गुँथे तुमसे, बिंधे तुमसे

हम प्रथम विद्रोही ज़माने से लड़े

मुक्तिबोध के सरोकारों के दायरे में संभवतः किसी भी दूसरी चीज़ से अधिक महत्व मनुष्य के रूपांतरण की प्रक्रिया का है। कोई नया अनुभव, उसका संवेदना से जुड़ाव, नवीन निष्कर्षों की प्राप्ति, संस्कारों से संघर्ष के माध्यम से उसकी ज्ञान में परिणति, और फिर उस नवीन ज्ञान के अनुकूल कर्म करने के संघर्ष में उतरे मनुष्य के व्यक्तित्व का नया रूप ग्रहण करना, मुक्तिबोध की तमाम कविताएं इस प्रक्रिया के किसी न किसी हिस्से का व्याख्यात्मक रूपांतरण हैं। ख़ास बात यह है कि यह व्यक्तित्वान्तरण कभी अकेले में या किसी ऐकांतिक प्रयत्न के परिणामस्वरूप नहीं होता। यह हमेशा सामाजिक अंतःक्रिया के दौरान होता है। इस सामाजिकता में भी सबसे अहम भूमिका किसी साथी, सहचर, मित्र, स्वजन, परिजन, आत्मीय की होती है। इस संगी से बातचीत, बहस करते, साथ-साथ चुनौतियों का सामना करते और कभी भ्रमित होने पर उससे उलाहना सुनकर सही राह पकड़ते हुए यह यात्रा तय होती है। इस संग-साथ का मुक्तिबोध इतना रोमांचक चित्र खींचते हैं कि इसकी गहनता और आवेगमयता के सामने कई बार प्रेम के चित्र भी फ़ीके पड़ जाते हैं। "अंतःकरण का आयतन" शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को देखें:
"कि मेरी छाँह
अपनी बाँह फैलाती
व अपने प्रियतरों के ऊष्म-श्वस व्यक्तित्व
की दुर्दांत
उन्मद बिजलियों में वह
अनेकों बिजलियों से खेल जाती है
.....अपने प्रियतरो के स्वप्न
उनके विचारों की वेदना जी कर,
व्यथित अंगार बनती है
हिलग कर सौ लगावों से भरी
मृदु झाइयों की थरथरी
उतरती है खदानों के अँधेरे में
वह और अगले स्वप्न का विस्तार बनती है।"
मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" भी इसी प्रक्रिया को अपना विषय बनाती है। आरम्भिक पंक्तियाँ हैं:
"वेदना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे,
बिंधे तुमसे,
व आवेष्टित परस्पर हो गए
कर्मण्य-क्षिप्रा-तीर पर!!
कोई नहीं थे हम तुम्हारे किन्तु
सहचर हो गए
चाहे जलधि, पर्वत, हज़ारों मील की दूरी
हमारे बीच में आ जाए,
फिर भी मानसिक अदृश्य सूत्रों से
हमारी आत्माएं परस्पर बात करती हैं।"

कबीर ने कहा था---" सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै। इसी परंपरा में मुक्तिबोध हैं जो विचारों की वेदना को जीते हैं। ज्ञान के पारंपरिक सत, चित, आनंद स्वरूप को उन्होंने सत, चित और वेदना मय माना था। यह वेदना समानधर्मा लोगों को परस्पर जोड़ती है। मानव सभ्यता का नदियों के साथ रिश्ता जगजाहिर है इसलिए मुक्तिबोध जब समूची सभ्यता का हवाला देते हैं तो उसे नदी तट पर होने वाली गतिविधि बताते हैं।यहां क्षिप्रातीर की इस गतिविधि को कर्मण्यता से जोड़कर वे अपने आशय को तनिक और स्पष्ट करते हैं। विचारों का यह साथ कैसा निर्णायक है कि जो कोई नहीं था वह सब कुछ हो गया। भौतिक दूरियाँ महत्वहीन हो जाती हैं और लोग अदृश्य मानसिक तरंगों से एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं। यही वह मैत्री और साहचर्य है जो रूपांतरण की प्रक्रिया को संभव बनाता है।
अगला अंश देखें:

"विचारों के स्वयं संवेदनात्मक तंतुमूलों ने
गहन मस्तिष्क कोषों में
हृदय के रुधिर कोषों में
अनेकों सूक्ष्मतम जाले पसारे हैं
व अंतर्व्यक्ति की रमणीय
ऊंची वृक्ष शाखों पर
मनोहर फूल विकसित कर दिए....
