#धूल_की_जगह



साहित्य, सभ्यता और मनुष्यता की जगह

रज़ा पुस्तक माला योजना के तहत राजकमल प्रकाशन से पिछले साल छप कर आये महेश वर्मा के पहले कविता-संग्रह 'धूल की जगह' को पढ़ते हुए हिंदी कविता की अग्रगामी दिशा का पता चलता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए हमें वर्तमान दौर के रचनाकर्म के कुछ बुनियादी आग्रह, सरोकार और उनकी फलश्रुतियों की छानबीन करने का अवसर मिलता है। यहाँ हम उनकी कुछ कविताओं को पहले पूरा उद्धृत करेंगे, फिर संक्षेप में उनका विश्लेषण करके उनके आशयों तक पहुँचने की कोशिश करेंगे।इस कड़ी में पहली कविता "सुखान्त" लेते हैं:

"सुखान्त सूखे हुए आँसुओं
और अनगिन दुःख के बाद आया

ठोकरें खाती रही स्त्री, उसने अपमान सहे

यह छोटी नौकरी न लग जाती तो
आत्महत्या करने ही वाला था सहनायक

नायक भाग दो में अपनी कथा कहेगा।

पहले संदेह आया
फिर दुःख फिर गहरा शोक आया
तब तक दम साधे
झाड़ियों में
छुपा रहा सुखान्त

उसे अंतिम गोली,
संयोग
और ईश्वर की मदद हासिल है

तो अंत में ऐसे आया सुखान्त
आने की ताक में था जैसे : घुसपैठिया।"


साहित्य में व्याप्त रूढ़िबद्ध रुचियों और अभिव्यक्तियों को यह कविता अपना विषय बनाती है। 'स्टीरियोटाइप' यानी ढांचाबद्ध छवियों, भावनाओं और घटनाओं के आरोह- अवरोह के बारे में अनुमान पर आधारित सतही समझ और फिर उससे पैदा हुए कमजोर स्थापत्य को सहारा देने के लिए जगह-बेजगह संयोग की बैसाखियों की मौजूदगी; हमारे साहित्य में बद्धमूल इन प्रवृत्तियों को कवि ने यहाँ अपने निशाने पर लिया है।

अगर ग़ौर से देखें तो हम पाते हैं कि दुख, हताशा, निराशा और पराजय आदि की अभिव्यक्ति को हमारे साहित्य जगत में कवि की समझ के कमजोर और भ्रमित होने के प्रमाण की तरह लिया जाता है। यह सिलसिला कसी हुई, तनी हुई मुट्ठियों की रीतिबद्ध प्रगतिशीलता के दौर से अब के लोकप्रियतावाद तक निरंतर जारी है। अपनी प्रतिबद्धता को जताने, अपने पक्ष की दुंदुभी बजाने और कविता में क्रांति कर देने की परंपरा का असर इतना अधिक था कि उनके विरोधी भी अपनी दृष्टि की संश्लिष्टता के बजाए उसकी स्पष्टता का प्रमाण देने को अधिक उत्सुक रहे। शांत रस या निर्वेद के प्रति आग्रह का परिणाम था या कुछ और कि कविता में तनाव जैसा भी हो, अंत में उसका शमन ही उच्चतर समझ को हासिल करने का माध्यम बनता रहा। इस प्रवृत्ति ही की एक अपेक्षाकृत फूहड़ लेकिन प्रतिनिधि अभिव्यक्ति हिंदी सिनेमा में देखने को मिलती है।

बहरहाल, यहाँ आया हुआ 'सुखान्त' रचनाशीलता में व्याप्त जड़ता को तफ़सील से बयान करता है। अंत में राहत और सुख मिलने की शर्त है ढेर सारे दुखों और आंसुओं से होकर गुज़रना, आत्महत्या की तैयारी करना और फिर नौकरी पाकर संभल जाना। यानी गलदश्रु भावुकता और आत्मदया का भरा पूरा समारोह आयोजित करना।

'स्टीरियोटाइप' का आलम यह है कि स्त्री है तो वह ज़रूर अपमानित होगी, या फिर बाज़ार में बिकेगी। बेरोज़गार होगा तो उसका आत्महत्या के कगार पर पहुँच जाना स्वाभाविक ही है। प्रेम होगा तो उसमें संदेह, दुख और शोक क्रमशः पूर्वापर भूमिकाओं में आएंगे। और जब आंसू भी सूख जाएंगे तब किसी संयोग का सहारा लेकर सुख आएगा। यह ढाँचा रूप बदल-बदल कर विगत पचास वर्षों की कविता के हर दौर की केंद्रीय प्रवृत्ति रहा है। यहाँ शिकारी और शिकार बदलते रहते हैं, लेकिन कहानी वही रहती है।

