मुक्तिबोध : समय का सच


मुक्तिबोध : समय का सच

कहते हैं कि हर परिवर्तन में कुछ ऐसा बुनियादी होता है, जो बना रहता है। नेहरू युग से अब तक हुए परिवर्तन पर तो हमारी नज़र जाती है, लेकिन जो कुछ निरंतरता है उसे हम कई बार अनदेखा कर देते हैं। किसी भी चुनौतीपूर्ण दौर में असुविधाजनक सचाइयों से आँख फेरना मददगार नहीं होता। यहाँ हम मुक्तिबोध की एक प्रतिनिधि कविता 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' का अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि जान सकें कि नेहरू युग से हमारे युग तक क्या कुछ है जो बदस्तूर क़ायम रहा है, बल्कि फलता-फूलता रहा है।


कविता की आरम्भिक पंक्तियों में 'नगर के बीचोबीच स्थित अँधेरे की काली स्याह शिलाओं से बनी हुई भीतों और अहातों पर फैली हुई चाँदनी की झालरों' का ज़िक्र है। गौरतलब है कि यह चाँद और इसकी चाँदनी उजाला नहीं फैलाते, बल्कि अँधेरे और कालेपन से इनका गहरा रिश्ता है। इस चाँद की सटीक पहचान और इसकी गतिविधियों के अर्थपूर्ण ब्यौरे के लिए भी कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। कविता के पहले स्टैंजा में ही इन पंक्तियों को देखें-


"भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !!

गगन में कर्फ़्यू है

धरती पर चुपचाप जहरीली छिः थूः है!!

पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,

पैठे हैं ख़ाली हुए कारतूस।

गंजे-सिर चाँद की सँवलाई किरणों के जासूस

साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम

नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं।।"

               ('चाँद का मुँह टेढ़ा है' नामक कविता से)


सन् तिरपन के भारतीय आकाश में किस चाँद की धूम थी, इसे अलग से बताना शायद ही ज़रूरी हो। '52 में पहला आम चुनाव हो चुका था। तेलंगाना में दमन जारी था और पूरे देश में सत्ता से असहमत लोगों, विशेषकर वाम विचारधारा से सम्बन्ध रखने वालों को चुन-चुनकर रास्ते से हटाया जा रहा था। ताज्जुब की बात है कि मैकार्थीवाद के इस भारतीय संस्करण को बहुत से प्रगतिशील विचारकों ने भी सन्देह का लाभ दे रखा था। लेकिन मुक्तिबोध ने इस बात को भली-भाँति समझ लिया था कि जनता पर निगाह रखने के लिए बने औपनिवेशिक जासूसी तंत्र को आज़ादी के बाद भी यथावत जारी रखने की योजना किस ‘गंजे-सिर' की देन है।


बहरहाल, इस कविता का वास्तविक महत्त्व इस बात में निहित है कि सत्ता की ताक़त और उसके हथकण्डों के मुकाबले उभर रही जनता के प्रतिनिधियों को भी उनकी

व्यूह-रचना और शक्ति के साथ इसमें सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। कविता की शुरूआत में ही आए निम्नलिखित अंश में दलित-उत्पीड़ित जनसमुदाय के ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे शासन-तंत्र के निस्तेज होते जाने को लक्ष्य करें तो यह कह सकते हैं कि मुक्तिबोध शायद अकेले ऐसे कवि थे जिन्होंने नेहरू युग के आरम्भ में ही उसके अन्त को देख लिया था और इसके विश्वसनीय चित्र खींच दिए थे। रामविलास शर्मा जैसे आलोचकों ने इन चित्रों को मुक्तिबोध के मनोविक्षेप से पैदा हुई आशंका की देन माना और उन पर अनुचित ढंग से प्रहार किया, लेकिन इतिहास ने मुक्तिबोध को सही साबित किया--


"भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत

मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर

बहते हुए पथरीले नालों की धारा में

धराशायी चाँदनी के होठ काले पड़ गये

हरिजन गलियों में

लटकी है पेड़ पर

कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी-

चूनरी में अटकी हैं कंजी आँख गंजे सिर

टेढ़े मुंह चाँद की।

बारह का वक्त है,

भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र

शहर में चारों ओर,

जमाना भी सख़्त है!!"


