सृष्टि पर पहरा

 रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई 


कवि केदारनाथ सिंह की परवर्ती दौर की कविताओं से गुज़रते हुए यह अनुभूति होती है कि हमारी आधुनिक सभ्यता के आवरण तले दबकर खो जाने वाली बहुत सी सचाइयाँ हैं जिन्हें कवि उकेरना चाहता है। इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह समय के हमारे बोध के साथ कुछ प्रयोग करते हैं, और दिलचस्प ढंग से उसे कुछ नया मोड़ दे देते हैं। मिसाल के लिए  उनकी कविता "अगर इस बस्ती से गुज़रो" को लेते हैं। इसकी आरंभिक पंक्तियां हैं: 


"अगर इस बस्ती से गुज़रो 

तो जो बैठे हों चुप 

उन्हें सुनने की कोशिश करना 

उन्हें घटना याद है 

पर वे बोलना भूल गए हैं"


समाज की विषादमय सतह से उसकी तह तक झाँकने की कोशिश करती इस कविता की शुरूआत स्मृति और विस्मृति के द्वंद्व से होती है। आमतौर पर विस्मृति शासक वर्ग की करतूतों का नतीजा होती है। जनता की चेतना को भ्रष्ट करके और उसकी प्राथमिकताओंं को बदलकर सत्ता उसके इतिहास-बोध की पुनर्रचना करती है। लेकिन यहाँ दुर्घटना एक अलग तल पर, एक अलग आयाम में हो रही है। यहाँ जो व्यक्ति है, उसे अतीत की याद बनी हुई है, लेकिन वह उसे कहना भूल गया है। अनुभूति किसी हद तक बाक़ी हैै, उसकी अभिव्यक्ति खो गई है।


एक समाज के रूप में हमें अपने निकट अतीत अथवा इतिहास की याद कितनी है यह तो बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह शायद निर्विवाद है कि हम अपने साथ हुई दुर्घटनाओं को व्यक्त करने की सलाहियत से महरूम हो चुके हैं। लगभग दो सौ साल की ग़ुलामी, लूट, दमन, बँटवारे और विमानवीकरण की नियति को झेलते हुए हम ऐसी आत्महीन अवस्था में पहुँच चुके हैं कि अब उन चीज़ों के बारे में बात करने की शक्ति भी हममें नहीं रही। लम्बे समय तक पिंजरे में क़ैद रहने के कारण उड़ने के अनुभव को भूल जाने वाले  पक्षी की तरह हम फुदकने और गीत गाने को ही अपना जीवन मान बैठे हैं। उड़ने की याद को किसी बुरे सपने की तरह मिटा कर हम अपनी अर्थवत्ता की तलाश कर रहे हैं।


ग़ुलामी का अभ्यास एक तरफ़ तो हमें स्वतंत्र जीवन के अनुभव से वंचित करता है, दूसरी तरफ़ हमारी चेतना को खंडित करता है। हमारे साथ क्या-क्या हुआ यह तो हमें याद रहता है लेकिन वह क्यों हुआ, उसके पीछे शक्तियों के संयोजन की कौन-सी प्रक्रिया काम कर रही थी, विभिन्न घटनाओं में परस्पर क्या संबंध था, यह जिज्ञासा हमारी चेतना का अंग नहीं बन पाती। दूसरे शब्दों में, यथार्थ के समग्र संश्लिष्ट स्वरूप का बोध यानी इतिहास-बोध के अभाव में हम निपट वर्तमान के क़ैदी बन कर रह जाते हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि हम इस विस्मरण के आदी हो जाते हैं। बक़ौल केदारनाथ सिंह :


"भूलता तो यह भी जा रहा हूँ

कि भूलता जा रहा हूँ मैं"


