अज्ञेय की कविता:पुनर्विचार

 



साँप!

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डँसना--

विष कहाँ पाया?


               -----अज्ञेय

 ('साँप' शीर्षक कविता, 'इन्द्रधनु रौंदे हुए ये' नामक संग्रह से)


यह अज्ञेय की सबसे पढ़ी गयी कविताओं में से एक है और कई मायनों में अज्ञेय के साथ-साथ उनके प्रशंसक समुदाय के मनोजगत का परिचय भी हमें देती है। जैसा कि ज़ाहिर है इसमें नागर जीवन और आधुनिक सभ्यता के बारे में कवि अपने विचार व्यक्त कर रहा है। उसका ख़याल है कि किसी को काट लेने और उसमें ज़हर प्रवाहित कर देने का गुण-धर्म नगरों की विशेषता है, और अन्यत्र यह दुर्लभ है। प्रत्यक्ष तौर पर कवि साँप को संबोधित करते हुए पूछता है कि तुमने डँसने की कला कहाँ सीखी और इस क्रिया को घातक बनाने वाला ज़हर तुम्हें कहाँ से मिला। इस तरह शहर, और आधुनिक सभ्यता के साथ कवि साँप को भी समीकृत करता है, और उसके प्रति हमारे भय को ताज़ा करता है।


अब ज़रा ग़ौर करें कि शहर की बात करते समय उसके प्रतिपक्ष के रूप में गाँव वहाँ निश्चित रूप से मौजूद है। खास तौर पर, जब कवि इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करता है कि सभ्य हुए बिना और शहर में रहे बिना साँप को यह सब कहाँ से हासिल हुआ। गाँव और खेत-खलिहान साँपों और दूसरे जीव-जंतुओं के लिए शहर के मुक़ाबले अधिक सहज बसेरे हैं, यह बात कवि को पता है। इसीलिए वह भरोसे के साथ कहता है कि साँप शहर में नहीं रहा है। हिंदी में गाँव बनाम शहर की लंबी बहस रही है और आम तौर पर 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है' की संवेदना का बोलबाला रहा है। गाँव के लोगों की भलमनसाहत और भाईचारे के मिथक का जादू दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक अधिकांश के सिर चढ़कर बोलता रहा है। किन्हीं अघोषित कारणों से हमारे रचनाकारों की संवेदना में यह बात पर्याप्त जगह नहीं घेर सकी कि हमारे देश के, और ख़ासकर हिंदीभाषी इलाक़े के गाँव बदतरीन क़िस्म के घुटन, जातिवादी घृणा, और दमन-उत्पीड़न के केंद्र रहे हैं। शहरों के जीवन की अपनी तकलीफ़ें भी कुछ कम नहीं, लेकिन शहर-क़स्बों में मौजूद कल-कारख़ानों से लेकर स्कूल-कालेजों और सरकारी दफ़्तरों तक ने जातिवादी जकड़न को इतना ढीला ज़रूर किया कि इनके शिकार कुछ दम लेकर अपनी हालत में सुधार के तरीक़ों पर विचार कर सकें। अगर हम ठीक से सोच सकें तो हमारे देश में आई जैसी-तैसी आधुनिकता और नागर-बोध की यह अकेली उपलब्धि भी शहर को गाँव के मुक़ाबले अधिक मानवीय जगह बनाती है। बहरहाल, आम तौर पर हिंदी साहित्य में शहर और मध्यवर्ग निंदित प्रत्यय बने रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि प्रस्तुत कविता जैसी तमाम रचनाओं के पीछे छिपी संवेदना की पड़ताल नहीं हो सकी।


इस कविता में आई 'डँसने' की क्रिया और 'विष' के चरित्र पर विचार करें तो पाएंगे कि इसे लिखने और इसे पसंद करने वाले समान रूप से आधुनिक जीवन के मान-मूल्यों से पीड़ित हैं, और उसके अवमूल्यन में किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह भावबोध इस क़दर सुसंगत है कि साँप नामके जिस जीव को यहाँ शहर के प्रति अपनी नफ़रत को व्यक्त करने का माध्यम बनाया गया है, वह भी आधुनिक युग में बनी पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समझ के मुताबिक हमारी सहानुभूति और संरक्षण का पात्र है, न कि हमारी घृणा का। कहने को साँप को यहाँ शहरी जीवन का एक प्रतीक भर बनाया गया है, लेकिन वास्तव में उसकी सहज जैविक क्रियाओं को 'नगर' की तथाकथित डरावनी और ख़तरनाक विशेषताओं का रूपक बनाकर उसे भी हमारी घृणा का आलम्बन बना दिया गया है।


आधुनिक-लोकतांत्रिक युग में बहुत से परिवर्तन ऐसे हुए जिन्होंने अतीत के स्वर्णयुगों की पोल खोल दी। बदले में उन पुराने मूल्यों को जीने वाले कवियों और चिंतकों ने सभी संभव तरीक़ों से इसकी निंदा की। इन विचारकों और रचनाकारों को पूर्वआधुनिक या सामंती भावबोध से ग्रस्त कहना अनुचित न होगा। अज्ञेय की यह कविता भी इसी भावभूमि की उपज जान पड़ती है। इस श्रृंखला में आगे हम उनकी अन्य कविताओं पर विचार करते हुए देखेंगे कि यही उनकी सुसंगत अवस्थिति है, या वे आम तौर पर आधुनिक भावबोध के रचनाकार हैं, और 'साँप' जैसी कविता उनके रचनासंसार में आया कोई भटकाव भर है।


अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता 'कलगी बाजरे की' को उनके आधुनिक कवि-रूप का घोषणापत्र जैसा माना जाता है, क्योंकि सौंदर्य के पुराने प्रतीकों की जगह इस कविता का वाचक अपनी प्रेमिका के लिए हरी घास और बाजरे की कलगी जैसे उपमानों का प्रयोग करता है। नेट पर आसानी से उपलब्ध होने के कारण हम यहाँ इस कविता का सिर्फ़ अंतिम हिस्सा उद्धृत करके अपनी बात स्पष्ट करेंगे:


"अगर मैं यह कहूँ---


बिछली घास हो तुम

लहलहाती हवा मे कलगी छरहरी बाजरे की ?


आज हम शहरातियों को

पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फ़ूल से

सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-

कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक 

बिछली घास है,

या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती    

            कलगी अकेली

बाजरे की।"


                      ('हरी घास पर क्षण भर' नामक संग्रह से, कलकत्ता 10 नवंबर 1949)


घास का प्रतीक आधुनिक संवेदना से संपन्न कवियों को प्रिय रहा है। आधुनिक युग मे जैसे-जैसे सामान्य मनुष्य की महत्ता पर ज़ोर दिया गया और उसके दृष्टिकोण से चीज़ों को देखने का प्रयास किया गया, उसके लिए पुरानी भव्यता को नकारने वाले साधारण और आमफ़हम प्रतीक और रूपक की तलाश में कवि की दृष्टि घास की ओर गई। साधारणता की महिमा और जिजीविषा का गान करने वाली पाश की इन पंक्तियों को देखें:


"मैं घास हूँ

मैं तुम्हारे हर किये-धरे पर उग आऊँगा

बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर 

बना दो हॉस्टल को मलबे का ढेर 

सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर 


मेरा क्या करोगे 

मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा"


या फिर जनसमुदाय की, ताक़त के मुकाबले सिर उठाने की आकांक्षा और सत्ता द्वारा उसे कुचल देने की विडंबना का यह आख्यान मीर के इस शेर में देखें:


"सब्ज़ा नौरुस्ता रहगुज़ार का हूँ

सिर उठाते ही हो गया पामाल"


आधुनिक कविता की इस प्रवृत्ति को देखते हुए अज्ञेय का यह कथन स्वाभाविक प्रतीत होता है, उसे नये युग का घोषणापत्र भले न माना जाए। ख़ुद को या अपने प्रिय को जनसामान्य का एक अंग बताना निस्संदेह आधुनिक-लोकतांत्रिक चेतना की अभिव्यक्ति है। बहरहाल, इसके संग्रह का नाम भी घास के प्रति कवि के विशेष आग्रह को प्रदर्शित करता है। संग्रह के नाम वाली कविता इससे महज़ पच्चीस दिन पहले लिखी गई है, जिसे देखें तो कुछ और संकेत मिलते हैं। कविता की शुरूआती पंक्तियाँ हैं:


