शोक की लौ जैसी एकाग्र

 



वीरेन डंगवाल शाब्दिक अर्थों में जनता के कवि हैं। वे न तो महज़ मध्यवर्ग के कवि हैं, न सर्वहारा वर्ग के। न ही मुक्तिबोध की तरह सर्वहारा से एकजुट होने को तड़पते मध्यवर्ग के। इसकी वजह है मनुष्यविरोधी शक्तियों का

सर्वशक्तिमान बनकर उभरना। मुक्तिबोध के समय में देश-दुनिया में इनके ख़िलाफ़ बाक़ायदा जंग चल रही थी। तब उस प्रतिरोधी सेना के साथ डटकर लड़ने का सवाल प्रमुख था। अब वह सेना टूटकर बिखर चुकी है। दुनिया में साम्राज्यवाद का नंगा नाच चल रहा है। कोढ़ में खाज की तरह अपने देश में साम्प्रदायिक-फ़ासिस्ट तांडव जारी है। वीरेन डंगवाल की कविताओं में इस पराजय की वेदना आदि से अंत तक व्याप्त है। लेकिन विलाप बनकर नहीं, सांत्वना, धैर्य और साहस बनकर। शोक को शक्ति में बदलने के इरादे के साथ। अचेत पड़े अपने लोगों को सहेजने-संभालने, समझने-समझाने और फिर से कमर कसने का हौसला देने का यह काम आसान नहीं है। लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है। रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा।


यहाँ हम उनके संग्रह 'दुष्चक्र में स्रष्टा' की कुछ कविताओं का विश्लेषण करके देखेंगे कि मानवता के इतिहास के इस नाज़ुक मोड़ का सामना हिन्दी के एक कवि ने कैसे किया। इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में आई इस कविता-पुस्तक को साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला था:


"डोमाजी उस्ताद सुधर चुके

और विधानसभा भी कभी की वातानुकूलित की जा चुकी

मान लिया भद्र लोगो, कोई ख़तरा नहीं बाक़ी बचा

हड्डी-खोपड़ीविहीन वह शुभ दिन

आ ही गया आख़िर हमारे देश में।"

                      (हड्डी खोपड़ी ख़तरा निशान)


यहाँ 'हड्डी-खोपड़ीविहीन' में रीढ़ की हड्डी और उसी के एक हिस्से दिमाग़ की हिफ़ाज़त करने वाली खोपड़ी की पहचान सहज ही की जा सकती है।


मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' में आने वाली 'मृत दल की शोभा यात्रा' फ़ासिज़्म के पूर्वाभास के रूप में दिखी थी। उसमें कवि-आलोचकों के साथ शहर के कुख्यात हत्यारे डोमाजी उस्ताद का होना आश्चर्य का विषय था। ब्रेख़्त ने भी कभी लिखा था-'गैंग लीडरान चल रहे हैं अकड़कर/ राजनेताओं की तरह', लेकिन अब वे ही नीति-निर्माता हो चुके हैं। विधानसभाओं को उनके अनुकूल सुधार लिया गया है। अब उनकी उपस्थिति विस्मय नहीं पैदा करती। उस कविता में एक संवेदनशील कलाकार की खोपड़ी तोड़ी गई थी। अब इसकी भी ज़रूरत नहीं, क्योंकि रीढ़ की हड्डी की तरह वह भी प्रायः अनुपस्थित मिलती है। ज़ाहिर है कि इन चीज़ों के अभाव में ख़तरे का कोई कारण नहीं है। इन शून्यताओं की भी एक ख़ास वजह है--


"अब दरअसल सारे ख़तरे ख़त्म हो चुके

प्यार की तरह

दरअसल चारों तरफ़ चैन ही चैन है"


प्रेम मनुष्य की सामाजिकता की बुनियाद है। भूमण्डलीकरण की मार और साम्प्रदायिक नफ़रत के ज़हर ने समूचे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। रही-सही कसर हमारे अपने बीच के राग-द्वेष के चलते पूरी हो गई है। वीरेन डंगवाल की कविता में प्रेम, जीवन और मनुष्यता का पर्याय बनकर आता है। इन्हें वापस पाने के लिए महासमर लड़ना होगा। निराला को समर्पित कविता 'उजले दिन ज़रूर' में वे कहते हैं--


"यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई

लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है

जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में

लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है"


जिगर मुरादाबादी ने इसी आग के दरिया को डूबकर पार करने की बात इश्क़ के प्रसंग में कही थी। प्रेम और संघर्ष की एकता की अनुभूति तो मुक्तिबोध के यहाँ भी है, लेकिन वीरेन डंगवाल तक आते-आते यह मुकम्मल हो गई है। इसलिए दोनों का अलग-अलग ज़िक्र

नहीं करना पड़ता। 'शमशेर' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखें--


"मैंने प्रेम किया

इसीलिए भोगने पड़े

मुझे इतने प्रतिशोध"


इसीलिए 'हड्डी खोपड़ी ख़तरा निशान' में बचपन में स्कूल से लौटते समय बिजली के खंभों पर लगे ऐसे निशानों को 'पत्थर से बजाने' को कवि 'हमारे जीवन में प्यार का आग़ाज़' कहता है। प्रत्यक्षतः इस बचपने में प्यार जैसी कोई बात नहीं है। हाँ, उस 'ख़तरा निशान' से ख़तरे को पहचानने और उन्हें दर्ज करने वाले मनोभावों के आगमन और इसके प्रत्यक्ष कारण के प्रति तिरस्कार प्रदर्शन के संकेत ज़रूर मिलते हैं। ये संकेत इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि अब वे निशान बहुत कम, कहीं-कहीं शुभ चिह्न की तरह ही दिखाई पड़ते हैं, जिनका सम्बन्ध ख़तरों को पहचानने और उनसे जूझने की हमारी क्षमता से था। 


