मुक्तिबोध : ज्ञान और कर्म

 ज्ञान और कर्म


मुक्तिबोध के काव्य-संसार की एक सुपरिचित समस्या है ज्ञान और कर्म, यानी सिद्धान्त और व्यवहार के बीच द्वन्द्वात्मक एकता की स्थापना। इसकी ऐतिहासिक अवस्थिति स्वातन्त्र्योत्तर आधुनिक भारतीय समाज के मध्यवर्ग में है। सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता और उसके लिए आवश्यक ज्ञान को क्रियान्वित करने में सबसे बड़ी बाधा उसकी अपनी मध्यवर्गीय सीमा के रूप में सामने आती है, जो समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम एकमात्र वर्ग सर्वहारा के साथ उसे एकजुट नहीं होने देती। दूसरे शब्दों में, अन्तर्विरोध मध्यवर्गीय और सर्वहारा चेतना के बीच है, जिसका समाधान कवि को मध्यवर्ग के प्रतिनिधि व्यक्ति के 'व्यक्तित्वान्तरण' में मिलता है। यह प्रक्रिया अपने तमाम आन्तरिक संकटों और बाहरी दबावों के बीच चलती है। 


मुक्तिबोध के यहाँ ज्ञान का स्वरूप ऐतिहासिक है। यह मानव जाति की समग्र अनुभव-परम्परा के निष्कर्ष के रूप में उपस्थित होता है। कवि की स्मृति और उसका स्वप्न समूची मानव-सभ्यता की स्मृति और उसके स्वप्न में घुल-मिल जाती है, लेकिन वर्तमान का ठोस सन्दर्भ कहीं भी ओझल नहीं होता। यथार्थ की सही पहचान ही कवि की स्मृति और उसके स्वप्न को विश्वसनीय बनाती है।


इन कविताओं में कर्म के दो रूप मिलते हैं—प्रेम और संघर्ष। ख़ास बात यह है कि ये दोनों रूप एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक-दूसरे से गुंथे हुए आते हैं। प्रेम अपने समानधर्मा लोगों से भी है और प्रेमिका से भी। इसी प्रकार संघर्ष शासक पूँजीपति-सामन्त वर्ग से भी है और अपने अन्दर, ज्ञान को हासिल करने और उसे व्यवहार में लाने में आने वाली रुकावटों से भी। इसी आन्तरिक संघर्ष को मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष कहते हैं। मुक्तिबोध का काव्यनायक अपने वर्ग का प्रतिनिधि है। प्रायः वह अपनी मध्यवर्गीय कमजोरियों की तीखी आलोचना करता है। उसके वैयक्तिक स्वर की गहनता के कारण कई बार लोग उसे, काव्यनायक के बजाय, कवि के निजी विचार मान बैठते हैं। यों भी हिन्दी साहित्य में, वैसे ही जैसे समाज में, आत्मालोचना की कोई स्वस्थ परम्परा नहीं स्थापित हो सकी है। इसीलिए अपनी रुचि या सुविधा के मुताबिक आलोचकों ने इसे आत्महीनता, आत्मधिक्कार और आत्मग्लानि जैसे नाम दिये हैं। इन दोनों रवैयों में अन्तर यह है कि जहाँ आत्मालोचना सकारात्मक नज़रिए से अपनी ग़लतियों पर क़ाबू पाने के लिए की जाती है, वहीं आत्मग्लानि, धिक्कार अथवा भर्त्सना अपने अच्छे रूप में निराशा, असहायता और अकर्मण्यता की आत्मघाती प्रवृत्तियों के

