पिता
ज्ञानरंजन की कहानी "पिता"
सामंती समाज की आधारभूत इकाई संयुक्त परिवार के मुखिया की भूमिका निभाने के लिए बने पिता काल के प्रवाह में एक ऐसे परिवार में जा पड़े हैं, जिसका हर सदस्य उनकी भूमिका को ख़ारिज़ करने पर तुला हुआ है। अपने बच्चों से उनका सबसे कठोर मतभेद व्यक्तिगत सुख की अवधारणा को लेकर होता है। पुरानी ग्रामव्यवस्था से उत्पन्न सामुदायिक जीवन शैली में लोगों के सुख-दुख के प्रति जितना गहरा सरोकार था, उससे कहीं अधिक, सुख के व्यक्तिगत होने पर आपत्ति थी। निजी सुख की मांग किसी विद्रोह से कम न थी जिसे अनुकूल परिस्थिति में बलपूर्वक दबा दिया जाता था। लेकिन यहां परिस्थिति पूरी तरह प्रतिकूल है।
परिवार का हर सदस्य पिता पर सामान्य सुविधाओं को अपना लेने के लिए ज़ोर डालता है। कोई उन्हें बाथरूम में चलकर नए शॉवर के नीचे नहाने के लिए कहता है, कोई घर में, पंखे में सोने के लिए, तो कोई अच्छे दर्जी से महंगा सूट सिलवाने के लिए। बहरहाल, विपरीत परिस्थितियों में भी पिता ने हथियार नहीं डाला है। वे ख़म ठोंककर अकेले ही धारा के विरुद्ध खड़े हैं। सौदा-सुलफ में एक-एक पैसे की कंजूसी करने के अलावा वे घर के बाहर चोर की आहट लेते हुए गर्मी की रातें बिताते हैं। रात में पेड़ से गिरने वाले आमों की आहट के सहारे अंधेरे में ही उन्हें बीनकर रख देते हैं। भूलकर भी शॉवर या वाशबेसिन का इस्तेमाल नहीं करते। बाहर नल पर ही कुल्लास्नान कर लेते हैं। उनका एक नौकरी पेशा बेटा जब अपनी बहन की पढ़ाई के लिए ₹50 महीना भेजने लगता है तो 2 वर्ष बाद उसे उसके नाम की पासबुक थमाते हैं जिसमें 12 सौ रुपए जमा हैं। केवल रामायण और गीता पढ़कर उन्होंने जीवन काट दिया है। यह एक हारी हुई लड़ाई है, इसके बावजूद वे इसे दुगुने उत्साह से लड़ते हैं। उनका यही संघर्ष उनके प्रति सहानुभूति जगाता है। वे ठीक-ठीक नहीं जानते कि उनके समय ने उन्हें छोड़ दिया है, इसलिए वे अपने समय को नहीं छोड़ते ।
इस कहानी का दूसरा पक्ष यानी नैरेटर पुत्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं। पिता के पुरातनपंथ का आलोचक होने भर से उसे आधुनिक मान लेना ग़लत होगा। पिता के लिए तो व्यक्तिगत सुख का विचार किसी पराई दुनिया से आई हुई चुनौती है, लेकिन पुत्र के लिए वह अपने क्षुद्र मन्तव्यों को पूरा करने के साधन से अधिक कुछ नहीं, जिस पर कभी पिता के कष्टों से दुखी होने तो कभी उनके बुढ़ापे को नकारने के पाखंडी आग्रह का पर्दा पड़ा है।
वह ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के नायक जैसा ही है, ढुलमुल और अस्थिर, बेपेंदी का लोटा। उसे अपने कमरे का पंखा पुराना लगता है, और इसी साल खरीदे नए पैडस्टल की याद आती है जो आंगन में दादी-मां के लिए लगता है। फिर उसे तेज चलते बिजली के मीटर की याद आती है, फिर पैसे खर्च होने की। लेकिन वह अपने को भरोसा दिलाता है कि उसकी परेशानी का सबब पिता का कष्ट है, अपनी सुविधा नहीं-------"पैसे खर्च हो रहे हैं, लेकिन पिता की रात कष्ट में ही है।" अंत में उसे इस स्थिति पर "रोष"आता है----" हमें क्या, भोगें कष्ट"। वही युवक बहन के लिए भेजे 1200 सौ रुपए इकट्ठा पाकर खुश हो जाता है।
कोई आश्चर्य नहीं कि सतही जीवन के आग्रही ऐसे पुत्रों पर पिता का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। ऐसे युवा आजीवन पिता से व्यावहारिक होने की मांग करते हुए क्रुद्ध प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते रहेंगे, लेकिन उनके जीवनमूल्यों के मुकाबले कभी कोई दमदार रवैया नहीं अपना सकेंगे, क्योंकि छोटे-मोटे लोभ-लालच के अलावा, जो उन्हें कमजोर ही करते हैं, उनके पास दरअसल कोई विकल्प है ही नहीं। सच तो यह है कि सैद्धांतिक स्तर पर वे खुद भी इन्हीं मूल्यों के सामने समर्पण कर देते हैं।
हमारे नैरेटर की हालत देखिए----"वह विषाद ग्रस्त हुआ और अनुभव करने लगा, हमारे समाज में बड़े-बूढ़े लोग जैसे बहू-बेटियों के निजी जीवन को स्वच्छंद रहने देने के लिए अपना अधिकांश समय बाहर व्यतीत किया करते थे, क्या पिता ने भी वैसा ही करना तो नहीं शुरू कर दिया? उसे पिता के बूढ़ेपन का ख़याल आने पर सिहरन हुई। फिर उसने दृढ़ता से सोचा, पिता अभी बूढ़े नहीं हुए हैं।"
इस चिंतन प्रक्रिया का खोखलापन और इसकी निस्सारता पिता की वृद्धावस्था से इसके इंकार में प्रकट होती है। स्पष्ट है कि यह नौजवान सामुदायिक जीवनमूल्यों का समर्थन ही नहीं करता बल्कि उनका आदर्शीकरण भी करता है, और इसीलिए पिता का कभी सामना नहीं कर पाता।आधुनिक जीवन की ललक और पुराने मूल्यों के के बीच त्रिशंकु बना यही नौजवान ज्ञानरंजन की कहानियों का मुख्य पात्र है।
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