"आओ बैठें

इसी ढाल की हरी घास पर।


माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,

और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह

सदा बिछी है--- हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे।"


इन पंक्तियों से घास के साथ-साथ 'अधुनातन मन की भावना' के बारे में सर्वथा नवीन जानकारी मिलती है कि

ये दोनों हमेशा इस बात का न्यौता देती हैं कि कोई उनको आकर रौंद दे। उसके इंतज़ार में महज़ अपनी पलकें नहीं वे ख़ुद को भी बिछाए रहती हैं। अगर सचमुच ऐसी स्थिति है तो घास को किसी के व्यक्तित्व का प्रतीक मानना स्वीकार्य नहीं हो सकता, वह स्त्री हो या पुरुष। तथाकथित आधुनिकतावादी कवि अज्ञेय का 'अधुनातन मन की भावना' के बारे में यह ख़याल क्यों है कि उसे बस रौंदे जाने की प्रतीक्षा है। इसके बारे में अपनी राय रखने से पहले मैं चाहता हूँ कि इस कविता की अंतिम पंक्तियों पर भी ग़ौर कर लें ताकि किसी को यह न लगे कि सिर्फ़ एक-दो पंक्तियों के आधार पर कोई नतीजा निकाला जा रहा है:


"-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने:

(जिस के खुले निमन्त्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है

और वह नहीं बोली),

नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से

जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की

किन्तु नहीं है करुणा।


उठो, चलें, प्रिय!"


                          (इलाहाबाद, 14 अक्टूबर, 1949)


यहाँ ब्रैकेट में स्थित वाक्य में रौंदे जाने की आकांक्षा और नियति को दुहराकर कवि ने उसे 'घास' की लगभग एकमात्र विशेषता बना दिया है। यहाँ 'रौंदने' की क्रिया का दुहराव ध्यान खींचता है। 'रौंदना' और 'रौंदा जाना' आधुनिक पूंजीवादी युग की आम विशेषताएँ है। इसका रिश्ता क्रमशः उत्पीड़क और उत्पीड़ित से जुड़ता है। ख़ास बात यह है कि रौंदने वाले के मनोजगत में अपने शिकार की छवि इसी रूप में होती है कि वो रौंदे जाने के लिए आमंत्रित कर रहा है, इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है, और इससे लाभान्वित हो रहा है। दूसरी तरफ़ जो उत्पीड़ित है, वह इस प्रक्रिया को अपनी तबाही और बर्बादी से जोड़कर देखता है, और अगर इसको रोक नहीं पता तो इसपर दुखी होता है। पहलें प्रकार की संवेदना का एक नमूना बुद्धिनाथ मिश्र की उन पंक्तियों में देखें:


"एक बार और जाल फेंक रे मछेरे

जाने किस मछली में बंधन की चाह हो"


दूसरे प्रकार की संवेदना का उदाहरण मीर का ऊपर दिया शेर है, जिसमें इस प्रक्रिया को ही 'पामाल होना' कहा गया था। उन्हीं के समकालीन क़ायम चाँदपुरी का यह शेर इसकी एक और बानगी देता है:


"उस सब्ज़े की तरह से कि हो रहगुज़ार पर

 रौंदन में एक ख़ल्क़ की याँ हम मले गये"


यहाँ शिकारी और शिकार की संवेदना का अंतर उनके कथनों के अतिरिक्त उनकी भंगिमा से भी पर्याप्त स्पष्ट है। ग़ौरतलब है कि अज्ञेय की कविता बुद्धिनाथ मिश्र की संवेदना के निकट पड़ती है। इस दिशा में थोड़ी और छानबीन करें तो पाते हैं कि अज्ञेय के यहाँ घास के अलावा एक और चीज़ रौंदी गयी है---इन्द्रधनु। उनके एक संग्रह का नाम है 'इन्द्रधनु रौंदे हुए ये'। यह शीर्षक इसी संग्रह की एक कविता 'सागर तट की सीपियाँ' से लिया गया है। कविता इस प्रकार है:


"सीपियाँ।

ये शुभ्र-नीलिम : दर्द की आँखें फटी-सी

जो कभी अब नहीं मोती दे सकेंगी।


यह गन्ध-दूषित : मुख-विवर जो किरकिराते रेत-कन से

अचकचा कर अधखुला ही रह गया है।


ये बन्द, बाहर खुरदरी, छेदों-भरी :

हाय रे, अपनी घुटन का ले सहारा मुक्त होना चाहना

नि:सीम सागर से-

उसी के उच्छिष्ट का!

ये टूटी हुई रंगीन :

इन्द्र-धनु रौंदे हुए ये-

रेत से मिस चले से भी स्निग्ध, रंगारंग---

जैसे प्यार।


और यह, जो---,

चलो, यह अच्छा हुआ जो लहर उस को कोख में लेती गयी---

न जाने क्यों मुझे उस के कँटीले रूप से संकोच होता था।

                                (देहरादून, मई, 1956)


सागर तट पर लहरों से छूटकर पड़ी रह जाने वाली उजली-नीली आभा वाली ये 'सीपियाँ' दर्द की वजह से फटी रह गयी आँखों जैसी दीखती हैं। अगली ही पंक्ति में उनकी त्रासदी का पता चलता है कि वे अब मोती 'नहीं दे सकेंगी'। यह 'नहीं दे सकना' उनके दर्द का कारण हो या परिणाम, इतना तय है कि कवि की नज़र में यह उनके 'जीवन' का निचोड़ है। रेत का कण तो उनके अंदर गया पर वे उसका रचनात्मक उपयोग नहीं कर सकीं, और उनकी यह दुर्दशा हुई। अज्ञेय के मुहावरे में रेत होना प्रवाहित होने का पर्याय है---'क्योंकि बहना रेत होना है / हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।' ('नदी के द्वीप' शीर्षक कविता से) यहाँ तक आते-आते 'सीपियाँ' स्त्री के रूपक में बदलने लगती हैं।


आगे चलकर 'मुक्त होने' की कामना पर कवि का अफ़सोस उल्लेखनीय है। प्रकृति की यह रचना जो उसके मुताबिक़ ख़ुद ही 'बंद और छेदों भरी' है, लेकिन अपनी 'घुटन' का 'सहारा लेकर' (यानी घुटन के नाम पर,उसके बहाने) सागर से मुक्त होना चाहती है। (समुद्र समाज का सुपरिचित रूपक है।) जबकि इसे पता नहीं है कि यह उसी सागर की 'जूठन' है। आख़िरकार रंगीन सीपी 'टूट' जाती हैं, मानो सात रंगों वाले इंद्रधनुष को किसी ने रौंद दिया हो। ग़ौर करें कि 'टूटने' और रौंदे जाने के बाद वह 'प्यार' की तरह 'स्निग्ध' और 'रंगारंग' हो जाती है। इस प्रकार कवि के शब्दों में मुक्त होने की आकांक्षा का नतीजा भुगत चुकने के बाद जब वह अपनी गति को प्राप्त हो जाती है, तो सागर की लहरें फिर उसे अपनी 'कोख' में जगह देती हैं। यानी यह जीवन तो उसका इस आकांक्षा में नष्ट ही हो गया, अब अगर वह समुद्र की जूठन बनी रहने को अपनी नियति मान लेगी और घुटन आदि का बहाना नहीं करेगी तो हो सकता है, अगली बार 'मोती देने योग्य हो सके' ।


बिना विस्तार में गए भी यह कहा जा सकता है कि कवि की संवेदना 'सीपी' के प्रति तो नहीं है। उसके टूटने, रौंदे जाने, और ख़त्म हो जाने के बाद ही कवि राहत की साँस लेता है, क्योंकि उसके 'कँटीले रूप' से उसे संकोच होता था। मुक्ति की आकांक्षा रखनेवाली स्त्री को खुरदुरी, और छेदों भरी कहकर लांछित करने के बाद यह सही बात उसकी ज़ुबान पर आती है। उसे अपने संकोच का कारण समझ में नहीं आता, क्योंकि उसने आधुनिकता का केवल बाना धारण किया है, मन उसका वही पुरातनपंथी है। इसीलिए मुक्तिकामी स्त्री के प्रति वह अपने को असहज पाता है, और इसके लिए 'अधुनातन मन की भावना' को दोषी मानता है, और उन दोनों को रौंद देने का आह्वान करता है।