लिए जगह बनाती है, तथा बुरे रूप में अपनी कमजोरियों का प्रकारान्तर से बचाव करने लगती है। दोनों ही स्थितियों में ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी' की यह भावना यथास्थिति की ही सेवा करती है। मुक्तिबोध ने अपने वर्ग की रचनात्मक आलोचना की, क्योंकि उन्हें अपने वर्ग के रूपान्तरण की सम्भावना में उतना ही भरोसा था जितना कि मानव जाति के भविष्य में। हाँ, अपने वर्ग के बिकाऊ समझौतावादियों की कठोर भर्त्सना वे ज़रूर करते हैं, ताकि उनसे पहुँचने वाली क्षति को कम से कम किया जा सके।


विचारकों ने मुक्तिबोध के शिल्प को फ़ैण्टेसी कहा है। मुक्तिबोध के काव्यसिद्धान्त के अनुसार, जिसकी व्याख्या उन्होंने कला के तीन क्षणों के रूप में की है, फ़ैण्टेसी हुए बिना कोई कविता हो ही नहीं सकती। 'कामायनी' को एक फ़ैण्टेसी के रूप में देखते हुए मुक्तिबोध 'कामायनी एक पुनर्विचार' में कहते हैं—'ऐसी स्थिति में फैण्टेसी के रूप में जो कथा प्रस्तुत होती है, और कथा के अन्तर्गत जो पात्र; चरित्र और कार्य प्रस्तुत होते हैं, वे सब प्रतीक होते हैं वास्तविक जीवन-तथ्यों के। यही कारण है कि फैण्टेसी का चित्रण करते हुए लेखक पात्रों, चरित्रों और उनके कार्यों के बारे में अनेकानेक ऐसी बातें कह जाता है, कि जो बातें पात्र-चरित्र और पात्र-कार्य के भीतर से उद्गत नहीं होती, नहीं हो सकतीं, क्योंकि वस्तुतः वे उन चरित्रों और कार्यों की अंगभूत नहीं हैं।' (रचनावली, 4-199) 


कहने का आशय यह है कि कविता में वर्णित घटनाओं और स्थितियों की अतार्किकता को फ़ैण्टेसी की विशेषता कहकर हाथ झाड़ लेने के बजाय ज़रूरत है प्रस्तुत प्रतीकों के पीछे छिपे अप्रस्तुत लेकिन वास्तविक आशयों को खोलने और उनकी तार्किक संगति को पहचानने की। इसके लिए भी कवि के विचारों, सरोकारों और एहसास के तरीक़ों की हार्दिक पहचान ज़रूरी है। इसके बगैर मुक्तिबोध की कविताओं की व्याख्या अँधेरे में तीर चलाने जैसी काररवाई बनकर रह जाए तो आश्चर्य क्या! इसी तरह मुक्तिबोध की कविताओं की बहुचर्चित नाटकीयता के बारे में यह नोट किया जाना चाहिए कि यह मुख्य रूप से विभिन्न ऐतिहासिक काल-खंडों में बिखरे अनुभव-सत्यों, व्यक्ति-चरित्रों और मानव-प्रवृत्तियों के किसी ख़ास क्षण में कविता के मंच पर अवतरित होने और अपनी भूमिकाओं के सारतत्त्व को पुनः प्रस्तुत करने के चलते पैदा हुए देश-काल-गत तनाव की देन है। मुक्तिबोध की कविताओं में आलोचकों द्वारा देखा गया 'रहस्यवाद' इन्हीं ऐतिहासिक प्रसंगों की विशिष्टता को अलग-अलग न पहचान पाने के कारण पैदा हुए भ्रम से उपजा है।


