जड़ता के आग्रह








विष्णु खरे की कविताओं का गद्य सादा है, लेकिन उसमें विचार की ऊष्मा का अभाव है। यह ऊष्मा मनुष्यता के हक़ में जूझने की प्रतिबद्धता से पैदा होती है। यहाँ हम उनकी कुछ प्रमुख कविताओं का इस संदर्भ में विश्लेषण करेंगे। पहले उनकी 'पाठान्तर' शीर्षक कविता लेते हैं। इसमें प्रकट तौर पर एक पीढ़ी के ज्ञान को दूसरी पीढ़ी को सौंपने की प्रक्रिया का बड़ा मानवीय रूप दिखाई पड़ता है। हर चीज़ के बारे में हर पीढ़ी अपने से बाद वाली को 'अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए' बताती है। ज़ाहिर है, हर पीढ़ी अपनी तरफ़ से जो कुछ जोड़ती है, वह उसकी अपनी ऐसी कल्पना होती है, जिसे वह 'कम-से-कम अविश्वसनीय' समझती है। ख़ास बात यह है कि वह चीज़ इसी तरह 'प्रामाणिक' होती जाती है। इस तरह सचाई का हर संस्करण 'उतना ही मौलिक और असली' होता है जितना कि कोई दूसरा। ग़ौरतलब है कि कवि के मुताबिक़ इसी प्रक्रिया को स्मृति और इतिहास के 'नितांत भ्रामक' नामों से पुकारते हैं। कविता कुछ इस प्रकार है:


"उम्र ज़्यादा होती जाती है

तो तुम्हारे आस-पास के नौजवान सोचते हैं

कि तुम्हें वह सब मालूम होगा

जो वे समझते हैं कि उनके अपने बुज़ुर्गों को मालूम था

लेकिन जो उसे उन्हें बताते न थे

सो वे तुमसे उन चीज़ों के बारे में पूछते हैं

जिन्हें तुम ख़ुद कभी हिम्मत करके

लड़कपन में अपने बड़ों से पूछते थे

और तुम्हें कोई पूरा तसल्लीबख़्श जवाब मिलता न था

फिर भी उतनी व दूसरी सुनी सुनाई बहुत-सी बातें

प्रचलित रहती ही थीं

और अलग-अलग रूपांतरों में दुहराई जाकर

वे एक प्रामाणिकता हासिल कर लेती थीं

सो तुम भी उन कमउम्रों को कमोबेश वही बताते हो

अपनी तरफ से उसे कम-से-कम अविश्वसनीय बनाते हुए

    ×     ×      ×       ×

और अचानक तुम्हें अहसास होता है

कि जो तुमने उन्हें बताया उसे अपनी सचाई बनाते हुए

जब ये लोग अपने वक़्त अपने नौजवानों से मुख़ातिब होंगे

तो तुम-जैसों को हवाला बनाकर या न बनाकर

वही दुहरा रहे होंगे

जो तुम्हें अनिच्छा से बताया था तुम्हारे बुज़ुर्गों ने

अपने बड़ों से उतनी ही मुश्किलों से पूछ कर

लेकिन उस पर एक अस्पष्ट यक़ीन करके

और उसमें अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए--

इस तरह धीरे-धीरे हर वह चीज़ प्रामाणिक होती जाती है

और हर एक के पास अपना उसका एक संस्करण होता है

उतना ही मौलिक और असली

और इस तरह बनता जाता होगा वह

जिसे किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में

परम्परा स्मृति इतिहास आदि के

विचित्र किन्तु अपर्याप्त बल्कि कभी-कभी शायद नितांत भ्रामक

नामों से पुकारा जाता है"

             ( विष्णु खरे के 2008 में आये संग्रह 'पाठान्तर' से)


अब ज़रा देखें कि क्या सचमुच यह वही चीज़ है, जिसे हम स्मृति और इतिहास कहते हैं। इतिहास में भिन्न और विरोधी दृष्टिकोणों का होना कोई अवांछनीय बात नहीं है, लेकिन क्या हर दृष्टिकोण एक समान वैध और प्रामाणिक होता है। क्या शिकार और शिकारी दोनो का दृष्टिकोण समान रूप से असली और प्रामाणिक हो सकता है। अपनी नज़र में हर किसी को अपना पक्ष जायज लगता है, लेकिन अपनी नज़र अपने स्वार्थ से सीमित होती है। कवि को समाज ने  स्मृति के संरक्षण का कार्यभार दे रखा है। वह दूध का दूध और पानी का पानी न कर पाए तो न सही, लेकिन अगर वह 'दूध' और 'पानी' को एक ही नज़रिये से देखेगा तो कहना होगा कि वह समाज मे मौजूद स्वार्थों के टकराव को लेकर सचेत नहीं है। ऐसे में न्याय-अन्याय की कोई बहस फ़िजूल हो जाएगी, और सिद्धांत में यह दृष्टि कितनी भी मानवीय लगे, व्यवहार में 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की स्थिति को ही आमंत्रित करेगी।


कुछ लोग समझते हैं कि कवि बेचारा इतना कुछ अच्छा-अच्छा लिखता है, और उसकी किसी छोटी-मोटी चूक को पकड़ कर लोग उस पर पिल पड़ते हैं, जोकि ग़लत है। असल में, किसी भी रचना में मामूली क़िस्म की चूकों का छूट जाना अस्वाभाविक नहीं है, और उसे मुद्दा बनाना भी अनुचित है। लेकिन जहाँ मसला मामूली चूकों का न होकर निर्णायक दिशाओं का हो, जिसे शासक वर्ग के प्रचार के असर में या अपनी रुचि से ही कवि ने चुन लिया हो, तो वहाँ किसी प्रकार की लीपापोती से काम लेना साहित्य की भूमिका को ही नकारने जैसा हो जाएगा। कवि ने इस कविता के नाम को अपने संग्रह के नाम के लिए चुना है। इसका सीधा अर्थ है कि वह इस कविता को अपनी प्रतिनिधि कविता घोषित कर रहा है। इसलिए इस कविता की विचारधारा का परीक्षण आवश्यक है।


कविता की एक विशिष्ट भूमिका हमारी स्मृति को सँजोने की है। उसमें भी महत्वपूर्ण है उत्पीड़न और प्रतिरोध की स्मृति। शासकवर्ग की कोशिश होती है कि वह इसको झुठला दे, अफ़वाह क़रार दे दे। उसका समर्थक बौद्धिक वर्ग इसके पक्ष में नए-नए तर्क तलाश करता रहता है। इतिहास का मिथकीकरण इन बौद्धिकों की नवीनतम परियोजना है। तथ्य और कल्पना के घालमेल से ये एक ऐसे अतीत की रचना करते हैं, जिसमें दमित-वंचित तबक़े की स्मृति पर धुंध की नशीली परत चढ़ जाती है, और उसका दंश ग़ायब हो जाता है। तब उसके एक तबक़े को अपने एजेंडे का पिछलग्गू बनाना आसान होता है। इस परियोजना की पृष्ठभूमि के रूप में यह वैचारिकी आती है कि सबका अपना अपना दृष्टिकोण है और किसी एक दृष्टिकोण को सही मानने का अर्थ है दूसरे के नज़रिए का दमन कर देना। इसलिए, जैसे सभी मनुष्य समान होने चाहिए, उसी प्रकार उनके नज़रियों को भी समान रूप से वैध मानना चाहिए। इसी राह पर आगे बढ़ते-बढ़ते हम शासक वर्ग द्वारा थोपे गए 'उत्तर-सत्य' के युग में आ पहुँचे हैं। इस आरोपित युग की मान्यता है कि सच और झूठ कुछ नहीं है, जिस 'नैरेटिव' को ताक़तवर संचार माध्यमों के द्वारा बलपूर्वक लोगों के गले उतार दिया जाए, वही सत्य है। यह कविता इसी वैचारिकी से प्रेरित और पोषित है।


विष्णु खरे की इस विचारधारा को व्यवहारिक रूप प्रदान करने वाली एक कविता इसी संग्रह में है---'लगेंगे हर बरस मेले'। यह कविता इस बात का पुख़्ता सबूत है कि न्याय और अन्याय के बीच 'समदर्शिता' दिखाने वाला नज़रिया अनिवार्यतः अन्याय के पक्ष में होता है। पहले कविता देख लें, फिर इसका विश्लेषण करेंगे:


"इंदिरा गाँधी को मारने वाले शहीद हैं

1984 में सिखों को मारने वाले शहीद हैं


राजीव गाँधी को मारने वाले शहीद हैं

तमिल टाइगरों को मारने वाले शहीद हैं

श्रीलंकाई सैनिकों को मारने वाले शहीद हैं


गाँधी को मारने वाले शहीद हैं


यहूदियों और सोवियत रूसियों को मारने वाले जर्मन शहीद हैं


फलस्तीनियों को मारने वाले इस्राइली शहीद हैं

इस्राइलियों को मारने वाले फलस्तीनी शहीद हैं


अरबों को मारने वाले अमरीकी शहीद हैं

अमरीकियों को मारने वाले अरब शहीद हैं


विधर्मियों को मारने वाले हिन्दू शहीद हैं

काफ़िरों को मारने वाले मोमिन शहीद हैं


दलितों को मारने वाले सवर्ण शहीद हैं

आदिवासियों को मारने वाले शहराती शहीद हैं


पाकिस्तानियों को मारने वाले हिंदुस्तानी शहीद हैं

हिंदुस्तानियों को मारने वाले पाकिस्तानी शहीद हैं


चीनियों को मारने वाले भारतीय शहीद हैं

भारतीयों को मारने वाले चीनी शहीद हैं


हिंदुस्तानियों को मारने वाले अंग्रेज़ शहीद हैं


कश्मीरियों को मारने वाले ग़ैरकश्मीरी शहीद हैं

ग़ैरकश्मीरियों को मारने वाले कश्मीरी शहीद हैं


हिन्दीभाषी कामगारों को मारने वाले असमिया शहीद हैं


लोगों को मारने वाले पुलिसकर्मी शहीद हैं

पुलिसकर्मियों को मारने वाले लोग शहीद हैं


कालों को मारने वाले गोरे शहीद हैं

गोरों को मारने वाले काले शहीद हैं


शिया को मारने वाले सुन्नी शहीद हैं

सुन्नियों को मारने वाले शिया शहीद हैं


औरतों और बच्चों को मारने वाले मर्द शहीद हैं


कम्युनिस्टों को मारने वाले ग़ैरकम्युनिस्ट शहीद हैं


सबको मारने वाले सभी शहीद हैं

सभी को मारने वाले सब शहीद हैं"


यह कविता शहादत की अवधारणा में हुए परिवर्तन पर केंद्रित है। शहादत का दर्जा किसी को तब मिलता है जब किसी नेक उद्देश्य के लिए वह अपनी जान दे देता है। लेकिन कवि के मुताबिक़ अब किसी की जान लेने पर यह दर्जा मिलता है, अपनी जान देने पर नहीं। कवि का कुछ व्यंग्य के साथ कहना है कि अब ऐसे ही 'शहीदों' की चिताओं पर हर बरस मेले लगा करेंगे। कवि ने आम तौर पर दो 'परस्पर विरोधी' तबक़ों की जोड़ी बनाई है जो उसके मुताबिक़ एक दूसरे की जान लेते हैं, लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि एक ही पक्ष दूसरे के ख़ून का प्यासा होता है। तब जो पक्ष हत्यारा है उसे कवि ने 'शहीद' कहकर संबोधित कर दिया है। ऐसी पंक्तियाँ अकेली हैं, जबकि दोनो तरफ़ से 'शहीद' होने वालों का ज़िक्र प्रायः दो पंक्तियों में है।


दूसरी बात यह कि शहीद कहे जाने वाले हत्यारों की पहचान के लिए कवि ने लगभग हर कहीं सामान्यीकृत जातिवाचक संज्ञा का प्रयोग किया है। यानी ख़ुद 'मारने वाले' जिस पहचान का दावा करते हैं, कवि ने भी उसी पहचान को स्वीकार कर लिया है। मसलन हिन्दू-मुस्लिम (मोमिन), शिया-सुन्नी, पाकिस्तानी-हिंदुस्तानी, भारतीय-चीनी, लोग-पुलिसकर्मी और कश्मीरियों-ग़ैरकश्मीरियों के समीकरण पर ग़ौर करें। अगर भविष्य के किसी शोधार्थी ने हमारी सभ्यता के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए इस कविता को स्रोत बनाया तो वह इसी नतीजे पर पहुंचेगा कि ये सभी एक दूसरे को मारने में लगे रहते थे। 'पाठान्तर' नामक कविता के संदर्भ में हमने देखा था कि हर बुज़ुर्ग अपनी अगली पीढ़ी को अपने ज्ञात तथ्यों में कुछ जोड़कर बताता है, जो धीरे-धीरे प्रामाणिकता हासिल कर लेता है। इस कविता में विष्णु खरे उसी बुज़ुर्ग की भूमिका में हैं। लेकिन जाने किस बेख़ुदी में वे क़ातिलों को ठीक वही हैसियत और वैधता प्रदान करते जा रहे हैं, जो उनको चाहिए। मसलन, हिंदुओं के नाम पर 'विधर्मियों' को मारने वाले यही तो चाहते हैं कि उनके किये-धरे को हिंदू मात्र की करतूत मान ली जाए, और अगर यह साबित हो जाये कि मुसलमान भी यही कर रहे हैं तो कहना ही क्या।