जीवन और उसके सौन्दर्य से सच्चा प्रेम करने वाला कवि इनके क्षरण को अनदेखा नहीं कर सकता है। जीवन के सौन्दर्य को नष्ट करने वालों के प्रति उसका रुख़ ही उसके प्रेम के खरेपन की पहचान करा सकता है। हमारा समय जैसा है उसमें प्रेम और नफ़रत एक सिक्के के दो पहलू बनकर ही रह सकते हैं। पहले, छीजते हुए सौन्दर्य का एक दृश्य देखें--


"ओठों में एक ख़ुश्की

झरना किसी शानदार द्वार से

रंग की एक कत्थई पतली परत का


यह भी प्रेम है शायद

इस सबको देख पाना।"

                            (अधेड़ नैनीताल उधेड़बुन)


इसके बाद सुंदरता के, गति के माध्यम से जीवन को आच्छादित कर देने वाले, रूप की एक झलक देखें--


"जो सुन्दर था

गतिमान भी था वही

पकड़ा न गया


पकड़ा गया मैं

जकड़ा गया।"

                        (जो सुन्दर था)


यहाँ सौन्दर्य को पकड़ना उसकी गति का निषेध करने वाला कृत्य हो सकता था, इसलिए वह सम्भव भी नहीं हुआ। लेकिन उसके सम्मोहन में जकड़ लिए जाने से भी गति आ सकती है, जो जीवन की विशेषता है। इतनी ही छोटी एक अन्य कविता में इस सुंदरता का निषेध करने वालों के बारे में टिप्पणी देखें--


"यह बूचड़खाने की नाली है

इसी से होकर आते हैं नदी के जल में

ख़ून

चरबी, रोयें और लोथड़े


प्रेम की सुन्दरता का निषेध करने वाले

इसी तट आते हैं

हाथ-पैर धोने।"


इस कविता का शीर्षक 'विद्वेष' है। पहली नज़र में ऐसा लगता है कि यह शीर्षक सौन्दर्यविरोधियों के रवैये की सूचना देता है, लेकिन दरअसल यह उनके प्रति खुद कवि के रुख़ का सूचक है। ग़ौर करें कि बूचड़खाने की नाली से गंदगी चाहे जितनी आती हो, लेकिन न तो वह विद्वेष से पैदा होती है, न ही विद्वेष पैदा करती है। हाँ, प्रेमविरोधियों के उसी तट पर हाथ-पैर धोने आने का उल्लेख इसी के साथ करके कवि दोनों को एक जैसी, नदी को गंदा करने वाली गतिविधि मानता है। बल्कि एक मूल्यनिर्णय से जुड़ा होने के कारण प्रेमविरोधियों की गतिविधि अधिक खटकने वाली है। उनकी एक सहज क्रिया पर अपनी इतनी कड़ी प्रतिक्रिया को ही कवि अपना विद्वेष मानता है और एक सकारात्मक भाव की तरह उसकी घोषणा करता है।


वीरेन डंगवाल की कविता के तमाम आशय प्रेम के मुहावरे में व्यक्त होते हैं। उनमें दूर निकल जाने से पहले प्रेम का वह खाँटी रूप देखते चलें जो खुद तो किसी की परवाह नहीं करता, लेकिन बहुतों की आँखों में इसी वजह से चुभता है। 'काम-प्रेम' नामक छोटी-सी कविता है--


"काम हृदय में यह कैसा कोहराम मचाये है

बँसवट में जैसे चिड़ियों की जोशीली खटपट

खिला कहाँ से संध्या बादल में गुलाब पीला

आता हुआ शरद यह कैसे रंग दिखाये है

प्रेम हृदय में यह कैसा कोहराम मचाये है।"


वीरेन डंगवाल मुख्य रूप से यथार्थ के कवि हैं, लेकिन उनकी कविता में स्वप्न और स्मृति की भी रचनात्मक भूमिका है। ये यथार्थ को झेलने और उससे जूझने की सामर्थ्य देते हैं। ख़ास बात यह है कि स्वप्न और स्मृति के साथ कवि के रिश्ते में नींद की महत्त्वपूर्ण स्थिति होती है। कविता में प्रायः नींद को 'सुखिया संसार' के खाने और सोने के दर्शन से जोड़कर देखा गया है, लेकिन नींद हराम कर देने वाले इस दौर में उसकी यह प्रतिष्ठा मनुष्य की जिजीविषा का सबूत है, ख़ास तौर पर तब जब वह विस्मृति का नहीं स्मृति का माध्यम बनती हो। 'पाइप के पानी की नींद' शीर्षक कविता देखें-


"रात को पाइपों के भीतर

पानी सो जाता है एक बहुत लम्बी तरल नींद

उसी नींद में छूता है उँगली बढ़ा-बढ़ाकर

नदी को

हिमशिखरों को

चट्टानों के काई लगे चिकने पेट

और चाँदनी में चमकते देवदारु की छाया को

सोते में भी कोशिश करता है

जहाँ तक हो बचकर रहे

रात-दिन उत्सर्जित होते तेज़ाब से।

सुबह धुंधलके में सबसे पहले जिसने नल खोला

उसी ने सुना अँजुली भरने से पहले

पाइप के पानी का वह इकलौता रोता हुआ गीत

सोते में सीखा हुआ।"


यहाँ ग़ौरतलब है कि पानी की हिमालय से जुड़ी आदिकालीन स्मृति में भी वर्तमान यथार्थ का सन्दर्भ ओझल नहीं होता और इसी नींद के दौरान वह शोकगीत मिलता है, जो इकलौता है। कवि का गीत भी ऐसा ही 'इकलौता रोता हुआ गीत' है, भले ही वह उसे अनेक सुरों में गा सकता हो।