यहाँ घास और सीपी के रूपक को स्पष्ट करनेवाली कविता-पंक्तियों की अपने-अपने संग्रह के नाम के रूप में प्रतिष्ठा ग़ौरतलब है। ऐसा लगता है कि अज्ञेय ने जानबूझकर इन पंक्तियों पर फोकस करने के लिए इन्हें अपनी पुस्तकों के नाम के रूप में चुना है। स्त्री के बहाने वे जिस तरह आधुनिक-लोकतांत्रिक मूल्यों पर विषवमन करते हैं, वह उनके सशक्त और सत्ताधारी वर्ग का प्रतिनिधि होने के बजाय समानता-स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक मूल्यों की बढ़त से बौखलाए सामंती-प्रतिक्रियावादी मानस को उजागर करता है। अगर एक बार अज्ञेय की कविता पर खुली बहस हो जाए तो उनकी अधुनिकता का छद्म तार-तार हो जाएगा, और पोंगापंथ की पोल खुल जाएगी। बक़ौल ग़ालिब:


"भरम खुल जाए ज़ालिम तेरी क़ामत की दराज़ी का

 अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले"


अज्ञेय अपनी कविता में आधुनिक-लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति क्या रवैया अपनाते हैं, इसकी थोड़ी छानबीन हमने इस शृंखला की पिछली कड़ी में स्त्री-पुरुष संबंध के संदर्भ में की थी। 'कलगी बाजरे की', 'हरी घास पर क्षण भर', और 'सागरतट की सीपियाँ' जैसी उनकी प्रतिनिधि कविताओं के विश्लेषण से यह पता चला था कि इस मामले में अज्ञेय का रवैया स्त्री मात्र को एक चुनौती की तरह देखने का है। यह 'चुनौती' आधुनिक विचारों के संपर्क से अधिक मुखर हो जाती है, और फिर समाज की पुरुषसत्ता को उससे जूझना पड़ता है। इस बात पर और रोशनी डालने के लिए हम उनकी कुछ अन्य कविताओं पर भी विचार करेंगे, जो किसी न किसी प्रकार इस मुद्दे से टकराती हैं। सबसे पहले अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता-शृंखला 'ओ निःसंग ममेतर' की चौथी कविता को लेते हैं:


"मैंने तुम्हें देखा है

असंख्य बार :

मेरी इन आँखों में बसी हुई है

छाया उस अनवद्य रूप की।


मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध—

मैं स्वयं उस से सुवासित हूँ।

मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा

छाया है तुम्हारा स्वर।

और रसास्वाद : मेरी स्मृति अभिभूत है।

मैंने तुम्हें छुआ है

मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम

मेरी उंगलियों बीच छन कर बही हो—

कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त।

मैं ने तुम्हें चूमा है

और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप

मेरा हर रक्त-कण धारे है।


आह! पर मैंने तुम्हें जाना नहीं।"

                                          (जनवरी 1963, 'कितनी नावों में कितनी बार' नामक पुस्तक से।)


कविता पर आने से पहले एक बात तो यह नोट करने की है कि अज्ञेय अपनी कविताओं में लगातार 'मैं शैली' अपनाते हैं। उनकी कविताओं में 'मैं' नामके इस पात्र या वाचक, जो भी इसे कहें, को कवि का पूर्ण समर्थन होता है। दूसरे शब्दों में, कविता का वाचक 'मैं' कवि के प्रवक्ता की तरह प्रस्तुत होता है। दूसरी बात यह कि कविता के नाम में आया 'ममेतर' शब्द ग़ौरतलब है। किसी व्यक्ति के साथ अपने संबंध के बारे में बात करते हुए, जो कि यह कविता करती है, उसे सामान्य तौर पर अपना या अपने से किसी रिश्ते से जुड़ा बताने का चलन है, जैसे मेरा दोस्त, मेरा भाई। लेकिन यहाँ कवि एक ऐसे व्यक्ति को संबोधित करके उससे अपने रिश्ते की पड़ताल करने वाला है जिससे उसकी ख़ासी निकटता रही है। इसके बावजूद वह उसे अपने से 'इतर' यानी 'अलग', 'अन्य', या 'दूसरा' कहकर उससे अपनी भिन्नता पर जोर देता है। यहाँ श्लेष भी है क्योंकि 'इतर' का अर्थ 'नीच,' 'दुष्ट' और 'मूर्ख' भी होता है। यह अर्थ लेने पर बात कुछ और ही हो जाती है, ख़ास तौर पर तब जब कवि ने पूरी कविता में वाचक 'मैं' के लिए श्रेष्ठतासूचक विशेषणों की झड़ी लगा दी है। इसे छोड़ भी दें तो किसी को 'अन्य' या 'इतर' बताना अपने और उसके बीच किसी अनुल्लंघ्य खाई का संकेत करता है, जिसके अभिप्रायों का पता हमे कविता के पाठ से मिलता है।


रूप, गंध और ध्वनि के स्तर पर वाचक कविता में आई स्त्री से प्रभावित है, लेकिन रस के स्तर पर उसके 'आस्वादन' की स्मृति उसे अभिभूत कर जाती है। इसके बाद वह बताता है कि उसको छूते हुए वह उसकी उंगलियों के बीच से कण-प्रतिकण छनकर बह गई है। मुट्ठी से रेत का फिसलना पुराना मुहावरा है जो निःशेष होते हुए जीवन समेत तमाम छूटती हुई चीज़ों के लिए इस्तेमाल होता है। इसी की तर्ज पर कवि ने स्त्री को रेत से समीकृत किया है। रेत होना जीवन से हीन होते जाने का सूचक है। निराला ने कहा था, 'स्नेह निर्झर बह गया है/रेत ज्यों तन रह गया है।' स्वयं अज्ञेय के यहां रेत होना कोई वांछनीय स्थिति नहीं है, 'क्योकि बहना रेत होना है/हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।' ज़ाहिर है, उंगलियों से कण-प्रतिकण फिसलने में स्त्री की कोई गरिमा नहीं है। इसे और स्पष्ट करने के लिए यह नरपुंगव हाथ से फिसलने वाली स्त्री को 'भुक्त' यानी जो भोगी जा चुकी हो बताना नहीं भूलता। कविता का वाचक स्त्री के प्रति आभार तो ख़ूब जताता है, लेकिन उसका अवमूल्यन करने से भी नहीं चूकता। इसके बाद मानो अपने अधिकार की घोषणा करते हुए वह उसे चूमने और हर चुम्बन की इस्पाती छाप अपने रक्तकणों में धारण करने की बात करता है। रक्त में लोहा होता है और चुम्बन का चुम्बक अगर उसे आकर्षित करता है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह एक स्वस्थ प्रक्रिया हो सकती थी। लेकिन अंत में पुरुष के अहं को छले जाने का एहसास होता है। वह कहता है कि मैं तुझे जान नहीं सका। अगली ही कविता में अज्ञेय इस 'भूल' को सुधारते हैं:


"नहीं! मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है।

देखा नहीं मैंने कभी,

सुना नहीं, छुआ नहीं,

किया नहीं रसास्वाद—

ओ स्वतःप्रमाण! मैंने

तुम्हें जाना,

केवल मात्र जाना है।


देख मैं सका नहीं:

दीठ रही ओछी, क्योंकि तुम समग्र एक विश्व हो

छू सका नहीं:

अधूरा रहा स्पर्श क्योंकि तुम तरल हो, वायवी हो

पहचान सका नहीं : तुम

मायाविनी, कामरूपा हो।


किन्तु, हाँ, पकड़ सका—

पकड़ सका, भोग सका

क्योंकि जीवनानुभूति

बिजली-सी त्वरग, अमोघ एक पंजा है

बलिष्ठ;

एक जाल निर्वारणीय:

अनुभूति से तो

कभी, कहीं, कुछ नहीं

बच के निकलता!"


