कुँवर नारायण की कविता

 कुँवर नारायण:निचली सतहों की ख़बर





"एक अजीब दिन"  शीर्षक कविता देखें: 



"आज सारे दिन बाहर घूमता रहा 

और कोई दुर्घटना नहीं हुई।

आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा 

और कहीं अपमानित नहीं हुआ। 

आज सारे दिन सच बोलता रहा 

और किसी ने बुरा न माना।

आज सब का यक़ीन किया 

और कहीं धोखा नहीं खाया। 


और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह 

कि घर लौट कर मैंने किसी और को नहीं अपने ही को लौटा हुआ पाया।"



कुछ मायनों में यह कुँवर नारायण की एक प्रतिनिधि कविता है। संक्षिप्तता, व्यंजकता, पारदर्शिता और सिनिकल निराशा का मिश्रण।शुरुआती पंक्तियों में किसी आधुनिक व्यक्ति के जीवन की विडंबना है। वह एक ऐसे समाज में रहता है जहां बाहर घूमने का सहज अर्थ है दुर्घटना, लोगों से मिलना यानी अपमान झेलना, सच बोलना यानी विरोधी बनाना, और दूसरों का यक़ीन करना मतलब धोखा खाना। यही हस्बमामूल दिनचर्या है, जिसका नतीजा है कि वह आमतौर पर दुर्घटना, अपमान, विरोध और धोखा की स्थितियों से बचने की कोशिश करता है। ऐसी परिस्थिति में उसे अपने मनोभावों को दबाकर लोगों से बनावटी व्यवहार करना पड़ता है। नतीजतन उसका आत्म उससे दूर होता जाता है। यहां तक कि जब वह लौटकर घर आता है तो अपनी जगह किसी और को आया हुआ पाता है। कविता में एक अपवाद दिन की रचना की गई है जिससे इन बातों का पता चलता है। ज़ाहिर है कि यहां हमारे समाज की आत्मकेंद्रित और पाखंडी प्रवृत्ति कवि के निशाने पर है। इसमें कोई शक नहीं कि चंद पंक्तियों में ही इन चीज़ो को उभारने और इनकी व्यर्थता को दिखाने में कवि को असाधारण सफलता मिली है, लेकिन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कविता में दुर्घटना को ही सामान्य नियम की तरह ट्रीट किया गया है। किसी भविष्यहीन अंधकारमय समाज में ही यह हो सकता है कि यक़ीन करने पर धोखा न खाना आश्चर्यजनक माना जाए और कवि उस आश्चर्य को दर्ज करे। भारतीय समाज के बारे में व्याप्त तमाम आशंकाओं के बावजूद इसकी शक्ति और संघर्षक्षमता का ऐसा निराशाजनक चित्रण कम देखने में आता है। इस मामले में रघुवीर सहाय कुछ हद तक इस निराशावाद को शेयर करते हैं।



अगर थोड़ी छानबीन करें तो पता चलता है कि कवि ने समाज को इस क़दर निराशाजनक क्यों माना। हम उसी पर आक्रमण करते हैं जिसे अपना प्रमुख शत्रु मानते हैं। उसने समाज की सबसे पतित और गरिमाहीन प्रवृत्ति को ही समाज का मुख्य रूप मान लिया। हमारे समाज में इन बुराइयों का अस्तित्व निर्विवाद है लेकिन इनकी सबसे निकृष्ट अभिव्यक्ति को ही कवि ने अपने प्रहार का विषय बनाया जबकि समाज के विभिन्न स्तरों पर यह प्रवृत्तियां अपने सूक्ष्मता रूपों में मौजूद और सक्रिय हैं। कविता के सामने चुनौती है अपने विरोधी के सबसे सूक्ष्म और परिष्कृत यानी सबसे शक्तिशाली रूप को चुनौती देने की, लेकिन वह उसके सबसे सतही रूप से उलझ जाती है।



कुँवर नारायण की ही एक अन्य कविता "इंतज़ाम" की शुरुआती पंक्तियां देखें:



