मुक्तिबोध : सत्य और सौंदर्य

 मुक्तिबोध : सत्य और सौन्दर्य


“सौन्दर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे,संवेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाये।...अनुभव-प्रसूत फ़ैण्टेसी में जीवन के अर्थ खोजने और उसमें आनन्द लेने की इस प्रक्रिया में ही जो प्रसन्न भावना पैदा होती है, वही एस्थेटिक एक्सपीरिएंस का मर्म है। दर्शक स्वयं जब कोई काव्य, उपन्यास या नाट्य देखता है, तो जब तक उसेनये-नये अर्थ-महत्त्व और अर्थ-संकेत प्राप्त न होते जायें, तब तक उसको एस्थेटिक एक्सपीरिएंस प्राप्त हो ही नहीं सकता। हाँ, यह सही है कि पाठक या श्रोता को, वैसे ही फैण्टेसी के जनक को, फैण्टेसी में, जो नये-नये अर्थ- महत्त्व या अर्थ प्राप्त होते हैं, वे अपनी-अपनी उत्तेजित जीवन-संवेदनाओं द्वारा ही मिलते हैं। ये संवेदनाएँ ज्ञानात्मक होती हैं।"


-'तीसरा क्षण', मुक्तिबोध रचनावली,

भाग-चार, 1985, पृ. 86-87


मुक्तिबोध के इस कथन से स्पष्ट है कि वे सौन्दर्य को अर्थ-प्राप्ति, अर्थ-प्राप्ति को संवेदना तथा संवेदना को ज्ञान पर निर्भर मानते हैं। ज्ञान सत्य का ही हो सकता है, इसलिए सौन्दर्य और सत्य परस्पर अटूट सम्बन्ध में बँधे हुए हैं। सौन्दर्य अपने अस्तित्व के लिए सत्य पर निर्भर है और सत्य अपनी अभिव्यक्ति के लिए सौन्दर्य पर आश्रित है। सत्य से कटा हुआ सौन्दर्य निराधार है और सौन्दर्य से वंचित सत्य शक्तिहीन। सत्य के सामाजिक स्वरूप को इस प्रसंग में प्राथमिक स्वीकृति प्राप्त है, किन्तु सौन्दर्य को लेकर मतभेद की सम्भावना है। बहुत विस्तार में गए बगैर इतना ही कहना पर्याप्त है कि सौन्दर्य से यहाँ हमारा आशय उस बहुस्तरीय, संश्लिष्ट और सुष्ठ संरचना से है जिसमें परत-दर-परत जीवन के वे अर्थ छुपे रहते हैं, जिनके उद्घाटन से ज्ञानात्मक संवेदना से युक्त मस्तिष्क आनन्द का अनुभव करता है। जाहिर है, जीवन में विषाद उत्पन्न करने वाले अर्थों की भरमार है, इसलिए यह कोई उथला आनन्द नहीं, एक चिन्तनशील प्राणी के रूप में अपनी चरितार्थता से जुड़ा हुआ भाव है। सामाजिक सत्य अथवा यथार्थ की अनेक परतें हैं। वह सतह पर भी है और अतल में भी है, उथला भी है और गहरा भी है। यह देखने वाले पर है कि वह अपने यथार्थ के रूप में किसे चुन पाता है। लिफ़ाफ़ा देखकर मज़मून भाँपने का दावा करने वाले विद्वानों के लिए हम इतना और जोड़ दें कि सतह पर जो दिख रहा है वह भी यथार्थ ही है, लेकिन वह मूलतः पत्रकारिता का विषय है, कला का नहीं। सतह से अन्तःक्रिया जारी रखते हुए भी कला नंगी आँखों से न देखी जा सकने वाली सचाई को अपना विषय बनाती है। परिवर्तन के क्षणों में यथार्थ की इन दोनों तहों में प्रायः द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध देखने को मिलता है। तूफान से पहले शान्ति होना और बुझने से पहले दिये का भभकना, जैसे मुहावरे इसी मानवीय अनुभव की भाषा में उपस्थिति हैं। बहरहाल, यथार्थ को लेकर यह विवाद पुराना है और अब तक अपने हल की प्रतीक्षा कर रहा है, हालाँकि तमाम विद्वानों ने समय-समय पर इसमें अपना योगदान किया है। उदाहरण के लिए रामविलास शर्मा का यह विचार देखें : 


