मुक्तिबोध का शिल्प

                                                       ------------ कृष्णमोहन

मुक्तिबोध के लगभग सभी आलोचकों ने  उनके काव्य शिल्प के अनूठेपन के साथ साथ  उसकी शक्तिशाली व्यंजना को स्वीकार किया है। हिंदी की जो काव्यपरंपरा उन्हें विरासत में मिली थी उसमें उनकी शैली का कोई उदाहरण नहीं मिलता। कामायनी की व्याख्या उन्होंने फंतासी के रूप में की थी, लेकिन उसके पीछे उनकी मान्यता थी की हर रचना फैंटेसी होती है। फिर भी मुक्तिबोध का रचनाकर्म इस मामले में दूसरे सभी कवियों से भिन्न है  कि वे सचेत रूप से फैंटेसी को अपनाते और उसका प्रयोग करते हैं, जबकि दूसरे कवियों के काव्य जगत में उनके अनजाने फैंटेसी का प्रवेश होता है, और उससे परोक्ष आशयों का सिलसिला बन जाता है। बहरहाल, अगर सचमुच मुक्तिबोध इस परंपरा के पहले ही कवि होते को इतनी प्रौढ़ और सशक्त व्यंजना संभव नहीं थी। सौभाग्य से हमारी खड़ी बोली कि परम्परा में आधुनिक हिंदी के पीछे उर्दू की समृद्ध विरासत थी, जिसे 19वीं सदी तक हिंदी ही कहा जाता था। इस काव्यपरंपरा में रूपक का वही महत्व था जो आधुनिक फैंटेसी में प्रतीक का।

मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता है, 'उस दिन'। इस कविता का आरंभिक अंश देखें:

"जिंदगी की कोख में जन्मा
नया इस्पात
दिल के ख़ून में रँगकर,
उपेक्षित काल-पीड़ित सत्य के घर में।
सुना तुमने!!"

स्पष्ट है कि इस अंश में आये 'ज़िंदगी की कोख', 'नया इस्पात' और 'उपेक्षित काल-पीड़ित सत्य' ऐसे रूपक हैं जो जीवन की किन्ही परिस्थितियों में होने वाले किसी नवीन घटनाक्रम की सूचना देने के लिए आए हैं। खड़ी बोली की काव्य-परंपरा में रूपक की भूमिका पर्याप्त परिचित और स्वीकृत है। ग़ालिब का एक शेर देखें:

दामे हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक

{प्रत्येक लहर के जाल में मगरमच्छों के सैकड़ों खुले हुए जबड़ों का घेरा है। देखना है कि (स्वाति नक्षत्र की) बूँद के मोती बनने तक उस पर क्या गुजरती है।}

ज़ाहिर है कि यहाँ लहर, जाल, मगरमच्छ के जबड़े, बूँद और मोती सब प्रतीकों के रूप में आए हैं। आधुनिक युग तक आते-आते उर्दू में रूपकों की व्यवस्था इतनी लचीली हो गई थी कि वह प्रतीक की सीमा को छूने लगी थी। दोनों का मिलन बिंदु लाक्षणिकता थी जिसमें एक सीमा के बाद मुख्यार्थ बाधित हो जाता है और लक्ष्यार्थ के लिए जगह ख़ाली कर देता है। ग़ालिब अपने समय में व्यक्ति की स्थिति और उसके भविष्य को लेकर चिंतित हैं, न कि मोती को लेकर।

मुक्तिबोध की कविता के शिल्प में रूपक की केंद्रीय भूमिका से पता चलता है कि  उनकी काव्य-शैली की जड़ें भारतीय काव्य-परंपरा में गहराई तक मौजूद हैं। हाँ, फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में जिस हिंदी की दाग़-बेल पड़ी थी उसमें इस परंपरा से बचने की भरसक कोशिश ज़रूर की गई और अंग्रेज़ी काव्य की तर्ज पर इतिवृत्तात्मक वर्णनों को तरजीह दी गई। मुक्तिबोध ने अपनी परंपरा का पुनः आविष्कार किया और आधुनिक संस्कार भी। उसी औपनिवेशिक ट्रेनिंग का असर है कि मुक्तिबोध के अधिकांश आलोचकों ने उनकी काव्यभाषा पर अस्पष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाया है। अगर उनसे पूछा जाए कि किस शब्द या वाक्य का अर्थ उन्हें समझ में नहीं आया तो बता पाना कठिन होगा। दरअसल, यह भाषा नहीं, आत्मगत और वस्तुगत भावों का उसमें निहित संश्लिष्ट रूप है जो अनभ्यस्त और अकर्मण्य दिमाग़ों को कविता के सामने हथियार डालने और उसकी मनमानी व्याख्या करने के लिए बाध्य कर देता है। ग़ालिब  के सामने भी ये नौबत आई थी:

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मेरे अशआर में मानी न सही

बहरहाल, मुक्तिबोध की कविता 'उस दिन' की तरफ़ लौटते हैं और देखते हैं कि उसकी आरंभिक पंक्तियों में आए रूपकों का आशय क्या है। कविता का दूसरा अंश देखें:

तुम्हारे शब्द, मेरे शब्द
मानव-देह धारण कर,
भटककर, घूमफिरकर, सब तज़ुर्बे ले
उसी बरामदे में आ पहुँचते हैं,
उपेक्षित काल-पीड़ित सत्य के घर में।
अपेक्षापूर्ण स्पंदनशील नीरवता
सघन है, किंतु
अनदीखे अँधेरे एक कमरे से
तरंगित स्वर-लहर मीठी अनल-पंखी,
हृदय-खोले गहनअनुरोध करती-सी। अ
अचानक, फिर उसी तम-श्याम कमरे से
उठी आवाज़---
इस्पात!!
निज के तडिनमय परमाणुओं के वायलिन-स्वर पर
अनेकों स्वप्न-छवियों को जगाता है;
यही क्यों... ख़ुद-ब-ख़ुद,
              पूरा भरा पिस्तौल भी बनता
तुम्हें क्या चाहिए पिस्तौल या वायलिन!!"

ग़ौर करें कि शब्दों का भी मानवीय जीवन है और उनके बीच जो राग बजता है वह अनल-पंखी है। यही अग्निमय स्वर वाला अनल पक्षी कबीर के यहां भी है:

मन उनमन उस  अंड ज्यूँ अनलिं अकासा जोइ

और ग़ालिब के यहाँ भी:

ढूँडे है उस मुग़न्नि-ए-आतशनफ़स को जी
जिसकी सदा हो जल्वा-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे

ज़िंदगी की कोख से पैदा हुआ यह इस्पात नया है। इससे बने हुए वायलिन का स्वर मीठा भी है और दाहक भी। यही आगे चलकर पिस्तौल भी बनता है लेकिन दोनों में से एक का चुनाव मुश्किल है,भ्रामक है। इस प्रश्न को सुनकर श्रोता सहमकर आपस में बुदबुदाते रह जाते हैं, 'हमें क्या चाहिए पिस्तौल या वायलिन'। इसके बाद कविता में 'काल-पीड़ित सत्य' प्रकट होता है जिसके प्रश्न मानो फासिज़्म के दौर में सक्रिय बुद्धिजीवियों ही को संबोधित हैं:

"इतने में
अँधेरे भीतरी घर से
निकलकर काल-पीड़ित सत्य (ऊँचा क़द,
जमा कर नाक पर टूटा हुआ चश्मा,
दिखा अख़बार) कहता है
सुना तुमने!!
धधकती जा रही है ग्रन्थशाला भी
हमारे पर्सिपोलिस की!!
कहां फ्रॉमरोज़ (पंडितराज)
 केटायून (कवयित्री)
कहाँ बहराम (संपादक)
कहाँ रुस्तम
उन्होंने सिर्फ़ नालिश की
अरे रे, सिर्फ़ नालिश की
अँधेरी उस अदालत में
जहाँ मुंशी व मुंसिफ़ पी रहे थे
लुटेरे के अर्दली के साथ रम, शैंपेन, व्हिस्की--जब
उँडेले जा रहे थे ख़ूब कैरोसीन के पीपे
लगाई जा रही थी सींक माचिस की
कहाँ थे वे
कहाँ थे तुम
कि जब दस मंज़िलों दस गुम्बदों वाली
सुलगती जा रही थी लायब्रेरी पर्सिपोलिस की
हमारे गहन जीवन-ज्ञान
मानव मूल्य के उस एक्रोपोलिस की!!"