"कल फिर एक हत्या हुई 


अजीब परिस्थितियों में।



मैं अस्पताल गया 


लेकिन वह जगह अस्पताल नहीं थी।


वहाँ मैं डॉक्टर से मिला 


लेकिन वह आदमी डॉक्टर नहीं था।


उसने नर्स से कुछ कहा 


लेकिन वही स्त्री नर्स नहीं थी। 


फिर वे ऑपरेशन-रूम में गए 


लेकिन वह जगह ऑपरेशन-रूम नहीं थी।


वहाँ बेहोश करने वाला डॉक्टर 


पहले ही से मौजूद था---मगर वह भी दरअसल कोई और था।



फिर वहाँ एक अधमरा बच्चा लाया गया 


जो बीमार नहीं, भूखा था" 



हमारे समाज में व्याप्त ढोंग और पाखंड का चरम यह है कि इसमें विचार और व्यवहार में दूरी होने के बजाय दोनों एक दूसरे के पूरी तरह विपरीत हो गए हैं। इक्कीसवीं सदी में यह बात पर्याप्त स्पष्ट हो चुकी है, लेकिन अब से कोई पचास बरस पहले इस सचाई की जैसी सटीक पहचान और अभिव्यक्त इस कविता में हुई है, वह आज भी दुर्लभ है। अस्पताल, अस्पताल नहीं है, डॉक्टर, डॉक्टर नहीं है, नर्स, नर्स नहीं है। दूसरी तरफ़ इलाज के लिए जो बच्चा आया है वह भी बीमार नहीं, भूखा है। जो है, वह नहीं है, और जो नहीं है, दरअसल वही है। इस असाधारण फ़ैसलाकुन वर्णन के बाद जो कुछ होता है वह कविता के असर को न केवल सीमित कर देता है, बल्कि हमारा ध्यान इस हत्यारी व्यवस्था के संचालकों की तरफ़ न लेजाकर उनके छोटे-मोटे कारकूनों की तरफ़ मोड़ देता है। अंतिम पंक्तियां देखें:



"डॉक्टर ने मेज़ पर से 


ऑपरेशन का चाकू उठाया 


मगर वह चाकू नहीं 


ज़ंग लगा भयानक छुरा था।


छुरे को बच्चे के पेट में भोंकते हुए उसने कहा               अब यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा।"       



इन पंक्तियों में व्याप्त सचाई से इंकार नहीं किया जा सकता। हमारी व्यवस्था में गरीबों, कमज़ोरों और बच्चों के साथ हो रहे व्यवहार का ही यह एक रूपक है। समस्या इस व्यवहार के चित्रण से है। क्या समाज में व्याप्त नृशंसता के अंकन के लिए कविता में  वैसी ही नृशंसता का चित्रण होना चाहिए? क्या इसे यथार्थ होने के कारण ही उचित मान लेना चाहिए? हमारा कहना है कि अमानवीयता और नृशंसता का यथातथ्य वर्णन पाठक की संवेदना को जाग्रत करने के नहीं उन्हें सुन्न करने के काम आता है। पाठक का दिमाग कविता में व्यक्त "यथार्थ" की विकरालता और असहनीयता से पराजित हो जाता है और अनजाने ही वह उस यथार्थ को अपरिहार्य मानने लगता है। ऐसी कविता पाठक को संज्ञाशून्य बनाकर निष्क्रिय कर देती है, जबकि भाषा के परिष्कृत रूप में व्यक्त यथार्थ के सूक्ष्म स्तर पाठक के दिमाग में वह अवकाश बनाते हैं कि वह यथार्थ की बारीकियों को समझ कर उन्हें चुनौती देने के लिए सक्रिय हो सके। 



दूसरे शब्दों में कहें तो यहां जो चित्र है वह यथार्थ को उसके सबसे भोंडे रूप में कल्पित करता है। कविता की शुरुआत में हमारे समय और समाज के पाखंडी चरित्र के बारे में जिस सूक्ष्म सचाई का बयान हुआ था वह संवेदना के धरातल पर आगे विकसित न हो सका और कविता के अंत तक आते आते अपने प्रभाव को क्षीण कर बैठा।कुँवर नारायण का कवि-व्यक्तित्व बड़ा है।उनकी चिंताएं, निराला के शब्दों में, देश-काल के शर से बिंधी हुई हैं। समकालीनता उनके सरोकारों के केंद्र में है। उपनिषदों की कथाओं की अपनी कविताओं में पुनर्रचना करते हुए भी समकालीनता का उनका आग्रह बना रहता है। यह विशेषता कवि को अपने समय में तो प्रासंगिक बनाती ही है उसे कालातीत भी बनाती है। 



