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कुँवर नारायण की कविता

  कुँवर नारायण:निचली सतहों की ख़बर "एक अजीब दिन"  शीर्षक कविता देखें:  "आज सारे दिन बाहर घूमता रहा  और कोई दुर्घटना नहीं हुई। आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा  और कहीं अपमानित नहीं हुआ।  आज सारे दिन सच बोलता रहा  और किसी ने बुरा न माना। आज सब का यक़ीन किया  और कहीं धोखा नहीं खाया।  और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह  कि घर लौट कर मैंने किसी और को नहीं अपने ही को लौटा हुआ पाया।" कुछ मायनों में यह कुँवर नारायण की एक प्रतिनिधि कविता है। संक्षिप्तता, व्यंजकता, पारदर्शिता और सिनिकल निराशा का मिश्रण।शुरुआती पंक्तियों में किसी आधुनिक व्यक्ति के जीवन की विडंबना है। वह एक ऐसे समाज में रहता है जहां बाहर घूमने का सहज अर्थ है दुर्घटना, लोगों से मिलना यानी अपमान झेलना, सच बोलना यानी विरोधी बनाना, और दूसरों का यक़ीन करना मतलब धोखा खाना। यही हस्बमामूल दिनचर्या है, जिसका नतीजा है कि वह आमतौर पर दुर्घटना, अपमान, विरोध और धोखा की स्थितियों से बचने की कोशिश करता है। ऐसी परिस्थिति में उसे अपने मनोभावों को दबाकर लोगों से बनावटी व्यवहार करना पड़ता है। नतीजतन उसका आत्म उससे दूर होता जाता है। यहां तक कि

सृष्टि पर पहरा

  रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई  कवि केदारनाथ सिंह की परवर्ती दौर की कविताओं से गुज़रते हुए यह अनुभूति होती है कि हमारी आधुनिक सभ्यता के आवरण तले दबकर खो जाने वाली बहुत सी सचाइयाँ हैं जिन्हें कवि उकेरना चाहता है। इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह समय के हमारे बोध के साथ कुछ प्रयोग करते हैं, और दिलचस्प ढंग से उसे कुछ नया मोड़ दे देते हैं। मिसाल के लिए  उनकी कविता "अगर इस बस्ती से गुज़रो" को लेते हैं। इसकी आरंभिक पंक्तियां हैं:  "अगर इस बस्ती से गुज़रो  तो जो बैठे हों चुप  उन्हें सुनने की कोशिश करना  उन्हें घटना याद है  पर वे बोलना भूल गए हैं" समाज की विषादमय सतह से उसकी तह तक झाँकने की कोशिश करती इस कविता की शुरूआत स्मृति और विस्मृति के द्वंद्व से होती है। आमतौर पर विस्मृति शासक वर्ग की करतूतों का नतीजा होती है। जनता की चेतना को भ्रष्ट करके और उसकी प्राथमिकताओंं को बदलकर सत्ता उसके इतिहास-बोध की पुनर्रचना करती है। लेकिन यहाँ दुर्घटना एक अलग तल पर, एक अलग आयाम में हो रही है। यहाँ जो व्यक्ति है, उसे अतीत की याद बनी हुई है, लेकिन वह उसे कहना भूल गया है। अनुभूति किसी हद