नींद का सपनों से सम्बन्ध स्वाभाविक है। वीरेन डंगवाल की कविता में इन सपनों की अहम भूमिका है। एक स्तर पर वे यथार्थ का अतिक्रमण करने की अनुभूति कराते हैं. लेकिन दूसरे स्तर पर वे और शिद्दत से उसका एहसास जगाते हैं। यही नहीं, सपने में सक्रिय अवचेतन अपनी परम्परा की याद भी दिलाता है। कविताओं के ये अंश देखें-


"कच्ची नींद में जब अपनी ही बजती हुई

नाक तक सुनाई देती है

मैंने साकार होते देखीं

कितनी ही दुर्लभ मनोकामनाएँ

हाँ, उनमें कुछ बहुत निर्मल सपने भी थे

जो जाते थे

तेरी दया और मेरे भय से बाहर।


उन्होंने ही बचाकर रखा है मुझे

तेरी कृपा के बावजूद।"

                                (ईश कृपा)

"स्वप्न में मैं डरा

घिघ्घी बँधी

पुकारता था किसी को

मगर निकलती न थी आवाज़

कौन था आख़िर, वह मेरा स्वजन

जिसे पुकारने को होता था सपने में?

        ×         ×        ×         ×

ग़ालिब किंवा प्रसाद जी की यह औलाद

कहाँ से बची रह गयी

कलेजे के इस बियाबान में?"

                                             (घिघ्घी)


बहरहाल, इन हालात में स्वप्न और स्मृति की गोद में जाकर दम लेना भी आसान नहीं है। 'रात गाड़ी' नामक कविता की ये पंक्तियाँ देखें-


"रात चूं-चर्र-मर्र जाती है

ऐसी गाड़ी में भला नींद कहीं आती है?

×        ×           ×             ×

रात विकट        विकट रात       विकट रात।

दिन शीराज़ा।

शाम रुलाई फूटने के ठीक पहले का लम्बा पल।

सुबह          भूख की चौंध में खुलती नींद

×          ×           ×          ×

संशय ख़ुसरो की बातों में

ख़ुसरो की आँखों में डर है

इसी रात में अपना घर है।"


भारतीय परम्परा के स्वयंभू ठेकेदार, सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की 'नयी राष्ट्रभाषा'

और 'नूतन स्थापत्य' की विशेषताओं को दर्ज करने वाली ये कविताएँ स्मृति और स्वप्न की रक्षा के लिए भी यथार्थ का सामना करने की अनिवार्यता पर बल देती हैं-


"पहले उसने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाये

और कहा–'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'

फिर उसने हमारे विवेक को सुन्न किया

और कहा- 'अब जाकर हुए तुम विवेकवान'

फिर उसने हमारी आँखों पर पट्टी बाँधी

-'चलो अब उपनिषद पढ़ो'

फिर उसने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की

नदी में उतार दी

और कहा- 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।"

                                              (परम्परा)

"वह आग नहीं है

वह एक सर्वथा नयी राष्ट्रभाषा है

सड़क पर अभी भी चिपचिपाता

वह खून नहीं

वह है

एक नयी क़िस्म की रोशनाई

जली हुई

उन उजाड़ बस्तियों में

आकार ले रहा है

हमारा नूतन स्थापत्य

पटक कर मार दिया गया वह बच्चा

वह हमारा भविष्य है।"

                                 (नयी संस्कृति)


इस नयी, भविष्यविहीन संस्कृति को हमारी अपनी भूल-ग़लती से भी शक्ति मिली है। सोवियत संघ की स्मृति में लिखित कविता ‘सितारों के बारे में' की कुछ पंक्तियाँ देखें-


"टूटते नहीं हैं सितारे

वे मिट जाते हैं आहिस्ता-आहिस्ता

जबकि उनके छूँछे प्रकाश में

हम गढ़ते होते हैं

अपने सर्वोत्तम स्वप्न।"


जैसे लाखों प्रकाशवर्ष की दूरी पर स्थित तारों की रोशनी उनके ख़त्म हो जाने के लाखों वर्षों बाद भी हम तक आती है, वैसे ही सोवियत संघ की अपनी समस्याओं के बावजूद उससे मिलने वाली प्रेरणा के चलते जो स्वप्न देखे गए थे, अब भी उनके रद्दोअमल पर काम चल रहा है। इस दौरान यह सबक भी मिल गया है कि उनके अनुभव से कुछ संकेत भले ही ग्रहण कर लें, उन्हें किसी प्रकार का मॉडल बनाना सिर्फ़ नासमझी होगी।


"महान गणितज्ञों की तरह

वे सिर्फ इंगित करते हैं

दिशाओं को

राह नहीं खोजी जा सकती

उनके दिप-दिप प्रकाश में।"


इस प्रक्रिया में ग़लतफ़हमी पैदा करने का काम निहित स्वार्थों ने किया। उन्होंने उस व्यवस्था पर क़ब्जा कर लिया था। नतीजा यह हुआ कि जो व्यवस्था 'अंधकार' को नष्ट करने (यहाँ अंधकार विषमताजन्य हर बुराई ख़ासकर गुलामी का पर्याय है) की प्रतिज्ञा के साथ अस्तित्व में आई थी, वह उसके लिए सुंदर बहाने बनाने लगी-


"छाँह रात्रि की थी, तारों की नहीं

मगर भरमाता रहा हमें प्यार।

वे तो बस मढ़ते थे रात को अपनी चमक से


जैसे अंधकार की सुन्दर व्याख्या करते

रिझाने वाले चतुर शब्द!"