एक ख़ास बात यह है कि परस्पर विरोधी शक्तियों का युग्म बनाते हुए कवि ने पूरी तरह से 'समदर्शिता' का रवैया अपनाया है, और दोनों पक्षों को एक ही तरह का 'शहीद' माना है। 'पाठान्तर' शीर्षक कविता पर विचार कहते हुए हमने जो कुछ कहा था उसे यह बात पुष्ट करती है। ऐसी समदर्शिता से न्याय और अन्याय के बीच का फ़र्क़ मिट जाता है। न्याय के लिए लड़ने वाला भी उतना ही दोषी मान लिया जाता है, जितना कि ज़ुल्म ढाने वाला।


मिसाल के लिए 'फिलिस्तीन-इस्राइल', 'अमरीका-अरब', और 'काले-गोरे' के युग्म पर ध्यान दें। इन्हें भी कवि ने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया है जैसे कि सभी फिलिस्तीनी और सभी इस्राइली, सभी अमरीकी और सभी अरब, तथा सभी 'काले' और सभी 'गोरे' एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं और एक दूसरे को मारने की फ़िराक़ में रहते हैं। उनमें से जिसका दाँव लग गया वह 'शहीद' बन गया। सच तो यह है कि इन शक्तियों के आपसी रिश्ते में 'शहादत' का संतुलन बेहद एकतरफ़ा है। अगर दी हुई श्रेणियों में बात करने की मजबूरी है तो यह कह सकते हैं कि 'शहीद' बनने की संभावना अमरीकियों, इस्राइलियों और 'गोरों' के पक्ष में सौ गुना तक है। वजह सीधी-सादी यह है कि आर्थिक और सामरिक रूप से वे अपने 'विरोधियों' से अतुलनीय रूप से मज़बूत हैं। वे अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिये दूसरों को 'मारते' हैं, जबकि फिलिस्तीनी, अरब, और 'काले' उनसे अपनी और अपने लोगों के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए जूझ रहे हैं।


अब ज़रा उन एक पंक्तियों वाले वक्तव्यों की तरफ़ चलें जिनमें कवि ने कोई जोड़ा नहीं बनाया है। यानी उसमें दूसरे पक्ष को 'शहीद' बनने का शौक़ नहीं है। दूसरे शब्दों में, कवि की नज़र में उन मामलों में एक ही पक्ष हिंसक है। कुछ मायनों में यह वर्गीकरण सर्वाधिक समस्याग्रस्त है। इसमें ख़ास तौर पर आदिवासियों, हिंदीभाषी कामगारों, और कम्युनिस्टों को मारने वालों की पहचान पर ग़ौर करें। कवि की नज़र में आदिवासियों की हत्या करने वाले 'शहराती' हैं। किसी भी नज़रिये से देखें तो यह बयान भयावह रूप से भ्रामक है। आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाली बड़ी काररवाइयों में या तो उनके बीच के आदिवासी ही 'सलवा जुडूम' जैसी योजनाओं के तहत शामिल होते हैं, या फिर गाँव-क़स्बों के नौजवान जो रोजी-रोटी के लिए विभिन्न सुरक्षाबलों के रंगरूट बनते हैं। हमारे प्राकृतिक-खनिज संसाधनों को लूटने के लिए जंगलों पर क़ब्ज़ा करने में लगी देशी-विदेशी ताक़तों की ओर से आँख मूदकर इसे शहर और जंगल का मुद्दा बनाना आदिवासियों के ऊपर आये संकट के कारणों को पूरी तरह से छुपा लेता है। यह नज़रिया हमें एक ऐसी दिशा में धकेल देता है जिससे सिर्फ़ और सिर्फ़ आदिवासियों के खिलाफ साज़िश रचने वालों का हित सधता है। इसी तरह असम में हिन्दीभाषी इलाक़ों से गये मज़दूरों की हत्या का मामला है। उनके हत्यारों को असमिया कहने से उन्हें ठीक वही पहचान मिल जाती है, वे जिसका दावा करते हैं, और विचार की दिशा उसी दिशा में मुड़ जाती है जिसमें शासकवर्ग हमे ले जाना चाहता है।


कम्युनिस्टों के हत्यारों का मामला और भी विचित्र है। कम्युनिस्टों को मारनेवालों को कम्यूनिस्टविरोधी कहें तो फिर भी कोई सेंस है, लेकिन उन्हें ग़ैरकम्युनिस्ट कहना हद दर्जे की घपलेबाज़ी है। सच तो यह है कि कम्युनिस्टों की हत्या जितनी ग़ैरकम्युनिस्टों ने की है उससे कम उनके विरोधी दूसरे रंग के कम्युनिस्टों ने नहीं की है। यह बात जितनी भारत के बारे में सच है, उतनी ही पूरी दुनिया के बारे में।


आख़िरकार विष्णु खरे एक ऐसा काम करते हैं जिससे, किसी भी और चीज से अधिक, उनकी बौद्धिक क्षमता का पता चलता है। वे 'सब' और 'सभी' का प्रयोग जिस तरह के अभिप्रायों को व्यक्त करने के लिए करते हैं उस पर संजय चतुर्वेदी की कविता 'सभी लोग और बाक़ी लोग' के मुहावरे की स्पष्ट छाप है। ज़्यादा दिन नहीं हुए कवि मंगलेश डबराल ने संजय चतुर्वेदी पर यूरोपीय कवियों की नकल करके कविता लिखने का आरोप लगाया था, लेकिन यहाँ उन्हीं के घराने के 'महाकवि' विष्णु खरे हैं, जो उस कवि की एक चर्चित कविता की निहायत ग़ैररचनात्मक पुनर्प्रस्तुति करते हैं। इस पर और कुछ भी कहना फ़िजूल है। सिर्फ़ संजय चतुर्वेदी की उस कविता को एक बार देख लेना काफी होगा:


"सभी लोग बराबर हैं

सभी लोग स्वतंत्र हैं

सभी लोग हैं न्याय के हक़दार

सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं

बाक़ी लोग अपने घर जाएँ


सभी लोगों को आज़ादी है

दिन में, रात में आगे बढ़ने की

ऐश में रहने की

तैश में आने की

सभी लोग रहते हैं सभी जगह

सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं

सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ

सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं

बाक़ी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ


ये देश सभी लोगों के लिए है

ये दुनिया सभी लोगों के लिए है

हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा

बाक़ी लोग अपने घर जाएँ।"


ज़ाहिर है, समाज में व्याप्त वर्ग-विषमता की अभिव्यक्ति के कारण ही संजय चतुर्वेदी की इस कविता के व्यंग्य में धार आ गयी है, जबकि इसी सचाई पर लीपापोती करने के कारण विष्णु खरे की कविता बेजान होकर रह गई है।


इस कविता में विष्णु खरे ने शहादत का कैरिकेचर तो बनाया है, लेकिन उसका मतलब समझने की कोई कोशिश नहीं की है। इसका पता उनकी एक और प्रतिनिधि कविता 'चे' से चलता है। इसमें कवि ने लातिन अमरीका के महान क्रांतिकारी चे गुएरा के अंतिम क्षणों की रोशनी में उनके संघर्ष के सारतत्व को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। अर्जेंटीना में जन्मे चे गुएरा पेशे से डॉक्टर थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने समझ लिया कि लातिन अमरीका के लोगों का स्वास्थ्य सुधारने के लिए उन्हें अमरीकी साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलानी होगी। इसकी पहली कड़ी के रूप में उन्होंने फिदेल कास्त्रो के साथ मिलकर क्यूबा को आज़ाद कराया। आज़ाद क्यूबा के दूसरे नम्बर के नेता और मंत्री के रूप में उनके सामने एक शानदार जीवन था। लेकिन समूचे लैटिन अमरीका को मुक्त कराने का सपना लिए वे एक दिन फिदेल कास्त्रो को विदाई पत्र लिखकर ग़ायब हो गए। अफ्रीकी देश कांगो में चल रहे गुरिल्ला विद्रोह में शामिल हुए और विद्रोह की असफलता के बाद सम्पूर्ण लातिन अमरीका को साम्राज्यवाद से मुक्त कराने के लिए बोलीविया से गुरिल्ला युद्ध की शुरूआत की। इसी लड़ाई में वे बोलीवियाई सेना से लड़ते हुए शहीद हुए। दुनिया के इतिहास में ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता। आज भी वे पूरी दुनिया में परिवर्तन की आकांक्षा रखने वाले युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं। इस कविता को एक बार पढ़ लें, फिर इसके एक-दो बिंदुओं पर विचार करेंगे:


"वक़्त साधती बहसों और धूर्त समझौतों के बाद

एक तंग आदमी को कोई हाथ का काम दो

और एक-दूसरे की तरफ़ न देखकर भी समझ लेने वाले चंद दोस्त

और खुले आसमान के नीचे असंभव पड़ाव

जहाँ से सब कुछ एक बहुत गंभीर मज़ाक की तरह संभव हो

फिर हो एक लंबा और बेरहम मुक़ाबला

जिसमें कुछ भी अक्षम्य न हो

निर्मम हमलों आगे बढ़ने पीछे हटने

कुछ उनके लोग गिरा देने कुछ अपने साथी गँवा देने

और चिरायंध और अँतड़ियों के पहले दरम्यान और बाद

सब कुछ जायज़ हो


फिर विजय हो या उसका एकमात्र विकल्प

एक आजिज़ आए हुए शख़्स की

स्थिर होती हुई लेकिन खुली आँख हो

मंडराते हुए उतरते गीध की पैनी आँख में सीधे देखती हुई

जो पराजय तो बिलकुल नहीं है

कुछ और वह हो या न हो"

      

       (प्रतिनिधि कविताएँ, स. केदारनाथ सिंह)


कविता अपनी पहली पंक्ति से ही चे गुएरा के क्रांतिकारी अभियान के अवमूल्यन की भूमिका अपना लेती है। साफ़ दिखता है कि 'वक़्त साधती बहस और धूर्त समझौते' से तंग आए हुए व्यक्ति के मन के काम के रूप में चे को क्रांतिकारी अभियान मिला था। ऐसा लगता है जैसे कोई व्यक्ति निहायत घटिया स्थितियों में फँस गया हो और अचानक उसे कोई मन का काम मिल जाए। अगर यह विवरण किसी अज्ञात या काल्पनिक चरित्र को लेकर होता तो चल सकता था, क्योंकि इंसान के सामने हर तरह के हालात होते हैं। लेकिन चे गुएरा के सामने ऐसी कोई स्थिति नहीं थी। उनके जीवन में अगर किसी बात की अनुपस्थिति थी तो उसी निरर्थकता-बोध की, जिसका हवाला कवि ने पहली पंक्ति में दिया है।


इसके बाद की कुछ पंक्तियाँ 'लंबा और बेरहम मुक़ाबला' तक बर्दाश्त के क़ाबिल हैं, लेकिन उस मुक़ाबले में 'कुछ भी अक्षम्य न होना' क्रांतिकारी आंदोलनों की विष्णु खरे की समझ पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। किसी चीज़ में कुछ भी अक्षम्य न होने का एक ही मतलब है कि उसमें कुछ भी चल सकता है। साफ़ तौर पर यह अंग्रेज़ी की उस ओछी कहावत से प्रेरित है कि मुहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है। आम तौर पर क्रांतिकारी संघर्ष नैतिकता के ऊँचे मानदंडों से संचालित होते हैं। उनमें भी चे गुएरा का जीवन अगर किसी बात का प्रमाण है तो वह क्रांतिकारी नैतिकता के उच्चतम उदाहरण का है, जिसकी कोई तुलना  सफलता-असफलता को सर्वाधिक महत्व देने वाली लड़ाइयों से नहीं कि जा सकती। हमारे बहुत से पाठक इतिहास के इन पन्नों से कम परिचित होंगे इसलिए हम यहाँ  इस बात को समझाने के लिए दो तथ्य रखेंगे। अपने लंबे गुरिल्ला अभियानों के दौरान निरपवाद रूप से चे ने पकड़ में आने वाले सभी घायल दुश्मन सैनिकों का प्राथमिकता के आधार पर न केवल इलाज किया बल्कि उनकी ससम्मान रिहाई को भी सुनिश्चित किया। उनकी निष्कलंकता का असर यह था कि बोलीविया के सैन्य अभियान के एक संचालक वहाँ के गृह मंत्री अंतोनियो आर्गुयेडा ने जब चे की शहादत के बाद उनकी डायरी पढ़ी तो वह उससे इतना प्रभावित हुआ कि सी आई ए और अपने राष्ट्रपति के आदेशों की अवहेलना करते हुए उनके सारे दस्तावेज़ और अवशेष फिदेल कास्त्रो के पास भिजवा दिए। इस आरोप में वह बाद में जेल गया और मुक़दमे के दौरान उसने स्वीकार किया कि अमरीकियों की साम्राज्यवादी योजना को असफल करने के लिए यह काम किया था।