'मुक्तिबोध की बीमारीऔरमृत्यु से नयी कविता में नयी जान डालने के लिए उसके सूत्रधारों को नया हीरो-कवि

मिल गया। इसी समय कम्युनिस्ट पार्टी विघटित हुई, इससे कुछ मार्क्सवादियों के लिए प्रगतिविरोधियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने का काम आसान हो गया। केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन को पीछे ठेलकर उनकी जगह मुक्तिबोध को प्रतिष्ठित करने का जो संगठित प्रयास सन् 64 से आरम्भ हुआ, उससे हिन्दी कविता की यथार्थवादी धारा को भारी क्षति पहुँची। वह प्रयास अब अशक्त हो चुका है।'

                         (नयी कविता और अस्तित्ववाद, 1986 में प्रकाशित दूसरे संस्करण की भूमिका से)


आइए लगे हाथ उस 'यथार्थवाद' का परिचय भी प्राप्त कर लें जिसे मुक्तिबोध क्षति पहुँचा रहे थे और उस क्षति की वजह भी जान लें, 'जब प्रगतिशील लेखक संघ का जन्म हुआ, तब इस बात पर जोर दिया गया कि साहित्य उच्च वर्गों के लिए नहीं जनसाधारण के लिए लिखा जाना चाहिए, उसमें किसानों और मज़दूरों के जीवन का चित्रण होना चाहिए, उनका जीवन-संघर्ष, उनकी आशाएँ, आकांक्षाएँ व्यक्त होनी चाहिए। अटकाव का एक बहुत स्पष्ट रूप मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति है। साधारण जनता और मुक्तिबोध की कविता के बीच यह अभिव्यक्ति बहुत बड़ी खाई है। शंकर शैलेन्द्र की कविताएँ मज़दूर खूब समझते थे, सभाओं और जुलूसों में उन्हें गाते थे। मुक्तिबोध की कविताएँ मज़दूरों के लिए तो दुरूह हैं ही, वे उच्च शिक्षाप्राप्त जनों, कवियों और

आलोचकों के लिए भी दुरूह हैं। इस दुरूहता का एक बहुत बड़ा कारण अपना निम्नमध्यवर्गीय स्तर छोड़ने की कठिनाई है।'

                    (रामविलास शर्मा, वही, पृ. 191-193)


जन्म के समय कोई भी आन्दोलन अपने मार्गदर्शकसूत्रों को आदिम सरलता और स्पष्टता से सामने रखता है ताकि उसके आरम्भिक अनुयायी कुछ मूलभूत बातों को अवश्य ग्रहण कर सकें। अपने को दूसरों से अलगाना इस अवस्था की अनिवार्य ज़रूरत होती है, इसलिए अन्य विचारों की प्रायः भोंडी आलोचना भी देखने में आती है। किन्तु आगे चलकर प्रत्येक जीवन्त धारा में जटिलता का समावेश होता है और दूसरी धाराओं से अन्तःक्रिया और उन्हें आत्मसात करने की प्रक्रिया मज़बूत होती है। उसी प्रकार, जैसे नवजात शिशु अपने परिवेश में सिर्फ अलग-अलग इकाइयों को पहचान सकता है, लेकिन कुछ बड़ा होने पर कल्पना और अमूर्तन की शक्ति का प्रयोग करके वह समूचे परिवेश का एक संश्लिष्ट विचार अपने मस्तिष्क में धारण करता है। प्रगतिशील आन्दोलन के जन्म के समय भी ऐसी ही स्थितियां थीं। लेकिन दुर्भाग्य से हर विचारधारा में कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं जो अपनी जन्मजात अवस्था से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं होते। ऐसी प्रवृत्तियों को मूलतत्त्ववादी (फंडामेंटलिस्ट) कहते हैं। जुबानी जमा-खर्च में ये कम नहीं होते और विकास की अवस्थाओं से इन्कार भी नहीं कर पाते, लेकिन व्यवहार में हमेशा प्रगति की राह का रोड़ा बने रहते हैं। इस प्रवृत्ति की असलियत को समझने के लिए हम यहाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल, जिन्हें मुक्तिबोध के मुकाबले सम्मान का वास्तविक अधिकारी माना गया है, की एक दौर की बहुप्रशंसित कविता 'मोरचे पर' का मूल पाठ और उसका अत्यन्त संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि असल और नकल के भेद को समझा जा सके:


"मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर।

ज़िन्दगी की फौज मेरी शक्तिशाली

मैं जिसे लेकर यहाँ पर आ डटा हूँ-

घुड़सवारों पर जिसे अभिमान है,

पैदलों का सिन्धु जिसके साथ है,

टैंक लाखों ही यहाँ मौजूद हैं,

तोपची जिसके कुशल करतार हैं,

आज आगे बढ़ रही है-

वेग से, बल से, उमड़ कर चढ़ रही है,

आततायी बैरियों की फौज ढहती जा रही है,


-आग से जैसे पिघलकर मोमबत्ती गल रही है,

लौह की दीवार के गढ़ कायरों के

चूर करती जा रही है।"

                ('फूल नहीं, रंग बोलते हैं से)


यही है कविता का वह आदर्श जिसे मजदूर खूब समझते और गाते थे। इसी स्तर की समझ को बरकरार रखते हुए हमारे ये 'यथार्थवादी' बन्धु लड़ाई लड़ने चले शासकों के खिलाफ़ लड़ने का दावा करते थे। और बातों को छोड़ भी दें तो पूरी दुनिया के शासकों का मुकाबला

करने वाला अगर दुश्मन को इतना छोटा और कमज़ोर मानकर चलेगा तो उसे शेखचिल्ली से अधिक महत्त्व वही लोग देंगे जिन्हें उस लड़ाई में हिस्सा नहीं लेना है। इस तरह के गीत मजदूरों की चेतना को कुन्द करने वाले, उन्हें वस्तुस्थिति से काटकर नशे की-सी हालत में पहुँचाने वाले थे। आज मज़दूर आन्दोलन जहाँ पहुँचा है, उसमें इस तरह के, उथले स्वरों की भूमिका की जाँच होनी चाहिए-


"मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर।

आप ही अपने हृदय के द्वन्द्व को मैं मारता हूँ,

वह अभी तक सूरमा था,

दक्ष भी था,

क्रूर भी था,

मैं उसे अब जीतता हूँ,

वह पराजित हो रहा है—हो रहा है,

सिर कटाये, प्राण-जीवनहीन मुरदा हो रहा है;

लाश उसकी गिद्ध-कौए नोचते हैं;

मैं अचेतन और उपचेतन सभी पर

वार करता जा रहा हूँ

व्यक्तिवादी सभ्यता को ध्वंस बिलकुल कर रहा हूँ।"


