अज्ञेय की कविता:पुनर्विचार
साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना-- विष कहाँ पाया? -----अज्ञेय ('साँप' शीर्षक कविता, 'इन्द्रधनु रौंदे हुए ये' नामक संग्रह से) यह अज्ञेय की सबसे पढ़ी गयी कविताओं में से एक है और कई मायनों में अज्ञेय के साथ-साथ उनके प्रशंसक समुदाय के मनोजगत का परिचय भी हमें देती है। जैसा कि ज़ाहिर है इसमें नागर जीवन और आधुनिक सभ्यता के बारे में कवि अपने विचार व्यक्त कर रहा है। उसका ख़याल है कि किसी को काट लेने और उसमें ज़हर प्रवाहित कर देने का गुण-धर्म नगरों की विशेषता है, और अन्यत्र यह दुर्लभ है। प्रत्यक्ष तौर पर कवि साँप को संबोधित करते हुए पूछता है कि तुमने डँसने की कला कहाँ सीखी और इस क्रिया को घातक बनाने वाला ज़हर तुम्हें कहाँ से मिला। इस तरह शहर, और आधुनिक सभ्यता के साथ कवि साँप को भी समीकृत करता है, और उसके प्रति हमारे भय को ताज़ा करता है। अब ज़रा ग़ौर करें कि शहर की बात करते समय उसके प्रतिपक्ष के रूप में गाँव वहाँ निश्चित रूप से मौ...