जड़ता के आग्रह
विष्णु खरे की कविताओं का गद्य सादा है, लेकिन उसमें विचार की ऊष्मा का अभाव है। यह ऊष्मा मनुष्यता के हक़ में जूझने की प्रतिबद्धता से पैदा होती है। यहाँ हम उनकी कुछ प्रमुख कविताओं का इस संदर्भ में विश्लेषण करेंगे। पहले उनकी 'पाठान्तर' शीर्षक कविता लेते हैं। इसमें प्रकट तौर पर एक पीढ़ी के ज्ञान को दूसरी पीढ़ी को सौंपने की प्रक्रिया का बड़ा मानवीय रूप दिखाई पड़ता है। हर चीज़ के बारे में हर पीढ़ी अपने से बाद वाली को 'अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए' बताती है। ज़ाहिर है, हर पीढ़ी अपनी तरफ़ से जो कुछ जोड़ती है, वह उसकी अपनी ऐसी कल्पना होती है, जिसे वह 'कम-से-कम अविश्वसनीय' समझती है। ख़ास बात यह है कि वह चीज़ इसी तरह 'प्रामाणिक' होती जाती है। इस तरह सचाई का हर संस्करण 'उतना ही मौलिक और असली' होता है जितना कि कोई दूसरा। ग़ौरतलब है कि कवि के मुताबिक़ इसी प्रक्रिया को स्मृति और इतिहास के 'नितांत भ्रामक' नामों से पुकारते हैं। कविता कुछ इस प्रकार है: "उम्र ज़्यादा होती जाती है तो तुम्हारे आस-पास के नौजवान सोचते हैं कि तुम्हें वह सब मालूम होगा जो वे समझते हैं...