काश यह निर्द्वन्द्व तेवर थोड़ा मानवीय भी होता। इन पंक्तियों के पीछे छिपी सामन्ती भावभूमि को पहचानने की ज़रूरत है। सामन्ती मानसिकता का व्यक्ति जैसे अपने अनुकूल स्थिति पाकर अपने विरोधी परअपशब्दों की असन्तुलित और विचारहीन बौछार शुरू कर देता है, वैसा यहाँ भी दिखता है। हालत यह है कि दुश्मन को पराजित करने और उसका सिर काट लेने पर भी जी नहीं भरता। उसकी लाश को गिद्ध-कौओं से नोचवाना ज़रूरी हो जाता है। बातें चाहे जितनी गर्मागर्म की जाएँ, आत्मिक कमज़ोरी भाषा में प्रकट हो जाती है। अपने कहे हुए पर जब खुद भरोसा नहीं होता तभी उसे बार-बार दुहराना पड़ता है। यहाँ दुश्मन को जीतने की घोषणा के तुरन्त बाद उसके पराजय की बात दो-दो बार करनी पड़ती है। इससे उस 'जीत' का खोखलापन ही ज़ाहिर होता है। अचेतन और उपचेतन के ध्वंस के बाद व्यक्ति ही नहीं बचेगा तो व्यक्तिवादी सभ्यता क्या ख़ाकर बचेगी। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।/सम्भवतः इसीलिए उसके 'बिलकुल' ध्वंस की घोषणा की गयी है, अन्यथा इस शब्द की कोई आवश्यकता न थी-


"मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर!

देवियों के रूप के आराधकों को

जो बँधे हैं प्रेम के स्वर-तार से ही-

लौह की कटु शृंखला से बाँधकर मैं खींचता हूँ

और जन-संघर्ष में लाकर उन्हें,

फौजी बनाकर छोड़ता हूँ।

स्वप्न के जो देव हैं।

औ' स्वप्न की जो देवियाँ हैं,

हाथ में हल और हँसिया को थमाकर,

मैं उन्हें मजबूर करता हूँ

कि जोतो और काटो

पेट की पहली समस्या को मिटाओ।"


प्रेम, सौन्दर्य, संस्कृति और स्वप्न, इन सबको नष्ट करके मनुष्य को पशु के स्तर तक गिरा देने वाली यह विचारधारा कितनी प्रगतिशील थी, इसे अलग से बताना

बेकार है। पहले पेट का निराकरण हो, दिल-ओ-दिमाग़ की फिर देखी जाएगी। ऐसी ही 'शिश्नोदर' (मुक्तिबोध का शब्द) प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके कुँवर नारायण ने लिखा होगा-


"आमाशय,

यौनाशय,

गर्भाशय...

जिसकी ज़िन्दगी का यही आशय,

यही इतना भोग्य,

कितना सुखी है वह,

भाग्य उसका ईर्ष्या के योग्य!"

                                      (चक्रव्यूह, पृ. 39)