रचना के महत्व और जीवन में उसकी भूमिका पर विचार करते हुए महेश वर्मा की एक और कविता है, 'नसीहत'। कविता इस प्रकार है:

"वसीयत चुपचाप लिखनी चाहिए
और लिखकर भूल जाना चाहिए।

ज़हरीली हवा और राख से ढके
इस संसार में क्या है छोड़कर जाने के लिए

किसी बोझिल दिन के उदास विवरणों को डायरी में दर्ज करने जैसा
सबसे छोटी पर्ची में,सबसे साधारण अक्षरों में लिखना,
और लिख कर भूल जाना (चाहिए)।

गीत लिखना चाहिए गुनगुनाते हुए
एक हारी हुई लड़ाई की टेक पर
लौट आए सबसे पुराना छंद
व्यर्थ के तुकान्त के लिए भी एक सहृदयता। मिले
इतना मुस्कुराते हुए सुनाना चाहिए गीत,
छंद-भंग पर हो गया था हृदयाघात
इस किंवदन्ती पर विश्वास करते हुए
गीत लिखना चाहिए।

कथा लिखनी चाहिए ऐसे कि
पंक्तियों के बीच रिसते ख़ून से
चिपचिपा जाए उंगली पृष्ठ पलटते

न हो भले ही कथा का शीर्षक-'रक्तपात'।"

सबसे पहले इस अंश के अंत में, हमारी भाषा के एक मुहावरे के सहारे आया सहज सौंदर्य ध्यान खींचता है। संसार की निःसारता के कथन के बाद आए इस वाक्यांश, "क्या है छोड़कर जाने के लिए" से कम से कम तीन अर्थ निकलते हैं। पहला, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे छोड़ा जा सके (हालाँकि ले भी नहीं जाया जा सकता)। दूसरा, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे जाने के बाद भी बचा रह सके। और तीसरा, इस निरर्थक संसार में इस योग्य कुछ भी नहीं है जिसे अपने प्रियजन के लिए छोड़कर सन्तुष्ट हुआ जा सके। प्रसंग वसीयत लिखने का है, इसलिए तीसरा अर्थ यहाँ लागू होता है, लेकिन दूसरी अर्थ-छायाओं के चलते यह पंक्ति अतिरिक्त आकर्षण पा जाती है।

इसके आगे की पंक्तियों तक आते-आते कविता व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेती है। वसीयत, पिछली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के नाम करती है, और इस प्रकार उसे अपनी विरासत सौंपती है। ज़ाहिर है, मौजूदा वरिष्ठ पीढ़ी के पास अपनी विरासत के नाम पर बहुत कुछ मूल्यवान सौंपने को नहीं बचा है। यह एक पराजित पीढ़ी है जो गम्भीर आत्म-समीक्षा करने के बजाय अपनी कल्पित महानता की दंतकथाओं को आगामी पीढ़ियों के गले उतार देने पर आमादा है। ख़ुद राह भटके हुए लोग आने वाली नस्लों को 'सही राह' दिखा देने को आतुर हैं। यहाँ कवि उन्हें ताक़ीद करता है कि अपने अनुभव को दर्ज ज़रूर करना, लेकिन किसी रहनुमा के कारनामों की तरह नहीं, बल्कि 'किसी बोझिल दिन के उदास विवरणों की तरह' जिन्हें पढ़कर आने वाली पीढ़ी अपने लिए ज़रूरी सबक हासिल कर सके। उसे किस राह जाना है यह भले न पता चले, लेकिन किस राह नहीं जाना है, यह ज़रूर पता चल जाए। भाषा में एक छोटा-सा चपल प्रयोग यहां भी हुआ है। इस अंश के बिल्कुल अंत में 'चाहिए' को ब्रैकेट में करके इन पंक्तियों को निर्देशात्मक बना दिया गया है। सही मायने में एक नसीहत, सिर्फ़ क्या होना चाहिए यह नहीं बल्कि तुम्हें क्या करना है, यह भी।

अपने पुरखों को वसीयत लिखने और विरासत सौंपने का सलीक़ा बताने के बाद कवि उन्हें अपने कर्म की याद भी दिलाता है। पराजय कितनी भी संपूर्ण हो, सिर्फ़ उदास और बोझिल हो जाने से कोई मक़सद हल नहीं होता। पराजय, अपमान और यातना के गीत भी गाए जाने चाहिए। दोस्तों के विश्वासघात और अपनी भूलों के गीत। दुश्मन के छल-बल और उनमें अपने फँस जाने के गीत। इन गीतों को समूची तन्मयता से गाना चाहिए। संघर्ष, विजय और पराजय की अनादि काल से चली आ रही श्रृंखला की असंख्य स्मृतियों का आह्वान करते हुए। हारी हुई लड़ाई की टेक पर सबसे पुराने छंद के लौटने का यही अभिप्राय है। सबसे ज़रूरी है कि विभ्रम और पराजय के गीतों को भी विजय और बलिदान के गीतों जितना ही मूल्यवान माना जाए, बल्कि पराजय के दौर में गीतों की लयबद्धता और नियमितता को बरकरार रखना कहीं अधिक ज़रूरी है।