बहरहाल, इस कविता में आगे क्रमशः एक पुराना सा पेड़ आता है जिसकी छाल के नीचे कई कहानियाँ दबी हुई हैं। रास्ते में पड़े किसी ठीकरे में कोई नया हड़प्पा मिलने की संभावना है, तो एक ख़ुद्दार बुढ़िया का झोपड़ा है जिसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित करना ज़रूरी है। इसके अलावा आटा चक्की चलाने वाला बूढ़ा और झुर्रीदार चेहरे वाले गफ़ूर मियाँ भी कविता में आगे आते हैं। कुल मिलाकर इन पंक्तियों में आशंका प्रबल होती है कि हमारी सभ्यता विध्वंस के कगार पर खड़ी है और इसकी हर एक चीज़ भविष्य में इसका पता देने वाली साबित हो सकती है, इसलिए उसे सहेज लेने की ज़रूरत है। भविष्य के बिंदु पर खड़ा होकर देखने पर हमारा वर्तमान भूले-बिसरे अतीत की तरह दिखता है।


अब इस दृष्टिकोण को निराशावादी कहें या यथार्थवादी, एक बात तय है कि इससे मौजूदा हालात को बदलने में कोई मदद नहीं मिलती। अभिव्यक्ति को असंभव बनाने वाली चेतना और वैसे ही जीवनानुभवों से मुक्त होकर किसी वैकल्पिक दिशा की राह नहीं खुलती।


एक अन्य कविता "चुप्पियाँ" देखें;


"चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं 

उन सारी जगहों पर 

जहाँ बोलना ज़रूरी था 

बढ़ती जा रही हैं वे

जैसे बढ़ते बाल 

जैसे बढ़ते हैं नाखून 

और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ता तक                        नहीं


मैंने एक बुज़ुर्ग से सुना था 

कि चुप्पियाँ जब भी बढ़ती हैं 

अँधेरे में नदी की तरह 

चुप हो जाता है एक पूरा समाज 

एक जीता जागता राष्ट्र 

भूल जाता है अपनी भाषा 

और एक फूल के खिलने से भी 

दरक जाते हैं पहाड़ 


ऐसे में मित्रो,

अगर बोलता है एक कुत्ता 

बोलने दो उसे 

वह वहाँ बोल रहा है 

जहाँ कोई नहीं बोल रहा।"


फूल के खिलने से पहाड़ का दरकना एक रूपक है जिसका आशय स्पष्ट है, लेकिन कुत्ते का बोलना कोई रूपक नहीं है। यह अभिधा में कहा गया है कि जहाँ कोई नहीं बोल रहा वहाँ वह बोल रहा है। कविता की शुरूआत चुप्पियों के बढ़ने से हुई थी लेकिन अंत आते-आते चुप्पियों का बढ़ना थम गया। अब वे और नहीं बढ़ सकतीं क्योंकि अब तक उन्होंने पूरे समाज को अपनी जद में ले लिया है। अब चुप्पियों की बात नहीं होगी, बोलने की बात होगी, क्योंकि अब कोई नहीं बोलता, एक कुत्ते के सिवा।


इस छोटी सी कविता में चिंता और आशंका से संपूर्ण निराशा तक का सफ़र कवि ने जितनी हड़बड़ी में तय किया है वह मानीख़ेज़ है। दरअसल, यह मध्यवर्गीय नैतिकतावाद का सबसे प्रिय तर्क है कि समाज में जब कोई भी जोखिम नहीं उठा रहा तो मुझे ही ऐसा क्यों करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि कोई उससे जोखिम उठाने की मांग करता है, लेकिन नैतिकता के ऊँचे आसन पर बैठे व्यक्ति की अंतरात्मा ख़ुद उसे कठघरे में खड़ा करने लगती है, जिसका जवाब वह इस प्रकार देता है। इस तरह, अपनी हैरान-परेशान आत्मा को संतुष्ट करने के लिए, सत्ता के अपराधों पर वह पूरी दुनिया की मौन सहमति जुटा लेता है। इसके बाद भी प्रतिरोध की कुछ संवेदनात्मक ज़रूरत बनी रहती है, जिसकी भरपाई फूल और कुत्ते जैसे नमूनों से होती है। अगर कुत्ते की भूमिका को लेकर मन में चोर न होता तो कवि उससे भौंकने की जगह बोलने की क़वायद नहीं कराता। ऐसा नहीं है कि कवि को बोलने और भौंकने का अंतर नहीं मालूम। अलग-अलग नामों और संबोधनों के बीच कितना सार्थक अंतर हो सकता है, इसी प्रसंग पर लिखी हुई एक छोटी सी कविता "आँसू का वज़न" है। इसे देखें:


"कितनी लाख चीख़ों

कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद किसी आँख से टपकी 

एक बूँद को नाम मिला--

आँसू


कौन बताएगा 

बूँद से आँसू

कितना भारी है"


फूल के खिलने से पहाड़ के दरकने का रूपक भी खंडित है। कवि कहते हुए तो यह दिखना चाहता है कि सौंदर्य और कोमलता की कोई मामूली अभिव्यक्ति भी कठोरता और दमन की प्रतिमूर्ति सत्ता और व्यवस्था में दरार डाल सकती है, लेकिन रूपक के स्तर पर इसे संगत नहीं बना पाता। फूल के खिलने का पहाड़ की सेहत पर कुछ अच्छा असर भले पड़ जाए, विपरीत प्रभाव की संभावना नहीं है। इस बात को बेहतर समझने के लिए मान लें कि अगर कोई पौधा पहाड़ पर उगता और कहा जाता कि उसने पहाड़ में दरार डाल दिया है तो इसे संगति के लिहाज से अनुचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि पौधे की जड़ पहाड़ में कहीं न कहीं दरार की संभावना ज़रूर पैदा करती है। शमशेर की इससे मिलते-जुलते आशय की दो पंक्तियाँ देखें:


"यह समंदर की पछाड़ 

तोड़ती है हाड़ तट का 

अति कठोर पहाड़"।       (सागर तट)


"शिला का ख़ून पीती थी 

वह जड़ 

जो कि पत्थर थी स्वयं"    

                 (शिला का ख़ून पीती थी)


इस तरह हम देखते हैं कि प्रतिरोध के वास्तविक रूपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए उनकी जगह कवि जिन दो सांकेतिक नमूनों को लाता है वे ख़ुद असंगत होने के कारण कविता की कमजोर कड़ी साबित होते हैं। इससे कवि की संवेदना की कमजोरी और उसके सरोकारों का उथलापन ही उजागर होता है।


प्रतिरोध के छद्म को जीना केदारनाथ सिंह के समूचे कवि-कर्म की विडंबना जान पड़ती है। जो नहीं है उसका स्वांग भरना, यथार्थ की भरपाई मुद्राओं और भंगिमाओं से करना। इसमें वे रूपकों से मदद लेना चाहते हैं, लेकिन प्रतिरोध के संगत रूपक  नहीं गढ़ पाते। इन कविताओं को पढ़ते हुए हमारे सामने एक मूलभूत सचाई खुलती है कि भाषा का आविष्कार किन्हीं रहस्यों को खोलने के लिए हुआ है। अगर ढकने, तोपने या छुपाने के इरादे से इसका इस्तेमाल किया जाएगा तो भाषा में इसकी पोल खुले बिना नहीं रहेगी। इसी सचाई को उजागर करती हुई "हक़" शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:


"पक्षियों को अपने फ़ैसले ख़ुद लेने दो 

उड़ने दो उन्हें हिंद से पाक 

और पाक से 

हिंद के पेड़ों की ओर"


स्पष्ट रूप से कवि यहाँ  बँटवारे की व्यर्थता की बात करते हुए दिखना चाहता है और पक्षियों के माध्यम से उसके अंत की आवश्यकता भी बता रहा है। मुद्दा बिल्कुल सही है और रूपक का माध्यम भी अच्छा है। मुश्किल बस यह है कि पक्षियों की सीमा के आर-पार उड़ान में अभी दोनों देशों ने किसी प्रकार का व्यवधान खड़ा नहीं किया है। ऐसे में यह रूपक असंगत हो जाता है। अगर आप सिर्फ़ पक्षियों की उड़ान की अभिधा में चर्चा कर रहे हैं तब तो ये पंक्तियाँ किसी तरह चल सकती हैं, लेकिन  दोनों देशों के नागरिकों के लिए सीमाओं को खोलने की ज़रूरत पर बल देने के लिए ऐसा कह रहे हैं तो यह रूपक नहीं चलेगा। तब इस तरह के वक्तव्य पक्षियों को सहज रूप में मिली हुई आज़ादी को विवादग्रस्त करने की कोशिश के रूप में दिखाई पड़ेंगे।


कविता की बीच की पंक्तियाँ हैं:


"पर हाथों को हक़ दो 

कि मिलते रहें हाथों से 

पैरों को हक़ दो कि जब भी चाहें

जाकर मिल आएँ

उधर के रास्तों से"


यहाँ आकर कवि पहले तो हाथों को हाथों से मिलने का हक मांगता है जिसका कोई मतलब नहीं है। हाथ किसके हैं और किसके हाथों से मिलेंगे कुछ भी ज़ाहिर नहीं होता। पैरों का 'उधर के रास्तों' से मिलने जाना ज़रूर बँटवारे के विरुद्ध प्रतीत होने वाली बात है, लेकिन यहाँ भी कवि ने भरपूर सावधानी बरती है। इधर और उधर के अमूर्तन को छोड़ भी दें तो पाँव किसके हैं यह भी स्पष्ट नहीं है। शुरूआत पक्षियों से हुई थी तो ज़रूरी नहीं कि आगे मनुष्य ही की बारी आए। जानवरों के भी पैर हो सकते हैं। हो सकता है 'बोलने वाला कुत्ता' ही उधर चल कर जाना चाहे। इस तरह भारत के बँटवारे जैसी त्रासदी के विरुद्ध कविता लिखते हुए भी कवि उसे ख़त्म करने की मुद्रा कुछ यूँ बनाता है कि बच निकलने का रास्ता हमेशा बना रहे। इसी भाव-भूमि के चलते कविता के अंत में वह कहता है:


"चलती रहे वार्त्ता 

होते रहें हस्ताक्षर 

ये सब सही 

ये सब ठीक 

पर हक़ को भी हक़ दो 

कि ज़िंदा रहे वह।"


यहाँ तक आते-आते स्पष्ट हो गया कि यह सारी क़वायद सिर्फ़ इसलिए है कि हक़ ज़िन्दा रह सके। हक़ का प्रयोग न्याय और अधिकार दोनों के लिए किया जाता है। लोगों को न्याय मिले और उनके अधिकारों की रक्षा हो इसलिए नहीं, बल्कि न्याय और अधिकार की संकल्पना का ही दुनिया से लोप न हो जाए, इसलिए ये बातें की जा रही हैं। यहाँ आकर केदारनाथ सिंह से रघुवीर सहाय के स्वर की भिन्नता दिखाई पड़ती है। रघुवीर सहाय की "हमने यह देखा" नामक 1952 की कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं:


"हमको तो अपने हक़ सब मिलने चाहिए हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन 

'कम से कम' वाली बात न हमसे कहिए।"


ग़ौरतलब है कि हक़ के लिए लड़ाई भले ही शासकों से होती है, लेकिन अगर उस के विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया है तो उंगली उसी की तरफ़ उठेगी जो हक़ की भावना का आश्रय है, यानी जनता। "जहाँ कोई नहीं बोलता" जैसी पंक्तियाँ इसी बात की तस्दीक़ करती हैं। इस तरह कवि अहर्निश पराजयवाद का प्रचार करता है।


सत्ता और कविता के रिश्ते पर टिप्पणी करती हुई केदारनाथ सिंह की कविता है "कवि कुंभनदास के प्रति"। कुंभनदास के बारे में कथा प्रसिद्ध है कि उन्हें बादशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी स्थित अपने दरबार में आमंत्रित किया था। वहाँ पहुँचकर कवि ने बादशाह से निवेदन किया कि उन्हें दुबारा राजधानी न बुलाया जाए। इसका कारण उन्होंने नीचे लिखी अपनी मशहूर पंक्तियों में बताया था:


"संतन को कहाँ सीकरी सो काम 

आवत जात पनहिया टूटी 

बिसरि गयो हरिनाम"


कुंभनदास को संबोधित इस कविता में केदारनाथ सिंह प्रश्न करते हैं:


"क्या हुआ था कविवर 

एक कवि की आँखों को 

कैसी लगी सीकरी कि अंतर से फूट पड़ी हिंदी कि वह 

सबसे अकेली 

दुखती हुई पंक्ति"


इससे पहले भी कवि कह चुका है, 


"सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति

और उसमें इतना ताप 

कि लगभग पाँच सौ वर्षों से हिला रही है        हिंदी को"