मुक्तिबोध यहां तक्षशिला और नालंदा का ज़िक्र भी कर सकते थे लेकिन तब मानव-मूल्यों की सार्वजनीनता और उनके शत्रुओं की सार्वभौमिकता का वैसा रेखांकन शायद न हो पाता। इसलिए उन्होंने प्राचीन काल में यूनानी विजेताओं के हाथों ध्वस्त हुए पर्सिपोलिस की लाइब्रेरी का जिक्र किया। नई चेतना पुराने अंतर्विरोधों को हल करती है। मुक्तिबोध का नया इस्पात इसीलिए पिस्तौल और वायलिन दोनों को मनुष्य के लिए सुलभ कराता है। कविता में आगे साम्राज्यवाद की नई समझ प्रकट होती है:

क्षितिज पर पोत डामर जब
गुलाबों, सूर्यमुखियों, परिजातों पर
छिड़ककर स्याह गाढ़ा कोलतारी द्रव
हमीं में से विदेशी-सा
हमारे बीच का ही एक
नव-साम्राज्यवादी.....
लोभ के आवेश में आकर
उजाड़े जा रहा है ज़िंदगी की बस्तियाँ पददलित मानव-मूल्य
हैं आक्रांत आत्माएँ
तुम्हें क्या चाहिए
पिस्तौल या वायलिन!!"

एक बार फिर इस सवाल के सामने उपस्थित लोग सहमकर बुदबुदाते हैं, 'हमें क्या चाहिए पिस्तौल या वायलिन'। ध्यान रहे कि अब तक कहीं पिस्तौल का पक्ष नहीं लिया गया है। स्वर वायलिन ही के गूँज रहे हैं, बस उसी धातु की एक अन्य अवस्था के रूप में पिस्तौल का विकल्प प्रस्तुत हुआ है। दूसरी बार यह प्रश्न सुनने के बाद भी जब लोग कोई उत्तर नहीं दे पाते तब वह 'काल-पीड़ित सत्य' हँस पड़ता है, और लोगों की वास्तविक समस्या 'सजगता और समर्पण' यानी अपना पक्ष चुनने और उसके लिए सर्वस्व दाँव पर लगाने की क्षमता के अभाव का उल्लेख करता है। यही निर्णायक बात है, हिंसा या अहिंसा नहीं।

"ठठाकर हँस पड़ा ठठरीनुमा वह काल-पीड़ित सत्य
उसके गाल की ऊँची उठी हड्डी
नुकीली नाक का ऊँचा कगारी पुल
अनोखी, तेज़, चमकीली निगाहों में भरी ख़ूबी
भयानक थी, भयानक थी;
कि इतने में, वही तो कह पड़ा----
'मूर्खो, तुम्हारे हाथ में दुर्भाग्य या सौभाग्य से पिस्तौल या वायलिन….
अथवा अन्य कोई अस्त्र आ भी जाय,
वह छूँछा खिलौना ही रहेगा, क्योंकि
तुममें है कहाँ जनगुण...
सजग व्यक्तित्व ही का वह
समर्पणशील भोला-भाव
जो इस जिंदगी की धमन-भट्टी में परीक्षित हो बने इस्पात!!"

यहाँ इस्पात शब्द के प्रयोग पर ध्यान दें। धातुएँ और भी हैं, लोहे से अधिक क़ीमती, नफ़ीस और उपयोगी, लेकिन लोहे में जो ध्वनियाँ और अनुगूँजें हैं, किसी और में नहीं। सभ्यता की यात्रा में लोहा बिल्कुल शुरू से मानव का सहयात्री रहा है। इस्पात उसी का परिष्कृत रूप है। वह मनुष्य की ऐतिहासिक स्मृति का अंग बन गया है, इसलिए अपने साथ जय-पराजय, घात-प्रतिघात और बंधन-मुक्ति की अनेक अर्थच्छायाओं को लेकर आता है। यहाँ केदारनाथ अग्रवाल की 'मैंने उसको जब-जब देखा लोहा देखा' या धूमिल की 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो' जैसी कविताएँ याद आ सकती हैं जिनमें लोहा स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले विषय की तरह आता है और सशक्त व्यंजना करता है।