केदारनाथ अग्रवाल की कविता में दो बन्द अभी और हैं जिनमें पर्याप्त चीत्कार, फूत्कार और हुंकार है, लेकिन विस्तार-भय से हम फ़िलहाल इस कविता को स्थगित करके इस प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं कि सौन्दर्य और सत्य को परस्पर निर्भर बताकर मुक्तिबोध क्या स्थापित करना चाहते थे, और आज इस विचार की क्या भूमिका हो सकती है। रामचन्द्र शुक्ल की यह बात अब प्रायः स्वीकार कर ली गयी है कि सभ्यता के विकास के साथ कवि-कर्म जटिल होता जायेगा। इस तस्वीर का दूसरा रुख मुक्तिबोध की इस मान्यता में निहित है कि इस जटिल कर्म के परिणामस्वरूप जो संश्लिष्ट और बहुस्तरीय काव्यरचना होगी, उसकी विभिन्न अर्थच्छायाओं के उद्घाटन में ही आधुनिक काव्यप्रेमी को आनन्द और संतुष्टि मिलेगी। दूसरे शब्दों में, अब के भावक को बैठे-ठाले काव्य का रस नहीं मिलेगा, उसे श्रमपूर्वक अर्जित करना होगा। इसमें उसकी मदद उसके अपने जीवन के संवेदन करेंगे जो मानवीय अनुभवों से निःसृत ज्ञान से सम्पन्न होंगे। यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि आधुनिक युग में काव्य का सौन्दर्य उसकी संश्लिष्ट और गूढ़ से गूढ़तर अर्थों को व्यंजित करने वाली काव्य-संरचना में निहित है और इसके विपरीत, यथार्थ के सरल और इकहरे रूप को प्रस्तुत करने वाला काव्य निष्प्रभावी होगा, चाहे उसका उद्देश्य कितना भी महान हो। यानी वही काव्य आज के सचेत और प्रबुद्ध जनमानस को उद्वेलित कर सकता है जो उसके सामने कोई ऐसी चुनौती प्रस्तुत करे, जिससे आकर्षित होकर वह उसे प्रयासपूर्वक ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ सके। सर्वहारा वर्ग को इसका अपवाद समझना भूल होगी, क्योंकि तब यह मान लेना होगा कि वे चेतना के जिस स्तर पर हैं उन्हें सरल क़िस्म के नारों से ही प्रभावित किया जा सकता है। उन्नत और संश्लिष्ट विचार तो मध्यवर्ग के काम आ जाएँ, यही बहुत है। विडम्बना यह है कि यथार्थवाद के भेस में यथास्थितिवाद की सेवा करने वाले ये सद्विचार सर्वहारा चेतना के नाम पर मध्यवर्गीय चेतना को कोसते हुए व्यक्त किए जाते हैं, जैसा कि आलोचक प्रवर ने उपरोक्त उद्धरण के अन्त में कहा है।


यानी दोष उन कवि-आलोचकों का नहीं है जो अपनी बौद्धिक काहिली के चलते अग्रगामी रचनाओं को नहीं समझते, बल्कि उनका सृजन करने वाले मुक्तिबोध ही दोषी हैं। गोया वही अकेले निम्न-मध्यवर्गीय' रह गये हैं, बाक़ी सब सर्वहारा हो चुके हैं। कहने का आशय यह कि काव्य में सत्य का होना भर पर्याप्त नहीं है, उसे इस ढंग से व्यक्त होना चाहिए कि काव्यप्रेमी, उसे परत-दर-परत उद्घाटित कर सकें और उसके सौन्दर्य से अनुप्राणित हो सकें। तभी कोई वैचारिक अथवा कलात्मक प्रवृत्ति जनसमुदाय की संचालक शक्ति बन सकती है और संक्रमण की बेला में नये युग का सूत्रपात कर सकती है। निश्चय ही, जनसमुदाय में चेतना के अनेक स्तर बने रहेंगे

और उद्बोधनात्मक गीतों और नारों की अपनी भूमिका रहेगी, लेकिन अग्रगामी साहित्य से उनकी प्रतिद्वन्द्विता का आयोजन ठीक नहीं है। चेर्नीशेव्स्की की किताब 'क्या करें' आज भी बहुतों की समझ में नहीं आती, लेकिन ख़ुद लेनिन के मुताबिक वह उन्हें क्रान्तिकारी बनाने में सफल रही।