इस कविता में सबसे प्रबल आग्रह अपने कर्म के प्रति विश्वास दृढ़ रखने का है। पराजय के क्षण में आत्मविश्वास को डिगना नहीं चाहिए। मुस्कुराते हुए और छंद-भंग पर हृदयाघात की किंवदंती पर विश्वास करते हुए गीत गाने का यही आशय है। पराजय के क्षणों में अगर आप दृढ़तापूर्वक अपने रास्ते पर आगे बढ़ेंगे और निर्ममतापूर्वक आत्म-समीक्षा करेंगे तो दुनिया को फिर से अपनी ओर झुका सकते हैं। नहीं तो, आगामी पीढ़ियों को कोसने का विकल्प आपके लिए हमेशा खुला है।

कथा लिखने का आशय है ब्यौरों को दर्ज करना, विस्तार में जाना। कवि के मुताबिक़ पराजय कि यह गाथा विस्तार से दर्ज होनी चाहिए। दमन, क़त्लेआम और जातिसंहार के किस्से इतने यथार्थ और जीवन्त हों कि इनकी पंक्तियों से रिसता ख़ून हमें छू ले, हमारी उंगलियों से चिपक जाए। अपने आप में यह पंक्ति जायसी के "रकत कै लेई" और ग़ालिब के "चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन" की परंपरा में है। इस कविता पर इससे अधिक कुछ कहना यहाँ अनावश्यक है।

एक दिलचस्प बात यह है कि इस कविता के अंत में 'रक्तपात' नामक कथा-शीर्षक का उल्लेख है। इससे पिछली कविता का नाम था 'सुखांत'। ये दोनों ही वरिष्ठ कवि-कथाकार दूधनाथ सिंह की दो प्रसिद्ध कहानियों के नाम हैं। यह महज़ संयोग नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि इन कविताओं में पीढ़ी-अंतराल को विषय बनाने के बावजूद कवि ने यहाँ अपनी वरिष्ठ पीढ़ी के एक समादृत रचनाकार के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया है।

कथा के पारंपरिक तौर-तरीक़े घिस-पिट चुके हैं और उनमें नए यथार्थ को व्यक्त करने की गुंजाइश कम से कम रह गई है। उनको विखंडित करने की ज़रूरत है। इसी बात को तफ़सील से कहती कविता है, 'अन्त की ओर से':

"कथा में पीछे से प्रवेश करना,
पिछले दरवाज़े से,
अंत की ओर से।

हत्यारा पकड़ा जा चुका,
हो चुकी आत्महत्या,
पुरोहित शुरू कर चुके विवाह के मन्त्र।

प्रेमीगण के अंतिम रूप से बिछड़ने से ठीक पहले
एक कार जलती गिर रही है खाई में

षड्यंत्रों और आँसुओं में भीगी फुसफुसाहटें : भीतर के पृष्ठों पर।

घर छोड़ कर निकल गया है नौजवान,
अंत में चलने वाली गोली का कारण यही
मेजपोश बनेगा

नौकरानी अपना प्रेमपत्र छुपाती है,बूढा अपने पाप।
नौजवान नशे की आदतें छुपाते हैं
धनी आदमी अपने आँसू छुपाता है।

नीरस प्लेटफॉर्म, बग़ीचे के द्वार,
टेलीफोन की दुकान या कहीं भी
संयोग उन्हें हाँककर लाएगा और समय के धागे पर
एक गाँठ लगा देगा।

यहाँ से ढेर सारी समय संभावनाएँ दिखाई देती हैं
उजली सुबह, धुँधली साँझ कोई भी दूसरा समय

कथा वहीं शुरू हुई होगी।"