यहाँ 'शहर' और 'जमाना' पर ध्यान दें। ये शब्द अपने अभिधात्मक अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। कुछ पंक्तियों के बाद ही 'मरे हुए ज़मानों' का ज़िक्र आता है जिन्हें 'बीते हुए युगों' के रूप में सहज ही पहचाना जा सकता है। आगे चलकर इनके अर्थों में परिवर्तन होगा, जिसे हम यथास्थान देखेंगे। इसके साथ ही कविता में मुक्तिबोध का एक प्रिय प्रतीक बरगद आता है जिसकी एक लटकी हुई डाल मानो जंगली मैमथ के सूंड़-सी मानवपूर्व अवस्था से ही वातावरण को सूंघने-समझने की कोशिश कर रही है। फ़िलहाल उसके हिस्से में 'मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में बसी हुई सड़ी- बुसी बास' ही आई है। आज़ाद भारत में व्याप्त सामन्ती-औपनिवेशिक परिवेश का यह सार्थक रूपक है:


"चौराहे पर खड़े हुए

भैरों की सिन्दूरी

गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर

टेढ़े-मुंह चाँद की ऐयारी रोशनी,

तिलिस्मी चाँद की राज़-भरी झाइयाँ!!"


गली-चौराहे पर कहीं अचानक दीख जाने वाला भैरव-देवताओं के कुलीनतंत्र से बाहर, सामान्य जनसमुदाय का देवता है। समाज के निचले तबकों में व्याप्त, सुरक्षा की आकांक्षा की पूर्ति करने वाला यह देवता आतताइयों के लिए भयानक कालभैरव बन जाता है लेकिन अपने भक्तों का आत्मीय भैरों बाबा ही बना रहता है। मुक्तिबोध ने इसी प्रतीक को शासक वर्ग पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कान फेंकते हुए दिखाया है मानो वह उस आगामी संघर्ष की कल्पना कर रहा हो, जिसकी आशंका में शासक वर्ग का जासूसी तंत्र निरन्तर सक्रिय रहता है। आगे बताया जाता है कि 'तजुर्बो का ताबूत' यह बरगद भैरों को जानता है और यह भी कि भैरों की पीठ पर ज्वलन्त अक्षरों वाले पोस्टर लटके हैं। यहाँ आकर बरगद इतिहास के समतुल्य अर्थवत्ता ग्रहण कर लेता है और भैरों संघर्षशील वर्ग का प्रतिनिधि बन जाता है। इसके बाद पोस्टर चिपकाने वालों की सरकारी गुप्तचरी के दृश्यों के बाद यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग आता है:


"बरगद को किन्तु सब

पता था इतिहास,

कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च

गाँधी के पुतले पर

बैठे हुए आँखों के दो चक्र

यानी कि घुग्घू एक-

तिलक के पुतले पर

बैठे

हुए घुग्घू

से

बातचीत करते हुए

कहता ही जाता है—

मसान में...

मैंने भी सिद्धि की।

देखो मूठ मार दी

मनुष्यों पर इस तरह…"


गाँधी के पुतले पर बैठा हुआ घुग्घू कौन है, किसे आज़ाद भारत में गाँधी का उत्तराधिकारी माना गया, यह जगज़ाहिर है। गाँधी से पहले तिलक ही सबसे मान्य और समादृत नेता थे, सो उनके पुतले पर बैठे घुग्घू से आशय सत्ता के बाहर की दूसरी राजनीतिक शक्तियों की तरफ़ हो सकता है, जो मनुष्यों को वशीभूत करने का यह जादुई कारनामा देखकर ठगी-सी रह गयीं। इस प्रक्रिया में सत्ता-पोषित संस्कृति की भूमिका का उल्लेख करते हुए तिलक का घुग्घू कहता है-