यहाँ ग़ौर करें कि इस पंक्ति की विशेषता यह है कि वह "सबसे अकेली" है। इसके बावजूद नहीं, इस अकेलेपन की वजह से ही वह पाँच सौ साल से हिंदी को हिलाए हुए है। प्रतिरोध का अकेला होना, नामालूम होना, विलुप्त होने के कगार तक पहुँचना, कवि के भावबोध में मानो सत्ता के पहाड़ को दरका देने की अनिवार्य शर्त है। वह ऐसे प्रतिरोध की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा भी कर लेता है, और सत्ता को आश्वस्त भी कर देता है। वरना प्रतिरोध की ऐसी आवाजों का अकेला रह जाना तो किसी भाषा के लिए शर्म का विषय है। 


यहीं एक बार कुम्भनदास की इस पंक्ति के अकेलेपन की हक़ीक़त को भी देख लें।कबीर, निराला और मुक्तिबोध की बात जाने भी दें तो कुम्भनदास के समकालीन तुलसी को भी सीकरी से ऐसा ही आमंत्रण मिला था जिसके जवाब में उन्होंने यह दोहा लिख कर भेज दिया था:


"हम चाकर रघुवीर के लिखौ पठौ दरबार तुलसी अब का होइहैं नरके मनसबदार"


कोई भी यह देख सकता है कि जहाँ तक तेजस्विता का सवाल है, तुलसी की ये पंक्तियाँ कुम्भनदास से कमजोर नहीं ठहरतीं।


बहरहाल, प्रस्तुत कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं:


"फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूँ

यह कैसी अनबन है--

कविता और सीकरी के बीच 

कि सदियाँ गुज़र गईं 

और दोनों में आज तक पटी नहीं।"


जब सरोकार खरे नहीं होते और प्रतिबद्धता की जगह मुद्राओं से काम लेना पड़ता है तो कविता में संगति नहीं आने पाती। सवाल यह है की कविता और सीकरी में कभी पटी ही नहीं तो कवि कुम्भनदास की वह पंक्ति "सबसे अकेली दुखती हुई" क्यों रह गई। तब तो उसे पाँच सौ साल की पथप्रदर्शक पंक्ति का दर्जा मिलना चाहिए था। 


हिंदी की श्रेष्ठतम काव्य-परंपरा का सत्ता से छत्तीस का आँकड़ा तो ज़रूर रहा, लेकिन कवि की संवेदना में उस परंपरा के गौरव और गरिमा की समझ के लिए आवश्यक अवकाश नहीं है। इस परंपरा के प्रतिनिधियों की जद्दोजहद के लिए उसके पास अधिक से अधिक "सबसे अकेली दुखती हुई" जैसे विशेषण ही उपलब्ध हैं।


इसी मिज़ाज की एक और कविता देखते हैं, जिसका शीर्षक है "घास"। इसकी शुरुआती पंक्तियाँ हैं:


"घास परेशान है इन दिनों 

आने दो उसे 

अगर आती है वह 

दुनिया के तमाम शहरों से खदेड़ी हुई जिप्सी है वह 

तुम्हारे शहर की धूल में अपना खोया हुआ        नाम       

और पता खोजती हुई"


आगे कवि बताता है कि घास रात में हमारा दरवाज़ा पीटती है और हमारे मोबाइलों पर 'मिस्ड कॉल' भी देती है। उसके पास कुछ सूचनाएँ हैं जो हमारे कान में "बुदबुदाना" चाहती है। परम्परा से घास को भव्य और विराट प्राकृतिक उपादानों के बरक्स साधारणता का प्रतीक माना जाता रहा है। साधारण लोगों में घुमड़ रही बेचैनी और उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने की यह जो भूमिका घास को मिली है यह मूल्यवान है, लेकिन अगले ही पल उसका हाल भी बेहाल दिखाई पड़ता है:


"कभी भी...