आगे चलकर फिर चे की शहादत के क्षण की पुनर्रचना करते हुए विष्णु खरे 'आजिज़ आए हुए शख्स' की बात करते हैं। यह पहली पंक्ति में आए 'तंग आदमी' का ही पुनः उल्लेख मात्र है। यानी उनकी मूल समझ चे गुएरा के बारे में यही है कि वह दुनिया से खीजा हुआ आदमी था, जो मानो झल्लाहट में एक ऐसी आग में कूद पड़ा था जिसमें उसे मरना ही था, लेकिन इसे उसकी हार नहीं कहा जा सकता। शहादत को हार-जीत के पलड़े में तौलने की बात भी शहादत का अवमूल्यन ही करती है। वास्तव में यह प्रश्न उसी मानसिक सतह से उठता है जहाँ से जंग में सब कुछ जायज होने का विचार पैदा होता है। यहाँ तो इस बात को एक दबी-छुपी सब्सिडी की तरह कहा गया है कि 'कुछ और वह हो या न हो' पराजय नहीं थी। 'कुछ और' कहकर कवि ने बड़ी सफ़ाई से चे के समर्थकों और विरोधियों दोनो के लिए गुंजाइश बना दी है। अच्छा हो या बुरा हो लेकिन हारा हुआ नहीं कहा जा सकता।


कहना अनावश्यक है कि यहाँ विष्णु खरे ने संघर्ष और क्रांति के बारे में अपने टुटपुँजिया विचारों को चे गुएरा के जीवन पर आरोपित कर दिया है। किसी ऐतिहासिक या मिथकीय नायक पर लिखते हुए अपने जीवन-निष्कर्षों का प्रभावी हो जाना स्वाभाविक है। लेकिन जब निराला जैसा कवि ऐसा करता है तो वह 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' कहकर राम के संघर्ष को आज के इंसान के लिए नए सिरे से प्रासंगिक कर देता है, और विष्णु खरे उसे अपनी उथली वैचारिकता की छाया बना देते हैं।


बहरहाल, वैचारिकता से अलग हटकर अगर विष्णु खरे के संवेदनागत आशयों की पडताल करें तो कुछ रोचक नतीजे हासिल होते हैं। वे विषय के अनपेक्षित विस्तार में जाते हैं, और जनजीवन की बारीकियों की तलाश का उपक्रम करते हैं। निम्नमध्यवर्ग के जीवन-प्रसंगों में उनकी सहज रुचि है, इसलिए ये प्रसंग उनकी कविताओं में बार-बार आते हैं। लेकिन किसी भी विषय के चित्रण में वे संकीर्ण और जड़ सामाजिक मान्यताओं से संचालित हो जाते हैं। जीवन के मार्मिक स्थलों की उनकी पहचान विश्वसनीय नहीं है। जब कहीं वे मार्मिकता की तलाश में उतरते हैं तो अपनी उथली जीवनदृष्टि के कारण उसका विद्रूप रच देते हैं। इससे वह यत्किंचित मार्मिकता भी नष्ट हो जाती है। उनकी एक प्रशंसित कविता "लड़कियों के बाप" का आरंभिक अंश देखें:


"वे अक्सर वक़्त के कुछ बाद पहुँचते हैं

हड़बड़ाए हुए बदहवास पसीने-पसीने

साइकिल या रिक्शों से

अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटरों के साथ

क़रीब-क़रीब गिरते हुए उतरते हुए

जो साइकिल से आते हैं वे गेट से बहुत पहले ही पैदल आते हैं"


कविता की आरंभिक पंक्तियों से ही स्पष्ट है कि विष्णु खरे के दिमाग़ में लड़की के पिता की एक विशिष्ट छवि है। वह पर्याप्त लद्धड़, निरीह, लेटलतीफ़ और रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें तो 'ख़ुशामद आदतन' करने वाला है। साइकिल पर बेटी और उसके टाइपराइटर को लादे वह उसे क्लर्क या टाइपिस्ट की जगह के लिए टेस्ट और इंटरव्यू दिलाने आया है, लेकिन गेट से 'बहुत पहले ही' साइकिल से उतरकर उसे पैदल खींचता हुआ आता है। ऐसा वह, निश्चय ही, अपनी विनम्रता और समर्पण का प्रदर्शन करने के लिए करता है। किसी निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति के बारे में ऐसी ही साँचाबद्ध समझ अथवा 'स्टीरियोटाइप' से उपजी अन्य छवियाँ भी कविता में दिखती हैं। मसलन इन पंक्तियों को देखें:


"इम्तहान के हाल में वे ज़्यादा रुकना चाहते हैं

घबराना नहीं वगैरह कहते हुए लेकिन किसी भी जानकारी के लिए चौकन्ने

जब तक कि कोई चपरासी या बाबू

तंग आकर उन्हें झिड़के और बाहर न कर दे

तिस पर भी वे उसे बार-बार हाथ जोड़ते हुए बाहर आते हैं

पता लगाने की कोशिश करते हुए कि डिक्टेशन कौन देगा

कौन जाँचेगा पर्चों को

फिर कौन बैठेगा इंटरव्यू में

बड़े बाबुओं और अफ़सरों के पूरे नाम और पते पूछते हुए

कौन जानता है कोई अपनी बिरादरी का निकल आए

या अपने शहर या मोहल्ले का

उन्हें मालूम है ये चीज़ें कैसे होती हैं"


ऐसा नहीं है कि नौकरी के इच्छुक अभ्यर्थियों के माँ-बाप कभी ऐसी हरकत नहीं करते, लेकिन परीक्षा के वक़्त ये कोशिशें आम तौर पर नहीं होतीं। जो सेटिंग-गेटिंग होनी है, वह पहले ही हो जाती है, या फिर इसके बाद रिजल्ट से पहले ये दाँव आज़माए जाते हैं। कवि ने यहाँ रोज़गार देने वाली परीक्षा-प्रणाली ही को नहीं, आकांक्षी अभिभावकों को भी 'अंडरएस्टीमेट' किया है। ऊपर दिए अंश की अंतिम पंक्ति में जो व्यंग्य उसने लड़की के पिता पर किया है, वह पलट कर उसी के ऊपर चस्पा हो जाता है।


दूसरे शब्दों में,  कवि ने जिस तरह परीक्षा के दौरान लड़कियों के साथ आए इन अभिभावकों को मानवीय गरिमा से वंचित और अपनी दयनीयता को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों के रूप में चित्रित किया है, उससे  इन कमजोर और विपन्न लोगों पर उसका अविश्वास प्रकट होता है। ऐसा लगता है कि कवि के दिमाग़ में निम्नमध्यवर्गीय लोगों का एक पूर्वनिर्धारित ढाँचा बना हुआ है, जिसमें बेचारगी, लाचारी, दयनीयता, चालाकी और मौक़ापरस्ती का मिश्रण है। इसीलिए कविता के ऊपर लिखित अंश की अंतिम पंक्ति में दी गई जानकारी किसी करुणा या विडम्बना का भाव जगाने की जगह निष्ठुर व्यंग्य करती हुई प्रतीत होती है। इस सिलसिले में ये पंक्तियाँ भी देख सकते हैं:


"मुमकिन है कि वे चाय पीने जाते हुए मुलाज़िमों के साथ हो लें

पैसे चुकाने का मौक़ा ढूँढते हुए

अपनी बच्ची के लिए चाय और कोई खाने की चीज़ की तलाश के बहाने

उनके आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों को

सुना-अनसुना करते हुए नासमझ दोस्ताने में हँसते हुए

इस या उस दफ़्तर में लगे हुए या मुल्क़ के बाहर बसे हुए

अपने बड़े रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए"। 


पहले कहा जा चुका है कि कवि की संवेदना में मार्मिक स्थलों की पहचान का अभाव है। जब कभी वह मार्मिकता लाने की कोशिश करता है तो अपनी दिमाग़ी बनावट के चलते उसका फूहड़ और विद्रूप चित्र ही खींच पाता है। इस अंश में आए वर्णन पर ग़ौर करें। वह अपनी बेटी को नौकरी दिलाने के अभियान में इतना अंधा हो गया है कि परीक्षा-भवन से लेकर बाहर तक न केवल मज़ाक का पात्र बना हुआ है, बल्कि लोगों के "आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों" पर (जो, ज़ाहिर है, कहीं न कहीं से उसकी बेटी को भी लपेटे में लेते होंगे) सिर्फ़ हँस पाता है। ऐसे व्यक्ति पर दया तो की जा सकती है, उससे हमदर्दी नहीं की जा सकती। दया करके भी आप उसे इन हरकतों से बाज आने को कह सकते हैं, कोई और मदद नहीं कर सकते। लेकिन कवि अपनी ही धुन में है। कविता का आख़िरी हिस्सा देखें:


"लेकिन आख़िरी लड़की के निकल आने तक

और उसके बाद भी

जब इन्टरव्यू लेने वाले अफसर अंग्रेजी में मज़ाक़ करते हुए

बाथरूम से लौटकर अपने अपने कमरों में जा चुके होते हैं

तब तक वे खड़े रहते हैं

    ×      ×      ×       ×

ड्योढ़ा किराया माँगते हुए रिक्शेवाले और ज़माने के अंधेर पर बड़बड़ाते हुए

फिर अपनी लड़की का मुँह देखकर चुप होते हुए

जिनकी साइकिलें दफ्तर के स्टैंड पर हैं

वे बाँधते हैं टाइपराइटर कैरियर पर

स्टैंडवाला देर तक देखता रहता है नीची निगाहवाली लड़की को

जो पिता के साथ ठंडे पानी की मशीनवाले से पाँच पैसा गिलास पानी पीती है

और इमारत के अहाते से बाहर बैठती है साइकल पर सामने

दूर से वह अपने बाप की गोद में बैठी जाती हुई लगती है"

  ('सबकी आवाज़ के पर्दे में' नामक संग्रह से)


विष्णु खरे के मनोलोक में "लड़कियों के बाप" इसी तरह पेश आते हैं। अफ़सरों के बाथरूम से लौटते हुए अंग्रेज़ी में मज़ाक करने की गतिविधि पर ध्यान दें। यह कवि की प्रतिनिधि शैली है। परस्पर हँसी-मज़ाक की निर्दोष सम्भावना का यहाँ सर्वथा अभाव है। इससे पहले मुलाज़िमों के अश्लील मज़ाक से हमारा सामना हो चुका है। यहाँ अफ़सर हैं जो अंग्रेज़ी में मज़ाक करते हुए बाथरूम से लौटते हैं। सोचने की बात है कि मज़ाक का बाथरूम से क्या रिश्ता है। क्या बाथरूम किसी प्रकार की श्लील या अश्लील हास्यवृत्ति को जगाने वाली कोई जगह है। या फिर कवि ने यहाँ मसले को सिर्फ़ थोड़ा फूहड़ बनाने के लिए बाथरूम का सहयोग लिया है।


कविता की अंतिम पंक्ति से कवि की संवेदना की मूलभूत कमजोरी का पता चलता है। साइकिल पर बैठी लड़की उसे अपने बाप की गोद में बैठी दिखती है। कवि को उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व में विश्वास नहीं है। बिना किसी की सरपरस्ती के वह कुछ कर सकती है, यह कवि की चेतना से बाहर की चीज़ है। कविता में एक जगह लड़की अपने पिता की हरकतों पर शर्मिंदा होते हुए उसे वहाँ से चलने के लिए कहती है। कवि इस बात को नोटिस तो करता है लेकिन सम्भवतः उसकी बचकानी क़िस्म की झेंप मानकर अनदेखा कर देता है। पूरी कविता पिता के संरक्षण का महिमामंडन करती है, और उसकी भावनाओं का अनुसरण करती है। ग़ौर करें तो सरपरस्ती का यही सामंती जज़्बा पिता की तकलीफ़ों और उसके विमानवीकरण का स्रोत है, जो न मनुष्य के रूप में उसकी गरिमा को बचने देता है, और न ही उसकी बेटी के स्वतंत्र विकास की राह खुलने देता है। हिंदी के पाठकों और आलोचकों में ऐसी कविताओं के प्रति व्याप्त सराहना का भाव हमारे समाज की संवेदना पर भी एक टिप्पणी है।