जीवन जगत उनकी महक में डूबता!!"

मुक्तिबोध जिन बातों के लिए हिंदी जगत में अनूठे और विशिष्ट हैं उनमें से एक यह है कि उन्होंने हृदय और मस्तिष्क के बीच द्वैध की अनादि काल से चली आ रही धारणा का खंडन कर दिया है। विचार और संवेदना, भावना और बुद्धि के बीच कोई ऐसी फाँक नहीं जिसे पाटने की कोशिश करनी पड़े। जिसे हम स्वतःस्फूर्त भावुकता समझते हैं वह भी मस्तिष्क ही की एक अवस्था है, समझ ही की एक अभिव्यक्ति है, वैसे ही जैसे अंधस्वार्थ और संकीर्णता। ऊपर लिखी पंक्तियों में इस सचाई का बयान हुआ है। विचार "स्वयं-संवेदनात्मक" हैं। उन्हें संवेदना के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ता। उनकी व्याप्ति जैसे मस्तिष्क में है वैसे ही हृदय में भी है। उनकी गतिशीलता से ही मानव-व्यक्तित्व पुष्पित-पल्लवित हो सकता है। वैचारिक अंतः क्रिया ही भावना को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाती है।

"अंतःकरण के मेह-कोहरे के घने अँधियार में/ अब तक छुपा था जो/ धवल कैलाश/ उद्घाटित हुआ सहसा/ किरण, बर्फ़ व रंग-बिरंगे फूल से आवृत/ गहन रमणीय वह अस्तित्व/ सारी मानवी संभावनाओं का स्वयं-चैतन्य/ गहरी आंतरिक संपन्नताओं का/ धवल कैलाश/ सामान्यीकरण का वह असामान्यीकरण/ अनुभूत सत्यों का समन्वित संगठित हिमशिखर/ उसके शिला प्रस्तर से/सहस्रों झड़ रहे रमणीय/शत निष्कर्ष/ शत निर्झर!!"

व्यक्ति की संभावनाओं के प्रतिफलन के उपर्युक्त चित्र में उसकी एक उल्लेखनीय विशेषता कही गई है, 'सामान्यीकरण का असामान्यीकरण'। दूसरे शब्दों में इसे सामान्यीकरण का विशिष्टीकरण भी कह सकते हैं। सामान्य और विशिष्ट का भेद भी आधुनिक साहित्य में शिविरबद्धता के प्रमुख आधारों में से एक रहा है। इसे समाज और व्यक्ति का विभेद भी कह सकते हैं। मुक्तिबोध के समय में प्रगति और प्रयोग के नाम पर कटिबद्ध लेखकों के अलग-अलग और परस्पर विरोधी स्वर अपने चरम पर थे। मुक्तिबोध और शमशेर जैसे कवियों ने अपने लेखन में इस द्वैध की व्यर्थता का उद्घाटन किया लेकिन उनका समय इसे समझने के लिए तैयार नहीं था। बहरहाल सामान्यीकरण एक वैचारिक कोटि है जिसमें अनेक तथ्यों के संग्रह और विश्लेषण से प्राप्त होने वाली कोई ऐसी सच्चाई होती है जो कमोबेश सभी तथ्यों से प्रकट होती है। हमारा सामान्य बोध या कॉमन सेंस इसी प्रकार बनता है। सामान्यीकरण की प्रक्रिया में पर्याप्त नमूनों का अध्ययन ज़रूरी है अन्यथा ग़लत निष्कर्ष प्राप्त हो सकते हैं। इन सामान्यीकृत सचाइयों की भूमिका और इनका महत्व निर्विवाद है, लेकिन पूरी तरह से इन पर निर्भर हो जाने से भी काम नहीं चलता। इसलिए हमेशा विशिष्ट मामलों के संदर्भ में रखकर इनका परीक्षण करते रहना ज़रूरी होता है। मसलन, अगर किसी देश में प्रति व्यक्ति औसत आय का बढ़ना एक सामान्यीकृत सत्य है लेकिन, साथ ही, वहाँ गरीबी और भुखमरी भी बढ़ती जा रही है तो इस सचाई को अलग-अलग लोगों के जीवन के संदर्भ में देखना-समझना होगा। हो सकता है कि कुछ लोगों की आय के अत्यधिक बढ़ जाने से औसत आय अधिक बढ़ी हुई मालूम हो रही हो जबकि हक़ीक़त में माजरा कुछ और हो। प्रगतिवाद और समाजवाद की उपलब्धियों को विशिष्ट व्यक्तिगत मामलों के संदर्भ में रख कर देखने पर ही उनकी सचाई का पता चल सकता है।