"देख, उसने कहा कि वाह-वाह

रात के जहाँपनाह

इसीलिए आज-कल

दिन के उजाले में भी अँधेरे की साख है

रात्रि की काँखों में दबी हुई

संस्कृति-पाखी के पंख हैं सुरक्षित!।

...पी गया आसमान

रात्रि की अंधियाली सचाइयाँ घोंट के

मनुष्यों को मारने के खूब हैं ये टोटके!"


ज़ाहिर है कि यहाँ जहाँपनाह का प्रयोग किसी बादशाह के लिए नहीं, सन् तिरपन के सत्ताधारियों के प्रति हुआ है। हाँ, यह इस आधुनिक सत्ता में घुले-मिले सामन्ती तत्त्वों की तरफ़ संकेत ज़रूर करता है। किन्तु इसकी पूँजीवादी पहचान के प्रति भी मुक्तिबोध सजग हैं। इसीलिए सट्टे की 'हृदय विनाशिनी चिन्ता' का ज़िक्र भी वे लगभग साथ ही साथ करते हैं। इसके बाद सट्टेबाज़ी पर आधारित इस वैश्विक तंत्र के विभिन्न अंगों का विस्तृत ब्यौरा कविता में आता है। सबसे पहले तो 'सत्यों की मिठाई की चाशनी' सड़कों पर फैली हुई मिलती है। 'रात्रि की अँधियाली' के बाद यहाँ भी बहुवचन में सत्य का प्रयोग उल्लेखनीय है। रामचन्द्र शुक्ल ने कहीं कहा है कि सत्य सबका एक होता है और झूठ सबके अपने-अपने होते हैं। यहाँ अँधियाली सचाइयों से आशय अगर असत्य न भी हो तो, सतही और कमज़ोर सत्य अवश्य है जिसे 'पी जाना' आसान है। फिर सत्य के साथ बतौर विशेषण ‘कटु' का प्रयोग होता है, मिठास और चाशनी का रिश्ता खुशामद और जीहुज़ूरी के साथ ही सहज निभता है। यहाँ भी सत्य की कमजोरी का संकेत मिलता है। लगे हाथ यह भेद भी खुल जाता है कि सड़क पर फैली हुई यह चाशनी, जिसका तुक ‘विनाशिनी' से मिला हुआ है, और कुछ नहीं, टेढ़े मुँह चाँद की चाँदनी है जो ‘चोर-उचक्कों की तरह मछलियाँ फँसाती हुई रात भर फैली रहती' है। एक तरफ़ जनता का दमन है, उसके दुःख-दर्द हैं, दूसरी तरफ़ भोगवादी सभ्यता की चमक-दमक है, शासक वर्ग के अपने लटके-झटके हैं। मुक्तिबोध प्रायः इस शासकवर्गीय जीवनशैली को 'किंग्सवे' (Kingsway-राजपथ) की ज़िन्दगी कहते हैं। उसमें भी दिन के उजाले की नहीं, रात के अंधेरे की ही ज़िन्दगी किंग्सवे में मशहूर है। इसकी जो पहली विशेषता सामने आती है वह हमारी पूँजीवादी संस्कृति के औपनिवेशिक चरित्र का संकेत करती है। वह एक 'भारतीय फिरंगी दुकान' है जिसमें 'चमचमाता हुआ ईमान' रखा है, ज़ाहिर है, बिकने के लिए। 