यह 'केवल' और 'मात्र' एक साथ अज्ञेय का ख़ास अपना प्रयोग है। तात्पर्य इसका यही है कि उसने उसे बस जाना भर है, न तो देखा-सुना है, न ठीक से छुआ है, और तो और 'रसास्वादन' तक नहीं किया है। अगली पंक्तियों में अपनी दृष्टि को संकुचित कहकर कवि विनम्रता का भ्रम पैदा करता है, और स्त्री को समूचा विश्व कहकर मानो उसके आगे नतमस्तक होता है, लेकिन यह भी एक भंगिमा भर ही है। इसका अधिक से अधिक यह अभिप्राय है कि स्त्री की कोई विशेषता विश्वव्यापी है, जिसके सम्मुख पुरुष की दृष्टि सीमित साबित होती है। स्पर्श भी अधूरा रहता है, क्योंकि ठोस कुछ है ही नहीं। स्त्री की सत्ता ही लिक्विड और गैस की तरह है, जिसे पकड़ना तो छोड़िए ठीक से छू पाना भी मुश्किल है। देखने और छूने के बाद पहचानने में मिलने वाली असफलता स्वाभाविक ही है, लेकिन इसका कारण ग़ौरतलब है। वह 'मायाविनी' और 'कामरूपा' है। यही उसकी ख़ूबी है जिसके सम्मुख वाचक को अपनी सीमा का एहसास हुआ था। स्त्री का मायाविनी होना भक्तिकाल से ही एक व्यापक रूप से प्रचलित रूढ़ि है। तब इसके 'आध्यात्मिक' आशय प्रबल थे। हालांकि अपने सारतत्व में यह तब भी संपत्ति की रक्षा के लिए सही उत्तराधिकारी के चयन के आग्रह के कारण स्त्री पर अंकुश लगाने की इच्छा से प्रेरित रही है। कामरूपा होने का आशय बस इतना है कि वह मनमाने रूप बदल सकती है। यानी, यह भी उसकी तथाकथित माया का ही एक विभाग है। इस प्रकार उसके लिए 'ममेतर' शब्द के इस्तेमाल का औचित्य प्रकट होता है।


अगली पंक्तियों में एक विलक्षण बात यह होती है कि जिसे ढंग से 'देखने' और 'छूने' में भी अज्ञेय का यह पुरुष पात्र असमर्थ है, उसे 'पकड़ने' और 'भोगने' का दावा कर बैठता है। यहां इस वदतोव्याघाती कथन में संगति की तलाश करने के बजाय हम अपना ध्यान वाचक के उपरोक्त दावे पर केंद्रित करेंगे। इसका एकमात्र आशय है कि वाचक स्त्री को उपभोग्य वस्तु से अधिक कुछ भी समझ पाने में असमर्थ है। आगे जीवनानुभूति का तर्क ज़रूर दिया है, लेकिन इन शब्दों का अभिप्राय इतना साफ़ हैं कि उसे बदला नहीं जा सकता। कविता का छठा खंड देखें:


"जीवनानुभूति: एक पंजा कि जिस में

तुम्हारे साथ मैं भी तो पकड़ में

आ गया हूँ!

एक जाल, जिस में

तुम्हारे साथ मैं भी बंध गया हूँ।

जीवनानुभूति:

एक चक्की। एक कोल्हू।

समय कि अजस्र धार का घुमाया हुआ

पर्वती घराट् एक अविराम।

एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त:

अनुभूति!"


कवि को संभवतः एहसास है कि उसने जो दावा किया है, वह आपत्तिजनक है। इसलिए वह यहाँ अनेक तरीक़ों से यह  स्थापित करता है कि किसी अस्तित्वगत विवशता के चलते वे दोनों इस गति को प्राप्त हुए हैं। ध्यान दें कि विवशता चाहे अस्तित्व की मानें या नियति की, परिणाम नहीं बदलता। यानी, स्त्री की जो भूमिका तय है वही रहेगी, तय करने वाला स्वयं कवि हो या कोई और। सातवें खंड में पहले तो देखने, जानने, सुनने, छूने, सूँघने आदि तमाम तरीक़ों से वाचक उसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों का विषय बनाने का दम भरता है, फिर इन पंक्तियों में अपने आरंभिक उद्घोष को दुहराता है:


"—मैंने चूमा है,

और, ओ आस्वाद्य मेरी!

ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उत्स तक

जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितीय धार

मुझे आप्यायित करती है।


हाँ, मैंने तुम्हें जाना है, मैं जानता हूँ,

पहचानता हूँ, सांगोपांग;

ओर भूलता नहीं हूँ—कभी भूल नहीं सकता!"


यहाँ संबोधन पर ग़ौर करें। 'आस्वाद्य' का अर्थ है कि 'जो स्वाद लिए जाने के योग्य है'। इसी निरंतरता में आठवें खंड का यह अंश देख सकते हैं:


"मैंने छुआ है, और मैं छुआ गया हूँ;

मैने चूमा है, और मैं चूमा गया हूँ;

मैं विजेता हूँ और मुझे जीत लिया गया है;

मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;

मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;

मैं मिटा हूँ, मैं पराभूत हूँ, मैं तिरोहित हूँ,

मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,

अमर्त्य, कालजित् हूँ।"


'प्रेम' में मिलन का क्षण इस अंश में चित्रित है। मृत्यु और पुनर्जीवन के सुपरिचित रूपक में इसे व्यक्त किया गया है। शुरूआती पंक्तियों में 'जीवनानुभूति' का मार्ग दुतरफ़ा है, लेकिन अंत तक आते-आते 'वन वे ट्रैफिक' का दृश्य उपस्थित हो जाता है। 'मिटने', 'पराभूत होने' और 'तिरोहित' होने की भूमिका अकेले पुरुष की है। ज़ाहिर है, चरम पर पहुँचने की क्षमता 'केवल मात्र' उसे हासिल है। स्त्री की भूमिका जहाँ तक है, बस उसे वहीं तक रहना है। नवें खंड की आख़िरी पंक्तियों में इस प्रक्रिया का आदर्शीकृत, 'उदात्त' रूप देखें:


"ओ मेरी सहधर्मा,

छू दे मेरा कर: आहुति दे दूँ—

हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,

जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि।

ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,

ओ मेरी हविष्यान्न,

आ तू, मुझे खा

जैसे मैंने तुझे खाया है

प्रसादवत्।

हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं

परस्परजीवी हैं।"


पिछली टिप्पणी में हमने अज्ञेय के मानस को पुरातनपंथी कहा था। इसकी ख़ूबी होती है कि इसमें किन्हीं तकलीफ़ों, समस्याओं, या अपराधों का आदर्शीकरण किया जाता है, जिससे वे आध्यात्मिक आभामण्डल से युक्त हो जाते हैं। इसके बाद उनके निवारण के दायित्व से मुक्ति मिल जाती है। मसलन, सीवर में घुसकर सफ़ाई करने में आए दिन जान गँवाने वाले कर्मियों की मदद के लिए आवश्यक यंत्रो का इंतजाम करने के बजाय यह कहा जाए कि वे सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें इस काम के लिए ईश्वर ने चुना है, और इस काम से उन्हें दिव्य आनंद प्राप्त होता है। अज्ञेय की इस कविता में भी 'भोगने' और 'भोग लगाने' के बीच का अंतर मिट गया है। वे यहाँ इसे 'प्रसाद पाना' कह रहे हैं। कोई कह सकता है कि यहाँ तो दूसरे को भी 'खाने' को आमंत्रित किया जा रहा है। पहली बात तो यह कि कवि के रचना-संसार में जो क्रम-निर्धारण है, उसे देखते हए यह घास को घोड़े के बराबर स्वतंत्रता देने जैसा है। दूसरी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि कवि ने 'परस्परजीवी' होने की इस प्रक्रिया को जितना निर्विकल्प और नियतिबद्ध बना दिया है, उससे 'उत्तरजीविता के लिए संघर्ष और योग्यतम की जीत' के सिद्धांत की बू आती है। दूसरे शब्दों में, यह सिद्धांत सामाजिक डार्विनवाद की सीमाओं को छूने लगता है, जिसमें मानव-समाज के संघर्ष को प्राणिजगत के संघर्ष के समान मान लिया जाता है। यह विचार अनिवार्यतः जन्म और नस्ल पर आधारित भेदभाव और ऊँच-नीच की मानसिकता को पोषित करता है। इसका साक्ष्य कवि की एक अन्य कविता 'काँच के पीछे की मछलियाँ' से मिलता है:


"उधर उस काँच के पीछे पानी में

ये जो कई मछलियाँ

बे-आवाज़ खिसलती हैं

उनमें से किसी एक को

अभी हमीं में से कोई खा जायेगा

जल्दी से पैसे चुकायेगा—

चला जायेगा।


फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आयेगा,

पैसे खनकायेगा,

रुपए की परचियाँ खिसलायेगा,

बिना किसी जल्दी के समेटेगा, जेब में सरकायेगा

दाम देगा नहीं, वसूलेगा

और फिर हम सब को—एक-एक को—एक साथ

और बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे खायेगा

खाता चला जाएगा,

वैसी ही बे-झपक आँखों से ताकता हुआ

जैसी से ताकती हुई ये मछलियाँ

स्वयं खायी जाती हैं।


ज़िन्दगी के रेस्तराँ में यही आपसदारी है

रिश्ता-नाता है—

कि कौन किस को खाता है!"