अधिकांश लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य के अवसर मिलने से आप यह आसान निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि समाजवाद में नया मनुष्य बन रहा है, जबकि हक़ीक़त में उसकी आत्मा कुचली जा रही हो सकती है। जिस तरह अकेले विशिष्टता की रक्षा की बात व्यर्थ है उसी प्रकार अकेले सामान्यता की स्थापना भी ख़तरनाक है। मुक्तिबोध का बेचैन दिमाग इन मसलों पर सोचता रहता था। उनकी कविताएं उनके इन्हीं सरोकारों के प्रतिबिंब हैं। कविता में आगे की पंक्तियां देखें:

"अंतर-भार-नम्रा देवदारु डगाल के नीचे/ झुके हम और अंजलि भर/ लगे पीने/ तुम्हारे साथ/ उस झरते हुए जल-रूप/ द्युति-निष्कर्ष को/ कि इतने में गहन-गंभीर, नीली घनघटाओं की/ नभोभेदी चमकती गड़गड़ाहट सी हुई/ अंतर्गुहाएँ खोल मुँह चिल्ला उठीं/ कहने लगीं/ पी रहे हो तुम हमारा सत/ पी रहे हो गति/ पी रहे हो चित! निष्कर्ष- निर्झर-लहर प्राकृत वन्य और असभ्य है/ वह मान्य ड्राइंग-रूम संस्कृत से तुम्हें हटवायेगी/ वह कान पकड़ेगी, उठाकर फेंक देगी/ अजनबी मैदान में/ घर-बार सब छुड़ावायेगी/ तुमको अजाने देश में/ गिरि-कंदरा में जंगलों में सब जगह/ भटकायेगी।"

स्मरणीय है कि यह धवल और शुभ्र पर्वत अंतर्जगत ही में उद्घाटित हुआ है और इस अनुभव से प्राप्त सत्य उससे झरनों की तरह फूट निकले हैं। मुक्तिबोध की कविता में प्रायः जल का प्रवाह परंपरा और स्मृति के प्रवाह का प्रतीक बनता है। यहाँ भी निष्कर्ष रूपी सत्य झरनों से बहने वाले जल की तरह प्रवाहित है जिन्हें वाचक अपने मित्र के साथ पीने लगता है। सत्य को आत्मसात करने की प्रक्रिया में उसका सामना सत्य के आदिम रूप और उसके अभिप्राय से होता है, जो मानवजाति की परंपरा की आदिकालीन साक्षी है। उसके आंतरिक कोनों से आवाज़ आती है कि सत्य का मूल स्वरूप सभ्यता के आवरण को भेदकर ही मिल सकता है और उसका साक्षात्कार करने के बाद उस की अवहेलना करना मुश्किल होगा। दूसरी तरफ़ अगर सत्य के अनुकूल आचरण किया जाएगा तो सभ्यता-प्रदत्त सुरक्षा का अंत हो जाएगा। समस्त चुनौतियों का सामना निरावृत अस्तित्व के साथ करना होगा। ज़ाहिर है कि यह परिस्थिति ख़तरनाक है, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। कवि के शब्दों में देखें :