स्वतंत्र काव्य-विषय के रूप में 'लोहा' की हैसियत 'आग' जैसी है जिस पर क़ाबू पाकर मनुष्य ने सही मायने में प्रकृति की विध्वंसक शक्ति का सर्जनात्मक उपयोग करना सीखा था। झाड़-झंखाड़ रूपी अज्ञान को जला देने के कारण भारतीय काव्य-परंपरा में अग्नि को ज्ञान का प्रतीक माना गया है। कबीर और ग़ालिब के यहाँ 'अग्नि' का सर्वाधिक रचनात्मक प्रयोग मिलता है, लेकिन फ़िलहाल हम अपनी बात मुक्तिबोध पर केंद्रित करेंगे। उपर्युक्त कविता में हमने वायलिन की 'अग्नि-पंखी' स्वर-लहरी को देखा था। 'एक अंतर्यात्रा' शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियों में इसकी भूमिका देखें:

"अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य सूखे डंठल
सूखी टहनी, रूखी डालें
घूमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान"

प्रसंग, जलाने के लिए सूखी लकड़ियां बीनने का है। कविता के वाचक को माँ के साथ टोकरी उठा कर चलते हुए इस में गहरे, सभ्यतागत आशयों का आभास मिलता है। सुखी टहनियों की टोकरी से आता किसी पक्षी का स्वर उसे सुनाई पड़ता है। माँ से इसके बारे में पूछने पर वह जो जवाब देती है उससे 'अनल-पंखी' की याद ताज़ा होती है:

"सूखी टहनी की अग्नि-क्षमता
ही गाती है पक्षी-स्वर में
यह बन्द आग है खुलने को।"

यह सुनकर  वाचक को प्राचीन काल से चले आ रही प्रतीकों , रूपकों और उपमाओं की नवोन्मेषकारी शक्ति का भान होता है। उसे पता चलता है कि कैसे वे उसकी अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार भविष्य तक कर देते हैं।  शिल्प और काव्य के द्वंद्वात्मक रिश्ते के चित्रण की ऐंद्रियता इसे अतिरिक्त मूल्य प्रदान करती है:

"मैं पाता हूँ
कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
व अति नवीन
स्वर में पुकारती है मुझको
टोकरी-विवर के भीतर से।
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
कोमल लय में।
मैं साश्रुनयन , रोमांचित तन, प्रकाशमय मन।
उपमाएँ उद्घाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
एक-टक देखतीं मुझको-----
प्रियतर मुसकातीं....
मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
वे जगत-समीक्षा करते-से
मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
आगामी के।"

इस्पात और अग्नि, दोनों के प्रसंग में कवि का अपने भाव की सम्प्रेषणीयता के प्रति आत्मविश्वास उल्लेखनीय है। उसे इन दोनों तत्वों की भूमिका या गुण-कार्य-प्रणाली के बारे में कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं महसूस होती। उसे पता है कि उसके वांछित आशय इन ऐतिहासिक पदार्थ-प्रतीकों पर अपनी छाप भी छोड़ेगा और इनके अनंत आशयों और स्मृतियों से जुड़कर समृद्ध भी होगा।

बहरहाल, ये दोनों प्रतीक परम्परागत थे, जिनका प्रयोग चुनौतीपूर्ण तो था, लेकिन किसी नवीन अर्थ में इनका व्यवहार नहीं किया जा सकता। मुक्तिबोध के कुछ नए भाषिक प्रयोगों को देखने के लिए उनकी कविता 'मुझे नहीं मालूम' से रू-ब-रू होते हैं, जिसमें सत्य, गणित, नक्षत्र, ग्रह, नियम और अपवाद जैसे जाने-पहचाने शब्द-प्रत्ययों को कवि ने बिलकुल नए और दूरगामी अभिप्रायों से संयुक्त कर दिया है। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:

"मुझे नहीं मालूम
सही हूँ या ग़लत हूँ या और कुछ,
सत्य हूँ कि मात्र मैं निवेदन-सौंदर्य
धरित्री व नक्षत्र
तारागण
रखते हैं निज-निज व्यक्तित्व
रखते हैं चुम्बकीय-शक्ति, पर
स्वयं के अनुसार
गुरुत्व-आकर्षण-शक्ति का उपयोग
करने में असमर्थ।"