यहाँ एक बात स्पष्ट करना ज़रूरी है कि बार-बार 'कथा' के प्रयोग या कुछ संदर्भों के हवाले से यह नहीं मान बैठना चाहिए कि कवि यहाँ कहानी विधा पर कोई टिप्पणी कर रहा है। दरअसल हर 'रचना' एक 'कथा' है और कवि रचना मात्र के अनुभव का ज़िक्र कर रहा है। दूसरी बात, अंत की ओर से प्रवेश करना, यानी कथा की गुत्थी को सुलझाना, उसके रग-रेशों को उभारना, और उसके पीछे छिपे दिमाग़ की बुनावट को 'डिकोड' करना। इससे पहले 'सुखांत' शीर्षक कविता को पढ़ते हुए भी हमने रचना में यथार्थ के स्टीरियोटाइप की ख़ूबियों को पहचाना था। यहाँ भी कुछ वैसे ही हालात हैं।

कथा में अंत की तरफ़ से प्रवेश करके शुरूआत की तरफ़ आते हैं तो सबसे पहले एक घिसी-पिटी कहानी बरामद होती है जिसमें धनी आदमी, नौजवान, और बूढ़े जानी-पहचानी भूमिकाओं में हैं। 'नौकरानी' का प्रेम पत्र एक अलग-सी चीज़ है। नौकरानी की पारंपरिक भूमिकाओं में प्रेम करने की जगह नहीं रही है। यहाँ उससे एक फ़र्क़ है कि वह न केवल प्रेम करती है बल्कि उसका इज़हार करने वाला पत्र भी लिखती है, हालाँकि उसे दे पाने की गुंजाइश कहानी में नहीं बनती और उसे इस पत्र को छुपाना पड़ता है। अंत में चलने वाली गोली का कारण बनने वाले मेज़पोश के नीचे ही संभवत वह प्रेमपत्र छुपाया गया था जिसके उघड़ जाने से पैदा हुए विवाद के कारण नौजवान को घर छोड़ना पड़ा। ज़ाहिर है, इसके पहले नौकरानी को घर से निकाला गया होगा। 'अंतिम बिछड़ना' किसी एक की मृत्यु से ही संभव है और यह दुर्घटना जलती हुई कार के साथ नौकरानी रह चुकी उस स्त्री की हत्या के लिए रची गई क्योंकि पुरुष के साथ अगर ऐसा कुछ होता तो फिर बची हुई स्त्री को मैनेज करने के लिए 'विवाह के मंत्र' की ज़रूरत नहीं पड़ती। विवाह के मंत्र पढ़े जाते हैं कि 'अंत में चलने वाली गोली' अपने ऊपर चलाकर पुरुष आत्महत्या कर लेता है। और फिर आख़िरकार स्त्री का हत्यारा भी पकड़ा जाता है।

इस तरह एक परंपरागत दुखान्त कथा की रचना होती है। इस कथा की शुरुआत कहीं से भी हो सकती थी जिनमें से तीन संभव जगहें--- नीरस प्लेटफार्म, बगीचे का द्वार, और टेलीफोन की दूकान--- कविता में दिए हुए हैं। ऐसी रचनाओं में कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता की कमी की भरपाई हमेशा संयोगों के सहारे होती है इसलिए ऐसी किसी जगह संयोगवश कथा के सभी पात्र एकत्र होते हैं और अपनी भूमिका निभाते हैं। कथा सुखान्त हो या दुखान्त उसका घिसी-पिटी जड़ रुचि से अनुशासित होना ही वह अनिवार्य तत्व है जिससे कवि को ऐतराज है। कविता की अंतिम तीन पंक्तियां इसी ऐतराज से प्रेरित हैं और उन दिशाओं का संकेत करती हैं जिनसे वास्तविक रचना संभव हो सकती है।


बहरहाल, घिसी-पिटी रचना की बारीकियाँ तो हमने देख लीं, आइए अब देखते हैं कि कवि के पास विकल्प क्या है, रचना प्रक्रिया के वास्तविक सूत्र कौन से हैं, और सही मायने में कैसे नवोन्मेषी रचना तक पहुँचा जा सकता है। इस मामले में कुछ संकेत-सूत्रों का निर्देश करती एक दिलचस्प कविता है, 'जलती टहनी':

"यही अयोध्या है जहाँ बैठा हूँ
अपने क़िस्से की आग जलाए

इसी आग से कापालिक अपना खप्पर सुलगाते हैं, ग्रामीण
अपनी बीड़ी और डोम खरीदते हैं रोज़ का सौदा :
दो रुपये की आग।

यहीं से फूटती है वनवास की पगडण्डी
गिरती हुई ताड़का का कपाल
इसी पत्थर से फूटा था

इसी जगह कट-कट गिरते थे दस-दस शीश 
---जुड़ते थे।

यहीं अंतिम सीख लक्ष्मण को
यही सरयू नदी।

रूपक एक मृत पक्षी विचार है अलबत्ता
सजा हुआ कहीं शीशे की निर्जल आँख लगाए।

ऐसा कहो एक क़िस्सा कि जहाँ बैठे क़िस्सागो
घटनाएँ वहीं आएँ, वहीं आएँ भूमिकाएँ

इसी जगह मृत श्रवण कुमार के लिए सीना   पीटते
बैठे थे अन्धा आदमी, औरत अन्धी

जो वृक्ष सूख गए थे उनके विलाप से
उन्हीं में से किसी एक की
टहनी सम्मुख यह जलती है।"