"अजनबी स्थिति या परिस्थिति भी तुम्हें/ संपन्न कर देगी अतः आदेश उसके मान/ यदि तुम निकल जाओ/ वह जहाँ भी जाए वह जहां भी जाय/ तो तुम पाओगे अभिप्रेत/ संकट-कष्ट की चट्टान के भीतर फँसा हीरा/ निकल दमकाएगा चेहरा तुम्हारा श्याम/ किंतु यदि माना नहीं आदेश/ स्वयंं निष्कर्ष तुम को रगड़ देंगे/ नष्ट कर देंगे/ जहाँ रुक जाओगे/ तै नहीं आधे किए जाते रास्ते/ इस रास्ते पर धरमशाला डाकबंगला भी नहीं है/ सत्य को अनुभूत करना सहज है/ मुश्किल बहुत उसके कठिन निष्कर्ष-मार्गों पर चले चलना/ इसलिए इस अमृत निर्झर-लहर-जल को और भी पी लो।"
क्रांतिकारी और मध्यमार्गी चेतना के बीच एक बुनियादी अंतर यह होता है कि क्रांतिकारी अपने रास्ते की तार्किक परिणति को समझता है और वहाँ तक पहुँचे बिना उसे सफलता का बोध नहीं होता। वह उद्देश्य कैसा भी अव्यावहारिक, अप्राप्य अथवा ख़तरनाक बताया जाता हो, वह अंतिम साँस तक उसके लिए प्रयत्न करता है। उसे अपने लक्ष्य में पूरा भरोसा होता है और उसके जीवनकाल ही में यह हासिल हो जाए ऐसी कोई शर्त भी नहीं होती। व्यापक उद्देश्य पूरे समाज की ज़रूरत होते हैं और उन्हें उपलब्ध करने में कई बार पीढ़ियाँ लग जाती हैं, इसलिए विषम परिस्थिति में भी निराशा उसमें घर नहीं कर पाती। विफलता के क्षण में भी वह नए रास्तों की खोज करता है। जबकि मध्यमार्गी-उदारवादी चिंतक सामान्य मानवीय उद्देश्यों को भी अतिवादी और सैद्धांतिक मान बैठता है। अपने उदारवादी लक्ष्य की पूर्ति की राह में भी कई बार वह बीच ही में थक-हार कर बैठ जाता है और जो थोड़ा बहुत हासिल कर सका उसी पर संतोष करता है। बहरहाल, मध्यमार्ग की भी समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका होती है लेकिन यहाँ वह विचारणीय नहीं है। क्रांतिकारी उद्देश्यों को अधबीच में छोड़ने वाली कोई संस्था संगठन अथवा व्यक्ति इस सकारात्मकता की अपेक्षा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में उनके अंदर पाखंड और लफ़्फ़ाजी का बोलबाला हो जाता है जो उन्हें पतन के अँधेरे की ओर ले जाता है। इससे समाज में भी दिग्भ्रम, निराशा और पराजय की धारा बलवती होती है। भारतीय समाज में इसके साक्ष्य चौतरफ़ा मिल जाते हैं। इसलिए ज्ञान और कर्म की एकता जो मुक्तिबोध का सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख सरोकार है, पर खरा उतरने की चेतावनी हमारे वाचक को उसके अंतरतम से ही मिलती है। व्यक्ति के अंतर्जगत की इस भूमिका को मुक्तिबोध उसका आत्मसंघर्ष और आत्मालोचन कहते हैं। लेकिन आजकल उनके कुछ स्वनामधन्य प्रशंसक इसे आत्मग्लानि और अपराधबोध की संज्ञा देते हैं। कविता में इसके बाद वाचक के अंतर्मन से एक और दिलचस्प मार्गदर्शन प्राप्त होता है:
"हाँ, सुनो.../ यदि व्यक्ति अथवा स्थिति/ की जब-जब बेरुखी दीखे/ सहज चलते चलो/ सुन लो कि वे वीरान टीले हैं/ व टीलों की कभी करना उपेक्षा मत/ परस्पर..संवेद्य आवेष्टित दशा में/ शब्दशः सुनते रहे हम गरज भीतर/ व उसकी हर धड़क/ कुछ हुए आतंकित/ अतः कुछ भीति!!"