प्रतिरोध की शक्तियाँ इस व्यवस्था के विरुद्ध 'भड़कीले पोस्टर' लगाती हैं और चाँदनी अपनी समूची षड्यंत्रकारी सत्ता के साथ उन लोगों की फ़िराक़ में रहती है जो ऐसा करते हैं। चाँदनी के बाद 'चाँद' की बारी आती है। गाँधी की मूर्ति पर बैठा हुआ घुग्घू जैसे ही ‘गाना शुरू' करता है, जीवन के लिए अनिवार्य साँसों का ‘मर जाना', टेलीफोन के तारों का ‘सट्टे के ट्रंक-काल-सुरों में थर्राना और झनझनाना' तथा 'आसमान बाबा का हनुमान चालीसा गाना' शुरू हो जाता है। हमारी सभ्यता के आगामी पतन के प्रतीकों की पहचान में मुक्तिबोध को कितनी सफलता मिली, इसे इस अंश से समझा जा सकता है। इस प्रक्रिया की परिणति ‘सचाई के अधजले मुर्दो की चिताओं की दहक में कवियों के बहकती कविताएँ गाने' में होती है। सचाई के अन्त के प्रतीक उसके मुदों का एक बार फिर बहुवचन में होना यहाँ दृष्टव्य है। हमारे समाज और साहित्य में हुए सत्य के इस वीभत्स हश्र से आज शायद ही कोई मुँह मोड़ सकता है।


इस कविता के पूर्वार्द्ध में मुक्तिबोध तत्कालीन शासक वर्ग की कारगुज़ारियों का उद्घाटन करते हैं, जिसे हम इस शृंखला की पहली कड़ी में देख चुके हैं। आगे चलकर वे प्रतिरोध की शक्तियों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। ग़ौरतलब है कि जनपक्षधर शक्तियों के बीच अनेक तरह के भ्रम हैं, और उनकी पहचान आवश्यक है। ‘कवियों के बहकती कविताएँ गाने' से इसकी शुरूआत हो जाती है। इन कवियों की संगत में उनके साथ ‘संस्कृति के कुहरीले धुएँ जैसे भूतों के गोल-गोल मटकों जैसे चेहरे नम्रता के घिघियाते स्वाँग में दुनिया को हाथ जोड़' क्या कहते हैं, यह देखें-


"बुद्ध के स्तूप में

मानव के सपने

गड़ गये, गाड़े गये!!

ईसा के पंख सब

झड़ गये, झाड़े गये।

सत्य की

देवदासी-चोलियाँ उतारी गयीं

उघारी गयीं,

सपनों की आँतें सब

चीरी गयीं, फाड़ी गयीं!!

बाक़ी सब खोल है,

ज़िन्दगी में झोल है!!"


हम जानते हैं कि कोई वर्ग तभी तक शासन कर सकता है जब तक वह अपने विचारों को जनसमुदाय में प्रभावी बनाए रख सकता है। इसी वैचारिक वर्चस्व को ग्राम्शी ने 'हेजेमनी' कहा था जो मूलतः संस्कृति के दायरे की चीज़ है। सामरिक और आर्थिक प्रभुत्व को सांस्कृतिक हेजेमनी या वर्चस्व ही टिकाऊ और 'वैध' बनाती है, और इसके ख़त्म होने पर सामरिक और आर्थिक क्षेत्रों की बढ़त भी तिरोहित हो सकती है। शासक वर्गों से कवि की मुठभेड़ भी इसी क्षेत्र में होती है, इसलिए वह उनके द्वारा फैलाए जा रहे सांस्कृतिक प्रदूषण की काट करने के लिए ख़ासतौर पर सन्नद्ध रहता है। संस्कृति के क्षेत्र में दुश्मन के सबसे मज़बूत मोर्चे पर हमला करना चाहिए। स्वभावतः, अपने पक्ष के भी सबसे मज़बूत हिस्से को ही इसकी अगुवाई करनी पड़ती है। 