इस कविता में जो सबसे पहली बात दिखाई पड़ती है, वह रचना के यथार्थवादी शिल्प का सुचिंतित प्रतिकार है। इसका अर्थ है कि रचना में घटित अथवा वर्णित घटनाओं को सच की तरह दिखाने के दबाव की अवहेलना बल्कि उसका प्रतिवाद। कवि यहाँ स्रष्टा होने के अपने अधिकार का संपूर्ण इस्तेमाल करने की बात करता है। उसकी रचना में घटनाएं सांसारिक अथवा प्राकृतिक नियमों से अनुशासित न होकर विषयवस्तु की मांग के अनुसार, जादू जैसे शिल्प में ढल कर आती हैं। इस मामले में कवि मुक्तिबोध का रास्ता अपनाता हुआ-सा प्रतीत होता है।उत्तरोत्तर जटिल होते यथार्थ को व्यक्त करने के लिए भाववादी शिल्प का चुनाव कवि को संभवत एकमात्र कारगर तरीका लगता है।


इस विचार-परंपरा में वास्तविक प्रस्थान कवि के रूपक विषयक विचार में निहित है। हम जानते हैं कि रूपक भारतीय काव्य-शिल्प का एक प्रमुख स्तंभ रहा है। न सिर्फ़ कविता बल्कि हमारी रोज़मर्रा की अभिव्यक्ति का भी यह एक प्रमुख माध्यम है। लेकिन कवि इसे 'मृत पक्षी विचार' कहता है। पक्षी की तरह प्यारा एक विचार जो अपने दिन पूरे कर चुका है। इस के पंखों के सहारे हमने असंख्य उड़ानें भरीं, इसकी आंखों से हमने बहुत सारी दुनिया देखी, लेकिन अब यह ख़ुद 'शीशे की निर्जल आँख लगाए' हमारी स्मृति में जड़ा हुआ है। इसकी भूमिका पूरी हो चुकी है। यह दृष्टिकोण मुक्तिबोध के शिल्प से लगाई गई एक छलांग है, क्योंकि प्रतीक और रूपक मुक्तिबोध के शिल्प की सबसे जानी-पहचानी विशेषताएँ हैं।


रूपक की विशेषता है कि किसी तथ्य, स्थिति, या परिघटना के सारतत्व का बयान करने के लिए उसके बाहरी विवरण और उनकी तर्कसंगति की उपेक्षा करके समान विशेषता वाले किसी अन्य तथ्य से उसके प्रतिनिधि का काम ले लिया जाता है। ऐसा लगता है कि कवि इस युक्ति का त्याग करके तथ्य, स्थिति, या परिघटना को, रचना में उसकी विवरणात्मकता अथवा तर्कसंगति की चिंता छोड़कर, सीधे-सीधे प्रस्तुत करने की वक़ालत कर रहा है। रचनाकार के रूप में उसे निःसंदेह इसका अधिकार है, लेकिन इस प्रकार की पुनर्सृष्टि को विश्वसनीय बनाने के लिए जिस शक्ति और दक्षता की दरकार होगी, उसे देखना दिलचस्प होगा।

इस कविता में इस प्रस्ताव का जो प्रारूप दिखाई पड़ता है उसका सूत्र वाक्य है, 'जहाँ बैठे किस्सागो घटनाएं वहीं आएँ, वहीं आएँ भूमिकाएँ '। घटनाएँ चाहे अयोध्या की हों या लंका की, भूमिकाएं त्रेता की हों या द्वापर की, कविता के मंच पर एक बार और अपनी नाट्य प्रस्तुति देने के लिए आएं, फिर विदा हो जाएं।। यहाँ तमाम जानी पहचानी मिथकीय घटनाओं के उल्लेख का एक आशय यह भी है कि रचनाकार के आह्वान से जगने वाली 'आग' समस्त सांसारिक कार्यव्यापार में मनुष्य की हमसफ़र होगी। मानवजाति की सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता से संगति रखने वाला यह विचार काव्य-शिल्प के रूप में कितनी संभावना रखता है और कैसी भूमिका निभाता है, भविष्य में ही इसका परीक्षण हो सकता है।