मुक्तिबोध की शब्दावली में 'टीले' हमारे देश के ऐसे सामान्य लोगों का रूपक बनकर आते हैं जो मानो किसी दुष्ट शक्ति के धोखे अथवा जादू से बेजान हो गए पर अन्तर्मन में कहीं चेतना बची हुई है। यह मायावी शक्ति उनका इस्तेमाल करती है लेकिन उनके अंतर्द्वंद को पूरी तरह से ख़त्म नहीं कर पाती। 'चंबल की घाटी में' शीर्षक कविता के दो अंश इस प्रसंग में द्रष्टव्य हैं:
"मैं उस वाचाल टीले के आसपास/ उगी हुई ऊँची-ऊँची घास में छुपा हतश्वास/ पाता हूँ- पत्थरनुमा वह कोई मन/ पाषाणी नेत्रों में व्रण हैं व्रण.../ ख़ून बहाते से आँखों के घाव/ पावों में सचाई की किरकिरी/कसकती!!"
"परंतु घबराए भीतरी अणु-रेणु/ पूछते हैं अपने अखंड से सहसा-/ ओ मेरे पाषाण,/ ओ मेरे टीले/ आख़िर तू डाकू की कुरसी ही क्यों हुआ!!/ क्यों उसने तुझको ही छाँटा और चुन लिया/ तुझ पर ही आख़िर बैठ गया क्यों वह?"
कहना ना होगा कि सत्ता के फैलाए भ्रमों और प्रलोभनों का शिकार जनसमुदाय अपने सच्चे कवियों और बुद्धिजीवियों की उपेक्षा भी करता है लेकिन इस से कवि का लगाव उनके प्रति कम नहीं होता। वह उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से न देने की ताक़ीद करता है।
"पर निष्कर्ष-निर्झर-लहर-जल में/ काँपता था पूर्ण-मानव-चन्द्र/ भर उठी थीं पुतलियों में चंद्र-कनियाँ/ पी रहे थे उस समय हम चंद्र-जल-धारा / अतः थी भीति भी तो हो उठी मीठी/ गहन आतंक हम को बुलाता-सा था!!/ विचारों की शिराओं से/ स्वयं उद्देश्य संवेदन (कमल के रक्त-सा) अकुला/हृदय में रक्त-कमल विकास करता था/ गहन परिवर्तनों के लक्ष्य का/ मन का जगत का विश्व का/ मानव प्रदेशों का सतत/ सुकुमार अनुसंधान-पथ हमको दिखाता जाएगा/ सम्मोह का दीपक/ विवेकी अनुभवों के हाथ में जो किरण-तत्पर है/ यह हमें विश्वास था।"
जल में वाचक का जो प्रतिबिंब पड़ता है वह उसे पूरे चाँद जैसा पूर्ण मानव जान पड़ता है। यहाँ तक की उस 'चंद्र' की किरनें उसकी आँखों की पुतलियों में भर जाती हैं। दूसरे शब्दों में, उसकी अपनी ही पूर्णता की प्राप्ति की प्रक्रिया में रत छवि उस की पुतलियों में पड़़ती है और यहाँ से एक विलक्षण सिलसिला शुरू होता है। पुतलियों में दृश्यमान छवि केफिर पानी में प्रतिबिम्बित होती है तो उस प्रतिबिंब की पुतलियों में भी वह छवि मौजूद है। यह प्रक्रिया निरंतर दोहराई जा रही है। इस प्रकार सत्य के झरने के पानी में उभरने वाली, भविष्य की पूर्णताप्राप्त छवि और उस सत्य को ग्रहण करने की कोशिश में लगे वर्तमान वाचक के बीच आँखों के माध्यम से तीव्र अंतःक्रिया होती है। प्रतिबिंबों के आदान-प्रदान के हर दौर के बाद वाचक की आंतरिक गहनता विकसित होती है और उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई बढ़ती है। आख़िरकार, इस प्रक्रिया में वह क्षण आ जाता है जब सत्य से हुआ शुरुआती परिचय गुणात्मक रूप से विकसित उपलब्धि में बदलता है। देखें:
"लहर जल पी कर/ लगा कुछ यों के कंधों पर/ स्वयं के चल रहे हम स्वयं/ यों ऊँचे उठे तो देखते क्या हैं/ कि सारा विश्व-दृश्य बदल गया/ या अंतरात्मा ही बदलती जा रही/ बदली हुई उस अंतरात्मा का/ अरे वह नव-विवाहित भाव-संवेदन/ कि गहरी वेदना का संवहन -दायित्व/ हमको ले चला निष्कर्ष-पथ पर और/ लघु व्यक्तित्व के भीतर/ लहरते क्षीण पोखर में/ विराजित हो गया था सूर्य मुख-मंडल/ विचारों के चरण में/ संचरण में/ आचरण और विचरण में/ रहन तेजस व ओजस/ और ऊर्जा है/ हमेशा ख़ून ताज़ा है।"
अपने ही अपूर्ण रूप (की पुतलियों) से पूर्ण रूप (की पुतलियों) के बीच तीव्र अंतःक्रिया के दौरान विकसित होने का यह अनुभव कुछ ऐसा था मानो अपने ही कंधे पर चढ़कर कोई खड़ा हो जाए, ऊँचा उठ जाए। बदले हुए प्रस्थानबिंदु से देखने पर दुनिया का नज़ारा ही बदल गया क्योंकि देखने वाली दृष्टि बदल गई। इस बदलाव में जो कुछ हाथ लगा उसमें सबसे प्रमुख था (जन-मन की पीड़ा से उपजी) गहरी वेदना को वहन करने का दायित्व। यह दायित्व वाचक को कर्म के पथ पर, विचारों के आचरण-पथ पर ले चलता है। इस प्रक्रिया में उसका व्यक्तित्व प्रतिफलित होता है। जैसे किसी छोटे से जलाशय में सूरज का प्रतिबिम्ब पड़़ने से वह जलाशय प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार नवीन सचाई के उद्घाटन और उसके अनुरूप रास्ते पर चलने से वाचक और उसके मित्र का व्यक्तित्व बदल जाता है। इस अनुभव से जो उत्साह और जोश पैदा हुआ उसके अनुभव ने भी अंतर्मन को नई ऊर्जा से भर दिया। इस अनुभव का विलक्षण काव्यांतरण और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव का दृश्य कविता की अंतिम पंक्तियों में देखें:
"वह ज्यामितिक रेखा/ नभस के पार जाती झलमलाती-सी दिखी/ उत्साह के तारुण्य में गणितिक हुआ अनुवाद अंतर का/ हमारे शून्य में ऋण राशि को निःसीम कर डाला/ चलत संसार के सिद्धांत हम पर क्रुद्ध थे/ ऋण-धन परे गणितिक पथों पर चल पड़े/ हम प्रथम विद्रोही ज़माने से लड़े/ नक्षत्र-पुष्पों से दमकने यह लगे/ उलझे हुए त्रैराषिकों के आँकड़े/ जब-जब कहा तब-तब ग्रहण लगने लगा/ इस सूर्य को, उस चंद्र को!!"