विष्णु खरे की कविताओं पर विचार की इस प्रक्रिया में अगली कविता 'बेटी' है। इस पर आने से पहले मैं यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि किसी रचना पर विचार करते समय सबसे पहले मैं उसमें निहित जीवनदृष्टि की खोज करता हूँ। एक बार पहचान में आ जाने के बाद रचना उस दृष्टि का एक उदाहरण बनकर अनायास ही खुल जाती है। जहाँ तक उसकी ख़ूबी और ख़ामी का संबंध है, यह इस बात से तय होता है कि वह दृष्टि बुनियादी रूप से पिछड़े हुए, सामंती भावबोध से निर्मित है, या फिर आधुनिक-लोकतांत्रिक संवेदना से। चूँकि हमारा समाज इन्हीं दोनो दुनियाओं के बीच झूल रहा है इसलिए यह सवाल मूल्यांकन में निर्णायक होता है। ज़्यादातर रचनाओं में इन दोनो के कुछ न कुछ मूल्य होते हैं, लेकिन संचालक की भूमिका में कोई एक ही दृष्टि हो सकती है। जिस रचना की मूल दिशा सामंती मूल्यव्यवस्था की ओर उन्मुख होती है उसकी तमाम विशेषताएँ समाज को पीछे ले जाने वाली होती हैं। जब इस सचाई को बताया जाता है तो पढ़ने वालों को लगता है कि सिर्फ़ नकारात्मक बातें की जा रही हैं। इसके विपरीत लोकतांत्रिक मूल्यप्रणाली से संचालित दृष्टि वाली रचना की तमाम विशेषताएँ समाज को आगे ले जाने वाली होती हैं, इसलिए वे सकारात्मकता की वाहक होती हैं। रचना की मूल दिशा पर जोर देने के कारण उसकी आलोचना एकतरफ़ा मालूम पड़ती है। अब तक आलोचना की परंपरा रही है कि कुछ अच्छाई और कुछ बुराई गिना देने को तटस्थता का पर्याय समझा जाता है। लेकिन मैं इसे ग़लत मानता हूँ। स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों के विरुद्ध जाने वाली रचना बिना किसी हिचक के ख़ारिज कर देने योग्य होती है, चाहे उसमें और कोई विशेषता हो या न हो। 


कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:


"जाने से पहले उसने कहा

अपनी बेटी समझकर ही मुझे रख लीजिए


वह सूखी साँवली लड़की

जिसके पसीने में बहुत पैदल चलने

कई बसें बदलने की बू थी

जिसके बहुत पहने कपड़ों से धूपहीन खोली के सीले गूदड़ों

और आम के पुराने अचार की गंध उठती थी"


कविता का वाचक 'मैं' उसे नौकरी पर रख तो नहीं पाता 'लेकिन पचास बरस की उम्र में पहली बार बाईस साल की किसी पराई लड़की को' मन ही मन बेटी मान लेता है। साथ ही यह भी कहता है कि 'मैं उससे यह तो नहीं कह सका कि वह कैसे उस नौकरी के लायक़ नहीं थी'। यहाँ आया हुआ 'कैसे' बताता है कि वह लड़की, किसी न किसी प्रकार, उस नौकरी के अयोग्य थी। कविता में लड़की की किसी योग्यता या प्रतिभा का ज़िक्र या उसके परीक्षण का कोई संकेत तक नहीं है। उसके निवेदन और उसे मानने में वाचक की व्यक्त असमर्थता के बीच लड़की के रंग-रूप का वर्णन ज़रूर आया है। ज़ाहिर है, कविता में लड़की की अयोग्यता का एकमात्र संकेत यही है, उसके पसीने और कपड़े से उठती हुई विकर्षक गंध। कविता में आगे चलें:


"उसका पिता उसके साथ नहीं था

वरना अपना वह प्रतिरूप मैं देखता

लेकिन ऐसे शाइस्ता संकोची व्यस्त बाप

अपनी बेटी के लिए समस्याएँ पैदा न करते हुए

ताकि वक़्त ज़ाया न जाए

उसी दरम्यान किन्हीं और और लोगों के सामने बैठे रहते हैं

हर मुमकिन वास्ता देते हुए"


इस कविता में भी एक बेटी व उसके बाप का प्रसंग है, जो पिछली कविता 'लड़कियों के बाप' में आए प्रसंग का अगला चरण जान पड़ता है। पहले बाप निवेदन करता था और बेटी या तो चुप रहती थी या बाप से 'यहाँ से' चलने के लिए कहती थी। लेकिन अब बेटी निवेदन करती है और बाप उसके लिए 'समस्या न पैदा करते हुए' कहीं और बैठा रहता है। लोगों से 'हर मुमकिन वास्ता देने' वाले बाप, ज़ाहिर है, पुराने वाले, 'लड़कियों के बाप' ही हैं, जो और चाहे जो हों, संकोची नहीं थे। फिर उन्होंने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें एक साथ तीन विशेषणों 'शाइस्ता संकोची व्यस्त' से नवाज़ना पड़ गया। अगली पंक्तियों से पता चलता है कि 'अपनी बेटी के लिए समस्याएँ पैदा न करने' के लिए उन्होंने 'वक़्त ज़ाया न करने' का बहाना करके ख़ुद के लिए ये विशेषण व्यंग्य में अर्जित किये हैं। यहाँ ग़ौरतलब है कि बाप के साथ रहने पर बेटी के लिए समस्याएँ पैदा हो रही हैं। पहले हम देख चुके हैं कि कवि के भावबोध में लड़की की उपस्थिति ही सरकारी अफ़सरों, मुलाजिमों, और साइकिल स्टैंड वाले यानी तमाम दुनिया के अंदर कुत्सित भावनाएँ जगाने के लिए पर्याप्त है। ऐसे माहौल में पिता का साथ लड़की को सुरक्षा और आत्मविश्वास दे सकता था। बाधा तो वह इन कुत्सित मनोवृत्तियों की राह की ही बन सकता था। तो फिर कवि ने उसे लड़की के लिए समस्या पैदा करने वाला क्यों मान लिया। 

पहले वह लड़की को अपनी अहैतुक करुणा का पात्र बनाने के लिए दीन से दीनतर बनाता चला जाता है। पहली नज़र में समझ में नहीं आता कि काम की तलाश में कार्यालयों के चक्कर काटने वाली लड़की को गन्दे और बदबूदार कपड़ों में ही क्यों होना चाहिए। उसके कपड़े कितने भी साधारण हों, साफ़-सुथरे क्यों नहीं हो सकते। इसके आशय संभव है, कुछ आगे स्पष्ट हों। कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं:


"हर शाम मेरी अजनबी बेटी लौटती है

मायूस होने से पहले कुछ नए रहमदिलों की बेटी बनकर

सुबह फिर निकल जाती हैं मेरी हज़ारों बेटियाँ

एक परेशान डरी हुई अपमानित उम्मीद लिए

अपने असली पिताओं से अलग उस पिता की तलाश में

जो उन्हें बेटी या क़ाबिल माने न माने रख तो ले"


यहाँ कवि की मानसिक हड़बड़ी का एक नमूना देखें। पहले उसने कहा था कि 'पचास बरस की उम्र में पहली बार' उसने किसी ग़ैर लड़की को बेटी माना है। अब उसे लगता है कि बहुत सारे लोग उसे हर रोज़ अपनी बेटी मानते होंगे, लेकिन नौकरी न दे पाते होंगे। मानो बेटी मान लेना काम न देने का कोई हर्जाना है। ऐसा लगता है कि कवि का मन्तव्य कुछ और ही है। वह लड़की को इस पुरुषप्रधान दुनिया की शर्तों से समझौता करने के लिए तैयार कर रहा है। इसीलिए वह उसे भरपूर बेचारी बनाता है। उसकी व्यक्त असहायता उसे अधिक से अधिक वेध्य बनाती है, और इस बात की घोषणा भी करती चलती है। वाचक ख़ुद को भला आदमी समझता है, इसलिए उसे बेटी मान लेता है, लेकिन उसकी सदिच्छा के बावजूद लड़की को हर जगह ऐसे लोग नहीं मिलेंगे। आगे चलकर वह 'हज़ारों बेटियों' की बात करके अपनी मंशा साफ़ करता है। एक लड़की की केस स्टडी के बाद वह उसके नतीजे को काम की तलाश करने वाली सभी लड़कियों पर लागू करता है। वह लड़की पहले चाहती थी कि कोई उसे बेटी मानकर ही काम दे दे तो यह बात समझ में आती है, लेकिन अब ये सभी लड़कियाँ चाहती हैं कि कोई 'उन्हें बेटी या क़ाबिल माने न माने रख तो ले'। इसका आशय क्या है। अगर कोई उन्हें काम के नाक़ाबिल मानकर भी नौकरी देगा तो, ज़ाहिर है, उनसे कुछ और आशा करेगा। ऐसे में बेटी न मानने का सिर्फ़ एक मतलब होता है। लड़कियाँ यहाँ इसके लिए न केवल मानसिक रूप से तैयार दिखती हैं, बल्कि वाचक की कल्पना में इसकी इच्छा भी करती हैं। 'रख तो ले' की द्वयर्थकता भी यहाँ कवि की कल्पना में हाथ बटाती है। कविता में वाचक पर कवि की जैसी निर्भरता दिखती है उसे बड़े आराम से कवि का माउथपीस माना जा सकता है। फिर 'एक परेशान डरी हुई अपमानित उम्मीद लिए' घर से निकलने का क्या मतलब है। 


असल में, यही विष्णु खरे का अंदाज़े-बयाँ है। वे जिससे हमदर्दी जताते हैं, पहले उसके आत्मसम्मान का ढोल पीटते हैं, फिर उसे परिस्थितियों का शिकार घोषित करने के लिए दुनिया भर की तैयारी करते हैं। फिर वे उसके आत्मसम्मान के टूट जाने का इशारा भर करके छोड़ देते हैं। मुद्रा यह होती है कि 'देखा, मैंने कहा नहीं था'। वे दुनिया को निरपवाद रूप से शिकार और शिकारी के बीच बाँटते हैं, और फिर 'शिकार' को जिस तरह असहाय-निरुपाय और अकेला बनाते हैं, वह इंसानी रिश्तों में एक निचाट बंजर की कल्पना के बिना संभव नहीं है। जो लोग इसे यथार्थ का चित्रण समझते हैं, वे यह जान लें कि यह किसी अपवाद स्थिति का चित्र भले ही हो, हमारे समाज की सामान्य सचाई नहीं है। ग़ौर करें तो यह एक भविष्यहीन समाज का चित्र है। यह केवल उन शक्तियों के अनुकूल है जो हमारे समाज से इंसानियत को मिटा देना चाहती हैं।


विष्णु खरे निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की स्टीरियोटाइप यानी साँचाबद्ध छवि का एक नमूना अपनी एक चर्चित कविता 'जो टेम्पो में घर बदलते हैं' में प्रस्तुत करते हैं। 'टेम्पो में घर बदलना' यानी किसी व्यक्ति के पास इतना ही सामान होना कि वो सामान और परिवार के साथ एक ही टेम्पो में बैठकर किसी बदले हुए घर में जा सके। एक घर छोड़कर दूसरे घर में शिफ्ट होने के लिए जाने की प्रक्रिया में जो दृश्य उपस्थित होता है, वह कवि की नज़र से देखने पर उन लोगों की कुछ चरित्रगत विशेषताओं को उजागर करता है। आइए देखें कि कवि निम्नमध्यवर्गीय लोगों के जीवन-प्रसंगों में किन सचाइयों को देखता है, और उस देखने के पीछे उसकी स्वयं की चेतना और संवेदना का धरातल क्या है। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:


"पुराने सोफ़े एक डबल बैड सेकंड हैंड

एकाध निबाड़ का फोल्डिंग पलंग कीलें निकली हुई कुर्सियाँ

फटी बदरंग दरियाँ फीके पर्दे घिसे पाँवपोश

ज़र्द पड़ चुका दस बरस पहले क़िस्तों पर लिया गया फ़्रिज

वैसा ही ब्लैक एंड वाइट टी.वी. उसका जंग लगा अधटूटा एंटेना

मटमैला गैस सिलिंडर चूल्हा जिससे कंपनी का नाम मिट चुका है

उखड़े हुए सनमाइकावाली डाइनिंग टेबिल हिलती हुई तीन कुर्सियों समेत

एक दाँचेदार गोदरेज की अल्मारी जो असल में गोदरेज की नहीं

शीशे में फफूँद-पड़ी डगमग करती एक ड्रेसिंग टेबिल न घूमने वाला टेबिल फ़ैन


बर्तन भाँडे खूँटियाँ पाटे मोगरियाँ झाड़ुएँ सिल-बट्टा

टूटे हुए पल्लुओं वाला एक कूलर एक लैंब्रेटा जो अब स्टार्ट तक नहीं होता"


कविता के आरंभिक हिस्से में काफी विस्तार से उन सामानों की सूची और उनकी हालत के बारे में बताया गया है, जो एक घर से दूसरे घर जाने के लिए टेम्पो में रखे गए हैं। इस सूची को देखने से ही उस निम्नमध्यवर्गीय परिवार की दुरवस्था के प्रदर्शन की कवि की व्यग्रता समझ में आ जाती है। ये सभी सामान पुराने और घिसे हुए हैं, लेकिन किसी न किसी प्रकार गृहस्थी के काम आते हैं। इनमें सोफा, डबलबेड, फ्रिज, टी वी, आलमारी, टेबलफैन, कूलर आदि हैं। टूटे-फूटे होने के बावजूद ये अपनी भूमिका को अंजाम देते हैं। फटी-पुरानी चीज़ों से काम चलाना कोई शर्मिंदगी की वजह नहीं है। लेकिन कवि को शायद ऐसा नहीं लगता इसलिए वह एक ऐसी चीज़ का हवाला देता है जो इनमें सबसे महंगी है लेकिन पूरी तरह बेकार। एक लैंब्रेटा स्कूटर जो अब स्टार्ट तक नहीं होता। इस 'स्टार्ट तक न होने' में निहित है कि उससे आगे भी स्टार्ट होने की उम्मीद नहीं है। इसकी कोई वजह नहीं दी है, लेकिन दिये हुए ब्यौरे के आधार पर कहा जा सकता है कि पुराना और ख़राब होने के कारण वह स्टार्ट नहीं होता होगा। 


अब ज़रा ग़ौर करें कि यह यथार्थ के प्रति कौन सी दृष्टि है। स्कूटर कोई ऐसा यंत्र नहीं होता जो अकारण ही ख़राब होकर स्टार्ट होना बंद कर दे, जब तक  उसे चलाने वाला उस पर ध्यान देना न छोड़ दे। उस परिवार के गृहस्थ की जो स्थिति है, उसमें नाकारा से नाकारा व्यक्ति भी अपनी सबसे क़ीमती, सुविधाजनक और प्रतिष्ठापरक वस्तु को लापरवाही से बर्बाद होने के लिए नहीं छोड़ सकता। अगर किसी वजह से वह उसकी देखभाल करने में असमर्थ होगा तो उसे चालू हालत में ही बेच देगा ताकि उसकी अधिकतम क़ीमत मिल सके। यहाँ वह ये दोनो काम नहीं करता, और उस बेकार स्कूटर को टेम्पो पर लाद कर एक घर से दूसरे घर घुमाता रहता है। जो चीज़ उसके लिए अमूल्य संसाधन थी वह अब बोझ बन चुकी है, फिर भी वह उसे रखे हुए है तो इसका एक ही कारण प्रतीत होता है कि घर के सामने स्कूटर खड़ा होने से पड़ोसियों पर स्टेटस का रुआब पड़ सकता है। कवि के उस व्यक्ति के प्रति रवैये को देखते हुए भी यही कारण उपयुक्त जान पड़ता है। कहना होगा कि कवि ने यहाँ उस निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति को बहुत कम करके आँका है। उसे हद दर्जे का दिखावापसंद और अकर्मण्य चित्रित करके उसने उसका मज़ाक बनाया है। कविता में आगे चलते हैं:


"देखने में कितना छोटा दिखता टेम्पो

लेकिन पाँच प्राणियों की गिरस्ती ख़ुद उनके समेत

कितने करीने से आ जाती है उसमें और फिर भी

पीछे घर के एकाध बुजुर्ग और टेम्पोवाले के

दो-तीन मज़दूरों के बैठने की जगह निकल आती है

दस बरस पहले टीन का बक्सा लेकर शहर आए बेटे की

गिरस्ती के बीच बैठा गाँव कस्बे से आया बाप ख़ुश होता है और उदास भी

इस इलाक़े से उस इलाक़े के बीच वह

टेम्पोवाले के सफ़ेदपोश हम्मालों को सब कुछ बताना चाहता है

जो एक-दूसरे से धींगामुश्ती में मशगूल हैं

जिससे किसी भी सामान को नुक़सान भी हो सकता है


बेटा बहू एक किशोर होती हुई लड़की अपने छोटे दो भाई-बहनों के साथ

बैठे हैं टेम्पोवाले और उसके क्लीनर से सटे हुए

जो किराए को लेकर हुए मोलभाव से ही समझ गया था

और क्लीनर को सुनाते हुए चोली के पीछे गाने लगा था

सिर नीचा किए किशोरी बरजने लगी छोटों को 

कि साथ न गाएँ, ताल न दें

गिरस्तिन देखती है पति को

जो अतिरिक्त ग़ौर से देख रहा है ट्रैफ़िक को"


इस हिस्से में 'गाँव कस्बे से आया' उस गृहस्थ का बाप है जो इस यात्रा के दौरान 'टेम्पोवाले के सफेदपोश हम्मालों को सब कुछ बताना चाहता है'। कविता के अनुसार वहाँ टेम्पोवाले के अलावा दो तीन मज़दूरों की गुंजाइश है। इन्हीं लोगों के लिए कवि ने 'सफ़ेदपोश' शब्द का प्रयोग किया है। मेरी जानकारी में हिंदी में किसी मज़दूर के लिए 'सफ़ेदपोश' विशेषण के इस्तेमाल का यह पहला और अब तक अकेला मौक़ा है। इससे पहले यह खाये-अघाये लोगों के लिए ही प्रयुक्त होता रहा है, जो ऊपरी शुभ्रता के आवरण में काले धंधे करते हैं। इस नकारात्मक विशेषण का प्रयोग मज़दूरों के लिए करके विष्णु खरे ने उनके प्रति अपनी बेरुख़ी का ही परिचय दिया है।


बहरहाल, 'लड़कियों के बाप' और 'बेटी' शीर्षक कविताओं की तरह यहाँ भी एक बाप है जो अपने बेटे और उसकी बेटी के प्रति टेम्पोवाले के हम्मालों के ख़ासे अनुचित और आक्रामक व्यवहार से बेपरवाह बना हुआ, उन्हें अपनी रामकहानी सुनाने के लिए लालायित है। इस मामले में वह उपर्युक्त कविताओं में आए पिताओं की श्रेणी में ही है, हालाँकि इसकी हलत उनसे भी ख़राब है। उन कविताओं में वह अपनी बेटी के साथ सहयोगी भूमिका में था, लेकिन यहाँ वह अपने बेटे के लिए उलझन बढ़ा रहा है। अपने सबसे वरिष्ठ सदस्य का उन 'हम्मालों' की लल्लो-चप्पो करना बिला शक परिवार के लिए शर्मिंदगी का बायस होगा, जिसके चलते पुत्र इसे नापसन्द कर रहा है।


एक बार फिर यहाँ कवि की 'पिता' नामके प्राणी के प्रति अबूझ नाराज़गी दिखाई पड़ती है। बाक़ी पिताओं से यह केवल इस मायने में अलग है कि यह गाँव कस्बे से आया है। पता नहीं कवि इस बारे में क्या सोचता है लेकिन गाँव कस्बे से आए लोग इतने भी अविवेकी नहीं होते कि अपने बच्चों के प्रति की जा रही ऐसी खुली अश्लीलता को न समझ सकें और उसमें सहयोगी बन जाएँ। पिछली कविताओं के पिता की नौकरी देने वाले अधिकारियों के सामने बेबसी को उनकी गतिविधियों का यथार्थवादी कारण मानने वाले ध्यान दें कि यहाँ ऐसा भी कोई कारण नहीं है। इसका एकमात्र कारण है कि कवि का नज़रिया विषम स्थितियों में पड़े और ग़रीबी की मार झेल रहे लोगों के प्रति हिक़ारत से भरा हुआ है। मौक़ा मिलते ही वह उनकी तस्वीर में गरिमाहीनता का गाढ़ा रंग चढ़ाता है। जो जितना ही कमजोर और अरक्षित होता है, कवि का उतना ही कृपाभाजन बनता है।


इस कविता में दो प्रमुख पक्ष हैं---मकान बदलने वाले और टेम्पो वाला। दोनों लगभग एक ही आर्थिक हैसियत के माने जा सकते हैं। लेकिन जिस ढंग से टेम्पोवाला उनसे पेश आता है, और जितनी बेचारगी के साथ ये लोग इसे बर्दाश्त करते हैं, यह बताता है कि कवि की नज़र में निम्नमध्य आयवर्ग वालों की क्या बिसात है। सामानों की सूची में 'सिले हुए रजाई गूदड़ और पुराने अचार की बू' भी है। स्मरणीय है कि 'बेटी' शीर्षक कविता में भी लड़की के कपड़ों से यही बू आती थी। दूसरी तरफ़ टेम्पोवाला है जो मोलभाव से ही सामने वाले की हैसियत नाप ले रहा है, और इससे प्रेरित होकर उसके सामने ही उसकी बेटी को लक्ष्य करके अश्लील गीत गाने लगता है। बच्चे अनजाने ही उसका साथ देने लगते हैं और बाप मजबूरी में दूसरी तरफ़ देखता रह जाता है। यानी ग़रीब आदमी की नज़र में भी अपने जैसे ही किसी दूसरे व्यक्ति का कोई मान-सम्मान नहीं है। उसके पास इसे अर्जित करने और इसकी रक्षा करने की हिम्मत भी नहीं है। इससे यह पता चलता है कि 'नारि न मोह नारि के रूपा' की विचारधारा को कवि ने समयानुसार पुष्पित-पल्लवित करके ग़रीबों पर लागू किया है। इस मानसिकता का एक और प्रदर्शन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:


"व्यस्तता का अभिनय करते लेकिन दरअसल बदतमीज टेम्पोवालों

उनके क्लीनरों हम्मालों द्वारा

जो बहुत देर हो गई बहुत देर हो गई का कोहराम मचाते हैं

रास्ता जानते हुए भी टेम्पो को ग़लत गलियों में मोड़ते हैं

ग़लत समझाए जाने का आरोप लगाते हुए

एकाध बार उसके बिगड़ने का अभिनय करते हुए

किधर मकान ले लिया कहते हुए ख़ुद को फ़हश गालियाँ बकते हुए

बच्चों को नींद आने लगती है या वे बेचैन हो जाते हैं

लेकिन किराएदार दम्पति को मालूम है

कि अभी एक और लड़ाई बाकी है

जब लूटपाट जैसी जल्दी के साथ सामान चढ़ाने के बाद

टेम्पोवाला कम से कम पचास रूपया ऊपर माँगेगा"। 


यहाँ पहली पंक्ति में 'बदतमीज' के साथ 'टेम्पोवालों' का प्रयोग उल्लेखनीय है। कविता में यह एकमात्र जगह है जहाँ टेम्पोवाला बहुवचन में आता है। यह सभी टेम्पोवालों के बारे में कवि का बयान है। कोई व्यक्ति टेम्पोवाला होने के कारण ही ऐसा है, और ऐसा ही हो सकता है, यह वही स्टीरियोटाइप नज़रिया है जिसका उल्लेख हमने इस शृंखला की शरूआत से ही विष्णु खरे के संदर्भ में किया है। इससे पहले 'लड़कियों के बाप' के प्रसंग में 'ड्योढ़ा किराया माँगने वाले' रिक्शेवाले को हम देख चुके हैं। इसी कविता में 'नीची निगाह वाली लड़की को देर तक देखने वाला' साइकल स्टैंड वाला भी मौजूद था। ज़ाहिर है, 'रिक्शेवालों', 'मज़दूरों', 'नौकर-नौकरानियों' आदि सभी ग़रीबों के लिए उसके श्रीमुख से यह विशेषण इतने ही सार्थक रूप में निकल सकता था। मैं नहीं जानता कि कोई कवि और कितने साफ़ शब्दों में ग़रीबों के प्रति अपने विचारों का प्रदर्शन करेगा तो हम उसे पहचान लेंगे।


कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि एक बार फिर यह स्पष्ट कर देता है कि टेम्पो में घर बदलने वाला हर व्यक्ति ऐसा ही होता है:


"उनमें बैठे हुए लोग भी एक जैसे लगते हैं

वही दंपति वही बच्चे वही बुज़ुर्ग

ठीक अपने सामान की तरह सामान के बीच सामान बने

सड़कों और शहरों को ही नहीं

इस धरती और वक़्त को भी एक टेम्पो में तब्दील करते हुए"


यहाँ कवि ने एक मार्क्सवादी अंतर्दृष्टि का सहारा लिया है, जिसके मुताबिक़ पूँजीवादी व्यवस्था में अपने श्रम का उचित मूल्य न मिलने का कारण व्यक्ति अपने परिवेश से अलगाव का शिकार होकर वस्तु की तरह जड़ होता चला जाता है। सूत्र तो कवि ने मार्क्सवाद से ले लिया, लेकिन उसके प्रयोग में भूल कर गया। हम देख चुके हैं कि कविता में उस परिवार के व्यवहार या टेम्पोवाले के रवैये की कोई सामाजिक अनिवार्यता नहीं है। कवि ने उनकी आर्थिक स्थिति की बात किसी शाश्वत कारण के रूप में उन पर चिपका ज़रूर दी है, लेकिन उसका कोई स्पष्टीकरण कविता से नहीं मिलता है। अपनी समस्याओं के ज़िम्मेदार वे ख़ुद दिखाई पड़ते हैं। उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति उनकी 'अव्यावहारिकता' और 'अकर्मण्यता' की देन प्रतीत होती है। इस तरह इस कविता में अगर कुछ मिलता है तो वह है वंचित तबक़े के प्रति कवि का तिरस्कारपूर्ण रवैया, यह कविता जिसका एक उदाहरण बनकर रह गई है।


विष्णु खरे की ख़ूबी है कि उनकी कविताओं का नैरेटर 'मैं' लगभग हमेशा वे ख़ुद होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी हर कविता आत्मकथात्मक है, लेकिन वे जिन भी स्थितियों की कल्पना करते हैं, उनके बारे में बताने की ज़िम्मेदारी हमेशा ख़ुद उठाते हैं। नैरेटर के स्वर के प्राधिकार और आत्मविश्वास से इसकी स्पष्ट निशानदेही होती है। कभी-कभी उनकी कविताएँ उनके अपने और दूसरों के दृष्टिकोण के टकराव और सामंजस्य से बनती हैं। उनकी ऐसी ही एक दिलचस्प और बहुचर्चित कविता है, 'हर शहर में एक बदनाम औरत होती है'। इसमें आरंभ में प्रतीत होने वाला टकराव, सामंजस्य से भी आगे बढ़ कर 'दूसरों' के विचारों की सुसंगत निष्पत्ति में बदल जाता है।  कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:


"कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में

वह कुँआरी ही रही आई है

या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था

और उसके कथित पति ने उसे

या उसने उसको कब क्यों और कहाँ छोड़ा

और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही

वह सही-सही उसका कौन है

यदि उसको संतान हुईं तो उन्हें लेकर भी

स्थिति अनिश्चित बनी रहती है


हर शहर में एक बदनाम औरत होती है"


ऐसा नहीं है कि विष्णु खरे सिर्फ़ ग़रीबों और वंचितों के प्रति नकारात्मक विचार रखते हैं, या उनके बारे में प्रचलित सामाजिक पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में आ जाते हैं। ऐसा वे हर उस व्यक्ति के साथ करते हैं जो जड़ नैतिकतावाद के लिए जाने-अनजाने चुनौती बन सकता है। यहाँ पहली पंक्ति में दूसरों के विचारों का अपने शब्दों में प्रस्तुतीकरण है। उस औरत के बारे में जो दो संभावनाएँ व्यक्त की गई हैं--- ब्याहता या कुँवारी होने की--- इस कविता में वर्णित स्त्री के संदर्भ में कौमार्य का होना या न होना कोई विचारणीय विषय नहीं है। पहले वाक्य से आगे जो भी विवरण हैं उनमें उस स्त्री के पति तथा अन्य पुरुषों के साथ अनेक प्रकार के व्यवहार की कल्पना तो है, लेकिन उसमें 'कुँवारी' अथवा अविवाहिता होने की स्थिति का कोई हस्तक्षेप नहीं है। ये शब्द आगे आने वाले कुत्सित प्रसंगों का एक कंट्रास्ट रचने के लिए आया है, जिससे वे और उभर सकें। आगे देखें:


"नहीं वह उस तरह की बदनाम औरतों में नहीं आती

वर्ना वह इस तरह उल्लेखनीय न होती

अकसर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है

उसका अपना निवास या फ्लैट-जैसा कुछ रहता है

वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है

जिसमें ब्यूटी सैलून नृत्य-संगीत स्कूल रेडियो टी०वी०, एन०जी०ओ० से लेकर

राजनीतिक तक कुछ भी हो सकता है

बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है

या थी लेकिन अब भी कम वांछनीय नहीं है"


यह नैरेटर की अपनी राय है जिसमें वह उस स्त्री को 'उस तरह की' बदनाम औरतों से अलग बताने के लिए उसकी कुछ पहचान बताता है। उस स्त्री का अकेली होना तो पहले ही ज़ाहिर हो चुका है। ये पहचान है, उसका पढ़ा-लिखा, वाग्मी, अपेक्षाकृत खुला यानी सामाजिक जकड़नों की क़ैद से मुक्त होना, अपने ख़ुद के आवास में रहना, और आजीविका के लिए ब्यूटी-सैलून, नृत्य-संगीत, स्कूल, रेडियो, टीवी, एनजीओ आदि क्षेत्रों में कुछ काम करना। सुंदरता और मोहकता उसके व्यक्तित्व के गुण हैं। यहाँ तक नैरेटर का स्वर संतुलित है, और भाव यह उभरता है कि हमारा समाज इस तरह की किसी अकेली और कामकाजी स्त्री को बदनाम करने का एक स्वचालित कारखाना है, जो उसके बारे में हज़ारों तरह की कुत्सित कल्पनाएँ कर डालता है। यह विषय निश्चय ही अत्यंत प्रासंगिक था, लेकिन जैसे ही कवि इस कथ्य में प्रवेश करता है, आधुनिकता की ओढ़ी हुई खाल उतारकर अपनी वास्तविक सामाजिक भूमिका में उतर आता है। इसकी शुरूआत स्त्री के 'अब भी कम वांछनीय न होने' की घोषणा से होती है।


इसके बाद का हिस्सा काफी सार्थक है:


"जबकि सच तो यह है कि जो वह वाकई होती है उसके लिए

सुंदर या खूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं

आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या

सैक्सी वालप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण

उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं

अकसर तो उसे ऐसे नामों से पुकारा जाता है

जो सार्वजनिक रूप से लिए भी नहीं जा सकते

लेकिन बेशक वह जादूगरनियों और टोनहियों सरीखी

बल्कि उनसे भी अधिक मारक और रहस्यमय

किसी अलग औरत-ज़ात कर तरह होती है

उसे देखकर सम्मोहन और आतंक एक साथ पैदा होते है"


उस स्त्री की सुंदरता की बात करते-करते नैरेटर 'सच तो यह है' और 'जो वह वाकई होती है' का वर्णन करने लगता है। उसे आगे जो 'रहस्योद्घाटन' करना है उसे लेकर वह कितना उत्तेजित है इसका पता इसी से चलता है कि आधे वाक्य में उसे उसकी सचाई की 'सच' और 'वाक़ई' के रूप में दो बार घोषणा करनी पड़ती है। इसके बाद गर्हित विशेषणों का सिलसिला भी नाकाफ़ी साबित होता है। यानी कवि की भाषा चुक जाती है तो वह कहता है कि 'अकसर तो उसे ऐसे नामों से पुकारा जाता है/ जो सार्वजनिक रूप से लिए भी नहीं जा सकते'। यह तीसरी घोषणा है। इससे पता चलता है कि समाज में अधिकांश लोगों की मानसिकता के मुताबिक़ अक्सर उसे  अशोभनीय नामों से पुकारा जाता है, जो कि ग़लत है। जो 'सच' था और जैसा वह 'वाक़ई' थी, उसे मैंने यहाँ कह दिया है।


इस प्रसंग का सबसे मार्मिक हिस्सा इसके बाद आता है। 'बेशक' के साथ कवि यहाँ एक बार फिर अपने कथन की सचाई पर जोर देता है। यहाँ उस स्त्री का 'जादूगरनियों और टोनहियों से अधिक मारक और रहस्यमय अलग औरत जात' की तरह होना उल्लेखनीय है। कोई भी देख सकता है कि यहाँ हमारा कवि न केवल इस स्त्री के बारे में व्याप्त सामाजिक दृष्टिकोण की पूरी तरह से गिरफ्त में है, बल्कि बौद्धिक रूप से कुछ विकसित होने के कारण उस नज़रिए को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचा देता है। यह वही सामाजिक चेतना है जो आए दिन किसी स्त्री को डायन और चुड़ैल बताती है। जब एक बार आपने उसे 'अपने' से अलग 'कोई और' मान लिया तो उसे किसी भी बहाने 'लिंच' करने का लाइसेंस ख़ुद को दे दिया। कवि यहाँ खुलकर इस दृष्टि पर अपनी मुहर लगाता है। इसके आशयों की गंभीरता के आभास के चलते ही कवि को बार-बार अपने वक्तव्य की सचाई की घोषणा करनी पड़ती है।


इसके बाद कविता में शहर के लोगों के विचारों का उल्लेख है। उनकी प्रतिक्रियाएँ वैसी ही लचर और अंतर्विरोधी हैं जैसे कि वे कवि की नज़र में ख़ुद होंगे। कुल मिलाकर वे अपने दृष्टिकोण में हास्यास्पद साबित होते हैं, और उस स्त्री के लिए निहायत घटिया शब्दावली का प्रयोग करने के बावजूद कोई घातक भूमिका नहीं बना पाते, जैसा कि उनका नैरेटर अपनी बढ़ी-चढ़ी क्षमताओं के कारण कर पाता है।


इसके बाद पूरी कविता नैरेटर की नज़र से देखी गई सचाई का बयान है। इसका पता पहले वाक्य से चलता है--- 'अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा'। ज़ाहिर है कवि इस हिस्से की ज़िम्मेदारी लेते हुए बता रहा है कि यह कथन उसके अध्ययन पर आधारित है और कोई दूसरा भी चाहे तो थोड़ा श्रम करके इस नतीजे पर पहुँच सकता है। इसके बाद पहले स्टैंजा में उस स्त्री के अनेक पुरुषों से संबंध होने के कारणों की तलाश संभावनाओं के जगत में कल्पना के घोड़े पर सवार होकर की गई है। ख़ास बात यह है कि कविता के पहले वाक्य में जिन परस्पर विरोधी संभावनाओं की बात की गई थी उसमें दूसरी संभावना तो ग़ायब है ही, उस स्त्री के बहुपुरुषगामी होने को एक स्वयंसिद्ध सत्य मानकर यह सब कुछ किया गया है। ज़ाहिर है, शहर में उसके बारे में जो कल्पनाएँ की जाती हैं, जो कवि की नज़र में  'अकसर सार्वजनिक रूप से व्यक्त न किये जाने योग्य' हुआ करती थीं, यहाँ उन्हीं को तथ्य मानकर उनके आधार पर आगे की खोज की जा रही है। हालाँकि अंत में उसके आंतरिक कारणों की तलाश पर यह कहकर विराम लगाया गया है कि उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया, इसलिए इस विषय पर कुछ नहीं कहा जा सकता। यहाँ कवि एक सुराग दे देता है कि उसे हँसते तो सुना गया लेकिन रोते नहीं देखा गया। यानी उसके सामाजिक व्यवहार का अध्ययन हुआ है, बाहर से  उसे देखा गया है, लेकिन उसके मन में क्या है इसका पता नहीं चल सका। यह बात उसके रहस्य को पुष्ट करते हुए कोई 'अलग औरत जात' होने के स्टीरियोटाइप को और मजबूत ही करती है।