महेश वर्मा की एक कविता 'स्वीकार' का वाचक आधुनिक सभ्यता के जंगल में अपने आप को किसी अजनबी की तरह खड़ा पाता है। कविता पहले देख लें फिर इसके बारे में बात करेंगे:

"कहने में लज्जा बिलकुल भी नहीं है
कि इस जगह नया हूँ
तभी तो विस्मित हो कर देखता रह जाता हूँ
घास, सूखी लकड़ी की दरार और कोई
सरल सा अबोध परिचय।

नया हूँ अनंत सूर्यास्त देख चुकी वसुधा की
इस गोधूली में,
कहाँ मिलेगी रात की नींद भर शरण
असंख्य किवाड़ों में से किसी एक पर दस्तक देने
और अनगिनत देगचियों में खदबदा रहे भात में से
दो मुट्ठी हिस्सा पाने के लिहाज़ से
नया हूँ इस जगह पर।

यह सब कुछ भी नहीं था यहाँ
एक पुराना निवासी कहता था आज मध्याह्न कहता था और उदास देखने लगता था दूर,
दूर इस समय के पीछे जहाँ
वाकई कुछ नहीं था यह सब।

जल के लिए पुराना हूँ तो क्या?
इस नयी नदी से तो नया ही साक्षात्कार था ना! चुपचाप से उसके नज़दीक जाकर कहा----
नया हूँ तुम्हारे नज़दीक नदी, प्यास पुरानी है और
भर-देह नहाने की यह इच्छा भी।

इतना नया हूँ भरे हुए इस हाट में
कोई पीछे से नहीं देने वाला कंधे पर दस्तक कि कहाँ?
अनजानी आवाज़ो और भीड़ के संस्पर्श से अचकचाता
भूल गया हूँ क्या खरीदने आया था सौदा क्या लगाने दाँव पर।

खेल तमाशे, जंगली फल, रिबन और
स्त्रियों की वासना जगाती तीखी गंध के बीच तीतर, मुर्गे और लोहे के आदिम औज़ारों की भूलभुलैया में लड़खड़ाता
किसी गीत में जोड़ नहीं पा रहा आगे के शब्द

कभी लगता कि पलक झपकते बदल जाएगा दृश्य
और किसी आश्वस्ति की गोद में गाड़ लूँगा--- अपना मुख म्लान!

अभी तो न्याय की गुस्सैल निग़ाह
और जीभ काटने की धारदार छुरी
सब के लिए नया हूँ।

स्वीकार करने में लज्जा नहीं है।"

कविता का आदिमता से रिश्ता पुराना और गहरा है। 'इस जगह नया हूँ' वाक्यांश से यह संकेत मिलता है कि वह किसी और युग की स्मृति लिए हुए है। जिस तरह वह घास और सूखी लकड़ी की दरार को देखकर विस्मित होता है, जल के लिए ख़ुद को पुराना पाता है, उससे पता चलता है कि यह चीज़ उसे कोई पुरानी याद दिलाती हैं। सभ्यता के आवरण की तहों को खोलता हुआ कवि आख़िरकार वहाँ जा पहुँचता है जहाँ से यात्रा शुरू हुई थी।

धरती पर यह 'गोधूली' का समय है, यानी दो युगों के बीच का संक्रमण-काल। एक युग जब ख़त्म हो रहा होता है, और दूसरा शुरू होने को होता है, तब कविता के उत्कर्ष की संभावना सर्वाधिक होती है। हमारे देश में सामंती युग के अवसान और औपनिवेशिक-आधुनिक युग के आरंभ-काल में रची गई ग़ालिब की कविता के पीछे उनके समय का यही द्वंद्व था, जो ईमान और कुफ़्र के मुहावरे में व्यक्त हुआ था। वर्तमान दौर में औपनिवेशिक-आधुनिक युग विध्वंस के कगार पर है और सामंती- ब्राह्मणवादी (अ)सभ्यता बाक़ायदा दस्तक दे रही है। पूरी दुनिया में आधुनिकता के अंत की घोषणाओं के बीच हमारा समाज भी एक संधिकाल से गुज़र रहा है। कविता में 'गोधूली' का एक आशय यह भी हो सकता है।

वाचक की दृष्टि में 'कोई सरल सा अबोध परिचय' उसे आधुनिक युग से जोड़ सकता है, इसलिए वह इसकी तलाश करता है। लेकिन उसके हाथ निराशा लगती है। बाज़ारवादी सभ्यता को 'हाट' की संज्ञा देते हुए वह महसूस करता है कि (कोई पीछे से नहीं देने वाला कंधे पर दस्तक कि कहाँ?) सामान्य मानवीय संस्पर्श की अपेक्षा भी इस हाट-बाज़ार में मुश्किल है, क्योंकि यहाँ सिर्फ़ बिकने वाली वस्तुएँ और ख़रीदने वाले लोगों का मेला है। इधर उसकी हालत यह है कि उसे न ये पता है कि उसे क्या ख़रीदना है, न ही ये कि उसके पास किसी चीज़ के बदले में चुकाने को क्या है। इसके कारण के रूप में 'भूलने' की बात बेमानी है। सच तो यह है कि उसने यह सब कभी जाना ही नहीं था।