ऊपर उद्धृत काव्यांश से संस्कृति के क्षेत्र में अपनाई जाने वाली शासक वर्ग की सबसे परिष्कृत रणनीति की सूचना मिलती है। इसके तहत शासकवर्गीय प्रवृत्तियों को जनपक्षधर चोला धारण करना पड़ता है और मानवता के पक्ष में जूझने वाली परम्परा की "निर्णायक और दुखद पराजय" पर आठ-आठ आँसू बहाने पड़ते हैं। ‘यथार्थवाद' का इस्तेमाल पराजयवाद को पुष्ट करने के लिए किया जाता है, और उत्पीड़क गतिविधियों का वर्णन ऐसे वीभत्स विस्तार में जाकर किया जाता है कि रही-सही मानवीय संवेदनाएँ भी लुप्त हो जाएँ। इतिहास के अन्त से लेकर महाख्यानों के अन्त की, व्यवहारतः साम्राज्यवाद समर्थक घोषणाएँ इस रणनीति का एक छोर भर है। इसके दूसरे छोर पर हमारे वे नादान दोस्त आते हैं जो जनता का पक्ष चुनने के अपने फैसले को इतनी अहमियत देते हैं कि हर वक़्त जनता को कोसते और उलाहने देते ही पाए जाते हैं। ‘हाथ जोड़ने' का एक अर्थ पिण्ड छुड़ाना भी होता है। इसके बाद ही उपरोक्त काव्यांश में आई क्रियाओं जैसी निश्चयात्मकता सम्भव है। दुनिया से जिसका सरोकार क़ायम है वह ‘झोल' और 'खोल' से अलग किसी तीसरे विकल्प की चिन्ता करेगा। इसीलिए यह वक्तव्य सुनकर गलियों का भैरव हँस पड़ता है और चाँदनी का चेहरा धूल-धूसरित हो जाता है। कविता में इसके बाद कवि का अपना पक्ष आता है:


"और उस अँधियाले ताल के उस पार

नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक

लोहे की नभ-चुम्बी शिला का चबूतरा

लोहांगी कहाता है

कि जिसके भव्य शीर्ष पर

बड़ा भारी खण्डहर

खण्डहर के ध्वंसों में बुजुर्ग दरख़्त एक

जिसके घने तने पर

लिक्खी हैं प्रेमियों ने

अपनी याददाश्तें,"


इसी दुनिया में मौजूद यह एक दूसरी दुनिया है। दोनों दुनियाओं के बीच एक विशाल अँधेरी और गहरी खाई है जिसमें पानी भरा है। इस 'ताल' के उस पार पहाड़ है, नभ-चुम्बी शिला है, शिला में खण्डहर है और उसमें है बुजुर्ग दरख़्त। इस दरख़्त पर प्रेम की याददाश्त का दर्ज होना तो अर्थपूर्ण है ही, मुक्तिबोध के इन सभी प्रिय-प्रतीकों की विशालता और भव्यता ख़ुद भी याददाश्त है, अतीत की, निकट अतीत की। वह अतीत जो अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ। वह इमारत आज भी अपने खण्डहर में मौजूद है, वह दरख़्त आज भी प्रेमियों का मिलन स्थल है। उसमें आने वाली हवाएँ आज, बिलकुल आज की हैं जो 'नगर' की व्यथाएँ, 'मोर्चे मीटिंगों के मर्म-राग', और 'अंगारों से भरी हुई प्राणों की गर्म राख' के बारे में बताती हैं। 


इस पृष्ठभूमि में दो पात्र आगे बढ़ते हैं—पेण्टर और कारीगर। पेण्टर एक कलाकार या बुद्धिजीवी है जो अपने वक़्त, अपने ज़माने की तरफ़ से बोलता है, और कारीगर श्रमजीवी वर्ग का सदस्य है जो शहर का प्रतिनिधित्व करता है-


"ज़माना नंगे-पैर

कहता मैं पेण्टर

शहर है साथ-साथ

कहता मैं कारीगर---"