हमारे यहाँ के कुछ विचारकों में नियतिवाद के प्रति आकर्षण इस क़दर था कि जब वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के सम्पर्क में आए तो उन्होंने उसे ऐतिहासिक नियतिवाद बनाकर स्वीकार किया। उन्हें केवल अन्तिम सत्य से मतलब था। वह उन्हें सर्वहारा की जीत के रूप में मिल गया था। बस वे इसका उद्घोष करने में लग गए। सर्वहारा की अपनी मानसिक क्षुधा भी इस ‘सत्य' से सन्तुष्ट नहीं होती थी, क्योंकि यह भविष्य के रसोईघर में पकने वाला पकवान था। लेकिन अन्तिम विजय के नाम पर वे दैनन्दिन की गैरराजनीतिक, अर्थवादी गतिविधियों में उलझे रहे और प्रतिक्रियावाद के पहले ही धक्के में यह समूचा 'विजय-अभियान' बिखर गया। मुक्तिबोध हिन्दी के सम्भवतः पहले विचारक थे, जिन्होंने सत्य के इस अकेलेपन को पहचाना था, और उसे शक्ति से युक्त करने की ठानी थी। वह शक्ति, रूप और संरचना के माध्यम से आ सकती है, यह उन्होंने अपनी कविताओं में करके दिखाया। इसलिए उनकी कविताओं का प्रभाव समय के साथ बढ़ता ही चला गया, और रामविलास शर्मा जैसे विचारकों को समकालीन साहित्य का पीछा छोड़कर अतीत में शरण लेनी पड़ी। इस मसले का एक पहलू यह भी है कि साहित्य का अपना कार्यक्षेत्र सौन्दर्य अथवा शक्ति से ही सीधे जुड़ा हुआ है। सत्य को हम उसकी तमाम बारीकियों के साथ ज्ञान के दूसरे अनुशासनों की मदद से या इसके बिना, सीधे जीवन से ग्रहण करते हैं। कला का काम इसे आकर्षक तथा प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करना है, जिससे वह ‘सत्य' अपना जीवन जी सके। वर्ग-विभाजित समाज में एक वर्ग का सत्य दूसरे वर्ग के लिए असत्य होता है। शासक वर्ग के लिए जो सत्य है वह आम जनता का सत्य नहीं है। तथ्य एक ही होते हैं लेकिन उनसे निष्कर्ष अलग-अलग निकाले जाते हैं। बहरहाल, जनता के पक्ष में स्टैंड लेने वाले लोग बखूबी जानते हैं कि असत्य प्रायः सत्य से अधिक ठोस सचाई बनकर हमारे ऊपर क़ाबिज़ रहता है। यानी एक दृष्टिकोण से असत् की भी सत्ता है और उसके पक्ष में भी कला अपनी शक्ति लगा सकती है।


हर कलाकृति का, हर काव्यरचना का अपना सत्य होता है, जिसके पक्ष में वह सौन्दर्यानुभव करा पाने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल करती है। अगर वह कुशलतापूर्वक अपने दायित्व को अंजाम नहीं देती तो अपने पक्ष को कमज़ोर भी कर सकती है। यह विचलन दोनों तरफ़ हो सकता है, लेकिन जनता का पक्ष-पोषण कठिन होने के कारण, सतहीपन के चलते विपरीत प्रभाव डालने की सम्भावना व्यावहारिक स्तर पर इसी और अधिक होती है। इसका उदाहरण ‘मोरचे पर' के रूप में हम देख ही चुके हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का वह दौर, जिसमें मुक्तिबोध रचनारत थे, शीतयुद्ध के उभरने और उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर बढ़ने का दौर है। दुनिया दो खेमों में बँट गयी थी जो स्वनिर्मित परिभाषाओं के आधार पर समाजवादी और जनतान्त्रिक मूल्यों के पक्षधर थे। बीच में कुछ तटस्थ कहे जाने वाले देश थे, जहाँ अभी स्थिति स्पष्ट नहीं थी। उनके यहाँ भी, अन्दर इन्हीं दोनों प्रवृत्तियों का संघर्ष चल रहा था। स्वभावतः, इस युग के साहित्यिक विवादों पर भी शीतयुद्ध की गहरी छाप थी। वैचारिक स्तर पर इन दोनों द्वन्द्वरत गुटों का प्रतिनिधित्व प्रगतिवाद और आधुनिकतावाद ने किया था। एक के पास वस्तु थी, सत्य था; दूसरे के पास सौन्दर्य था, शक्ति थी। भौतिक स्तर पर तो समाजवाद को पराभव का सामना करना पड़ा, किन्तु मूल्यों के स्तर पर यही बात नहीं कही जा सकती। सारी विकृतियों के बावजूद सोवियत संघ की सर्वशक्तिमान राज्यव्यवस्था ने अन्ततः अपनी जनता के सामने, एक भी गोली चलाए बिना, समर्पण कर दिया। इसका श्रेय बचे-खुचे समाजवादी संस्कारों को ही देना होगा। जबकि जनतन्त्र के नाम पर सत्ता में आये येल्सिन ने रूसी संसद पर तोपों से हमला किया था।