कहीं से भी उग आने की एक ज़िद है वह दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत ज़िद  

ताकि 'उगना' शब्द ज़िंदा रहे तुम्हारे शब्दकोश में"


अब तक यह साफ़ हो गया है कि कवि की संवेदना में सबसे ख़ूबसूरत वही है जो सबसे अकेला है, और अगर वह लुप्त होने के कगार पर पहुँचा हुआ हो तो और भी अच्छा है। लब्बोलुआब यह कि मध्यवर्गीय बोध के सामने रंचमात्र भी नैतिक संकट खड़ा करने की उसकी हैसियत नहीं होनी चाहिए। आगे कवि ने ग़ालिब के शेर के "दरो दीवार पर उग रहे सब्ज़े" का ज़िक्र किया है। यह उल्लेख यहाँ कोई ख़ास प्रासंगिकता नहीं रखता। बेहतर होता कि वह पाश की "घास" नामक कविता को याद करता तो उसे पता चलता कि घास होना क्या होता है। पाश की कविता देखें:


"मैं घास हूँ

मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा

बम फेक दो चाहे विश्वविद्यालय पर 

बना दो हॉस्टल को मलबे का ढेर 

सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर 


मेरा क्या करोगे 

मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा"


कहने का आशय यह कि  आक्रांत करने वाली भव्यता के मुकाबले साधारणता के प्रतीक के बतौर घास की उपस्थिति सर्वव्यापी है, लेकिन कवि की फ़ैशनेबल दृष्टि उसे इस रूप में पहचानने और व्यक्त कर पाने में असमर्थ है।


इसी दृष्टि की एक उपज घास द्वारा हमारे मोबाइलों पर मिस्ड कॉल देने की सोच है। हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने में अनेक उपकरणों की भूमिका होती है, लेकिन इतने मात्र से वे कविता के विषय नहीं बन जाते। अँधेरे को भगाने और रोशनी लाने के लिए दिया और मशाल प्रचलन में नहीं रहे, लेकिन कविता में उनकी जगह मोमबत्ती,बल्ब या सर्चलाइट नहीं ले सके। कविता में अँधेरे और तूफ़ान से लड़ने की भूमिका दिए को ही मिलती आई है और आगे भी मिलती रहेगी। तीर धनुष अब युद्ध के नहीं खेल के काम आते हैं, लेकिन शायरी में माशूक़ की चाल को 'कड़ी कमान का तीर' कहा गया तो दिल में लगकर फँस जाने वाले तीरे-नीमकश का बखान किया गया। लोहा और आग भी ऐसे ही परंपरापुष्ट प्रयोग हैं। केदारनाथ अग्रवाल जब लिखते हैं कि "मैंने उसको जब-जब देखा लोहा देखा" तो लोहे का गुणधर्म विषय में साकार हो जाता है। और तो और संदेश देने के लिए प्राचीन काल से भरोसेमंद पत्र का विकल्प यहाँ तक कि हिंदी फिल्मों में भी एकाध अपवाद को छोड़कर टेलीफोन कभी नहीं हो सका। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी कविता में मोबाइल का ज़िक्र भर हो जाना आपत्तिजनक है। यहाँ साधारण लोगों के प्रतीक घास द्वारा संदेश देने के लिए दरवाज़ा पीटने के अलावा जो एकमात्र काम किया जा रहा है वह मोबाइलों पर मिस्ड कॉल देने का है। यह इतनी बड़ी भूमिका है और उसे कविता में इतने हल्के ढंग से निपटाने की कोशिश की जा रही है कि पूरा प्रयोग ही हास्यास्पद हो गया है। 


बहरहाल, इस कवि के काव्य-संसार में मोबाइल की यह अकेली भूमिका नहीं है। एक अन्य कविता "सूर्य:2011" में सूरज के साथ अपनी रब्त-ज़ब्त का ज़िक्र करते हुए कविता का वाचक "मैं" कहता है:


"मैं उसे इसलिए भी जानता हूँ

कि वह ब्रह्माण्ड का 

सबसे संपन्न सौदागर है 

जो मेरी पृथ्वी के साथ 

ताप और ऊर्जा की तिजारत करता है 

ताकि उसका मोबाइल होता रहे चार्ज"


यहाँ 'मोबाइल' पृथ्वी की जीवनीशक्ति यानी वह सब कुछ जो सूरज के ताप और ऊर्जा से चार्ज होता है के रूपक के बतौर आया है। शायद धूमिल ने किसी कविता में निष्ठा का तुक विष्ठा से मिलाने की भर्त्सना की थी। यहाँ ऐसा ही मामला दिखाई पड़ रहा है। यह कोई नवाचार नहीं है। यह पाठकों को गुदगुदाने वाला कुरुचिपूर्ण प्रयोग है। इसका मक़सद महज़ सस्ती लोकप्रियता पाना है।