इस कविता को समझने के लिए परिवर्तन और यथास्थिति तथा नवोन्मेष और जड़ता के बीच समाज मे हर स्तर पर सतत चलने वाली जद्दोजहद का ध्यान रखना आवश्यक है। यथास्थिति के पास एक बना-बनाया सत्य होता है जिसे हम प्रदत्त और सूत्रबद्ध सत्य कह सकते हैं। नई राहों की खोज बिना उन 'सत्यों' से भटके नहीं की जा सकती। विकास के क्रम में समाज मे नई अकुलाहटें पैदा होती हैं जिन्हें समझने में युगीन चेतना सफल नहीं होती।

इसके बावजूद सच्चा रचनाकार ऐसे जीवन-संवेदनों को अपने सामाजिक और भाषिक अनुभव के दायरे में ग्रहण करने और अपनी रचना में उन्हें व्यक्त करने में सफल होता है। आलोचक, विचारक और इतिहासकार की भूमिका इसके बाद शुरू होती है, और नई सचाई को समझने और  सूत्रबद्ध करने की प्रक्रिया चलती है। यह प्रक्रिया कई बार बहुत अधिक समय लेती है। इस बीच रचनाकार अपनी शक्ति के बल पर चूँकि 'अड़ा रहता है' (मुक्तिबोध के शब्द), इसलिए उसकी नई अंतर्वस्तु का उचित मूल्यांकन किये बिना बहुत से आलोचक उसकी भाषा-शैली यानी 'निवेदन-सौंदर्य' की सराहना-स्वीकृति का आसान रास्ता अपनाते हैं। इस कविता की शुरूआती पंक्तियों में कवि ने इसी विडंबना को व्यक्त किया है। आगे चलकर वह सभी मनुष्यों की कल्पना गणितीय नियमों से बँधे, एक ही ढर्रे पर चलने को बाध्य, आकाश के नक्षत्रों के रूप में करता है। यह बन्धन लागू तो उस पर भी है, लेकिन वह इससे छुटकारे का उपाय भी खोजता है:

"वैसा मैं बुद्धिमान
अविरत
यंत्रबद्ध कारणों से सत्य हूँ।
मेरी नहीं कोई कहीं कोशिशें,
न कोई निज-तड़ित-शक्ति-वेदना।
कोई किसी अदृश्य अन्य द्वारा नियोजित
गतियों का गणित हूँ।
प्रवृत्ति-सत्य से सच मैं
ग़लतियाँ करने से डरता,
मैं भटक जाने से भयभीत।
यंत्रबद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागने में असमर्थ
अयास, अबोध निरा सच मैं।"

यहां प्रयुक्त  'मैं' के साथ लगे बुद्धिमान विशेषण पर ग़ौर करें। अगर यहाँ 'मैं' कवि अथवा काव्यनायक के लिए आया होता तो इसकी संभावना न के बराबर थी, क्योंकि ख़ुद को बुद्धिमान बताना हास्यास्पद होता। दरअसल,  मुक्तिबोध की कविता में चल रहे नाटक में अनेक पात्र 'मैं शैली' का प्रयोग करते हुए आते हैं। इस बात को न समझने और प्रायः 'मैं' को स्वयं कवि से समीकृत कर लेने के कारण अनेक आलोचकों ने अर्थ का अनर्थ किया है। यहां 'मैं' बुद्धिमान लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। 'बुद्धिमान' भी हल्के व्यंग्य से कहा जा रहा है। यानी ऐसे लोग जो यथास्थितिवाद का सुरक्षित रास्ता अपनाते हैं, परिवर्तन का जोखिम नहीं उठाते। ये लोग सत्य तो हैं लेकिन 'यंत्रबद्ध' कारणों से। इसमें इनका अपना कोई योगदान नहीं है। इसे ही 'प्रवृत्ति-सत्य',यानी सत्य की प्रवृत्ति नहीं, प्रवृत्ति का सत्य कहा गया है। प्रवृत्ति है, अपने से बाहर किसी अदृश्य अन्य द्वारा प्रदत्त गतिविज्ञान से संचालित होना। यहां 'अदृश्य' शब्द प्रत्यक्षतः तो पारलौकिक सत्ता की तरफ़ संकेत करता है, लेकिन इस शब्द की लाक्षणिकता के सहारे भारतीय राष्ट्र का रूपक भी कविता में प्रवेश करता है। भारत के बाहर की 'अन्य' शक्तियां जो प्रत्यक्ष तौर पर हमें संचालित करती नहीं दीखतीं। आधुनिकता का अपना मार्ग हमने नहीं बनाया, बल्कि उपनिवेशवादियों के हितों के अनुरूप बनाए गए रास्ते को अपनाया। संतुलन साधने और सामंजस्य क़ायम करने को बहुत बड़ा मूल्य मानकर हमने यह किया। कहने का आशय यह कि नवीन और युगानुरूप सत्य की खोज में हमने अपने को दांव पर नहीं लगाया, सीस उतारकर भुइँ पर नहीं धरा। परिणामस्वरुप हम  'निरे सच' बनकर रह गए, जिसमें कोई प्रयास न था, और जब प्रयास नहीं था तो बोध होने का प्रश्न ही कहां उठता है।