रामविलास शर्मा कहते हैं- 'अँधेरे में' कविता की मूल समस्या यही है मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी सर्वहारा वर्ग से तादात्म्य कैसे स्थापित करे?" (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 188) यहाँ उनको यह श्रेय देना होगा कि उन्होंने 'अँधेरे में', जिसे मुक्तिबोध का सर्वांगीण प्रतिनिधित्व करने वाली कविता मानते थे, की एक मूल समस्या 'व्यक्तित्व के रूपान्तरण' को पहचाना। अपने लेख में इसी उपशीर्षक के तहत उन्होंने मुक्तिबोध के काव्य की इस आकांक्षा की व्याख्या की है। बहरहाल, ठीक इसी बिन्दु पर उनकी व्याख्या की सीमा भी स्पष्ट हो जाती है। इसकी वजह यह है कि व्यक्तित्व के रूपान्तरण के बारे में उनके अधिभूतवादी (मेटाफ़िजिकल) विचारों पर मुक्तिबोध की कविताएँ खरी नहीं उतरतीं। सर्वविदित है कि मुक्तिबोध निम्नमध्यवर्ग और उच्चमध्यवर्ग को एक दूसरे का विरोधी मानते थे और स्वयं को निम्नमध्यवर्ग में उत्पन्न मानते हुए उच्चवर्गीय प्रलोभनों का विरोध करना और सर्वहारा वर्ग के साथ एकरूप होना अपने वर्ग का कर्तव्य मानते थे। उच्चमध्यवर्गीय प्रलोभनों का सामना होने पर वे कहते थे- 'किन्तु अपनी श्रेणी को छोड़कर उनके सम्मोहों के वशीभूत तो न हुआ जाय' या 'वी शुड नॉट डेज़र्ट अवर ओन क्लास।'


सर्वहारा वर्ग के साथ तादात्म्य के लिए निम्नमध्यवर्गीय व्यक्तित्व के रूपान्तरण को कवि की मूलभूत आकांक्षा के रूप में पहचान लेने के बाद भी उच्च वर्ग के सन्दर्भ में दिये गये इस वक्तव्य की भ्रष्ट व्याख्या करके इसे (सर्वहारा के मुक़ाबले) निम्नमध्यवर्ग के प्रति आसक्ति बताते हुए रामविलास शर्मा कहते हैं- “मुक्तिबोध हमेशा इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करते कि निम्नमध्यवर्ग की भाव स्थितियों के दायरे से बाहर निकलना ही न चाहिए। किन्तु दायरे में रहना और दायरे से बाहर निकलना, इन दोनों चीजों को लेकर उनके मन में संघर्ष जरूर है।' (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 192)


बस, रामविलास शर्मा का सरल, हिन्दू चित्त यहीं उनके मार्क्सवादी को दबोच लेता है। वे व्यक्तित्व का रूपान्तरण तो चाहते हैं, लेकिन संघर्षहीन, द्वन्द्वहीन। अव्वल तो मुक्तिबोध के उपरोक्त वक्तव्य इस रूपान्तरण को लेकर पैदा हुए किसी द्वन्द्व की सूचना नहीं देते, बल्कि रूपान्तरण की प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आवश्यक कार्यनीति को सूत्रबद्ध करते हैं। हाँ, सामाजिक परिवर्तन में उपयोगी होने के लिए आवश्यक, व्यक्तित्वान्तरण की इस प्रक्रिया में मध्यवर्गीय व्यक्ति को जो संघर्ष करना पड़ता है और जो वेदना झेलनी पड़ती है, उसके हृदयवेधक साक्ष्य उनकी कविता में व्यापक रूप से मौजूद हैं। वह हिन्दी का अकेला कवि है जिसने उस पीड़ा को स्वर दिया है जिसे मध्यवर्ग का हर आदर्शवादी व्यक्ति कभी न कभी अपने मन-प्राणों से महसूस करता है। इसीलिए हर युवा पीढ़ी मुक्तिबोध की कविता को दिल से लगाकर रखती आई है। हिन्दी जगत के सबसे संवेदनशील और प्रतिभाशाली युवाओं के बीच मुक्तिबोध की लोकप्रियता, जो तमाम भ्रामक व्याख्याओं और मिथ्या आरोपों के बावजूद बढ़ती ही जा रही है, का यही रहस्य है। इस मामले में वे कबीर की तरह हैं, जो विद्वानों की समझ में तो नहीं आ सके, लेकिन निरक्षर, दलित जनता ने जिनके पदों को सदियों से अपने हृदय में संचित कर रखा है। रामविलास शर्मा इसी द्वन्द्व की व्याख्या करने में अनुभववादी विचलन का शिकार होकर मुक्तिबोध के जीवन-प्रसंगों की खोज में उतर गये और 'सिजोफ्रेनिया' रोग के लक्षणों में जाकर अन्ततः उनकी तलाश पूरी हुई। 