वाचक के पास उसके अपने आदिम गीत हैं, लेकिन उनमें वह कोई पंक्ति जोड़ नहीं पा रहा है। बावजूद इसके कि उसके आसपास खेल तमाशे, कामुक छवियाँ, तीतर मुर्गे के साथ लोहे के आदिम औजार मौजूद हैं। ये चीज़ें प्रकृति से संस्कृत की यात्रा में मनुष्य के साथ किसी न किसी रूप में शामिल रही हैं, लेकिन उसे इन से कोई मदद नहीं मिल पा रही है। उसे लगता है कि अचानक कोई बात होगी और उसे कोई भरोसेमंद आश्रय मिल जाएगा, लेकिन यह सब ख़ामख़याली ही साबित होता है।

वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। जीभ काटने की धारदार छुरी भी लोहे का एक आदिम औजार है जो परिवेश में सक्रिय है। सबसे दिलचस्प है कि यह सब कुछ तथाकथित न्याय के नाम पर, उसकी गुस्सैल निगाहों के इशारे पर किया जा रहा है। न्याय के नाम पर अन्याय पहले भी होता था लेकिन तब वह आसानी से पहचान और अभिव्यक्ति में आता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब देश और दुनिया में न्याय ही के नाम पर सारे अन्याय होते हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस का कानून पूरी तरह से स्वीकृति पा चुका है। वाचक इन चीज़ों को देख कर चौंक पड़ता है, क्योंकि वह इनके लिए नया है। हम इनके आदी हो गए हैं, इसलिए इन्हें सहजतापूर्वक, बल्कि एकमात्र स्वाभाविक स्थिति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। जैसे मछलियाँ पानी की आदी होती हैं, उसे अलग से नहीं पहचानती, जैसे हम हवा के आदी होते हैं, उसको अलग से महसूस नहीं कर पाते, उसी तरह हम शक्तिशाली के अन्याय के आदी हो गए हैं। इसीलिए हम अन्याय की घटना से नहीं, उसके कथन और इस तरह होने वाले उसके प्रतिकार से विचलित होते हैं, संकट में पड़ जाते हैं, क्योंकि उससे हमारी न्यायचेतना में ख़लल पड़ता है, हमारी शांति खंडित हो जाती है।

बहरहाल, जंगल के कानून से संचालित समाज में जीने और इसके तौर-तरीक़ों का प्रतिकार करने का एकमात्र सूत्र वही, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से होने वाला 'सरल सा अबोध परिचय' है। इंसानी भावनाओं और रिश्तों के सहारे ही गलाकाट स्पर्धा से भरे इस वातावरण में कोई मानवीय विकल्प रचा जा सकता है। एक अन्य कविता 'गाँठ खोलो' में महेश वर्मा इसी इंसानी रिश्ते की ज़रूरत और इसकी राह में पैदा होने वाली एक विशिष्ट जटिलता का बयान करते हैं। कविता इस प्रकार है:

"मनुष्यों के कोलाहल से भरे
इस जलसाघर में
आकुलता से कोई परिचित ढूँढ़ते
हम दो ही हैं : विश्वास करो।

देखना कैसे बदल जाएगा
शुभ प्रसंग का यह सबसे पुरातन दृश्य,
अपरिचय की गाँठ खोलो
और कुछ झिझकने के शब्द बोलो।

आँचल की गाँठ खोलकर कैसे
तीन रहस्यमय लौंग
निकाल कर दिए थे इसी आषाढ़ के मास में याद करो,
विस्मरण की गाँठ खोलो और किसी
बहुत पुराने परिचित का हाल पूछने में
बहाने के शब्द बोलो।

हाल नहीं बता कर जो फिर से माँग बैठूँ
वैसा ही एक लौंग
तो नाक की लौंग छूकर
अपने पुरातन जादू से
मिटा दो सब पुराने छंद, पुराने चिह्न

और नए शब्द बोलो।

अपरिचय की गाँठ खोलो।"