कविता के इस अंश की दो आरम्भिक पंक्तियों में 'रात्रि की छाँह' का आशय समझने के लिए 'शमशेर' शीर्षक कविता में रात का प्रयोग देखें-


"रात आईना है मेरा

जिसके सख़्त ठंडेपन में भी

छुपी है सुबह

चमकीली साफ़"


ठंडी और सख़्त रात में चमकीली साफ़ सुबह को देखना अखंड-सी लगने वाली इकाइयों के द्विधा विभाजित यथार्थ को देख पाने वाली द्वंद्वात्मक दृष्टि के लिए ही सम्भव है। रात और सुबह का रिश्ता दुख और सुख तथा दमन और प्रतिरोध के रिश्ते की तरह इतना सहज है कि मानव-व्यवहार और अनुभव का अंग बनकर भाषा में मुहावरे की शक्ल में दाख़िल हो चुका है। उपर्युक्त सन्दर्भ में रात्रि की छाँह से आशय अंधकार भरी रात में कसमसाते, सुबह के संघटक तत्त्वों की अनुभूति से है। दूसरे शब्दों में, सोवियत संघ में समाजवाद-विरोधी तत्त्वों के शिकंजे के बावजूद जनता की शक्ति और सर्जनात्मकता के कारण बहुत कुछ ऐसा था जो, हमारे 'प्यार' यानी सामाजिक परिवर्तन की हमारी आकांक्षा के चलते, हमें सोवियत संघ की असलियत से भटकाकर 'रिझाने वाले चतुर शब्दों की सुन्दर व्याख्या' पर विश्वास करने के लिए बाध्य कर देता था।


बहरहाल, पिछली शताब्दी में जो कुछ हुआ उससे हमारे अनुभव और ज्ञान में इजाफ़ा हुआ है। जैसे नयी ईंटें धुलकर और पानी सोखकर और मज़बूत होती हैं, वैसे ही हमारे इरादे और मज़बूत हुए हैं। फिर इस शताब्दी का निर्माण कार्य तो अभी पूरा का पूरा बाक़ी है-


"पानी सोखकर धुली हुई नयी ईंटों से

बनना शुरू हुई ही है

स्वप्नों की वह बहुमंज़िला इमारत

जो जस की तस छूट गयी है

एक शताब्दी के लिए।

                                 (पुरानी उम्र)


स्मृति और स्वप्न की दुनिया से यथार्थ की विकराल दुनिया में आना नशा टूटने जैसी अनुभूति पैदा करता है। कवि की नज़र में यथार्थ अपनी तमाम प्रतिनिधि और उल्लेखनीय विशेषताओं के साथ 'जहाँ मैं हूँ' नामक एक छोटी-सी कविता में कुछ यूँ आता है-


"जहाँ नशा टूटता है ककड़ी की तरह

जहाँ रात अपना सबसे डरावना बैंड बजाती है

                                    सबसे मद्धिम सुरों में

एक स्त्री जहाँ करती है प्रेम का सुदूर इशारा

जहाँ मछली का ताज़ा पंजर चबाता है

                                      ऊदबिलाव

जहाँ भ्रष्टाचार का सौन्दर्यशास्त्र रचते हैं

                                     नीच शासक

जहाँ कोई युवा विधवा अकेले में रोती है

                                        चुपचाप---

                          चौतरफ़ा बोझ है संसार

जहाँ कौड़ा तापते अब भी अडिग साथी

मशगूल हैं किले को भेदने की

नयी तरकीब खोजने में।"


इस कविता के आरम्भ में अनुभूति के दो स्तरों का संकेत हुआ है। एक तो नशे के ककड़ी की तरह टूटने की स्थूल या प्रत्यक्ष अनुभूति तथा दूसरी, सबसे डरावने बैंड के सबसे मद्धिम सुरों में बजने की सूक्ष्म अनुभूति। कविता आगे भी अनुभूति के इन दोनों स्तरों पर चलती है। यथार्थ के प्रत्यक्ष स्तर पर जहाँ 'नीच शासक' और 'अडिग साथी' द्वंद्वरत हैं, वहीं सूक्ष्म स्तर पर स्त्री, मछली, ऊदबिलाव और युवा विधवा हैं, जो मानो उस डरावने बैंड के सबसे मद्धिम सुरों पर नृत्य कर रहे हैं। अनुभूति के इन दोनों स्तरों का फ़र्क अभिव्यक्ति की शैली में देखने योग्य है। मद्धिम सुरों में सबसे पहले आता है प्रेमविरोधी सुर जिसके चलते, ख़ासकर पुरुषप्रधान समाज में, किसी स्त्री के लिए अपने प्रेम की अभिव्यक्ति मुश्किल हो जाती है और उसे 'सुदूर इशारों' पर निर्भर रहना पड़ता है। मछली का पंजर चबाने का काम अगर कोई बड़ी मछली या मगरमच्छ कर रहा होता तो उसके मायने अलग होते, लेकिन ऊदबिलाव, जो ख़ुद उस मछली जैसा ही छोटा और मासूम प्राणी है, जब ऐसा करता हुआ कविता में दिखाई पड़ता है तो संकेत, परिस्थितियों के कुचक्र में फँसकर अपने ही जैसे लोगों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा में उतर पड़े सामान्य लोगों की तरफ़ होता है। पति की मौत के बाद अचानक सामाजिक रूप से ताक़तवर गिद्धों के हमले की जद में आ गई युवती का संसार को बोझ समझने पर मजबूर हो जाना भी एक ऐसा ही दारुण मद्धिम सुर है। कवि की स्त्री के प्रति दृष्टि की विशेषता यहाँ उसके 'अकेले में चुपचाप' रोने में दीख पड़ती है। वह रोती है, लेकिन अपनी निजता की मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए। 