इस अप्रिय प्रसंग के विस्तार में न जाकर हम सिर्फ इतना कहेंगे कि हर कलारूप का मूल किसी न किसी जीवन-प्रसंग से जुड़ा होता है और उसका अतिक्रमण करके ही उसके कला में रूपान्तरित होने की शुरूआत होती है। इसी प्रक्रिया में कला व्यक्तिगत दायरों को तोड़कर सामाजिक प्रवृत्तियों की प्रतिनिधि बनती है। व्यक्तिगत से सामाजिक बने बिना कला हो ही नहीं सकती और उसे कलाकार के निजी जीवन के दायरे में कैद करने की कोशिश एक प्रतिगामी कोशिश है। यह निरपवाद रूप से कलाविरोधी और समाजविरोधी परिणाम लाती है। सच्चा कलाकार अपने व्यक्ति और समाज की पीड़ा का आघात अपने स्नायुतन्त्र पर असंख्य ज्ञात-अज्ञात रूपों में झेलता है। उसके दिल और दिमाग पर ऐसे हर आघात की छाप पड़ती है। जिस प्रसंग से प्रेरित होकर वह कला रचना में संलग्न होता है वह इस शृंखला की अन्तिम कड़ी भर होता है। किसी रचना में तमाम छापें एक साथ सक्रिय होती हैं, जिनका आकलन असम्भव है। अतः कलाकार की कला को समझने के लिए उसके जीवन की अपेक्षा देश-काल और उसकी कला-परम्परा को समझने की कोशिश अधिक करनी चाहिए। यहाँ तक कि आत्मकथात्मक कविता, कहानी या उपन्यास पर भी यह बात लागू होती है, क्योंकि कला का सुनहला नियम यह है कि वैयक्तिक हुए बिना निर्वैयक्तिक नहीं हुआ जा सकता। दूसरे शब्दों में, उसकी रचनाओं में उसका जीवन भी समाहित हो सकता है, लेकिन उसके जीवन में रचनाएँ भी अँट जाएँ, यह न तो सम्भव है, न काम्य। जहाँ तक मुक्तिबोध का प्रश्न है तो अपनी कविताओं में कभी-कभी वे स्वयं अपने कवि-रूप में एक पात्र बनकर आते हैं। इन मौक़ों को छोड़कर, उनकी कविताओं में 'मैं' नामक पात्र या किन्हीं और पात्रों के विचारों को उनका सृजन मानना चाहिए, शपथपत्र नहीं।


शिवकुमार मिश्र ने मुक्तिबोध के सम्बन्ध में एक सवाल उठाया है कि "यदि मुक्तिबोध के विचारों में, उनकी रचना में, कहीं कोई गैप, कोई शून्य या कोई अवकाश नहीं है, वह उनके प्रतिबद्ध, मार्क्सवाद के प्रति समर्पित चिंतन की मिसाल है तब फिर क्या कारण है कि मार्क्सवादियों की तरह मार्क्सवाद विरोधी भी अपनी शतों और अपने तर्कों के आधार पर उनकी रचनाओं का साक्ष्य देते हुए उन्हें उतना ही बड़ा रचनाकार सिद्ध कर ले जाते हैं?" ('पहल' 64-65, मार्क्सवादी आलोचना विशेषांक)