अगले चरण में उस स्त्री के प्रति समाज के संभावित आक्रामक व्यवहार का उल्लेख है, जिसमें स्त्रियों का रवैया पुरुषों की अपेक्षा थोड़ी सहानुभूति भरा दिखाई पड़ता है। इस विषय में भी उस स्त्री के बारे में दुनिया भर की उछलकूद के बावजूद एक शब्द भी ऐसा नहीं है जिससे संभावना खुलती हो कि उसके बारे में प्रचलित बातें सामाजिक पूर्वाग्रहों की उपज हो सकती हैं। सहानुभूति का चरम यह है कि 'यदि मर्द औरत का इस्तेमाल कर सकता है/ तो बदले में औरत उसका इस्तेमाल क्यों न करे'। इस पूरे प्रसंग की रचना उस स्त्री के प्रति अधिकतम संभव अपमानजनक स्थितियों की कल्पना से की गई है। ऐसी एकतरफ़ा स्थितियों की सतत अपरिहार्यता के आग्रह से उस स्त्री या समाज के बारे में तो कुछ भी पता नहीं चलता, लेकिन कवि की पक्षधरता और उसकी मनोदशा की पोल अवश्य खुल जाती है। इसके बाद कविता में आया यह अंश ख़ास तौर पर दर्शनीय है:


"शहर की ऐसी बदनाम औरत

यदि वाकई भयभीत और शोकार्त होती होगी

तो शायद उस क्षण की कल्पना कर

जब एक दिन वह अपनी संतान का अपमान जानेगी या देखेगी

या उसे अचानक बदला हुआ पाएगी

उसकी आँखों में पढ़ेगी वह उदासी और हिकारत

देखेगी उसका दमकता चेहरा अचानक बुझा हुआ

समझ जाएगी कि उसके बारे में सही और ग़लत सब जान लिया गया है

कोई कैफियत नहीं देगी वह शायद

सिर्फ़ इंतज़ार करेगी कि उसकी अपनी कोख से बना हृदय तो उसे जाने

और यदि वैसा न भी हुआ

तो वह रहम या समझ की भीख नहीं माँगेगी

सबको तज देगी अपने अगम्य अकेलेपन को नहीं तजती

शहर की वह बदनाम औरत"


इस क्रम को एक क़दम आगे बढ़ाते हुए कवि कल्पना करता है कि ऐसी औरत अगर कभी भयभीत होती होगी तो यह कल्पना करके कि उसकी संतान भी किसी दिन लोगों के बहकावे में आकर उससे नफ़रत करने लगेगी। ऐसा होने पर वह पहले तो प्रतीक्षा करेगी कि उसकी संतान शायद उसे सही ढंग से समझ सके, लेकिन वैसा न होने पर वह उससे याचना करने के बजाय अपनी राह पर आगे बढ़ेगी। इस बिंदु पर भी कोई हल्का सा संकेत तक नहीं है कि वह अपने बारे में क्या समझे जाने की आशा करती है। उसका अपना पक्ष क्या है। सामाजिक पूर्वाग्रह इतने मज़बूत हैं कि वे हर जगह जीत जाते हैं। ख़ुद कवि को भी जब मौका मिलता है तो वह आग में घी डालने का काम करता है।


बहरहाल, इस बिंदु पर एक संभावना थी कि कविता के पाठक उस स्त्री की दृढ़ता से प्रभावित होकर खुद उसके पक्ष की खोज करें। उस समझ को पाने का प्रयास करें जिसकी अपेक्षा वह स्त्री अपनी संतान से करती है। अगर ऐसा अंत हो पाता तो यह कविता जैसी भी है, उसका एक ऐसा एंटीक्लाइमैक्स होता जो उस स्त्री के रहस्यमय जीवन के मिथक के अंत की शुरूआत कर सकता था। लेकिन कवि को कुछ और ही मंज़ूर था। कविता के अंतिम हिस्से में उस स्त्री का जो जीवन दिखाई पड़ता है वह 'जादूगरनी टोनहिन से बढ़कर किसी और औरत जात' के अनुरूप होता है। 'ऐसी औरतों' की 'असामान्यता' या 'परायेपन' का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि उनके जीवन के बारे में अन्यथा सारी जानकारियाँ मिलती हैं, लेकिन उनकी मौत का पता तक नहीं चलता। कविता में चित्रित स्त्री तो जीतेजी, बिना किसी को देखे पहचाने, किसी गंतव्य के बग़ैर भटकती रहती है। कवि ने इस स्त्री में इतनी अस्वाभाविक विलक्षणता का निवेश कर दिया है कि वह उसकी कल्पना का प्रतिबिंब बनकर रह गई है। वह भी हाड़-माँस की एक सामान्य औरत है, जिसका हँसना-रोना, चलना-फिरना, और जीना-मरना सारे सामाजिक पूर्वाग्रहों के बावजूद सामान्य मानवीय तौर का होगा, कवि की संवेदना से यह बात सिरे से ग़ायब है। इस समझ की परिणति वही होती है, जो हो सकती थी:


"ऐसी औरत के आख्यान खुद उससे कहीं सर्वव्याप्त रहते हैं

वह कब छोड़कर चली जाती है शहर

और किस वास्ते किसके साथ यह मालूम नहीं पड़ता

फिर भी उसे जहाँ-तहाँ एकाकी या युग्म देखे जाने के दावे किए जाते हैं

ऐसी औरत की देह के

सामान्य या अस्वाभाविक अवसान का कभी कोई समाचार नहीं मिलता

कभी-कभी अचानक किसी नामालूम रेल्वे स्टेशन या रास्ता पार करती भीड़

या दोपहर के सूने बाज़ार में अकेली वह वाकई दिखती है अपनी ही रूह जैसी

उसकी उम्र के बावजूद उसकी बड़ी-बड़ी आँखों उसकी तमकनत से

अब भी एक सिहरन दौड़ जाती है

उसकी निगाहें किसी को पहचानती नहीं लगतीं

और लोगों और चीज़ों के आर-पार कुछ देखती लगती हैं

शायद वह खोजती हो या तसव्वुर करती हो अपने ही उस रूप का

स्वायत्त छूटकर जो न जाने कहाँ किसमें विलीन हो चुका ले चुका अवतार

शायद उसी या किसी और शहर की अगली बदनाम औरत बनकर !"


यह पूरी तरह से अकेली रह जाती है। किसी नामालूम रेलवे स्टेशन के निकट या किसी सूने बाजार में अपनी भटकती हुई आत्मा की तरह दिखाई पड़ती है। उसकी आँखें किसी को पहचानती नहीं, चीज़ों के पार देखती लगती हैं। इस तरह वह स्त्री एक विक्षिप्त अंत को प्राप्त होती है। इस पर कवि जो कुछ कहता है उससे पता चलता है कि उस स्त्री के भावजगत में प्रवेश करने की उसकी तैयारी कितनी अपर्याप्त थी, और क्यों वह इतनी आसानी से सामाजिक पूर्वाग्रहों का शिकार हो गया। वह कहता है कि शायद वह अपने बीते हुए रूप को तलाश रही होगी। जीवन के अंत में उस विषम परिस्थिति में पड़ी हुई स्त्री के जीवन का निचोड़ वह उसके खोए हुए रूप को समझता है, जिसे इस मोड़ पर भी वह तलाश रही होगी। उसके पूरे जीवन के ब्यौरे में भी उसके रूप के अलावा कोई चीज़ वह नहीं देख सका था। साथ ही वह इस रूप के किसी और स्त्री में प्रकट होने की कल्पना करके इन पूर्वाग्रहों की शाश्वतता की घोषणा भी करता है। इस नज़रिये को हद दर्जे का पिछड़ापन नहीं तो क्या कहेंगे।


कवि ने उस स्त्री की आँखों की 'तमकनत' यानी गर्वीलेपन से 'अब भी सिहरन दौड़ जाने' की बात कही थी, लेकिन कविता से लगता है जैसे हर क़ीमत पर उसका मानमर्दन ही कवि का हासिल है। इस बिंदु पर मुझे भारतेंदु-संपादित पत्रिका 'बालाबोधिनी' में प्रकाशित, पन्द्रहवीं सदी की फ्रांसीसी वीरांगना जोन ऑफ आर्क के जीवन और शहादत के बारे में लिखे गए बिहारी चौबे के लेख की याद आ रही है, जिसमें उन्होंने नतीजा निकाला था कि घर-गृहस्थी में अपनी भूमिका को छोड़कर जो स्त्रियाँ पुरुषों से मुक़ाबला करेंगी, उनका वही अंजाम होगा जैसा जोन का हुआ।


विष्णु खरे की कविताओं पर चर्चा की अंतिम कड़ी के रूप में उनकी एक प्रतिनिधि कविता 'ज़िल्लत' का विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। कविता का शुरुआती हिस्सा देखें:


"अजीबोग़रीब वाक़यात से

इस समाज के नए संकट दिखाई पड़ते हैं


उस दिन जब मालवा एक्सप्रैस में

एक हीजड़े ने ताली बजाकर एक रुपया मॉंगा

तब रुपया तो मैंने उसे नहीं दिया

लेकिन सोच में पड़ गया

कि दो साल पहले कहीं यही तो नहीं था

जिसने रात दस बजे

रिंगरोड के यूकैलिप्टसों के बीच से अचानक निकलकर  कहा था

बाबूजी बीस रुपये देना हम मुँह से ही कर देंगे


हीजड़ों के उस प्रारंभिक पतन से

मुझे उस रात सड़क किनारे पेशाब कर लेने के बाद भी दहशत हुई थी

क्योंकि बारह बरस पहले 

तुर्कमान गेट के उनके रचे-बसे मुहल्ले में जाकर अख़बार के लिए मैं उनके इन्टरव्यू ले चुका था और तब वे अपनी सामूहिकता में हमेशा की तरह 

मुँहज़ोर और दबंग थे"


('काल और अवधि के दरमियान' नामक संग्रह से)


कविता के पूर्वार्द्ध में कवि ने हिजड़ों के जीवन और सामाजिक स्तर में आ रही गिरावट को अपना विषय बनाया है। जो हिजड़े नाचने-गाने के पेशे में रहते हुए मख़ौल का निशाना बनकर भी समाज में अपनी उद्दंडता या दबंगई के लिए मशहूर थे, उन्हें कभी-कभी कैसी विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ जाता था, लेकिन अपने जीवट से वे उनसे बाहर निकल आते थे। इसमें ख़ास तौर पर उल्लेखनीय डिलाइट सिनेमा वाला प्रकरण है:


"हिंदी फ़िल्मों में उनका चित्रण फूहड़ और सतही हुआ है 

जबकि मैंने उन्हें डिलाइट सिनेमा में भी पाया है अपने भड़कीले नायलानों और सस्ते स्नो-पाउडर-सैंट में 

बाल्कनी में बैठे सबसे तमकनत-भरी आँखें मिलाते हुए 

दूर की सीटों पर कुछ शौक़ीन सहदर्शकों की सुरक्षित भयभीत फ़ब्तियों का 

चुनौती -भरे अपने नख़रीले स्वरों में जवाब देते हुए 

सम्पन्न लगते थे वे 

ब्लैक में सौ रुपये की टिकट लेना 

अब अच्छे-अच्छे मर्दों के बस की बात नहीं रही"


इस स्टैंजा की शुरूआत कवि के इस कथन से होती है कि हिंदी फ़िल्मों में हिजड़ों का 'फूहड़ और सतही चित्रण' हुआ है। ज़ाहिर है, इस सहजबोधगम्य विचार में यह निहित है कि इस कविता में उनका गहरा और संश्लिष्ट चित्रण हुआ है। इस हिस्से की दो अभिव्यक्तियों पर ध्यान दें। पहले कुछ 'शौक़ीन' सहदर्शकों का उल्लेख आता है, जो हिजड़ों पर फ़ब्तियाँ कसते हैं। 'मर्दानगी बढ़ाने के लिए' विभिन्न प्रकार की औषधियों के विज्ञापनों से यहाँ आया यह शब्द समलैंगिकों में भी केवल 'सक्रिय' भूमिका निभाने वाले पक्ष के लिए प्रयुक्त होता है, और वहीं से यहाँ आया है। बिना अधिक विस्तार में गए भी यह कहा जा सकता है कि  फ़ब्तियाँ कसने वाले ऐसे लोगों को शौक़ीन कहना इस प्रक्रिया में दूसरे पक्ष की भी कुछ न कुछ भागीदारी की कल्पना को प्रेरित करता है, और इस तरह के दुष्कृत्य को स्वीकार्य बनाने की ओर ले जाता है। यही रवैया बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के लिए 'पागल प्रेमी की करतूत' या 'प्रेमप्रपंच में हत्या' जैसी अख़बारी सुर्ख़ियों के लिए ज़मीन तैयार करता है, या पीड़ित पक्ष की 'असावधानी' को ही दोषी मानता है।


