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मुक्तिबोध : सत्य और सौंदर्य

  मुक्तिबोध : सत्य और सौन्दर्य “सौन्दर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे,संवेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाये।...अनुभव-प्रसूत फ़ैण्टेसी में जीवन के अर्थ खोजने और उसमें आनन्द लेने की इस प्रक्रिया में ही जो प्रसन्न भावना पैदा होती है, वही एस्थेटिक एक्सपीरिएंस का मर्म है। दर्शक स्वयं जब कोई काव्य, उपन्यास या नाट्य देखता है, तो जब तक उसेनये-नये अर्थ-महत्त्व और अर्थ-संकेत प्राप्त न होते जायें, तब तक उसको एस्थेटिक एक्सपीरिएंस प्राप्त हो ही नहीं सकता। हाँ, यह सही है कि पाठक या श्रोता को, वैसे ही फैण्टेसी के जनक को, फैण्टेसी में, जो नये-नये अर्थ- महत्त्व या अर्थ प्राप्त होते हैं, वे अपनी-अपनी उत्तेजित जीवन-संवेदनाओं द्वारा ही मिलते हैं। ये संवेदनाएँ ज्ञानात्मक होती हैं।" -'तीसरा क्षण', मुक्तिबोध रचनावली, भाग-चार, 1985, पृ. 86-87 मुक्तिबोध के इस कथन से स्पष्ट है कि वे सौन्दर्य को अर्थ-प्राप्ति, अर्थ-प्राप्ति को संवेदना तथा संवेदना को ज्ञान पर निर्भर मानते हैं। ज्ञान सत्य का ही हो सकता है, इसलिए सौन्दर्य और सत्य परस्पर अटूट सम्बन्ध में बँधे हुए हैं। सौन्दर्य अपने अस्तित