इस गतिविज्ञान को यहां 'गतियों का गणित' कहा गया है। दोनों का अर्थ एक है--- गति की  पद्धति के नियम। दूसरे शब्दों में, जीवन-पद्धति के नियम। कविता के राष्ट्रीय संदर्भ ग्रहण करने के कारण 'मैं' के रूप में वाचक का विडंबनात्मक समावेश भी 'बुद्धिमानों' में संभव होता है। इस प्रक्रिया में अंतिम पंक्ति तक आकर 'अबोध' और 'अयास' जैसे विशेषण वाचक की करुणा की आभा से दीप्त होकर कवि के महान व्यक्तित्व की याद दिलाने लगते हैं। बहरहाल, वाचक इन नियमों को तोड़ने की कोशिश करता है और प्रकृति से उसे समर्थन मिलता है।

"गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागना----
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश।
एक-धन-एक से
पुनः एक बनाने का यत्न है अविरत।
आती है पूर्व से एक नदी,
पश्चिम से सरित अन्य,
संगमित बनती है एक महानदी फिर।
सृष्टि न गणित के नियमों को मानती है   अनिवार्य।"

स्वयं के प्रति जागने को मुक्तिबोध ने एक नया शब्द दिया है, आत्मचेतस होना। जागने की क्रिया नित्य और निरंतर करनी होगी क्योंकि परिस्थितियां चौतरफ़ा विपरीत हैं। अपने प्रति सचेत और जाग्रत होने के बाद अपनी शक्तियों को बँधे-बँधाये ढर्रे पर प्रयोग करने की मजबूरी शायद न रहे। ध्यान दें कि ग्रह-नक्षत्रों के अपने ही घेरे में घूमने का उदाहरण वाचक ज़रूर देता है, लेकिन इसे ही स्वाभाविक स्थिति न मान लिया जाए, इसलिए गणित के नियमों के उल्लंघन (दो नदियों के मिलकर एक बनने) के एक प्राकृतिक उदाहरण से इसका खंडन भी कर देता है। आगे वह कहता है कि उसके सहचर ग्रह-पिंड अगर तनिक जोखिम उठाकर इधर-उधर भटक लेते तो कम से कम 'ग़लतियों का नक्शा ही बनता,' और 'अपाहिज पूर्णताएँ टूटतीं'।