ग़ौरतलब है कि यहाँ उत्साह के यौवन का ज़िक्र हुआ है, यौवन के उत्साह का नहीं। आंतरिक शक्ति और क्षमता में गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। शून्य लगने से कोई भी राशि असीम हो सकती लेकिन यहां प्रसंग दूसरा है। आकाश को शून्य भी कहते हैं।अंतर का आकाश (शून्य) इस उपलब्धि के लिए अपने सहचर समेत पूरे परिवेश के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है, अपने को असीमित रूप से ऋणी पाता है। लेकिन सांसारिक चलन में जो सिद्धांत हैं, ख़ास तौर पर उनको चलाने वाले जो सिद्धांतकार हैं, वे ऐसे किसी भी अनुभव के प्रति सहज ही सचेत और दुर्भावनाग्रस्त हो जाते हैं। वे हर तरह से अपने क्रोध का प्रदर्शन करते हैं पर वाचक अब उनकी परवाह नहीं करता। हानि-लाभ ऋण-धन की चिंता से परे अब वह गुणात्मक बदलाव के, 'गणितिक' रास्ते पर चल पड़ा है। उसे पता है कि उसे दुनिया में नया बदलाव लाने की शुरुआत करनी है। वह जब ऐसा करता है तो सूरज, चाँद, सितारों के उलझे हुए समीकरण सुलझने लगते हैं, यानी समाज को शक्ति, ऊर्जा और जीवन देने वाली शक्तियाँ व्यवस्थित होती हैं। लेकिन जब वह इस बात को कहता है तब 'इस-उस सूर्य-चंद्र' को यानी बने हुए तथाकथित सूरज-चाँदों को तकलीफ़ होती। इस कविता समेत मुक्तिबोध की तमाम कविताएँ ही वह वक्तव्य हैं जिनसे इस समाज के बने हुए तथाकथित सूरज, चाँद, सितारों को तकलीफ़ होती है। बदले में वे मुक्तिबोध जैसे कवियों से मुक़ाबला करते हैं, उनके जीवन में अवहेलना और तिरस्कार से और मृत्यु के बाद भ्रष्ट व्याख्या और अनर्थकारी निष्कर्षों से। बहरहाल, ख़ुद मुक्तिबोध ऐसी कोशिशों के बारे में और क्या सोचते थे यह उनकी 'भूमिका' शीर्षक कविता के इस अंश से बेहतर पता चलता है:
"अगर मेरी कविताएँ पसंद नहीं/ उन्हें जला दो,/ अगर उसका लोहा पसंद नहीं,/ उसे गला दो,/ अगर उसकी आग बुरी लगती है/ दबा डालो,/ इस तरह बला टालो!!/ लेकिन याद रखो/ वह लोहा खेतों में तीख़ा तलवारों का जंगल बन सकेगा/ मेरे नाम से नहीं, किसी और नाम से सही,/ और वह आग बार-बार चूल्हे में सपनों-सी जागेगी/ सिगड़ी में ख़यालों-सी भड़केगी, दिल में दमकेगी/ मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही/ लेकिन मैं वहाँ रहूँगा,/ तुम्हारे सपनों में आऊँगा,/ सताऊँगा/ खिलखिलाऊँगा/ खड़ा रहूँगा/ तुम्हारी छाती पर अड़ा रहूँगा।"
अंतिम बात यह कि मुक्तिबोध की काव्य-भाषा के प्रवाह और सौष्ठव के बारे में भी बहुत सी बातें कही जाती हैं। यहाँ तक कहा गया है कि उसकी कोई परंपरा नहीं है क्योंकि उसकी जड़ें संस्कृत-काव्य में नहीं हैं। मुक्तिबोध की भाषा की जड़ें खड़ी बोली की परंपरा में हैं। इस लेख में हमने दूसरी कविताओं के अंशों के साथ "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" को क्रमशः पूरा उद्धृत किया है ताकि पाठक ख़ुद फ़ैसला कर सकें कि मुक्तिबोध की काव्यरचना खड़ी बोली हिंदी के स्वभाव के अनुरूप है, अथवा नहीं। इस कविता को लयबद्ध ढंग से पढ़ने पर भाषा के रचाव का सुख मिलता है, अथवा नहीं।

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