इस महासंग्राम में फ़िलहाल विजय तो 'जनतान्त्रिक' खेमे की हो गयी है, लेकिन इस प्रक्रिया में उसने अपने समस्त आदर्शों की बलि देकर अमरीका के नेतृत्व में फ़ासिस्ट रास्ता अपना लिया है। एकाध अपवादों को छोड़कर पूर्व समाजवादी देशों की स्थिति उनके पिछलग्गू से बेहतर नहीं है। नयी विश्वव्यवस्था का यह मानचित्र कितना भी तकलीफ़देह हो, इसने विचारधारा और संस्कृति के क्षेत्र में एक नयी सम्भावना को जन्म दिया है। इस रक्तरंजित समय में समाजवादी मूल्य अगर निराश्रय हुए हैं तो जनतान्त्रिक मूल्यों के साथ भी छल हुआ है। न समाज की चल पाई, न व्यक्ति की; न सत्य बचा, न सौन्दर्य। राज्यसत्ताएँ आज अपने मद में चूर हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि मानवजाति का काम मूल्यों के बगैर नहीं चल सकता। उन्हें युग के अनुरूप नये मूल्यों की तलाश है। ये नये मूल्य प्रगतिवाद और आधुनिकतावाद के संवाद से पैदा हो सकते हैं। किसी तालमेल, समझौते अथवा गठजोड़ से नहीं, दोनों के मिलकर एक हो जाने से, एक नयी और विकसित वस्तु बन जाने से। यह नयी मूल्यप्रणाली ही दिग्भ्रम और कुहासे से भरे हुए हमारे समय में साहित्य और समाज दोनों को नया रास्ता दिखा सकती है। जैसे बच्चे के जन्म से पहले उसके नाक-नक्श का वर्णन नहीं किया जा सकता वैसे ही इसके स्वरूप का निर्धारण अभी सम्भव नहीं है, लेकिन इतना अवश्य है कि सत्य और सौन्दर्य के संयोग से ही यह अस्तित्व में आयेगा।


शीतयुद्ध की छाया में चलने वाले भयानक टकराव के युग में मुक्तिबोध और शमशेर, ऐसे दो कवि थे जिन्होंने प्रगतिवाद और आधुनिकतावाद, दोनों की एकांगिता और अधूरेपन को पहचाना तथा अपने काव्य में दोनों पक्षों के सर्वश्रेष्ठ तथा अग्रगामी तत्त्वों की सिन्थीसिस की। निश्चय ही वे अपने समय से आगे थे, इसलिए उन्हें तिरस्कार और अवहेलना का दंश झेलना पड़ा। कहने का आशय यह है कि प्रगतिवाद में सक्रिय मूलतत्त्ववादियों के समूह इतने मज़बूत हैं और परिपाटीबद्ध विचारों के साथ अपने क्षुद्र स्वार्थों का उन्होंने ऐसा तालमेल बिठा लिया है कि वे युगानुरूप परिवर्तन और विकास की हर कोशिश के ख़िलाफ़ संगठित हो जाते हैं। बहरहाल, इतिहास की गति निर्मम है। युगीन चुनौतियों के समक्ष जो लोग शक्ति की मौलिक कल्पना करने में सक्षम होते हैं और उसे यथार्थ रूप देने का संघर्ष करते हैं, समय अन्ततः उन्हें सही साबित करता है। मुक्तिबोध की कविता के सम्बन्ध में जो बात सबसे निश्चयात्मक स्वर में कही जा सकती है, वह यही है।














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