यहाँ शहर का अर्थ व्यापक है। शहर या नगर कई बार उस विशाल इंसानी बस्ती के लिए प्रयुक्त होता है, जिसके निवासी शहरी या नागरिक कहे जाते हैं। धूमिल ने जब कहा था कि "कविता पर बहस तेज़ कर दो और शहर को अपनी ओर झुका लो" तो उनका आशय यही था। इब्ने इंशा जब कहते हैं:-- "इंशा जी उठो अब कूच करो/ इस शहर में जी का लगाना क्या/ वहशी को सुकूँ से क्या मतलब/ जोगी का नगर में ठिकाना क्या", तो 'शहर' प्रत्यक्ष रूप से, और 'नगर' लाक्षणिक रूप से राष्ट्र को सूचित करता है। कहने का आशय यह कि यहाँ जो कारीगर है वह मेहनतकश सर्वहारा वर्ग का सदस्य होने के साथ-साथ राष्ट्र के समर्थन का भी दम भरता है। उसका यह दावा पेंटर के इस कथन के जवाब में आता है कि ज़माना नंगे पैर है। यानी लोग अभावग्रस्त हैं, असन्तुष्ट हैं। ज़ाहिर है, यहाँ तक दोनों एक दूसरे से सहमत हैं और शासक वर्ग के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी एकजुटता की आशा रखते हैं। पेण्टर और कारीगर की यह मैत्री निश्चय ही एक स्तर पर मध्यवर्ग और सर्वहारा का संश्रय है लेकिन यह एकता उतनी सरल और एकरैखिक नहीं है, जितनी मानी गयी है। मुक्तिबोध ने अन्यत्र लिखा है-


"बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष

से भी उग्रतर

अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर।"


इसका एक उदाहरण, वैचारिक बहस का एक नमूना यहाँ देखें जो प्राथमिक स्तर से लेकर दूरगामी स्तर तक प्रासंगिक बना रहता है-


"कारीगर ने हँसकर

बग़ल में खींचकर पेण्टर से कहा, भाई

चित्र बनाते वक़्त

सब स्वार्थ त्यागे जायँ,

अँधेरे से भरे हुए

जीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो

अभिलाषा-अन्ध है

ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं

अपने लिए नहीं वे!!

ज़माने ने नगर से यह कहा कि

गलत है यह, भ्रम है

हमारा अधिकार सम्मिलिंत श्रम और

छीनने का दम है!"


इन पंक्तियों में एक ऐतिहासिक विडम्बना निहित है। मुक्तिबोध मार्क्सवाद में यक़ीन रखते थे, लेकिन उनका मार्क्सवाद उस समय प्रचलित आधिकारिक मार्क्सवाद से भिन्न था। एक अग्रगामी वैज्ञानिक दर्शन के रूप में मार्क्सवाद ने अपना विषय पूँजीवादी विकास के उच्चतम सोपान पर पहुँच चुके समाजों को बनाया था, किन्तु उसकी क्रान्तिकारिता अधिक प्रभावी सिद्ध हुई। विकसित देश तो अपने अन्तर्विरोधों को सँभालने में सफल रहे, लेकिन पिछड़े और अर्द्धसामन्ती रूस में अपेक्षाकृत कम विकसित सर्वहारा के हाथों क्रान्ति हुई जिसने आस-पास के एशियाई देशों को भी अपने आगोश में ले लिया। इससे श्रमिक वर्ग की चेतना और उसके ऊपर आ पड़े ऐतिहासिक कार्यभार के बीच एक बड़ा अंतराल पैदा हुआ, जिसका लाभ श्रमिक वर्ग के अन्दर पैदा हुए टुटपुंजिया, नौकरशाह तबके ने उठा लिया। उसने जनमानस में व्याप्त अन्धराष्ट्रवाद और व्यक्तिपूजा जैसे तमाम पिछड़े हुए मूल्यों को समाजवादी जामा पहनाकर खड़ा किया और उनका विरोध करने वाले चेतनासम्पन्न तत्त्वों पर झूठे-सच्चे आरोप लगाकर उन्हें रास्ते से हटा दिया। यहाँ इस विषय पर विस्तार में जाना तो सम्भव नहीं है, लेकिन सोवियत संघ में स्टालिन और ट्रॉट्स्की के बीच हुए संघर्ष को इसके एक उदाहरण के बतौर देखा जा सकता है। भारत जैसे पिछड़े और औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त देश में नौकरशाही प्रवृत्ति शुरू से ही मज़बूत थी।  मुक्तिबोध का समस्त वैचारिक लेखन, विशेषकर 'समीक्षा की समस्याएँ' शीर्षक लेख तथा कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे को लिखा गया उनका पत्र इस प्रवृत्ति से उनके संघर्ष की गवाही देता है। 