पहली बात तो यह कि कोई मूर्ख ही यह दावा कर सकता है कि मुक्तिबोध या किसी और व्यक्ति की रचना अथवा उसके विचारों में कहीं कोई कमी नहीं है। असली बात है किसी रचनाकार अथवा विचारक की बुनियादी विशेषता का, उसके सारतत्त्व का उद्घाटन और विश्लेषण। हिन्दी में किसी लेखक के कुछ मज़बूत और कमज़ोर पहलुओं को एक जगह इकट्ठा कर देने की सार-संग्रहवादी क्रिया को ही द्वन्द्वात्मकता का पर्याय समझा जाता है। किसी बड़े लेखक में ‘अन्तर्विरोधों' की सम्भावना ऐसे स्वीकारी जाती है जैसे कोई बड़ा साहसिक रहस्योद्घाटन किया जा रहा हो, जबकि इससे सिर्फ इतना पता चलता है कि उस लेखक में जीवन और गति है। द्वन्द्ववाद का मतलब है वस्तु में सक्रिय द्वन्द्वरत की पहचान। अन्तर्विरोध भी किसी वस्तु में अनेक होते हैं। उनमें प्रधान और गौण अन्तर्विरोधों की ठोस पहचान होनी चाहिए। किसी भी रचना अथवा रचनाकार का चरित्र उसके प्रधान अन्तर्विरोध से, इस अन्तर्विरोध में सक्रिय दोनों पक्षों में कौन भारी पड़ता है, इससे तय होता है। कभी मुख्य अन्तर्विरोध अपनी हैसियत खो देता है और कोई गौण अन्तर्विरोध मुख्य हो जाता है। इसी प्रकार मुख्य अन्तर्विरोध के पक्षों का शक्ति सन्तुलन बदल जाता है और कमज़ोर पक्ष मज़बूत तथा मज़बूत पक्ष कमज़ोर पड़ जाता है। इस स्थिति में रचना अथवा रचनाकार का चरित्र बदल जाता है। बहरहाल, जहाँ तक परस्पर विरोधी विचारधारा के लोगों द्वारा किसी रचनाकार को महान बताए जाने का प्रश्न है तो ऐसा बड़े लेखकों में सक्रिय तमाम विरोधी तत्त्वों की मुखरता के चलते होता है। लेखक के विपरीत पक्ष का वाहक भी अपना प्रतिनिधित्व रचना में पाता है और उसके अनुरूप उसकी व्याख्या करता है। कला के मर्म को समझने वाले जानते हैं कि बड़ी रचना तभी सम्भव होती है जब प्रतिपक्ष को उसके सर्वश्रेष्ठ रूप में चित्रित करने के लिए लेखक अपनी आत्मा के एक अंश से उसको गढ़ता है। रचना और विचार के क्षेत्र में सबसे मज़बूत मोर्चे फ़तह किए जाते हैं। फ़िलहाल, मुक्तिबोध की 'भूमिका' शीर्षक कविता के आरम्भिक अंश के साथ इस प्रकरण को हम स्थगित करते हैं-


'अगर मेरी कविताएँ पसन्द नहीं

उन्हें जला दो,

अगर उसका लोहा पसन्द नहीं,

उसे गला दो,

अगर उसकी आग बुरी लगती है

दबा डालो,

इस तरह बला टालो!!

लेकिन याद रखो

वह लोहा खेतों में तीखा तलवारों का जंगल बन सकेगा

मेरे नाम से नहीं, किसी और नाम से सही,

और वह आग बार-बार चूल्हे में सपनों-सी जागेगी

सिगड़ी में खयालों-सी भड़केगी, दिल में दमकेगी

मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही।

लेकिन मैं वहाँ रहूँगा,

तुम्हारे सपनों में आऊँगा,

सताऊँगा

खिलखिलाऊँगा

खड़ा रहूँगा

तुम्हारी छाती पर अड़ा रहूँगा।'


(रचनावली 2, पृ. 437-8)


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