दूसरी तरफ़ प्रत्यक्ष और कानफाड़ू संगीत के स्तर पर भ्रष्ट आचरण के नए-नए कीर्तिमान रचते शासक हैं जिनका मुकाबला करने वाले 'अब भी अडिग साथी' उनकी किलानुमा व्यवस्था को भेदने की नयी तरकीब खोजने में लगे हैं क्योंकि पुरानी तरकीबें असफल हो गई हैं। यह राजनीतिक काररवाई है जो डंके की चोट पर युद्धभूमि में सम्पन्न होती है, जबकि दूसरा स्तर सांस्कृतिक संघर्ष का है जो इसके समानांतर अपेक्षाकृत सूक्ष्म स्तर पर चलता रहता है। कविता के अंदर इस सांस्कृतिक संघर्ष में कोई प्रतिपक्ष अलग से मौजूद नहीं है, क्योंकि यह समूची कविता ही इस भूमिका को निभाने में लगी है।


उल्लेखनीय है कि 'नीच' जैसे विशेषण वीरेन की कविता में प्रायः नहीं आते। बिना विशेषणों के प्रयोग के वे शासकों और इस प्रजाति के अन्य लोगों की क्षुद्रता और उनके ओछेपन को व्यक्त करने में विश्वास करते हैं। हालाँकि तिरस्कार के चरम पर पहुँचकर वे उन्हें चूहे और कौए जैसे जीव-जन्तुओं के रूप में चित्रित कर डालते हैं-


"तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे

जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे

हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें

ची-ची, चिक्-चिक् की धूम मचाते घूम रहे"

                               (उजले दिन ज़रूर)


"वे जमा हो रहे हैं चारों दिशाओं से

गलीज़ फड़फड़ाहट से भरा आकाश

जैसे उनका डैना हो फ़क़त       ऐसी ख़ुशी"

                                                  (कौए)


लेकिन जीव-जन्तुओं का यह इस्तेमाल भी वीरेन डंगवाल के कवि-स्वभाव के अनुकूल नहीं है। इस स्वभाव का वास्तविक परिचय तो सूअर के बच्चे जैसे अकारण तिरस्कृत जंतुओं के हार्दिक चित्रण में मिलता है-


"बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा

धुल-पुँछकर अँगरेज़ बन गया सूअर का बच्चा।"


वीरेन डंगवाल की कविताओं में शासक वर्ग के नुमाइन्दे नज़र नहीं आते, लेकिन वे अपनी गतिविधियों के ख़ौफ़नाक नतीजे के रूप में मौजूद होते हैं। वीरेन उनके सारतत्त्व का चित्रण तो करते हैं, लेकिन उनकी मूर्त उपस्थिति का विवरण नहीं देते। उनके कारनामों के कुछ नमूने हम पहले भी देख चुके हैं। उनके चरित्रांकन के नज़रिए से कुछ टुकड़े और देखें--


"गर्वीली गरदनों वाले कितने किशोर

आये यहाँ

गुम हो गए।

मेधा उनकी

पुकारती रही

पुकारती रही विकल।

फिर उस्ताद हत्यारों ने उसे बदला

एक निश्छल लालच में।

×             ×               ×

कितने अभागे हैं वे पुल

जो सिर्फ गलियारे हैं

जिनके नीचे से गुज़रती नहीं

कोई नदी।"

         (मार्च की एक शाम में आई आई टी कानपुर)


"दूर से ही दीखते वे दो

पगडंडी पर भगाते आ रहे सायकिल

एक बैठा कैरियर पर सहेजे पेटी

एक छाती से दबाता पैडिलों पर ज़ोर

एक शायद बैठ गाड़ी में

काम-धंधे की अंधेरी राह पर बढ़ जायेगा

दूसरा होकर थकावट चूर मद्धम खींचता सायकिल

गाँव-घर के सीले अँधेरों की तरफ़ को लौट जायेगा।

दोनों दिशाओं जायेगी खून की लकीर अदृश्य

टोह ही लेंगे उसे लेकिन शिकारी

वे होते ही हैं प्रवीण

और दक्ष उनके कुत्ते।"

                             (रेल का विकट खेल)


बहरहाल, 'उस्ताद हत्यारों' और प्रवीण 'शिकारियों' की यह गाथा 'नीच शासकों' की कथा का ही विस्तार है। कवि को वास्तविक चुनौती तो मद्धिम सुरों में बजने वाले बैंड की नृशंसता के उद्घाटन की है। इसके लिए वह इस व्यवस्था के सबसे विकसित रूप, महानगरों की संस्कृति को अपना विषय बनाता है और उसके अनेक दबे हुए पहलुओं का उद्घाटन करता है। हमेशा की तरह सबसे मार्मिक सत्य सबसे सरल शब्दों में व्यक्त होते हैं--


"कम पानी में काम चलाना

हमने सीखा

गाड़ी में उलटा टँग जाना

हमने सीखा

झोले में तरबूज़ छिपाना

हमने सीखा

झूठ बात को सच्चे मन से सत्य मानना

अपने जीवन में अपनाना हमने सीखा।"

                                                   (बड़े शहर में)


"मन दुर्बल हुआ

और दुश्मन दौड़े

बदमस्त इच्छाओं के घोड़े

महारथी की अनुकम्पा भरी मुस्कान

और सोने के हाथों में चमड़े के कोड़े।"

                                                    (दुर्बल मन)


इस महानगरीय विडम्बना का एक पक्ष 'बदमस्त इच्छाओं के घोड़ों के अनुरूप ख़ुद को ढालने के विवशताजन्य अभ्यास से अर्जित कुशलता के प्रदर्शन में भी दिखाई पड़ता है। 'सजना! सजना!' कविता में एक स्त्री के सजने के दृश्य पर ग़ौर करें--


"तनिक ग्रीवा हुई बंकिम

बस ज़रा सी खिंची भृकुटी

कान में बुन्दा जमाती

उँगलियों की चपल हरकत।

×          ×          ×

भरपूर देखा स्वयं को फिर एक बार

कुछ नेह से कुछ कौंध से

कुछ थकन से भरकर।

वाह, यह सजना!