                    (1966, 'कितनी नावों में कितनी बार'             नामक पुस्तक से)


इसे ही कहते हैं कि हर बड़ी मछली को हक़ है कि वो अपने से छोटी मछली को खा जाए। यहाँ जैसे एक आदमी मछली को खाता है, वैसे ही दूसरा आदमी पहले के संगी-साथियों को 'खा' जाता है। यह दूसरा आदमी पहले खाई गई मछली की ही तरह बे-झपक आंखों वाला है। आशय साफ़ है कि इंसानी रिश्तों का सच मत्स्य-न्याय पर ही आधारित है। ध्यान दें कि किसी प्रकार के संकोच या आक्षेप से परे यहाँ इस 'सत्य' की उद्घोषणा का स्वर है। एक-दूसरे को 'खा' जाना एक निर्विकल्प स्थिति है। इंसानी रिश्तों के बारे में यह दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति को आधुनिक युग के मूल्यों में विश्वास करनेवाला तो नहीं माना जा सकता। सारे संकेत यही हैं कि आधुनिक-लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चलने वाले संघर्ष के कारण जिस अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों पर आँच आई है, यह कवि उसकी भावनाओं को ही स्वर दे रहा है। 


अज्ञेय की पिछड़ी हुई चेतना उन्हें अक्सर मनुष्य-विरोधी राह पर चलने को विवश कर देती है। यह एक कलाकार की त्रासदी भी है कि कैसे अपने भावबोध के कारण वह सहज मानवीय प्रसंगों में भी संवेदनशीलता नहीं दिखा पाता। ऐसी ही एक स्थिति को चित्रित करती हुई छोटी सी कविता है 'शहतूत':


"वापी में तूने

कुचले हुए शहतूत क्यों फेंके, लड़की?

क्या तूने चुराये-

पराये शहतूत यहाँ खाये हैं?

क्यों नहीं बताती?

अच्छा, अगर नहीं भी खाये

तो आँख क्यों नहीं मिलाती?

और तूने यह गाल पर क्या लगाया?

ओह, तो क्या शहतूत इसी लिए चुराये-

सच नहीं खाये?

शहतूत तो ज़रूर चुराये, अब आँख न चुरा!

नहीं तो देख, शहतूत के रस की रंगत से

मेरे ओठ सँवला जाएँगे

तो लोग चोरी मुझे लगाएँगे

और कहेंगे कि तुझे भी चोरी के गुर मैं ने सिखाये हैं!

तब, लड़की, हम किसे बताएँगे!

कैसे समझाएँगे?

अच्छा, आ, वापी की जगत पर बैठ कर यही सोचें।

लड़की, तू क्यों नहीं आती?"

          ('सागर मुद्रा' नामक संग्रह से, अक्टूबर 1960)


कविता की भंगिमा वाचक के प्रति पूर्ण समर्थन से युक्त है। लड़की ने जो शहतूत खाए हैं वे संभवतः किसी और के हैं। इतना समझ लेने के बाद वाचक उस लड़की पर नाजायज दबाव ही नहीं बनाता, उसे यह एहसास तक नहीं होता कि वह कुछ ग़लत कर रहा है। सहज भाव से वह कहता है कि अगर लड़की ने आँख चुराया तो वाचक के होंठों पर शहतूत का रंग लग जाएगा। ज़ाहिर है, वो उसके साथ अपने अवांछित शारीरिक संपर्क की बात कर रहा है। ऐसी स्थितियाँ समाज में जघन्यतम अपराधों की भूमिका बनाती रही हैं। जहाँ स्त्री को भुक्त, आस्वाद्य और भोग्य माननेवाली विचारधारा का डंके की चोट पर महिमामण्डन किया जाता हो, वहाँ इससे अलग कोई परिणति हो भी कैसे सकती है।


अज्ञेय की कविताओं के बारे में एक भ्रम लोग अक्सर बनाने की कोशिश करते हैं कि वे उदात्त और गरिमामय रचनाशीलता का मानो कोई स्वतःसिद्ध उदाहरण हैं। यहाँ तक कि युवा कवियों पर आदतन भिन्नाते रहने वाले कुछ लोग उनके अवमूल्यन के लिए अज्ञेय को किसी प्रतिमान की तरह पेश करने से भी बाज नहीं आते। यहाँ हम अज्ञेय की एक ही दिन 27 अक्टूबर 1954 को दिल्ली में लिखी दो कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। रचनातिथि व स्थान के साथ ये कविताएँ अज्ञेय ने स्वयं अपनी पुस्तक 'सदानीरा' में संकलित की हैं। दृश्य किसी विवाह-समारोह के गुज़रने के तुरंत बाद का है। यह समझना मुश्किल है कि कवि को इसमें काबिले-एतराज बात क्या लगी, लेकिन उसका लहजा किसी सुरुचिसम्पन्न व्यक्ति का तो क़तई नहीं है। पहली कविता 'सीढ़ियाँ' देखें---


"अम्बार है जूठी पत्तलों का : निश्चय ही पाहुने आये थे।

बिखरी पड़ी हैं डालियाँ-पत्तियाँ : किसी ने तोरण सजाये  

                  थे

गली में मचा है कोहराम भारी : मुफ़्त का पैसा किसी ने

                   पाया था। 

उठती है आवाज तीखे क्रन्दन की : निश्चय ही कोई बहू 

                     लाया था।"

                              

पहली दो पंक्तियों तक तो बस यथातथ्य वर्णन है, लेकिन तीसरी पंक्ति से कवि की नकारात्मकता प्रकट होती है। शादी के घर में शोरगुल होना सामान्य बात है, लेकिन उसे कोहराम और क्रंदन की संज्ञा देना अज्ञेय जैसे शब्दसाधक के ही बूते की बात थी। तिस पर तुर्रा यह कि उसकी वजह 'मुफ़्त का पैसा' पाना है। 'मुफ़्त का माल' तो सुना था, यह 'मुफ़्त का पैसा' क्या बला है, यह कोई अज्ञेयभक्त ही बता सकता है। चलिए मान लेते हैं कि कवि यहाँ रिश्वत या दहेज की बात कहना चाहता है, और किसी मसलहत से इन बुराइयों का ज़िक्र सीधे-सीधे करने से बच रहा है। सवाल यह है कि हमारे समाज में सर्वव्यापी इन बुराइयों के बावजूद क्या शादी-ब्याह में होने वाले हंगामे की वजह इन्हें बताना किसी कवि को शोभा देता है। क्या वह इस तरह के मौक़े पर वर-वधू को नए जीवन की शुरूआत की शुभकामना देने के बजाय उन्हें और उनके परिजनों को आईना दिखाता रहता है।  ज़ाहिर है कि ये पंक्तियां कवि की उदात्तता की नहीं उसकी चिढ़ को प्रकट करती हैं। अगली कविता का नाम है 'अतिथि सब गये'---


"अतिथि सब गये : सन्नाटा

ज्वार आया था, गया : अब भाटा।

कुछ काम, दोस्त? हाँ, बैठो, देखो,

किस कुत्ते ने कौन पत्तल चाटा!'


यहाँ उस समारोह के ख़त्म होने के बाद का दृश्य है। पिछली कविता की पहली पंक्ति में जूठी पत्तलों का सीधा संबन्ध अतिथियों से बताया गया है। यहाँ शुरूआत उनके जाने की सूचना से होती है, यानी उनकी उपस्थिति दोनों कविताओं में आद्यंत बनी हुई है। अंतिम पंक्ति में 'पत्तल चाटने वाले कुत्तों' का उल्लेख हुआ है। ऐसा नहीं है कि ऐसे मौक़ों पर कुत्तों का आना-जाना नहीं होता, लेकिन उनके पत्तल चाटने का कोई काव्यगत साक्ष्य नहीं है। पत्तल में खाने का काम असंदिग्ध रूप से अतिथियों ने ही किया है। समारोह के प्रति कवि का जो दृष्टिकोण है, इसे देखते हुए 'कुत्ते' यहाँ 'पाहुनों' के रूपक की तरह दिखाई पड़ते हैं। इसके बिना कविता का कोई समन्वित अर्थ नहीं निकलता। इस तरह एक दिलजले कवि का रचनाकर्म संपन्न होता है। आश्चर्य नहीं कि शमशेर ने 'अज्ञेय से' नामक  कविता में ये पंक्तियां लिखी थीं---


"जो नहीं है

जैसे कि सुरुचि

उसका ग़म क्या?