दूसरी बात यह कि इस प्रसंग के अंत में टिप्पणी आती है--- 'ब्लैक में सौ रुपये की टिकट लेना अब अच्छे-अच्छे मर्दों के बस की बात नहीं रही'। कोई भी देख सकता है कि सौ रूपये के टिकट का किसी की मर्दानगी से कोई लेना देना नहीं। इसके लिए सिर्फ़ जेब मे पैसा होना चाहिए। यहाँ एक बार फिर कवि या तो सामंती आग्रहों से भरी हुई चलताऊ भाषा का प्रयोग असावधानी के कारण करता है, या फिर जानबूझकर मर्दानगी को सम्पन्नता के पर्याय के रूप में प्रस्तुत करता है। ऐसा लगता है कि कवि के लिए दुनिया मर्दों और नामर्दों में बँट गई है। जो मर्द है, धनवान भी वही है। इसका उल्टा भी सही है। इस प्रसंग को और स्पष्ट करने के लिए कविता के अंतिम स्टैंजा पर एक नज़र डालनी होगी:


"जो भी हो साफ़ है

कि हीजड़ों की गर्वीली लड़ाकू बिरादरी हर जगह संकट में है

मैंने मुम्बई में भी लोखण्डवाला के पास

चौराहे पर उन्हें मोटरों तिपहियों की सवारियों से पैसे माँगते देखा है

भारत के करोड़ों ग़रीबों में हीजड़ों का शामिल हो जाना हैबतनाक़ है

अभी तो जो हीजड़ा ताली बजाकर गया है

उसकी आवाज़ और हरकतों में वह ढिठाई और टेढ़ कुछ बाक़ी थी

जो हीजड़ों की विरासत है

लेकिन शायद एक दिन ऐसा आए 

जब वह तुम्हारे पास आकर चुपचाप खड़ा हो जाए 

और तुम उसके बदन से उठती उस अलग तीखी बू

और तुम्हारे आगे बढ़ी हुई हथेली से ही उसकी मौजूदगी जानो 

और अपनी आवाज़ को भरसक सामान्य रखता हुआ 

जब वह तुम्हारे कुछ न देने पर भी बिना ताली बजाए आगे बढ़ जाए 

उस दिन तुम समझ जाओगे कि हीजड़ों की ख़ुद्दार क़ौम तक को

जिसे वेश्याओं की तरह सड़कों के किनारे खड़ा होना मन्ज़ूर नहीं था

सरे-बाज़ार अपना पेशा और धरम छोड़ना पड़ा

और प्लेटफ़ार्मों और लाल बत्तियों पर

अपाहिजों की तरह

भीख मॉंगने पर मजबूर हुई

देश का इतना पतन हुआ"


ग़ौरतलब है कि यहाँ हिजड़ों के भिखारियों में शामिल होने को "भारत के करोड़ों ग़रीबों में शामिल हो जाना" कहा गया है। ग़रीब होना भिखारी होने का पर्याय नहीं है। अपवादों को छोड़ दें तो हिजड़े पहले भी ग़रीब ही थे। भिखारी होने का अर्थ है अपनी गरिमा और सम्मान से गिर जाना। ग़रीब के पास धन नहीं होता, लेकिन आत्मसम्मान होता है। अपनी मनुष्यता और गरिमा से वंचित हो जाने के लिए उनके पास अमीरों से अधिक कारण नहीं होते। फिर भी कवि ने यहाँ जानबूझकर उसे ग़रीबों में शामिल हुआ बताया है। भंगिमा हिजड़ों के प्रति हमदर्दी जताने की है। लेकिन भिखारी बनने वाले हिजड़ों के सम्मान की रक्षा उन्हें ग़रीब बताने से तो कुछ भी नहीं होती, ग़रीबों का अवमूल्यन ज़रूर हो जाता है। रघुवीर सहाय की कविता 'आने वाला ख़तरा' की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं:


"इस लज्जित और पराजित युग में

कहीं से ले आओ वह दिमाग़

जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता

कहीं से ले आओ निर्धनता

जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती

और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो"


यहाँ भी मंगतपने को 'निर्धनता' की ख़ास पहचान बताया गया है। ऐसा लगता है कि यह कविता के रघुवीर सहाय घराने की विशेषता है, ग़रीबों को भिखारी बताना। वरना, किसी का ग़रीब बन जाना या ग़रीबों में शामिल हो जाना भारत जैसे ग़रीब देश में 'हैबतनाक़' या ख़ौफ़नाक क्योंकर हो सकता है। ऐसा लगता है कि विष्णु खरे की नज़र में किसी का ग़रीब होना ही आश्चर्यजनक है, और भिखारी होना ग़रीब होने का स्वाभाविक परिणाम है। 


इसी के साथ कविता की अंतिम पंक्तियों में आए एक अन्य प्रयोग---'अपाहिजों की तरह भीख मॉंगने पर मजबूर हुई'--- पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि शारीरिक रूप से अलग तरह की चुनौतियाँ झेल रहे लोगों के बारे में भी कवि का रवैया ख़ासा आपत्तिजनक है। ग़रीब की तरह ही अपाहिज होना भी उसे भिखारी होने का पर्याय मालूम होता हैं। इसी संग्रह की एक अन्य कविता 'ख़ुलासे' में महज़ "खड़े रहने चलने चुप रहने" की वजह से ट्रेन में लिखित नोट पढ़ाकर भीख मॉंगने वाले को 'अपाहिज' मान लिया जाता है, हालाँकि वे किस प्रकार अपाहिज हैं इसका पता किसी को नहीं है। कविता का यह अंश देखें:


"किस तरह की दिक़्क़त है उसके साथ यह पता नहीं चलता

उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह कहाँ से विकलांग सम्भव है

लेकिन उसके खड़े रहने चलने चुप रहने के तरीक़े से

यह अन्देशा होता है कि उसे कोई तकलीफ़ ज़रूर है"


ज़ाहिर है, कवि की नज़र में भीख माँगना अपाहिज होने का भी, ग़रीब होने की ही तरह, स्वाभाविक नतीजा है। कवि के इन प्रयोगों को देखकर यह लगता है कि या तो कविता में वह जो सहानुभूति और करुणा व्यक्त करता है वह झूठी है, या फिर शब्दों के प्रयोग को लेकर वह सचेत नहीं है। दूसरी स्थिति भी अंततः पहली सम्भावना का ही संकेत करती है। कहना अनावश्यक है कि यह दृष्टि न केवल ग़रीबविरोधी है, बल्कि मनुष्यविरोधी भी है।


हिजड़ों को लेकर कवि ने जो इतनी चिंता व्यक्त की है, आइए देखते हैं कि उसका नतीजा क्या निकलता है। कविता के आरंभिक अंश से स्पष्ट है कि यौन-कारोबार में उनके शामिल होने को कवि उनका पतन मानता है। कविता की अन्तिम पंक्तियों में भी वह हिजड़ों के वेश्याओं से अलग होने में उनकी बेहतरी देखता है। इन पंक्तियों के इस हिस्से पर ध्यान दें--- 'वेश्याओं की तरह सड़कों के किनारे खड़ा होना मन्ज़ूर नहीं था'। इससे पहले सड़क पर गली-मोहल्ले में मनचाहा नेग न मिलने पर हिजड़ों के उत्पात मचाने का उल्लेख कविता में कई बार हो चुका है। इसलिए 'सड़क किनारे' खड़ा होना तो कभी उनके लिए अजनबी परिस्थिति न थी। यानी लेखक का संकेत वेश्या की भूमिका में होने की ओर है। कविता की शुरूआती पंक्तियों से भी उनके इसी 'पतन' की सूचना मिली थी।


यहाँ तक आकर हमने पाया कि कवि ने मुद्रा तो यही अपनाई है कि वह हिजड़ों के 'पतन' पर दुखी है, और इसे देश के पतन के सूचकांक के बतौर दर्ज कर रहा है। लेकिन बारीकी से देखने पर पता चलता है कि कवि स्वयं उन्हें कामोपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता। 'वेश्याओं की तरह सड़क पर खड़े होकर नहीं', तो कहीं और, किसी और तरीक़े से, लेकिन आजीविका वे इसी धंधे से कमाते हैं। इसका स्पष्ट पता तब चलता है जब कवि उनकी आर्थिक स्थिति में आई गिरावट के कारणों की छानबीन करता है:


"इधर क्या हीजड़ों की माँग घटी है

क्या प्रतियोगी वेश्याओं ने उनका बाज़ार भी ले लिया है

या लोगों के असामान्य शौक़ भी बदल रहे हैं

और वे अब टेलीविज़न और अंग्रेजी अख़बारों के चिकने परिशिष्टों में

दिखने वाले मॉडलों में दिलचस्पी ले रहे हैं

जिनके बारे में दिन ब दिन यह तय कर पाना कठिनतर होता जा रहा है

कि वे औरत हैं या मर्द"


इस अंश की शुरूआती तीन पंक्तियों से ज़ाहिर है कि हिजड़े और वेश्याएँ एक ही धंधे में हैं, और एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। अगर ऐसा ही है तो हिजड़ों के 'पतन' पर घड़ियाली आँसू बहाने का क्या मतलब है। अगर कवि यह कहना चाहता है कि वेश्याओं का सड़क पर खड़ा होकर धंधा करना बुरा है तो क्या उनका पाँचसितारा होटलों में यही काम करना कवि की नज़र में श्रेयस्कर है। न जाने किन परिस्थितियों में  देहव्यापार का हिस्सा बनी स्त्रियों के प्रति कवि यहाँ न केवल निष्करुण है, बल्कि उनके भी सबसे विपन्न तबक़े को हमले का निशाना बना रहा है। साथ ही साथ हिजड़ों को वह गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने का पाखंडी पाठ भी पढ़ाता जा रहा है। 


सच तो यह है कि इस विवरण से वह हिजड़ों की सारी ख़ुद्दारी और नाच-गाने से लेकर आम लोगों की तरह छोटे-मोटे काम-धंधे करके आजीविका चलाने की प्रवृत्ति पर कोलतार फेर देता है; और 'असामान्य शौक़' रखने वाले लोगों, जिन्हें पहले उसने 'शौक़ीन' कहकर संबोधित किया था, के उपभोग की वस्तु के रूप में एक जड़ 'स्टीरियोटाइप' में क़ैद कर देता है। इन घिसीपिटी सामाजिक मान्यताओं से कवि की चेतना इस क़दर आक्रांत है कि वो मॉडलों पर इस बात के लिए व्यंग्य करता है कि उन्हें देखकर यह पता नहीं चलता कि वे 'औरत हैं या मर्द'। सवाल यह है कि यह पता चलना क्यों ज़रूरी है। क्या यही दृष्टि समाज में हिजड़ों के प्रति भेदभाव के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। पता नहीं इन मॉडलों ने किसी का क्या बिगाड़ा है। जिन लोगों के 'असामान्य शौक़' बदलने की बात कवि कर रहा है, उनमें से अधिकांश तो पत्रिकाओं के 'चिकने' पन्नों से अलग इन्हें देख भी नहीं सकेंगे। 


पहले वेश्याओं से हिजड़ों की, और अब हिजड़ों से मॉडलों की प्रतिद्वंद्विता का आयोजन करके कवि देहव्यापार में उनके भी शामिल होने की संभावना का खुला संकेत कर देता है। समझना मुश्किल नहीं कि रोज़गार और कैरियर की जद्दोजहद में जूझ रहे इन युवा लड़के-लड़कियों को देखकर कवि के दिमाग़ के कौन से तंतु सक्रिय होते हैं, और उनकी अनुवांशिक बनावट क्या है। ध्यान दें, इस कविता में कवि ने जितने कमजोर और उत्पीड़ित तबक़ों पर नज़रे-इनायत की है, सबका अवमूल्यन किया है। सामाजिक पूर्वाग्रह इसी प्रकृति के होते हैं। वे हमेशा ताक़तवर के पक्ष में जाते हैं। विष्णु खरे की कविता ऐसे ही पूर्वाग्रहों से संचालित होती है।


Comments

  1. विष्णु खरे की कविताई में अजीब तुरत-फुरतपन, ऊब पैदा करने वाले अतिरेक और एक तरह की बदहवासी का अहसास पहले से होता रहा है.

    आज पूरी रात खर्च कर पढ़े आपके विश्लेषण ने लंबे समय से खटकते कई संदर्भों के परिदृश्य साफ़ कर दिए. आपने जिस विश्वसनीय धैर्य और तार्किक गाम्भीर्य के साथ विष्णु खरे की 'दृष्टि' का सूक्ष्म विश्लेषण किया है यह स्वयं में एक मिसाल है.

    अनौपचारिक हार्दिक बधाई 🌺🙏🏻

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