भाड़ में जा री, अरी बम्बई! अपने असंख्य सजना समेत

धिक्कार तेरी काव्य-भाषा को!"


यहाँ 'सजना' में यमक की अभिलाषा और शीर्षक में उसकी स्थापना से भ्रमित हो जाने पर कविता का मर्म हाथ से छूट जा सकता है। कवि के धिक्कार का कारण सजने की क्रिया नहीं, उसका सन्दर्भ है। यह कौशल तो प्रशंसनीय है, लेकिन बाज़ार की माँग पर है, इसलिए थकाने वाला है। इसके बावजूद नेह और कौंध उसके जीवट का पता देते हैं। इन्हीं तत्त्वों के कारण सजती हुई वह स्त्री पत्थर तोड़ने वाली उस स्त्री की परम्परा में पड़ती है जो निराला को इलाहाबाद के पथ पर मिली थी। तब से अब तक यह फ़र्क ज़रूर पड़ा है कि तब उसने कवि की ओर रुआंसी आँखों से देखा था और अब वह स्वयं पर भरपूर निगाह डालती है। बम्बई की काव्य-भाषा की भर्त्सना दरअसल इस प्रवृत्ति से अभिभूत हो जाने वाली संस्कृति की भर्त्सना है। कवि चंद्रभूषण की ये पंक्तियाँ इस प्रसंग में याद आती हैं-


"भोगो, क्योंकि इसी लायक तुम हो

बाज़ार के बादशाहो, ताक़तवर तुम कितने भी हो,

खूबसूरती तुम्हारे बस की बात नहीं।"

                          ('इतनी रात गए' नामक संग्रह से)


इस दुनिया के उस्तादों और उनके कारनामों की खबर लेते-लेते कवि की निगाह इसे 'बनाने और चलाने वाले' ईश्वर पर पड़ती है-


"कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,

क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!"


'दुष्चक्र में स्रष्टा' शीर्षक कविता इन पंक्तियों के साथ 'ईश्वर की' बनाई हुई चीज़ों की विलक्षणता पर विस्मय प्रकट करते हुए शुरू होती है। इसके बाद 'तुमने सूरज-चाँद बनाया' वाले अंदाज़ में उसके स्रष्टा-रूप का गुणगान होता है। इस विवरण में सबसे उल्लेखनीय है प्रकृति के तमाम उपादानों की बालसुलभ समझदारी और उसकी उतनी ही मासूम अभिव्यक्ति जो ईश्वर को भी माथा पीटने पर मजबूर कर सकती है। इसमें छिपकली है जो ईश्वर के ही बनाए नियम को छलती हुई छत पर उलटा भागती है, पहाड़ हैं जिन्हें जाने क्या-क्या ‘थपोड़कर' बनाया गया है और जिनसे नदियाँ 'चालू कर दी गई' हैं, वह भी बिना बिजली के। हाथी और चींटी को एक जैसी सूँड़ मिली है, बस हाथी वाली में दो छेद, शोभा के लिए बना दिए हैं--


"वरना साँस तो कहीं से भी ली जा सकती थी 

जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।"


सबसे बढ़कर तो कुत्ते की दुम है जो मानो ईश्वर के मुखड़े पर झले जाते किसी अदृश्य पंखे की मूठ है। इसके अलावा आदमी है जिसके पास इन सबको आत्मसात करने पर पलभर में ब्रह्माण्ड के आर-पार पहुँच जाने वाला दिमाग़ है। इस विवरण के बाद 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज़ पर ईश्वर के कारनामों को अंतहीन बताया गया है। इस समूचे विवरण की ख़ासियत है इसकी मासूमियत। अगर इसमें शरारत का विवादी सुर भी मिल जाता तो इसकी निष्कलुषता खंडित हो सकती थी। इसका अंदाज़ इतना प्रामाणिक है कि किसी को ऐसा भी लग सकता है कि कवि स्वयं भी ईश्वर को स्रष्टा के रूप में स्थापित करना चाहता है, कम से कम पूर्व-आधुनिक काल में। लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, यह अंश प्रकृति के चमत्कारों से अभिभूत मनुष्य की सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति आदिम सरलता के साथ ज्ञापित कृतज्ञता की पुनर्रचना है। मध्यकाल के वर्णन तक तो यह भाव खिंच जाता है, पर आधुनिक काल में इसकी कड़ी टूट जाती है--


"यह ज़रूर समझ में नहीं आता

कि फिर क्यों बन्द कर दिया तुमने

अपना इतना कामयाब कारख़ाना?

नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पाँच सौ साल से

जहाँ तक मैं जानता हूँ

न बना कोई पहाड़ अथवा समुद्र

×             ×             ×

खून से लबालब हत्याकाण्ड अलबत्ता हुए ख़ूब

ख़ूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार

रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फ़ौजी

वर्दियाँ जैसे

मनुष्य मात्र की एकता को प्रमाणित करने के लिए

एक जैसी हुंकार, हाहाकार।"


ईश्वर के अस्तित्व के ख़िलाफ़ परम्परागत रूप से अशुभ की समस्या (Problem of Evil) एक प्रमुख दार्शनिक तर्क रही है। पुराने दार्शनिकों से लेकर भगतसिंह तक ने इस तर्क का इस्तेमाल ईश्वर की सत्ता के खण्डन के लिए किया है। इसी तर्क से यहाँ ईश्वर के सिर आधुनिक युग के सारे अपराधों की जवाबदेही आ जाती है क्योंकि एक तो उसने अपना कारखाना बन्द कर दिया और दूसरे सारे संसार में फैला अपना इतना बड़ा कारोबार हत्यारों के हाथों में सौंप दिया है। ज़ाहिर है कि स्रष्टा और सर्वशक्तिमान होना ईश्वर को भारी पड़ रहा है। अंततः कवि अपनी करुणा के सहज संस्पर्श से ईश्वर को भी, भूल पर भूल करने के बाद शर्म से मुँह छिपाकर भाग खड़ा होने वाली, मानवीय छवि प्रदान करके उससे दोस्ताना लहज़े में बातचीत करता है---


"प्रार्थनागृह ज़रूर उठाये गये एक से एक आलीशान।

मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से

वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार

उँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!

