतक का पक्ष रखने के लिए उसी के प्रामाणिक स्वर में बोलना चाहता है, लेकिन नहीं बोल पाता क्योंकि मृतक के पास भाषा न थी, और उसके पास है।

अजब विडंबना है कि जो आदमी मर गया उसके पास जीवित रहते अभिव्यक्ति की संभावना नहीं थी, और जिसके पास यह माध्यम भाषा के रूप में उपलब्ध है वह अपनी भाषा के बावजूद, या शायद उसकी वजह से ही, उस व्यक्ति की भावना को प्रामाणिक स्वर देने में ख़ुद को अक्षम पा रहा है। भावुकता और शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है। दृश्य कुछ-कुछ स्वानुभूति बनाम सहानुभूति जैसा है। अब सवाल है कि अगर भाषा का होना ही अभिव्यक्ति की राह में बाधा है तो उसका विकल्प क्या है।

कविता की अंतिम पंक्तियों के अनुसार उसका विकल्प बोली है जिसके दो अर्थ न हों। संभवतः मारे गए व्यक्ति के पास भी ऐसी ही बोली रही होगी, तभी इसकी कामना की गई है। "एक नई भाषा दरकार होगी" से चलकर "मुझे पाने दो पहले ऐसी बोली" तक पहुंचते हुए ऐसा लगता है कि वाचक की तलाश पूरी हुई, पर अभी एक गुत्थी बाक़ी है। यह पता चलता है कि वाचक के अपने कारुण्य और क्रंदन को शब्द न दे पाने के पीछे असली वजह सत्ता की पुलिस जैसी दमनकारी एजेंसियां हैं, जो उन शब्दों की ताक में बैठी हैं, और उनके सामने आते ही उनका "ग़लत" अर्थ लगा कर वाचक को निशाना बना सकती हैं।

इसी बात में कविता की समस्या छिपी है। परम्परागत रूप से इस कविता के अध्येताओं ने मान लिया है कि यह "ग़लत" व्याख्या सत्ता द्वारा प्रायः की जाने वाली दुर्व्याख्या का ही एक रूप है, इसलिए ऐसी दुर्व्याख्या को असम्भव बनाने वाली भाषा अवश्य ही सत्ताविरोधी होगी। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सत्ता का दमन किसी के विचारों की ग़लत व्याख्या से हो या सही व्याख्या से, उसका सत्ताविरोधी व्याख्या होना अनिवार्य है। आप कुछ भी कहते रहिए सत्ता उसकी मनमानी व्याख्या करके दमन करने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे में अगर पुलिस के डर से अभिव्यक्ति को स्थगित किया गया है, तो वाचक को तलाश सचमुच किस चीज़ की है, इसे समझना ज़रूरी है।

बोली के अलावा भाषा का एक और विकल्प साहस के रूप में कविता में मौजूद है।यहां एक सदिच्छा से भरी हुई वजह यह समझ में आती है कि शायद कवि अपने वाचक की साहसहीनता को प्रकट करने के लिए उसके वाक्जाल का पर्दाफ़ाश करना चाहता है। लेकिन यह व्याख्या एक क्षण भी नहीं टिकती, क्योंकि भाषा बनाम साहस का जो समीकरण इसमें बनता है उसमें भाषा को छोड़ना न तो रघुवीर सहाय के सरोकारों की दृष्टि से उचित होगा और न ही वैचारिक दृष्टि से साहस जैसी किसी अमूर्त भावना को भाषा पर तरजीह दी जा सकती है। ऐसी परिस्थिति में "जिन्होंने मुझसे ज्यादा झेला है," इस कथन में दबा-छिपा व्यंग ही दिखाई पड़ता है जो "ज्यादा झेलने वाले" लोगों के हिस्से में अक्सर आया करता है। "रहा नहीं जा सकता" वाक्यांश बरबस ही मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" के वाचक की याद दिलाता है। वह भी कहता है:

"भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता!
नहीं, नहीं, उसको मैं छोड़ नहीं सकूंगा
सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही।"

मुक्तिबोध का काव्यनायक तो अपने संघर्ष में उतरता है और उसे परिणति तक ले जाता है, लेकिन रघुवीर सहाय का काव्यनायक एक शर्त लगा देता है कि मैं अपनी भाषा में नहीं बोलूँगा, क्योंकि एक तो जिसकी मौत हुई वह भाषा नहीं जानता था और दूसरे मेरे शब्दों को सुनते ही पुलिस वाले उनका मनमाना अर्थ लगा कर मुझ पर टूट पड़ेंगे। इसलिए पहले ऐसी बोली मिले जिसके दो अर्थ न हों तो मैं बोलूँ।

कविता की अंतिम पंक्तियों पर दुबारा ध्यान दें तो हम पाते हैं कि वाचक 'मैं' की बातों का ग़लत या दूसरा अर्थ वह है जो पुलिस लगाती है या लगा सकती है और उस दूसरे अर्थ का आरोप लगाकर वाचक को मार सकती है। यानी कोई ऐसा अर्थ जो पुलिस और सत्ता के विरोध में जाता है। आशय यह निकलता है कि जो पहला और सच्चा अर्थ है वह दरअसल दंडनीय नहीं है, यानी सत्ता के ख़िलाफ़ नहीं है, फिर भी दमनकारी मशीनरी इसको नहीं समझ पा रही है। जब तक राजदंड की ऐसी आशंका बनी हुई है वाचक को मजबूरन चुप रहना होगा। जब तक शासन-सत्ता संभालने वाले इतने "समझदार" नहीं हो जाते कि वाचक की बातों को ठीक-ठीक समझकर उन्हें अपने हक़ में मानते हुए उनकी दुर्व्याख्या को अनावश्यक मान लें, तब तक एक ही अर्थ वाली बोली या भाषा की सिर्फ़ कामना की जा सकती है।

इन पंक्तियों से वर्षों पहले मुक्तिबोध सत्ता के चरित्र के बारे में बता चुके थे:

"हाय, हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी"

ज़ाहिर है कि यह कविता आम लोगों की भूमिका के प्रति रघुवीर सहाय की पूर्णतया नकारात्मक समझ से प्रेरित है। इस कविता को कैसे भी पढ़ें इसकी कोई जनपक्षधर व्याख्या नहीं हो पाती। रघुवीर सहाय कोई ऐसी कविता लिखेंगे जो अभिव्यक्ति को असंभव बनाती हो यह सोचना आसान नहीं है, लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं दिखता। हमारा समाज आज जिस अँधेरे मोड़ पर है, वहां कविता पर बहस करना रोशनी की एक लकीर का आह्वान करने जैसा है। हमारे समय के वैचारिक संकट को हल करने की दिशा में सत्ता और जनता के प्रति हमारा रवैया बुनियादी महत्व रखता है। यहां ये पंक्तियां इस उम्मीद के बग़ैर नहीं लिखी गई हैं कि आने वाले समय में विचारों की दुनिया में छाया हुआ मरघट-सा सन्नाटा टूटेगा और हम कह सकेंगे कि यह तूफान के पहले की शांति थी।

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