कुंवर नारायण अपने समकालीन कवियों में इसलिए भी विशिष्ट हैं कि वे अपने विषय को पूरी तरह आत्मसात करके उसका निचोड़ ही कविता में प्रस्तुत करते हैं। विस्तृत ब्यौरों में जाने का उनका स्वभाव नहीं है। इसीलिए उनकी बिल्कुल सरल और समकालीन कविता भी क्लासिकल प्रभाव उत्पन्न करती है। मिसाल के लिए तीसरा सप्तक में संकलित उनकी एक कविता "जो सोता है" देखें:



"जो सोता है उसे सोने दो


वह सुखी है,


जो जगता है उसे जगने दो


उसे जगना है,


जो भोग चुके उसे भूल जाओ


वह नहीं है,


जो दुखता है उसे दुखने दो


उसे पकना है,


जो जाता है उसे जाने दो


उसे जाना है,


जो आता है उसे आने दो


वह अपना है,


जो रहा है जो रहेगा


उसे पाना है,


जो मिटता है उसे मिटने दो


वह सपना है।"



सतही तौर पर देखने पर यह कविता यथास्थिति की वक़ालत करती हुई सी प्रतीत हो सकती है, लेकिन इसमें गहन इतिहासबोध अंतर्निहित है।



समकालीनता, सरलता, पारदर्शिता और क्लासिकता क साथ कुँवरनारायण की कविता का उदात्त स्वर सहज ही ध्यान खींचता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो उनके "अंतःकरण का आयतन" पर्याप्त विस्तृत है, और उसमें हर्ष और विषाद की अनेक छायाओं से घिर कर भी उनकी विषयवस्तु दीप्त होती रहती है। ज्ञान के स्तर पर वे लगभग हमेशा निर्विवाद होते हैं। पोलिटिकल करेक्टनेस जैसी किसी चीज़ के प्रति सहज अनिच्छा भी उनमें बनी रहती है। इन सबके बावजूद जब वे अपने भावजगत से उतपन्न चित्रों को कविता में पिरोते हैं तो किसी निर्णायक बिंदु पर अचानक सहज सधे हुए सितार के सुर टूट जाते हैं, और राग बिखर जाता है। न जाने किस निराशा से भरकर वे अवांछनीय प्रवृत्तियों की बिल्कुल प्राथमिक और हीनतर कोटियों को निशाना बनाने लगते हैं। इससे कविता का प्रभाव तितर बितर हो जाता है और पाठक का ध्यान भी भंग हो जाता है।



उदाहरण के लिए उनकी एक प्रसिद्ध कविता "अबकी अगर लौटा तो" को लेते हैं जो उनके संग्रह "कोई दूसरा नहीं" में संकलित है:



"अबकी अगर लौटा तो


वृहत्तर लौटूँगा


चेहरे पर लगाए नोकदार मूंछें नहीं


कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं


जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को


तरेर कर न देखूँगा उन्हें


भूखी शेर आँखों से।



अबकी अगर लौटा तो


मनुष्यतर लौटूँगा



घर से निकलते


सड़कों पर चलते


बसों पर चढ़ते


ट्रेनें पकड़ते


जगह-बेजगह कुचला पड़ा


पिद्दी सा जानवर नहीं



अगर बचा रहा तो


कृतज्ञतर लौटूँगा


अबकी अगर लौटा तो


हताहत नहीं


सबके हिताहित की सोचता


पूर्णतर लौटूँगा।"


(कोई दूसरा नहीं)



इस कविता में व्याप्त विश्वास और इसका उदात्त स्वर अचूक है। लेकिन इसके बीचोबीच एक ऐसा चित्र है जो इसकी उदात्तता को खण्डित कर देता है। राह चलते किसी तेज रफ़्तार वाहन की चपेट में आ जाने वाले जीव जंतुओं के शव हमें अक्सर इधर उधर पड़े दीख जाते हैं। क्षण भर के अफ़सोस के अलावा हम उनके बारे में कुछ और सोच भी नहीं पाते। लेकिन कवि इस दृश्य को अपने लिए अस्वीकार्य स्थिति के चित्र के रूप में लाता है, और इसे "जगह बेजगह कुचला पड़ा पिद्दी सा जानवर" कहकर याद करता है तो शहरीकरण और यांत्रिकता की अंधी दौड़ की चपेट में आकर लुप्त होते जीव कन्तुओं के प्रति कोई करुणा नहीं दिखाई पड़ती। मृत पड़े जीव की निरुपायता उसके मन मे वितृष्णा जगाती है, जो उसके शब्दों से फूट पड़ती है।