आख़िर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर

तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?

अपना कारखाना बन्द करके

किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?

कौन-सा है आख़िर, वह सातवाँ आसमान?

हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!"


इतिहास के बोध, उसकी गति और दिशा की चेतना का सफल रचनात्मक रूपांतरण करने वाली एक ऐसी ही विरल कविता है 'ये अश्वारोही'। इस छोटी-सी कविता के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में एक मकान की पांचवीं मंज़िल को बनाने में लगे मज़दूरों का, अनूठा चित्र खींचा गया है। उनके रहने के लिए पास में ही ईंटों को जमाकर छोटी-सी 'कालोनी' बना ली गई है। अंत में उन्हें भी उखाड़कर मकान में लगा लिया जाएगा, क्योंकि 'किफ़ायत सहित सुप्रबंध' ही 'आधुनिक निर्माण कला का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र' है।.इसी बीच चल रहे एक दृश्य और उस पर कवि की टिप्पणी देखें--


"उधर खेल रहे हैं उनके ही जैसे बच्चे

गारे-मिट्टी के खेल

अपनी-अपनी आयु सामर्थ्य और अक्ल के अनुसार।

सर पर ईंटें जमाती हुई एक नवीना माँ

मन में हुड़कती हुई देखती है रह-रहकर

उस झुंड में घिसटते अपने मुग्ध शिशु को।

यह भी पड़ाव है कैसा

मध्य-एशिया से चलकर आये अश्वारोहियों का।"


यह सफ़र मनुष्यता का है जिसका पड़ाव फ़िलहाल आधुनिक युग में पड़ा है। मध्य एशिया के अश्वारोहियों की चर्चा से भ्रम में न पड़ें। वे भी इसी सफ़र के अंग रहे हैं। उन्हें लेकर एक बहस भी चल रही है जिसमें कवि ने लगे हाथ अपना पक्ष रख दिया है। लेकिन यह इस कविता का 'बाइप्रोडक्ट' ही है। इसीलिए कवि इसमें मानवोचित दृश्य देखता है, आर्योचित नहीं। इस पड़ाव के अपने सुख-दुख हैं, लेकिन कवि की नज़र आगे के सफ़र पर है, जिसमें कुछ बाधाएं आ रही हैं। कविता का दूसरा हिस्सा देखें--


" 'हम नहीं जायेंगे आगे'

             पैर पटककर अड़ रहे हैं घोड़े।

'हम नहीं जायेंगे आगे'

              कूँक रहे पड़ाव की जूठन जीमते कुत्ते।


मगर याद रहे,

घोड़ों और कुत्तों के लिए नहीं शुरू किया गया था

यह सफर।"


यहाँ आने वाले 'घोड़े' वही नहीं हैं जो इन लोगों को कभी मध्य एशिया से लेकर चले थे। ये मध्य युग से आधुनिक युग में लाने वाले ‘घोड़े' हैं, लेकिन लम्बे विकास-क्रम में भूमिकाएँ बदल चुकी हैं। पहले मनुष्य उनकी पीठ पर सवार थे, अब ये मनुष्यों के सीने पर सवार हो चुके हैं। अब जब उन्होंने शिकंजा कस लिया है तो पड़ाव डालकर बैठ गए हैं, और आगे नहीं बढ़ना चाहते। इस पड़ाव के मनुष्य तो मज़दूरों के रूप में दिखते हैं लेकिन ये अड़ियल घोड़े, जो समय और इतिहास की गति का अंत कर देना चाहते हैं, कविता में नहीं मिलते। सिर्फ इनका पाँच मंज़िला आलीशान, निर्माणाधीन 'अस्तबल' दिखता है। आधुनिक-औद्योगिक युग को लाने में हमारा साथ देने के बाद हमारे सीनों पर जमकर बैठ जाने वाले ये मक्कार पूरी दुनिया के थैलीशाह हैं। अब ज़रा कुत्तों पर गौर करें। ये जूठन बीनते या बटोरते नहीं, दिव्य भाव से जीमते हैं। जाहिर है कि यह उन्हीं घोड़ों की जूठन है जिनके सुर में सुर मिलाकर ये कूँक रहे हैं। जीमने की इनकी यह अभ्यस्त मुद्रा और घोड़ों की सहयोगी भूमिका इनके परजीवी अतीत और छुटभैया पिछलग्गू वर्तमान का परिचय देती है। कितने शर्म और संतोष की बात है कि ये हमारे देश के शासक हैं, जो दुनिया के घोड़ों में नहीं, कुत्तों में शामिल हैं।


अंततः, कवि यह याद दिलाता है कि इस सफर में इन घोड़ों और कुत्तों की भूमिका अवश्य रही है, लेकिन यह सफर इनके लिए नहीं समूची मानवजाति के लिए शुरू किया गया था। अब अगर ये हमारे पैरों की ज़ंजीर बन रहे हैं तो इनसे पिंड छुड़ा लेना ही समय की मांग है। ऐसी चुनौतियों का मुकाबला करने की ऐतिहासिक स्मृति और उससे पैदा होने वाले ज्ञान और शक्ति की  अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार होती है--


"मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ

हर सपने के पीछे सच्चाई होती है

हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है

हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।


आये हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष

इसके आगे भी तब चलकर ही जायेंगे,

आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे।"

                                     (उजले दिन ज़रूर)


जनता की शक्ति पर कवि का भरोसा अनेक रूपों में प्रकट होता है। दमन और उत्पीड़न का शिकार होकर भी विनम्रतापूर्वक अपने काम में लगे रहने वालों पर वह

लानत नहीं भेजता, बल्कि उनके ग़ुस्से के फूट पड़ने का इंतज़ार करता है। निरी मध्यवर्गीय संवेदना के दायरे में यह खरा धीरज और भरोसा आ ही नहीं सकता--


"याद रखूँगा मैं अपना सीखा गणित का एकमात्र सूत्र :

              'शून्य ही है सबसे ताक़तवर संख्या 

               हालाँकि सबसे नगण्य भी'

याद रखूँगा मैं पूरे संसार को ढोनेवाली

नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताक़त

जिसे अभी सही-सही अभिव्यक्त होना है।"

                           (माथुर साहब को नमस्कार)


"फ़िलहाल श्रवण सीमा से आगे इसीलिए अश्रव्य है

उनका क्षुब्ध हा-हाकार

घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी

सुरती ठोकता हुआ कर रहा हूँ मैं

प्रागैतिहासिक रात के बीतने का यही इन्तज़ार।"

                                                     (रात-गाड़ी)


इन बातों से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि कवि आम लोगों की कमज़ोरियों से आँखें चुराता है और उनका आदर्शीकरण करता है। वह इन कमज़ोरियों को बाकायदा दर्ज करता है, जैसा कि हम ‘हड्डी-खोपड़ी' और 'मछली-ऊदबिलाव' के प्रसंग में देख चुके हैं। यह ज़रूर है कि वह तमाम कमजोरियों के मारे अपने लोगों से प्यार करता है और सब्र से काम लेता है। एक दृश्य देखें, जिसमें एक और 'ऊदबिलाव' है जो अपने हाथ लगी मछली को 'चबा जाने' को बेताब है--


"बावजूद हालात के

सन पचहत्तर से प्रैक्टिस करते

लगभग असफल वकील साहब को देखो--

मौसमों की मार खाये

काले कोट में

किसी पुराने छाते की तरह ललछौंहे और जर्जर

मुश्किल से हाथ आये उस फटेहाल

मुवक्किल को पूरी तरह चबा जाने की

बेताबी है उनकी अन्यथा निरीह आँखों में

बेमेल चश्मे से मढ़ी ये आँखें

कभी भरी रहती थीं

समाजवाद राममनोहर लोहिया भारतीय संविधान

और न्यायपालिका आदि की

अजेय सर्वोच्चता की जगमग से।

फिलहाल उनमें मोतियाबिंद भर रहा है।"

                                            (पोदीने की बहक)


यह बात 'कुमारसम्भव की आत्महत्या पर' शीर्षक कविता में और साफ़ होती है। किसी के ऐसे दुखद अंत के बाद उसकी कमज़ोरियों की चर्चा हिन्दी में कुफ़्र से कम नहीं मानी जाती। इसे भारतीय परम्परा की अवहेलना समझा जाता है। बहरहाल, सच्चा प्रेम ऐसे किसी पाखण्ड को स्वीकार नहीं कर सकता। अगर हम किसी की मृत्यु में ईमानदार नहीं हैं तो जीवन में उसके प्रति ईमानदार होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, दूसरों की आलोचना का अधिकार उसी को है जो अपने प्रति भी निर्मम हो। इस विरल शोकगीत के अंतिम हिस्से को यहाँ देखें, हालाँकि इसे पूरा पढ़े बिना इसकी वेदना को नहीं समझा जा सकता--


"परिजन गुरुजन मित्रगण अफ़सरान

रोज़ झमाझम दावतें चमाचम मकान

दिल में दबाकर रखी हुई घर की याद

बी एच यू के क्रान्तिकारी संस्मरण

धर्मनिरपेक्षता भुना हुआ जनवाद।

                 यह समायोजन ही था विषाक्त

                 क्योंकि तुम चालू न थे

                 तुमने खुद ही डाला था मूर्ख

                 आदमखोर मशीन के पट्टे में हाथ

                 भोलेपन भरे छलावे के अलावा

                 और होना ही क्या था तुम्हारे साथ?

आत्मघात में टूटना ही था वह समारोह

जिसकी बुनियाद में ही घुन जैसा छिपा था आत्मघात।

शोक बहुत करता हूँ

क्षुब्ध और खिन्न मगर उससे भी ज़्यादा मैं होता हूँ

नहीं सिर्फ तुम्हारा वह अन्तर्विरोध

इसीलिए चिन्तित भी होता हूँ डरता हूँ।"


यह अंतर्विरोध कवि का भी है और हमारे युग का भी। शायद यही वह आग का दरिया है जिसमें डूबकर जाना है। इस अनुभूति का एक रचनात्मक रूपांतरण मय चेतावनी के 'गप्प सबद' नामक कविता में देखें--


"धक-धक-धक-धक काँपे हियरा थर-थर-थर-थर पैर

अलादीन को बेढब सूझी बेमौसम यह सैर

बिना चप्पू-लंगर यह सैर

जरा आँधी में मत उड़ियो

 ×           ×            ×

देस बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है

कहीं ना छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है

बस न तू आँधी में उड़ियो। मती ना आँधी में उड़ियो।"                                    

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