वह नहीं है ।"


हम कह चुके हैं कि अज्ञेय के  कुछ 'भक्त' युवा पीढ़ी के कवियों को नीचा दिखाने के लिए अज्ञेय की तथाकथित गरिमा का उदाहरण देने लगते हैं। तरीक़ा वही जहाँ-तहाँ बैठकी जमाए उम्रदराज निकम्मों वाला होता है जो नई पीढ़ी के युवाओं के 'चालचलन' को कोसने और उन्हें बाप-दादों के नाम को डुबाने वाला बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। समाज और इतिहास में अप्रासंगिकता की कगार पर खड़ी ये प्रवृत्तियां असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होती हैं, और आने वाली पीढ़ियों के प्रति आशंका और द्वेष की अपनी भावनाओं का खुलकर प्रदर्शन करती हैं। इसके लिए इन 'भक्तों' को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि यह गुण इन्होंने अपने 'भगवान' से ही सीखा है। यहाँ हम अज्ञेय की 1958 में लिखी कविता 'नया कवि' को क्रमशः पूरा उद्धृत करते हुए हुए इसके आशयों पर बात करेंगे। कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं---


"किसी का सत्य था

मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।

कोई मधु-कोष काट लाया था

मैं ने निचोड़ लिया।


किसी की उक्ति में गरिमा थी

मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,

किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था

मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।"


यहाँ कवि का अभिप्राय चौथी पंक्ति तक आते-आते स्पष्ट होता है। किसी के सत्य को (अपने) संदर्भ में जोड़ने, किसी और के काटे हुए मधु-कोष को निचोड़ने का वास्तविक आशय क्या है, यह समझ में नहीं आता। लेकिन किसी की उक्ति की गरिमा को सँवारने और उसकी संवेदना में उपस्थित आग को धिक्कारने की सूचना मिलते ही यह पता चल जाता है कि ऐसा करने वाला जो भी है वह किसी युगप्रवर्तक या मसीहा का विरोधी है। भारतीय काव्य-परंपरा में अग्निमय स्वर वाले गायकों को यही मुक़ाम मिला है। प्रमाण के लिए क्रमशः कबीर, ग़ालिब और मुक्तिबोध से एक-एक हवाला देखें---


"मन उनमन उस अंड ज्यूँ अनलिं अकासा जोइ"


"ढूँडे है उस मुग़न्निए आतशनफ़स को जी"


"अँधेरे एक कमरे से

तरंगित स्वर-लहर मीठी अनल-पंखी,

हृदय खोले गहन अनुरोध करती-सी।"


आग के ताप को धिक्कारने का अर्थ है, उस मसीहा की तेजस्विता को धिक्कारना, जिसकी पहचान के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती। अब इस 

प्रसंग से जुड़कर 'संदर्भ में जोड़ने, मधु-कोष निचोड़ने और गरिमा को सँवारने' का आशय साफ़ होता है---दूसरे का माल हड़पने के अर्थ में। आगे की पंक्तियाँ देखें---


"कोई हुनरमन्द था:

मैं ने देखा और कहा, ‘यों!’

थका भारवाही पाया—

घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों?’


किसी की पौध थी,

मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,

किसी की लगायी लता थी,

मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।


किसी की कली थी

मैं ने अनदेखे में बीन ली,

किसी की बात थी

मैंने मुँह से छीन ली।"


किसी में कोई कौशल होने पर उसकी तारीफ़ करना तो सामान्य बात है, लेकिन अगर कोई थकान या किसी और वजह से क्लांत है, तो उसका तिरस्कार करना निकृष्ट कोटि की हरकत है। लेकिन यह 'नया कवि' बिल्कुल चिकने घड़े की तरह हर बात से बेनियाज़ अपनी वाहवाही की शैली में अपने कारनामों की फेहरिस्त गिनाता चलता है।  पौधा किसी का भी लगया हुआ हो, उसकी थोड़ी बहुत सिंचाई करके वह उस पर अपना अधिकार जमा लेता है। किसी की लता से वह अपना छप्पर छा लेता है, किसी और की कली को अनजाने ही बीन लेता है। ज़ाहिर है, 'अनदेखे-अनजानेपन' का यह शिल्प बस धोखे की टट्टी है। सच तो यह है कि वह किसी और के 'मुँह की बात' की तरह हर चीज़ ही दूसरे से चुराने की फ़िराक़ में रहता है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं---


"यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:

काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?

चाहता हूँ आप मुझे

एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।

पर प्रतिमा—अरे, वह तो

जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़ें!"


वैसे तो कविता के नाम में ही 'नये कवि' की तरफ़ उँगली उठी हुई है, लेकिन यहाँ कविता के अपने पाठ में भी कवि ने स्पष्ट कर दिया है कि यह नये कवि का अपना बयान है। पूरे बयान में कहीं अपनी कथित कारगुजारियों के प्रति वाचक की कोई झेंप-झिझक नहीं दिखती। उठाईगीरी को वह 'काव्य-तत्व की खोज' का पर्याय बना देता है। हर शब्द चोरी का है लेकिन वह उस पर सराहना भी चाहता है। 


अदालती भाषा में ही कहें तो कवि एक ऐसा वकील होता है जिसे अभियोजन और बचाव दोनों की भूमिका निभानी होती है। इसके बग़ैर उसकी कविता एक ख़राब अख़बारी रिपोर्ट बन जाती है। अगर वह न्यायाधीश की भूमिका निभाता तो यह भी ग़लत होता, लेकिन यहाँ तो वह एक ऐसे धोखेबाज जांचकर्ता की तरह पेश आया है जिसे आरोपी का बयान लेना था लेकिन उसने आरोप-पत्र पर उसके दस्तख़त ले लिए हैं। 'नये कवि की चोरी और सीनाजोरी' को उजागर करने और उसकी खिल्ली उड़ाने का यह शिल्प निस्संदेह कुरुचिपूर्ण है। इससे न तो सचाई के किसी पहलू का उद्घाटन होता है, न ही पाठक की संवेदना में कोई नया आयाम जुड़ पाता है। आने वाली पीढ़ियों के प्रति असावधान पाठकों की संवेदना को कुंद करने के अलावा यह कविता शायद ही कुछ और कर सकती है।


ग़ौरतलब है कि अज्ञेय को 'नये कवियों' का ख़ैरख़्वाह समझा जाता है, और यह कविता 'तीसरा सप्तक' (1959) के प्रकाशन से ठीक पहले की है। ऐसा लगता है कि 'तीसरा सप्तक' तक आते-आते वे नये कवियों की स्थापना और प्रसिद्धि से काफी विचलित हो गए थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने 'तीसरा सप्तक' के कवियों से बदला लेने के लिए 'चौथा सप्तक' निकाला था।


सामंती मानसिकता का कोई व्यक्ति जब किसी से क्रुद्ध होता है तो पहले उसका उपहास करके तिरस्कार करता है, फिर जब देखता है कि कोई प्रतिवाद नहीं हो रहा है और स्थिति अनुकूल है, तब सीधे-सीधे आरोपों और अपशब्दों की बौछार शुरू कर देता है। 'नया कवि' शीर्षक कविता के प्रसंग में हमने पिछली कड़ी में देखा था कि अज्ञेय ने अपनी आपत्तियों को ख़ुद युवा कवि की स्वीकारोक्ति की शैली में प्रस्तुत किया था। यह कारनामा कर चुकने के बाद वह बिना समय गँवाए स्वयं वादी की भूमिका में उतर आते हैं और अगली कविता लिखते हैं--- 'नये कवि से'। ये दोनों कविताएँ कवि द्वारा ही 'सदानीरा' नामक संग्रह में दी गई सूचना के मुताबिक एक ही दिन, 3 सितम्बर1958 को लिखी गई हैं। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं---


"आ, तू आ, हाँ, आ,

मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,

मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता-

आ, तू आ।


तेरा कहना है ठीक: जिधर मैं चला

नहीं वह पथ था:

मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर

सदा जिसे पथ कहा गया, जो

इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर

कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।"