कविता में इसकी भूमिका पहले ही बन जाती है जब गलाकाट स्पर्द्धा में लगे लोगों की अपने सहयात्रियों के प्रति दृष्टि को कवि "भूखी शेर आँखें" नाम देता है। वह भूल जाता है कि मनुष्य का जो लोभ है वह दुनिया को तबाह करने वाला है जबकि शेर का भूखा होने पर किसी को खा लेना उसकी स्वाभाविक क्रिया है। उसे क्रूरता नहीं कहा जा सकता।



इस तरह हम देखते हैं कि कवि की संवेदना का आकाश संकुचित हो जाता है। उसमें मनुष्य का प्रसार तो है, लेकिन मनुष्य की बनाई सभ्यता की अंतहीन सज़ा भुगत रहे जीव जंतुओं की पैठ नहीं है। इसी क्रम में एक अन्य कविता "यह कैसी विवशता है" देखें:



"यह कैसी विवशता है--


किसी पर वार करो


वह हँसता रहता


या विवाद करता।


यह कैसी पराजय है--


कहीं घाव करें


रक्त नहीं


मवाद बहता।



अजीब वक़्त है--


बिना लड़े ही एक देश-का-देश


स्वीकार करता चलता जाता


अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता!


कुछ तो फ़र्क़ बचता


धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में--


कोई तो हार-जीत के नियमों में


स्वाभिमान के अर्थ को


फिर से ईजाद करता।"


(कोई दूसरा नहीं)



आलोक धन्वा की एक काव्यपंक्ति है---- बहस चल नहीं पाती/ हत्यायें होती हैं/ फिर जो बहस चलती है/ उसका हमा अंत हत्याओं  घो होता है। घोर विडम्बना है कि पिछले लगभग अस्सी वर्ष के हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता के निर्विवाद साम्राज्य की स्थापना के 'बावजूद' बहस की कोई लोकतांत्रिक संस्कृति इसमें नहीं बन पाई। जब ऐसी अनुकूल स्थिति में साहित्य में यह नहीं हो सका तो हिंदी समाज तो था ही प्रतिगामी, उसमें क्या आशा की जाए। इसी विडम्बना पर उँगली रखता हुआ कवि इसे हमारे देशवासियों की तुच्छता और हमारी शिराओं में ख़ून की जगह मवाद बहने का नतीजा बताता है। बड़ी हद तक अतिवादी होने के बावजूद इस नज़रिये की दिशा सही है, और इसमें आत्मसमीक्षा के सूत्र भी मौजूद हैं। लेकिन अंतिम चरण तक आते आते कविता हमारे समय में न्याय और अन्याय, सत्य और असत्य के बीच जारी युद्ध को कीटयुद्ध की संज्ञा दे डालती है। हम कीड़ों के बारे में चाहे जो राय रखें लेकिन यह एक तथ्य है कि वे मनुष्यों की तरह स्वार्थ, राग-द्वेष से संचालित नहीं होते और न ही प्रकृति के प्रति विनाशकारी होते हैं। उनकी परस्पर लड़ाइयों से प्राकृतिक संतुलन और आहार क्रम बना रहता है। दूसरी तरफ़ मनुष्यों को कीड़ों के समतुल्य बताने वाली दृष्टि सामाजिक डार्विनवाद की सीमाओं को छूने लगती है जिसके निहितार्थ भयावह हैं, लेकिन फ़िलहाल इन मुद्दों को छोड़ देते हैं, क्योंकि कवि की आधुनिक दृष्टि में जीव जंतुओं के प्रति कोई विचारशील रवैया अपनाने की ज़रूरत नहीं दीख पड़ती। 



कविता की बिल्कुल अंतिम पंक्तियों में कवि मानवसमाज के बारे में एक ऐसी टिप्पणी करता है, जिससे पता चलता है कि मानवजाति के क्षुद्र सदस्य केवल हार-जीत की भावना से संचालित हो रहे हैं और स्वाभिमान जैसे मानवीय गुण अब उनमें नदारद हो गए हैं। "कोई तो ईजाद करता" जैसी अभिव्यक्ति हमें रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों की याद दिलाती हैं:---कहीं से ले आओ वह दिमाग़/जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता।