कवि की एक अन्य कविता "विद्रोह" का परीक्षण भी इस प्रसंग में उपयोगी होगा। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ हैं:


"आज घर में घुसा 

तो वहाँ अजब दृश्य था 

सुनिए--- मेरे बिस्तर ने कहा---

यह रहा मेरा इस्तीफ़ा

मैं अपने कपास के भीतर 

वापस जाना चाहता हूँ


उधर कुर्सी और मेज़ का 

एक संयुक्त मोर्चा था 

दोनों तड़प कर बोले---

जी---अब बहुत हो चुका 

आप को सहते-सहते 

हमें बेतरह याद आ रहे हैं हमारे पेड़ 

और उनके भीतर का वह ज़िंदा द्रव जिसकी हत्या कर दी है आपने"


कविता में आगे भी ऐसी ही शिकायतों और आरोपों का दौर जारी रहता है। अलमारी में बंद किताबों का कहना है कि वे अपने बांसों के जंगल और बिच्छू के डंक और सांपों के चुंबन से मिलना चाहती हैं। कुल्लू से खरीदी गई शॉल को लगता है कि उसकी दुंबा भेड़ उसे पुकार रही है। टीवी,फ़ोन और नल से टपकते पानी का भी कुछ ऐसा ही मानना है। अंततः, वे सब समवेत स्वर में कहते हैं:


"कि अब हम 

यानी आपके सारे के सारे क़ैदी 

आदमी की जेल से 

मुक्त होना चाहते हैं।"


इस तरह कवि ने विद्रोह और मुक्ति को पुनर्परिभाषित किया है। घोषित रूप से तो यह कविता आदमी के विरुद्ध प्रकृति के अन्य उपादानों की आवाज़ है जो सभ्यता के निर्माण के क्रम में मनुष्य की सुविधा के औज़ार बनते जा रहे हैं। ग़ौरतलब है कि जितनी भी वस्तुएँ कविता में विद्रोह करती हैं, उनमें से किसी के निर्माता पर प्रकृति के विनाश का आरोप लगाना मुश्किल है। कपड़ा, किताबें, कुर्सी-मेज़, ऊनी शॉल, टीवी, फ़ोन और नल का पानी; इन सब की कम या ज़्यादा उपयोगिता के बारे में दो राय हो सकती है, लेकिन इनके उपयोगकर्ताओं पर पहाड़ों, नदियों, ज़मीनों, खनिजों, जंगलों, और जीव-जंतुओं के लूट और विनाश के हमारे देश में जारी संगठित उपक्रम की ज़िम्मेदारी नहीं डाली जा सकती। इसकी चर्चा होने पर इसके लिए ज़िम्मेदार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों पर उंगली उठेगी, लेकिन यह कवि का अभीष्ट नहीं है। इसीलिए वह किसी आम नागरिक की दैनिक चर्या में शामिल चीज़ों से विद्रोह कराता है। विद्रोह का विद्रोह भी हो गया और मालिकान पर आँच भी नहीं आई।


किस्सा-कोताह यह कि इस लेख की शुरूआत में संदर्भ-प्रसंग-विहीन घटनाओं की याददाश्त के चलते जिस विस्मरण की चर्चा की गई थी, ये कविताएँ उसे और गाढ़ा करती हैं। तथ्यों और घटनाओं पर ये मिथकीयता का कुहासा फैलाती हैं, और अपने पाठकों को एक दूसरी दुनिया में ले जाती हैं। उस दुनिया में उसके जीवन के दुख और विडंबनाएँ तो होती हैं लेकिन अपने दुखते और कसकते मूल से विच्छिन्न होकर मोहक और स्वप्निल-सी बन जाती हैं। पाठक कुछ क्षण के लिए उनके आकर्षण में खो जाता है, जैसे किसी नशे के असर से दुख भी सुख जैसा लगने लगता है। यथार्थ की कठोरता से टकराते जनमानस के लिए यह क्षणिक सुख भी कितना आकर्षक हो सकता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। यही केदारनाथ सिंह की कविताओं की लोकप्रियता का रहस्य है।



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