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Showing posts from June, 2021

मुक्तिबोध की कविता 'ब्रह्मराक्षस'

  मुक्तिबोध की कविता 'ब्रह्मराक्षस' जो उलझी थी कभी आदम के हाथों वो गुत्थी आज तक  सुलझा  रहा हूँ                           ----- फ़िराक़ गोरखपुरी             मुक्तिबोध ने साहित्य को सभ्यता-समीक्षा कहा था। मुक्तिबोध के काव्यसंसार में प्रस्तुत सभ्यता आधुनिक व भारतीय भी है, और समूचे इतिहास में फैली हुई मानव-सभ्यता भी। आदिम युग से आधुनिकता तक की मनुष्यता की यात्रा की व्यथा-कथा कहने वाली उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है---'ब्रह्मराक्षस'। हिंदी भाषी लोक में प्रचलित मान्यता है कि ब्राह्मण जाति का कोई व्यक्ति जब अपनी किसी गम्भीर भूल-ग़लती के कारण प्रेतयोनि में पड़ा रह जाता है, यानी उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती तो, उसे ब्रह्मराक्षस कहते हैं। इस कविता में ब्रह्मराक्षस भारत की सामंती परम्परा के अग्रगामी तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अपने आधुनिक रूपांतरण की संभावना थी लेकिन फलीभूत नहीं हो सकी। ग़ौरतलब है कि भारत की सामंती-ब्राह्मणवादी परम्परा भी औपनिवेशिक प्रलोभन का शिकार होकर आधुनिक युग में रूपांतरित नहीं हो सकी थी। इसलिए इस परम्परा का रूपक बनने के लिए यह शायद एक उचित चरित्र है। द

मुक्तिबोध : ज्ञान और कर्म

  ज्ञान और कर्म मुक्तिबोध के काव्य-संसार की एक सुपरिचित समस्या है ज्ञान और कर्म, यानी सिद्धान्त और व्यवहार के बीच द्वन्द्वात्मक एकता की स्थापना। इसकी ऐतिहासिक अवस्थिति स्वातन्त्र्योत्तर आधुनिक भारतीय समाज के मध्यवर्ग में है। सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता और उसके लिए आवश्यक ज्ञान को क्रियान्वित करने में सबसे बड़ी बाधा उसकी अपनी मध्यवर्गीय सीमा के रूप में सामने आती है, जो समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम एकमात्र वर्ग सर्वहारा के साथ उसे एकजुट नहीं होने देती। दूसरे शब्दों में, अन्तर्विरोध मध्यवर्गीय और सर्वहारा चेतना के बीच है, जिसका समाधान कवि को मध्यवर्ग के प्रतिनिधि व्यक्ति के 'व्यक्तित्वान्तरण' में मिलता है। यह प्रक्रिया अपने तमाम आन्तरिक संकटों और बाहरी दबावों के बीच चलती है।  मुक्तिबोध के यहाँ ज्ञान का स्वरूप ऐतिहासिक है। यह मानव जाति की समग्र अनुभव-परम्परा के निष्कर्ष के रूप में उपस्थित होता है। कवि की स्मृति और उसका स्वप्न समूची मानव-सभ्यता की स्मृति और उसके स्वप्न में घुल-मिल जाती है, लेकिन वर्तमान का ठोस सन्दर्भ कहीं भी ओझल नहीं होता। यथार्थ की सही पह

शोक की लौ जैसी एकाग्र

  वीरेन डंगवाल शाब्दिक अर्थों में जनता के कवि हैं। वे न तो महज़ मध्यवर्ग के कवि हैं, न सर्वहारा वर्ग के। न ही मुक्तिबोध की तरह सर्वहारा से एकजुट होने को तड़पते मध्यवर्ग के। इसकी वजह है मनुष्यविरोधी शक्तियों का सर्वशक्तिमान बनकर उभरना। मुक्तिबोध के समय में देश-दुनिया में इनके ख़िलाफ़ बाक़ायदा जंग चल रही थी। तब उस प्रतिरोधी सेना के साथ डटकर लड़ने का सवाल प्रमुख था। अब वह सेना टूटकर बिखर चुकी है। दुनिया में साम्राज्यवाद का नंगा नाच चल रहा है। कोढ़ में खाज की तरह अपने देश में साम्प्रदायिक-फ़ासिस्ट तांडव जारी है। वीरेन डंगवाल की कविताओं में इस पराजय की वेदना आदि से अंत तक व्याप्त है। लेकिन विलाप बनकर नहीं, सांत्वना, धैर्य और साहस बनकर। शोक को शक्ति में बदलने के इरादे के साथ। अचेत पड़े अपने लोगों को सहेजने-संभालने, समझने-समझाने और फिर से कमर कसने का हौसला देने का यह काम आसान नहीं है। लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है। रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा। यहाँ हम उनके संग्रह 'दुष्चक्र में स्रष्टा' की कुछ कविताओं का विश्लेषण करके देखेंगे कि मानवता के इतिहास के इस नाज़ुक मोड़ का सामना

मुक्तिबोध : समय का सच

मुक्तिबोध : समय का सच कहते हैं कि हर परिवर्तन में कुछ ऐसा बुनियादी होता है, जो बना रहता है। नेहरू युग से अब तक हुए परिवर्तन पर तो हमारी नज़र जाती है, लेकिन जो कुछ निरंतरता है उसे हम कई बार अनदेखा कर देते हैं। किसी भी चुनौतीपूर्ण दौर में असुविधाजनक सचाइयों से आँख फेरना मददगार नहीं होता। यहाँ हम मुक्तिबोध की एक प्रतिनिधि कविता 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' का अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि जान सकें कि नेहरू युग से हमारे युग तक क्या कुछ है जो बदस्तूर क़ायम रहा है, बल्कि फलता-फूलता रहा है। कविता की आरम्भिक पंक्तियों में 'नगर के बीचोबीच स्थित अँधेरे की काली स्याह शिलाओं से बनी हुई भीतों और अहातों पर फैली हुई चाँदनी की झालरों' का ज़िक्र है। गौरतलब है कि यह चाँद और इसकी चाँदनी उजाला नहीं फैलाते, बल्कि अँधेरे और कालेपन से इनका गहरा रिश्ता है। इस चाँद की सटीक पहचान और इसकी गतिविधियों के अर्थपूर्ण ब्यौरे के लिए भी कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। कविता के पहले स्टैंजा में ही इन पंक्तियों को देखें- "भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !! गगन में कर्फ़्यू है धरती पर चुपचाप जहरीली छिः थूः है!! पीप