कहना अनावश्यक है कि कविता में सक्रिय ऐसी सर्वनकारवादी दृष्टि जिन मूल्यों का पक्ष लेने का दावा करती हैं, निरपवाद रूप से उनके लिए संघर्षरत मनुष्यों के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं। स्वाभिमान नामकी चिड़िया मनुष्यों के बीच से लापता है, यह जानकारी स्वभिमान से सचमुच वंचित, लालची और ख़ुशामदी लोगों के लिए तो राहत का सबब बनेगी। इसकी चोट वे झेलेंगे जो विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मसम्मान से समझौता नहीं करते और उसकी क़ीमत चुकाते हैं। यह दृष्टि उन्हें भी लालची और ख़ुशामदी लोगों की क़तार में खड़ा कर देती है और फिर उनसे स्वाभिमानी होने का प्रमाण मांगती है।



बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नवउपनिवेशवाद की चुनौती के समक्ष हमारी जनता की शक्ति और सीमा पर विचार करते हुए मुक्तिबोध ने जब कहा था---"छिड़ने ही वाली है युगव्यापी एक बहस/ होने ही वाली है भारी जद्दोजहद"--- तो उनका आशय हमारे देशवासियों की चेतना के परिष्कार और नए रास्तों की खोज से जुड़े मुद्दों के समाधान के लिए बहस की ज़रूरत पर जोर देना था। उन्होंने उस अवश्यंभावी बहस की नींव भी रखी। लेकिन मुक्तिबोध के दौर से गुज़रकर, उनके संघर्ष से परिचित होकर आया हुआ कोई परवर्ती कवि जब हमारी जनता की 'तुच्छता' और 'मूर्खता' पर प्रहार करने लगता है, तो वाक़ई निराशा होती है। "कोई दूसरा नहीं" में ही संकलित "क्या वह नहीं होगा" शीर्षक कविता में कुँवर नारायण कहते हैं:


"क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे

बाज़ारों में

अपनी मूर्खताओं के ग़ुलाम?"


संदर्भ नई ग़ुलामी का है, लेकिन कवि का सरलीकरण ग़ौरतलब है। हमारे लोगों के सामने मौजूद चुनौतियों और उनकी कमजोरियों को वह मूर्खता का नाम देता है। स्पष्ट रूप से यह मामला हमारे सामने खड़ी चुनौतियों को कम करके आंकने का है। ऐसी स्थिति में कवि की रचनात्मक क्षमता अपने विकास के लिए ज़रूरी संघर्ष नहीं कर पाती और धराशाई हो जाती है।


इसी संग्रह में संकलित "अयोध्या 1992" शीर्षक अपनी प्रसिद्ध कविता में कुँवर नारायण कहते हैं:


"हे राम, कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता-युग!"


अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि समकालीन राजनीतिक पतन के लिए "नेता- युग" जैसा छिछला और चालू संबोधन इस कविता को पतन के ऐसे गर्त में पहुंचा देता है, जिससे उबरने की ताब इसमें नहीं है। मानव समाज का सार्थक नेतृत्व करने वाले लोगों के लिए 'नेता' शब्द ससम्मान आज भी प्रचलित है, हालांकि बोलचाल के सतही स्तरों पर इसका पर्याप्त अवमूल्यन भी हुआ है। लेकिन कुँवर नारायण जैसा कवि अगर इस शब्द का ऐसा तिरस्कार करेगा तो भाषा और साहित्य के इतिहास में इसे दुर्घटना से कम नहीं माना जा सकता। यह भीड़ बनते जनसमुदाय के बीच प्रचलित प्रयोग 'सभी नेता चोर हैं' के समतुल्य है, जिसकी जनविरोधी भूमिका असंदिग्ध है।


अपने लोगों के प्रति संवेदना धूमिल पड़ने लगती है तो उनकी कमजोरियों के प्रति करुणा के सोते सूख जाते हैं। यहां तक कि उनकी सामान्य जीवनचर्या और उपलब्धियां भी उपहास का विषय बन जाती हैं। इसी बात की याद दिलाती एक छोटी सी कविता "सरकस" देखें:


"दर्शकों से खचाखच भरी हुई दुनिया में

पूरी ईमानदारी से

जोकर का पार्ट अदा करते

संतुलन बनाए रखना

सबसे बड़ा कमाल था।

पसीना पोछो

मेकअप धो डालो

तुम पहले आदमी नहीं

जिस पर बिरादरी को नाज़ है

न तुम अंतिम आदमी हो

जिसकी कामयाबियों पर

पेट भर हंसी आती।" (वही)


कविता में पहली पंक्ति से यह स्पष्ट है कि यहां दुनिया को ही सर्कस के रूप में देखा गया है। किसी सचमुच के सर्कस का प्रसंग यहां नहीं है। अगली विचारणीय बात बिरादरी के नाज़ की है। बिरादरी को नाज़ किसी आपत्तिजनक कारण से भी हो सकता है, लेकिन जिस तरह उसकी कामयाबी पर हंसी आती है उससे यह स्पष्ट होता है कि यह किसी निंदनीय कर्म का परिणाम नहीं है। तस्वीर अब साफ़ होती है। यह कविता किसी दुनियादार और कामयाब व्यक्ति को संबोधित है, जिसे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संतुलन साधने और तालमेल बिठाने जैसे कार्य कुशलतापूर्वक करने पड़ते हैं। कवि को यह सब हास्यास्पद लगता है इसलिए वह उसे जोकर कहता है। कुल मिलाकर अपने श्रम और कौशल से कामयाब होने वाले व्यक्ति की उपलब्धियों की हंसी उड़ाती हुई संवेदना इस कविता में प्रभावी है। "बिरादरी पर नाज़" और "कामयाबी पर हंसी" के साथ "न तुम पहले हो न अंतिम" जैसी उक्तियों में यह कविता उस व्यक्ति पर, जिससे यह संबोधित है, हंसती हुई या उसे झिड़कती हुई प्रतीत होती है। सवाल यह है कि भारतीय मध्यवर्ग के ऐसे सदस्यों के प्रति जिन्होंने सांसारिक पैमानों पर कामयाबी पाई है, हमारा दृष्टिकोण क्या होगा। क्या हम उन्हें अनिवार्यतः समाज के लिए अनुपयोगी अथवा कदाचार में संलग्न लोगों के रूप में पहचानेंगे अथवा उनके उद्यम और जिजीविषा के लिए उनकी तारीफ़ करेंगे। उनके सामने आत्मोन्नति और विकास का जो रास्ता उपलब्ध था, उन्होंने उसपर चलने की कोशिश की और अपनी जगह बनाई। अगर वे किसी विद्रोही रास्ते पर चलते तो बात कुछ और होती, लेकिन हमारे समाज में विद्रोह के ठोस रास्तों और विकल्पों की सहज अनुपस्थित पर कोई बहस किए बग़ैर निजी कामयाबी के लिए प्रयास करने वालों के प्रति ऐसी अवहेलना भरी दृष्टि शुद्धतावाद और छद्म नैतिकता से प्रेरित जान पड़ती है।


बहरहाल, यह नज़रिया यहीं नहीं रुकता। इसकी तार्किक परिणति है अपने अलावा समाज के हर व्यक्ति पर आरोप लगाना और उन्हें कटघरे में खड़ा करना। ऐसा किए बग़ैर शुद्धतावाद संतुष्ट नहीं होता। कवि के दृष्टिकोण में छिपी ऐसी ही प्रवृत्ति का परिचय देती कविता है "शिकायत"। इसकी अंतिम पंक्तियां देखें:


"किसी को अपना सही परिचय देकर

ख़तरा मत उठाओ

हर जगह अपनी जेब का परिचय दो

अगर तुम मालामाल हो

तो हर आदमी एक बिकाऊ माल है


आज जब हर चीज़ का दाम सिर्फ़ बढ़ने की ओर है

आदमी की क़ीमत में भारी छूट का शोर है" (वही)


हमारे अपने देशवासियों के सामर्थ्य और सीमा के बारे में ऐसे सरलीकृत वक्तव्य सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने रचयिता की मानसिक शिथिलता का परिचय देते हैं। "हर आदमी एक बिकाऊ माल है", ऐसा वक्तव्य कोई मज़मेबाज़ मदारी दे तो फिर भी क्षम्य है, लेकिन हमारी भाषा और साहित्य को दिशा देने की ज़िम्मेदारी लेने वाले कवि के लिए यह उचित नहीं। कवि एक बार फिर यहां जनसाधारण में व्याप्त कमजोरियों और बुराइयों को निशाना बनाने चला था, लेकिन भ्रष्टाचार और चोरी जैसी उसकी सबसे निम्न कोटि को सार्वभौमिक मानकर उसे ही प्रमुखता दे बैठा। इस तरह इस कविता का अधोपतन हो जाता है।