कविता की उपर्युक्त पंक्तियों में भी श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधि प्रत्येक स्वार्थ तथा आकांक्षा का त्याग करने की माँग करता है, ज़ाहिर है कि उच्च आदर्शों के नाम पर। लेकिन यह माँग व्यवहारतः एक अराजनीतिक, वर्गच्युत और यान्त्रिक दृष्टिकोण की उपज है जिसके मुताबिक इतिहास की इमारत के निर्माण में जनता की 'निःस्वार्थ' भूमिका केवल ईंट-गारे की-सी होती है। किसी भी व्यवस्था में नौकरशाही का यह प्रिय आह्वान हो सकता है। 


दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग के विश्वदृष्टिकोण से अनुप्राणित बुद्धिजीवी, कलाकार है, जो अपनी अलग राय रखता है। दरअसल, यहाँ सामाजिक परिवर्तन के बारे में भाववादी दृष्टिकोण (जो मनोगत कारणों को महत्त्व देता है) और भौतिकवादी दृष्टिकोण (जो वस्तुगत कारकों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है) के बीच टकराव है। पहला दृष्टिकोण परिवर्तन को लोगों की सदिच्छा अथवा चेतना का परिणाम मानता है, जबकि दूसरा दृष्टिकोण इसे बुनियादी तौर पर विभिन्न वर्गीय तथा सामाजिक स्वार्थों के टकराव की अनिवार्य परिणति समझता है। पेण्टर के अनुसार स्वार्थों को त्यागने की नहीं अपनाने की ज़रूरत है, बेशक व्यक्तिगत को सामूहिक के अधीन रखते हुए। वह कविता और कला की अनिवार्यता पर ज़ोर देता है और वक़्त की माँग के अनुरूप कलारूपों के चुनाव को सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण मानता है। आज के हालात में 'पोस्टर ही कविता है' का नारा बुलंद करके वह 'वेदना के रक्त से लिखे गये लाल-लाल घनघोर धधकते' पोस्टरों का सृजन करता है जिन्हें दोनों मिलकर जगह-जगह लगाते हैं। इन पोस्टरों में व्याप्त चेतना ‘धरती और आसमान को कँपा' देती है और जनशक्तियों को अभूतपूर्व ऊर्जा और आवेग से भर देती है। उनकी बढ़त के इस दौर में संघर्ष के स्वरूप और उसकी सम्भावनाओं को लेकर वैचारिक द्वन्द्व भी उनके बीच तेज़ होते हैं जो उनके विकास का कारण भी हैं और परिणाम भी। इस प्रकार मुक्तिबोध अपने युग के सामने मौजूद इस चुनौती का विवरण ही नहीं देते, इसके प्रतिकार का खाका भी पेश करते हैं। कविता की अन्तिम पंक्तियाँ देखें:


"मुहल्ले के मुहाने के उस पार

बहस छिड़ी हुई है;

पोस्टर पहने हुए

बरगद की शाखें ढीठ

पोस्टर धारण किये

भैरों की कड़ी पीठ;

भैरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है।

ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा

सुबह होगी कब और

मुश्किल होगी दूर कब!!


समय का कण-कण

गगन की कालिमा से

बूंद-बूंद चू रहा

तडित्-उजाला बन।"

                                      

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