इस कविता के बारे में सबसे पहली बात नोट करने की वही है जो अज्ञेय की 'मैं शैली' में लिखी लगभग सारी ही कविताओं के बारे में सच है कि उनके 'मैं' का अर्थ सिर्फ़ और सिर्फ़ अज्ञेय होता है। 'आ तू--आ तू' का संबोधन उन मासूम जीवों की याद दिलाता है, जिन्हें कवि ने पहले विवेचित किसी कविता में हिकारत से पत्तल चाटने वालों के रूप में याद किया था। इस बात को अनदेखा करके आगे बढ़ते हैं तो, अगली ही पंक्ति से कविवर की नाराज़गी शुद्ध अभिधा में फूट पड़ती है। उनका ख़याल है कि नए कवि जो हैं वे अपनी राह ख़ुद बनाने के बजाय अज्ञेय के ही पैरों की छाप पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। तिस पर उनकी कृतघ्नता देखिए कि वे जिसके सहारे आगे बढ़ते हैं, उसी के पदचिह्नों को मिटाने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं वे उसे मुँह भर-भर के गालियाँ भी देते चलते हैं। इधर कवि है जो इस सबके बावजूद नए कवियों की 'गालियों' का पर्याप्त सहनशीलता के साथ जवाब देता है। 


मसलन, 'नये कवि' के इसी आरोप को लें कि कविवर का रास्ता ठीक नहीं था। इसके जवाब में अज्ञेय कहते हैं कि जिसे रास्ता कहते हैं वह इतने-इतने पैरों द्वारा 'रौंदा' जा चुका होता है कि उस पर किसी चलने वाले की छाप पहचानी नहीं जा सकती। आशय यह कि रास्ता ऐसा होना चाहिए जिस पर चलने वाले हर व्यक्ति के पैरों की छाप अलग-अलग पड़े। या फिर कम से कम ऐसा हो कि आम और ख़ास में फ़र्क़ हो। आम लोग जैसे चाहें वैसे चलें, लेकिन उन जैसे विशिष्ट व्यक्ति की छाप तो सुरक्षित रहनी ही चाहिए। इसी मक़सद से वे 'राहों के अन्वेषी' बने थे। अज्ञेय को लगता है कि ये 'नया कवि' उन्हीं के पदचिह्नों का अनुसरण करते-करते अब उन्हें मिटा डालने पर आमादा हो गया है।


ज़रा इस रूपक पर ग़ौर कीजिए। माना कि कवि ने नई राह बनाई, लेकिन कोई भी नई राह सिर्फ़ एक व्यक्ति या समूह के लिए नहीं होती। वह आने वाली पीढ़ियों के लिए भी होती है। पिछली पीढ़ियों का गौरव इसी बात में होता है कि उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता बनाया। यही बात पदचिह्नों के अनुसरण के साथ भी है। किसी के क़दमों के निशानों पर पैर रखकर आना, दरअसल, उसकी महत्ता और प्रासंगिकता को लगातार बनाए रखना है। पुराने युगों के लोग इसी तरह हमारे लिए प्रासंगिक होते हैं। लेकिन पुराने युगों की ऐसी प्रवृत्तियाँ जो समय के प्रवाह में पीछे छूट कर अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुँच चुकी होती हैं, जिनके पदचिह्नों पर धूल-मिट्टी पड़कर उन्हें ख़त्म करती रहती है, उन्हें नई पीढ़ियों से बड़ी शिकायत होती है। उन्हें लगता है कि उनके सामने ही पले-बढ़े ये लोग अब अपने क़दमों के निशान छोड़ रहे हैं, ज़रूर ये जानबूझकर उनके पदचिह्नों को मिटा देते हैं। हर युवा पीढ़ी के सामने ऐसे उम्रदराज़ लोग होते हैं जो अपनी कुंठाओं के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लुप्त होते हुए डायनासोरों की तरह ये बेचारे समझ ही नहीं पाते कि इनके साथ हुआ क्या है। इनकी हालत उस मछली की तरह होती है, जिसे बक़ौल रहीम जलरूपी समय का प्रवाह छोड़कर चला जाता है--


"जाल परे जल जात बहि तजि मीनन को मोह

रहिमन मछरी नीर को  तऊ  न  छाँड़ति  छोह"


इसके बाद कविता की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं--


"मेरी खोज नहीं थी उस मिट्टी की

जिस को जब चाहूँ मैं रौंदूँ: मेरी आँखें

उलझी थीं उस तेजोमय प्रभा-पुंज से

जिस से झरता कण-कण उस मिट्टी को

कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य,

कभी जीव तो कभी जीव्य,

अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित, नव-रूपायित।


मैं कभी न बन सका करुण, सदा

करुणा के उस अजस्र सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से

सब कुछ होता जाता था प्रतिपल

आलोकित, रंजित, दीप्त, हिरण्मय

रहस्य-वेष्टित, प्रभा-गर्भ, जीवनमय।"


ऐसा लगता है कि 'रौंदने' की क्रिया कवि को कुछ अधिक ही प्रिय है। यहाँ तक कि जिसे वह नहीं चाहता है उसके साथ अपने संबंध की विशेषता भी यही बता पाता है। मिट्टी को रौंदने के बजाय वह उसे प्रकाशित करने वाले प्रकाश-पुंज के प्रति आकर्षित है जो उसे कभी सोना तो कभी मिट्टी बनाता है, कभी जीव तो कभी जीवनोपयोगी बनाता है, जिससे नए-नए अंकुर प्रतिपल फूटते रहते हैं। प्रकाश का यह अजस्र स्रोत ऐसा है जिससे संपूर्ण परिवेश हर क्षण रहस्य से आच्छादित और जीवन से युक्त हो जाता है। यहाँ एक पंक्ति में दी हुई चारों विशेषताओं का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया कि पिष्टपेषण होता। कविता में पहले कहा जा चुका है कि 'प्रभा-पुंज' मिट्टी को स्वर्ण बना देता है। यह उसको उर्वर बनाने के अलावा अपनी सुनहरी किरणों में रँगकर सचमुच सोने जैसा बना देने की कल्पना भी है। इसके बाद यह कहना कि वह  'आलोकित, रंजित, दीप्त, हिरण्मय' बनाता है, निरर्थक दुहराव भर होता जो कविता ही नहीं आलोचना के लिए भी बोझ है।


ग़ौरतलब है कि कवि मिट्टी को तो अपनी चाहना का विषय नहीं मानता, लेकिन जिस प्रभा-पुंज के गुण गाता है उसकी सारी सार्थकता उस मिट्टी को ही अनुरंजित करने में है। लौकिक दृष्टि से देखने पर यह प्रभा-पुंज सूर्य हो सकता है जो धरती को अपनी किरणों से सिंचित कर उर्वर करता है, उसे सुनहला रंग देता है, और सोने जैसी फसल पैदा करने के योग्य बनाता है। उसमें जीवन और उसकी क्षमता पैदा करता है। कवि का आशय यहाँ यह प्रतीत होता है कि वह ऊर्जा के प्रमुख स्रोत से ही सीधे जुड़ता है, मामूली लोगों की तरह कीचड़ और मिट्टी में श्रम करने की उसे कोई ज़रूरत नहीं है। जीवन के गुण गाने वाले इस धूल-मिट्टी में खेलते हैं और समझते हैं कि इसके बग़ैर जीवन की साधना नहीं हो सकती, उन्हें पता होना चाहिए कि वह इस समस्त परिवेश को 'जीवनमय' बनाने वाले का प्रेमी है। 


इस प्रकार कवि अज्ञेय का उद्देश्य पूरा होता जान पड़ता है। अपने ऊपर लगने वाले प्रमुख आरोप का उन्होंने खंडन भी कर दिया और अपनी श्रेष्ठता भी घोषित कर दी। लेकिन इस समूचे वक्तव्य में आने वाला एक शब्द 'करुण' इसकी सारी धीरोदात्तता पर एक प्रश्नचिह्न लगा देता है। अगर कवि इतना ही आत्मविश्वस्त है तो उसे यह कहने की क्या ज़रूरत पड़ गई कि वह कभी करुण यानी करुणा का पात्र या उसका आकांक्षी नहीं बना। यह तो वैसे ही है कि कोई अपनी ईमानदारी का किस्सा सुनाते सुनाते कहने लगे कि वह चोर नहीं बना, या अपनी देशभक्ति का बखान करने के बाद कहे कि वह गद्दार नहीं है। कवि के वक्तव्य में यह निहित है कि उसके जो हालात थे उसमें वह करुणा का पात्र भी बन सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं होने दिया। वह करुणा के स्रोत की तरफ़ दौड़ता रहा, लेकिन दूसरों के प्रति उसमें कितनी करुणा है, यह भी हम देख रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कवि जीवन से जितना ही कटता गया है उतना ही उसका अंतर्जगत खोखला और कमजोर होता गया है। अपने संवेदन-जगत की इस कमी की भरपाई करने के लिए ही वह बड़ी बड़ी घोषणाएँ करता है। लेकिन इसके बावजूद अपने अंतर्मन में उस कमी को महसूस करके आहत होता है, और निराशा में नयी पीढ़ी पर असंयमित प्रहार करने लगता है। कविता का अगला अंश भी इस निष्कर्ष को ही पुष्ट करता है---