हिंदी कविता में विश्वास रखने वाले किसी पाठक को अवसाद में डाल देने के लिए पर्याप्त इस प्रकरण का अंत हम "इन दिनों" नामक संग्रह में संकलित एक कविता "ज़ख़्म" से करते हैं:


"इन गलियों से

बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था


और अगर

दाग़ लगना ही था तो फिर

कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं


आत्मा पर

किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख़्म होता

जो कभी न भरता"


इस प्रकरण को समझने में इस कविता से काफी मदद मिलती है और बात भी पूरी हो जाती है। कविता का वाचक जो स्वयं कवि से अभिन्न जान पड़ता है कि ख़ुद से अपेक्षा कबीर जैसी है, चादर को मैली किए बिना ज्यों की त्यों धर देना। बेशक यह काम्य अभिलाषा है। इसके बाद जब कविता आगे बढ़ती है और दो विकल्पों में से एक को चुनती है तो इसकी समस्या सामने आती है।


बेदाग़ गुज़र जाने की कामना के विकल्प के रूप में जीवन जगत से गहरा लगाव रखने वाले वाचक की आत्मा पर गहरा घाव हो सकता है जो रिसता रहेगा, टीसता रहेगा, कभी भरेगा नहीं, और इस तरह उसकी संवेदना का साक्ष्य देता रहेगा। लेकिन इस संवेदना के विकल्प में जो दूसरी स्थिति है वह मासूम रक्त के छींटे पड़ने की है। ज़ाहिर है कि कोई रक्त मासूम अथवा दोषी नहीं होता। इसका आशय है किसी मासूम अथवा निर्दोष व्यक्ति के रक्त के छींटे पड़ना। किसी पर रक्त के छींटे पड़ने का अर्थ है कि किसी मासूम का ख़ून बहाने में वह भागीदार रहा है। इस तरह तस्वीर यह बनती है कि काजल की कोठरी से होकर गुज़रने वालों को लगने वाले दाग़ दो तरह के हो सकते हैं---एक तो प्यार का मीठा उपहार आत्मा का ज़ख़्म है, और दूसरा निर्दोषों का रक्त बहाने से पड़ने वाले छींटे हैं। अब सवाल यह है कि कवि के मानस में परस्पर विरोधी ऐसे चरम अतिवादी युग्म ही क्यों आते हैं। बेदाग़ न रह पाने पर दो ही विकल्प क्यों हैं। या तो कविसुलभ ज़ख़्म लिए आत्मा होगी या हत्यारे का छुरा लिए हाथ होगा। अब इसमें यह भी निहित है कि प्यार के ज़ख़्म की ताब लाने वाले होंगे ही कितने, ज़ाहिर है एक, दो या चार। यानी गिनती के। बाक़ी दुनिया जो इस ज़ख़्म के लिए ज़रूरी योग्यता नहीं रखती उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हत्यारों से जुड़ना होगा, उनमें शरीक होना होगा। शुद्धतावाद की यही भावभूमि है जो कवि को बाध्य करती है कि वह समूचे जन समुदाय को या तो अपराधियों में या अपराध करने के लिए उत्सुक और मौक़ा मिलने की ताक में खड़े लोगों के रूप में चिह्नित करे।


दूसरे शब्दों में, यह भावभूमि अपनी सदिच्छा में लोगों की आलोचना करने की बात सोचती है, लेकिन यह भूल जाती है कि जनता की आलोचना आत्मालोचना का ही एक रूप है। अपने को देवतुल्य कल्पित करने पर दूसरों को "असुर" बताना संवेदना की मजबूरी बन जाती है। यही वजह है कि जनता की कमियों के आकलन के दौरान कवि अपने सम्मुख मौजूद चुनौती का सामना करने में असफल होकर व्यापक जनसमुदाय पर निम्नतम कोटि की चारित्रिक विशेषताओं को आरोपित करता चला जाता है। इस प्रक्रिया में कविता के विकास की राह ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो जाती है।





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