कविता के आरंभ में स्पष्ट रूप से परस्पर विरोधी बात कही गई है। एक तरफ़ तो मनुष्यों का कोलाहल है और दूसरी तरफ़ वाचक अपने संभावित साथी से सिर्फ़ उन्हीं दो लोगों के, परिचय की आकुलता लिए होने की बात करता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बाक़ी लोगों में किसी से परिचय की आकुलता नहीं है। यहाँ, दरअसल, वाचक ने परिचय से प्रेम की दूरी एक ही छलांग में तय कर ली है। वह प्रेम की ऐकांतिकता का बखान कर रहा है, जो शायद उसकी सबसे अनोखी विशेषता है। कबीर ने कहा था, प्रेम गली अति साँकरी तामे दो न समाहिं। रहीम भी कहते हैं, प्रीतम छवि नैनन बसी पर छबि कहाँ समाय। कविता में वाचक जिससे मुख़ातिब है उसको इसी एकनिष्ठता का विश्वास दिलाता है। यह विश्वास करना प्रेम की राह में पहला क़दम बढ़ा लेने के समतुल्य है, बशर्ते जिसे विश्वास दिलाया जा रहा है उसकी रुचि भी इसमें हो। वरना झिझकने के शब्द तो हर कोई शुरुआती परिचय में बोलता ही है। इसके बाद मनुष्यों का कोलाहल जिसमें बाज़ार की कर्कश ध्वनियाँ भी हैं, नेपथ्य की आवाज़ बन सकता है, और मंच पर एक नए संसार की रचना हो सकती है। सबसे पुरातन दृश्य के बदल जाने का यही आशय है।

मानवीय रिश्तों में स्मृति की भूमिका बड़ी है। जैसी हमारी स्मृतियाँ होती हैं वैसा ही हम लोगों के साथ व्यवहार करते हैं। कविता में आगे वाचक अपनी परिचिता को एक पुरानी याद दिलाता है जब उसने अपने आँचल की गाँठ खोलकर उसे तीन लौंग दिये थे। लौंग, इलायची, सुपारी वगैरह किसी आगंतुक के आरंभिक सत्कार के कुछ फुटकर सामान हुआ करते हैं, वैसे ही जैसे किसी बच्चे के मिल जाने पर उसे टॉफी दे दी जाती है। उस स्त्री ने जो लौंग दिए थे उसमें रहस्य की सृष्टि वाचक के अपने दिमाग़ में हुई है। लौंग में भला क्या रहस्य हो सकता है। यहाँ आकर यह लगता है कि वाचक की अपनी आकांक्षा में उसे उस स्त्री का बराबर का साथ नहीं मिल रहा है। अपनी पिछड़ी हुई संवेदना के चलते उसने स्त्री की सहमति को बिना कहे ही मान लिया है।

बहरहाल, वह अपना एकालाप जारी रखता है। इस घटना की याद दिलाने पर संभवतः स्त्री को कुछ अनपेक्षित लगता है और वह बात को टालते हुए किसी पुराने परिचित का हाल पूछने लग जाती है, लेकिन वाचक इशारे को समझ नहीं पाता। सम्भव है उसका पौरुष आड़े आ गया हो। वह मान बैठा है कि पुरातन दृश्य बस अब बदलने ही वाला है। वह फिर से इसरार करता है, फिर से लौंग की मांग कर बैठता है। उधर वो स्त्री इस मैत्रीपूर्ण परिचय के महत्व को समझती है। वह वाचक को कोई अवांछनीय शह नहीं देती, बल्कि पुराने प्रसंगों को अनदेखा करके 'मिटा' देती है, उन्हें अनहुआ कर देती है। इस तरह पुरानी स्मृति के ख़त्म हो जाने के बाद भी मनुष्यता का रिश्ता बचा रह जाता है, और नए शब्द के साथ नई शुरूआत की संभावना बनी रहती है।

दरअसल, यह कविता किसी पुरानी याद की पुनर्रचना के शिल्प में लिखी गई है। लगता है कि वाचक जिस से मुखातिब है उसे बता रहा है कि उसे कब क्या करना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं। अपनी पिछड़ी हुई चेतना के कारण अतीत में हुए किसी अप्रिय अनुभव का वह अपने लिए एक नया मानवीय संस्करण तैयार करता है। उसके मनोजगत में वे बातें दुहराई जाती हैं और इस प्रक्रिया में उसे अपनी कमजोरी से उबरकर फिर नई शुरूआत करने का हौसला होता है।

अंत में, यह कहना अनावश्यक-सा है कि अतीत का यह जीवनानुभव व्यक्तिगत भी हो सकता है, और सामूहिक-ऐतिहासिक भी।












Comments

  1. सर आपकी इस व्याख्या से काव्य के अवबोध स्तर में अभिवृद्धि होती है।मानवीय संस्करण को उपयुक्त पंक्तियों के साथ स्थापित करती है💐🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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