ये दोनों वाक्यांश दो महत्वपूर्ण विचारों की सूचना देते हैं। यथास्थितिवाद की शक्तियां हमेशा विकल्प के अभाव का रोना रोती हैं। इस प्रकार अनिश्चित भविष्य की असुरक्षा का भय दिखाकर वे, लोगों के लीक से हटकर किए गए प्रयासों को निरर्थक बताती हैं। यहां मुक्तिबोध पहले यह विचार प्रस्तुत करते हैं कि यथास्थित को तोड़ने के लिए की गई भूलें और ग़लतियां भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। रातो-रात बने-बनाए विकल्प की मांग करना मक्कारी है। नए विकल्प की खोज में की गई ग़लतियां मूल्यवान है क्योंकि मैं इतना ज़रूर बताती हैं कि इस रास्ते से विकल्प नहीं मिल सकता। ध्यान रहे कि यहां स्वर आत्मालोचना का है। ये अपेक्षाएं अपने साथियों से हैं, शत्रुओं से ये की भी नहीं जा सकतीं। लेकिन अपने साथियों और सह्योद्धाओं ने भी शुद्धता और पूर्णता के अपने-अपने ताबूत बना लिए हैं। ये पूर्णताएँ 'अपाहिज' हैं। ये कुछ नया बना नहीं सकतीं,  दे नहीं सकतीं, क्योंकि वास्तविक नहीं हैं, न हो सकती हैं। पूर्णता का सिर्फ़ स्वप्न हो सकता है, यथार्थ में तो अपने अधूरेपन से जूझते रहने में ही मनुष्य की गरिमा है। आगे देखें:

"किन्तु हमारे यहाँ
सिंधुयात्रा वर्जित
अगम अथाह की।
हमें तो डर है कि
ख़तरा उठाया तो
मानसिक यंत्र-सी बनी हुई आत्मा,
आदतन बने हुए अद्यतन भाव-चित्र,
विचार-चरित्र ही,
टूट-फूट जायेंगे
फ्रेमें सब टूटेंगी व टंटा होगा निज से।
इसीलिए, सत्य हमारे हैं सतही
पहले से बनी हुई राहों पर घूमते हैं
यंत्र-बद्ध गति से।"

'अदृश्य' में झांकता हुआ देश का रूपक यहां आकर 'हमारे यहाँ' में दृश्य होता है। हमारे सत्यों का सतही होना भी बड़ी विडंबना है। इसी के चलते संतुलन साधना हमारे राष्ट्रीय जीवन का सबसे बड़ा मूल्य हो गया है, और मध्यस्थ यानी बिचौलिया होना सर्वाधिक निर्णायक स्थित जहां आप संतुलन बनाने और बिगाड़ने का खेल बख़ूबी खेल सकते हैं। किसी तरह का ख़तरा उठाना अपनी आत्मा को तोड़ने-फोड़ने के बराबर है क्योंकि आत्मा अपने जीवंतता और गतिशीलता खोकर अपने सीमित अनुभव-जगत के दायरे में क़ैद हो गई है। यह निराशाजनक स्थिति अंततः टूटती है जब कविता का वाचक जीवन के गणित के नियम के अपवाद ढूंढने निकलता है:

"मैं उनके नियमों को खोजता
नियमों के ढूँढ़ता हूँ अपवाद,
परंतु, अकस्मात
उपलब्ध होते हैं नियम अपवाद के।"

मुक्तिबोध जब किसी नई और विकसित अनुभूत की उपलब्धि की सूचना देते हैं तो उसे अचानक प्राप्त हुई बताते हैं। यह मात्रात्मक से गुणात्मक में बदलने के क्षण की आकस्मिकता का बयान है। यहां उपलब्धि वैकल्पिक रास्ते की हुई है। यथास्थिति की पोषक और परिवर्तनकामी प्रवृत्तियों में एक बड़ा फ़र्क़ होता है कि पहली प्रवृत्ति स्थापित गति-नियमों के अनौचित्य को स्वीकार करने, यहां तक कि इस पर आक्रोश व्यक्त करने को भी तत्पर रहती है, लेकिन इसके अपवादों के रूप में यत्र-तत्र कौंधती वैकल्पिक स्थितियों को वह यथासम्भव नकारती है। जबकि दूसरी प्रवृत्ति स्थापित नियमों का गहन अध्ययन करके उसमें पैदा होने वाले अंतरालों का पता लगाती है। इसी प्रक्रिया में एक अवस्था यह आती है जब ये नियमविरुद्ध स्थितियाँ ऐतिहासिक श्रृंखला की कड़ियों की तरह जुड़ जाती हैं। इसी को मुक्तिबोध अपवाद के नियम कहते हैं। एक बार इन नियमों के उपलब्ध हो जाने के बाद समस्त वाह्य जगत अभूतपूर्व सौंदर्य से भर उठता है जिसमें कर्ता भी विलुप्त हो जाता है, बस 'ज्ञान जागता है' और 'लालसा जगमगाती रहती है'।

समाप्त









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