"मैं चला, उड़ा, भटका, रेंगा, फिसला,

-(क्या नाम क्रिया के उस की आत्यन्तिक गति को कर सके निरूपित?)-

तू जो भी कह-आक्रोध नहीं मुझ को,

मैं रुका नहीं मुड़ कर पीछे तकने को,

क्यों कि अभी भी मुझे सामने दीख रहा है

वह प्रकाश: अभी भी मरी नहीं है

ज्योति टेरती इन आँखों की।"


आशय यह कि 'नये कवियों' ने अज्ञेय की 'आत्यंतिक गतिशीलता' को 'उड़ना, रेंगना, फिसलना' जैसे अवमाननासूचक नाम दिए लेकिन वे उस क्रिया की सचाई को व्यक्त नहीं कर सके। इस शरारती रवैए के बावजूद उनको न तो क्रोध है, न ही पीछे मुड़कर देखने की फुरसत। क्योंकि अब भी सामने का इलाक़ा प्रकाशित है और आँखों की रोशनी बरक़रार है। इस अंश की पहली पंक्ति में जिस तरह कविवर 'उड़ने, भटकने, और फिसलने' के आरोपों के साथ 'रेंगने' का ज़िक्र करते हैं, वह उनकी आहत मनःस्थिति की सूचना दे रहा है। ऐसा आरोप अगर सचमुच कोई लगाता है तो यह उसकी बीमार मानसिकता का सूचक है, जिससे किसी स्वस्थ दिल-दिमाग़ वाले व्यक्ति का प्रभावित होना संभव नहीं। बिना ऐसा आरोप लगे भी अगर कोई अपने आलोचकों का मज़ाक बनाने के लिए या अपने प्रति हमदर्दी जुटाने के लिए इस तरह की, ख़ुद को नीचा दिखाने वाली बात की कल्पना करता है और उसका उच्चारण करता है, तो उसे ऐसे व्यक्ति के रूप में ही जाना जा सकेगा जिसके पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी है। आत्मिक खोखलेपन की पहचान भाषा में आसानी से की जा सकती है। कविता में पहले भी निरर्थक दुहराव की प्रवृत्ति देखी जा चुकी है। यहाँ 'सामने प्रकाश का दिखना' और 'आँखों की ज्योति का न मरना' तथा एक ही वाक्य में दो बार 'अभी' के साथ निरर्थक 'भी' लगाना भी ऐसे ही प्रयोग हैं। आगे देखें---


"तू आ, तू देख कि यह पैरों की छाप पड़ी है जहाँ,

कहीं वह है सूना फैलाव रेत का जिस में

कोई प्यासा मर सकता है:

बीहड़ झारखंड है कहीं, कँटीली

जिस की खोहों में कोई बरसों तक चाहे भटक जाय,

कहीं मेड़ है किसी परायी खेती की, मुड़ कर ही

जिस के अगल-बगल से कोई गलियारा पा लेना होगा।


कहीं कुछ नहीं, चिकनी काली रपटन जिस के नीचे

एक कुलबुलाती दलदल है

झाग-भरा मुँह बाये, घात लगाये।

किन्तु प्यास से मरा नहीं मैं, गलियारे भी

चाहे जैसे मुझे मिले: दलदल में भी मैं

डूबा नहीं।"


एक बार फिर कविवर के 'पैरों की छाप' का ज़िक्र यह बताने के लिए है कि वे रेत, जंगल, पहाड़ और दलदल के दुर्गम प्रदेशों से होकर गुज़रे हैं। सबसे अच्छी स्थिति में भी किसी और की खेती उनकी राह में पड़ती थी, और वे उसके 'परायेपन' का लिहाज करते हुए उसके अगल-बगल से अपने लिए 'गलियारा' खोज लिया करते थे। अन्योक्ति में यह भी कहा जा रहा है कि जैसे 'नया कवि' दूसरे की 'खेती' पर अपना कब्ज़ा जमा लेता है, वैसा उन्होंने नहीं किया। इन ख़तरनाक इलाक़ों में किसी भी पथिक को निगल जाने की शक्ति थी लेकिन कवि  उनमें न तो प्यास से मरा, न ही दलदल में डूबा। जैसे न तैसे वह अपने लिए 'गलियारा' तलाश करने में सफल रहा। ग़ौरतलब है कि कवि ने अपने 'पैरों की छाप' पड़े रास्तों के लिए दो बार 'गलियारे' शब्द का प्रयोग किया है। दुर्गम रास्तों पर चलने का दम भरने वाले व्यक्ति को बात-बात में गलियारों की तलाश करनी पड़ती है, यह भी  एक विडंबना ही है। कविता का अंतिम हिस्सा है---


"पर आ तू, सभी कहीं, सब चिह्न रौंदता

अपने से आगे जाने वाले के-

आ, तू आ, रखता पैरों पर पैर,

गालियाँ देता, ठोकर मार मिटाता अनगढ़

(और अवांछित रखे गये!)

इन मर्यादा-चिह्नों को


आ, तू आ!

आ तू, दर्पस्फीत जयी!

मेरी तो तुझे पीठ ही दीखेगी-क्या करूँ कि मैं आगे हूँ

और देखता भी आगे की ओर?

पाँवड़े

मैं ने नहीं बिछाये-वे तो तभी, वहीं

बिछ सकते हैं प्रशस्त हो मार्ग जहाँ पर।


आता जा तू, कहता जा जो जी आवे:

मैं चला नहीं था पथ पर,

पर मैं चला इसी से

तुझ को बीहड़ में भी ये पद-चिह्न मिले हैं,

काँटों पर ये एकोन्मुख संकेत लहू के,

बालू की यह लिखत, मिटाने में ही

जिस को फिर से तू लिख देगा।


आ तू, आ, हाँ, आ,

मेरे, पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,

जयी, युगनेता, पथ-प्रवर्त्तक,

आ तू आ- ओ गतानुगामी!"


यहाँ पहले स्टैंजा में कोई नई बात नहीं कही है, पहले कही बातों का ही अनावश्यक दुहराव है। दूसरे स्टैंजा में सबसे पहले अज्ञेय ने 'नये कवि' को 'दर्पस्फीत जयी' कहकर उसके 'विजेता' होने के 'अहंकार' को आईना दिखाया है। फिर उसे बताया है कि तुम मेरे ही पदचिह्नों पर पैर रखते आ रहे हो इसलिए मेरा सामना नहीं कर पाओगे, क्योंकि मैं देख भी आगे ही की ओर रहा हूँ। किसी का गर्मजोशी से इंतज़ार करने को मुहावरे में उसकी राह में पलक पाँवड़े बिछाना कहते हैं। यहाँ उसी मुहावरे का किंचित इस्तेमाल करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि मैं तुम्हारा इंतज़ार तो कर नहीं रहा था, कि तुम्हारी तरफ़ देखता। अगर तुमने कोई व्यापक राह पकड़ी होती तो ऐसा हो भी सकता था, लेकिन क्योंकि तुमने संकीर्ण और सुविधाजनक रास्ता चुना, और मेरे ही पदचिह्नों पर चल पड़े, इसलिए तुम्हें मुझसे किसी अन्य व्यवहार की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।


तीसरे स्टैंजा में एक बार फिर सही रास्ते पर न चलने के आरोप का ज़िक्र और उसका यह खंडन है कि मैं अगर न चला होता तो तुम्हें अनुसरण करने के लिए ये पदचिह्न कहाँ मिलते। चमत्कृत करने वाली सादगी से अज्ञेय इस बात को बार-बार दुहराते हैं कि जो आरोप लगाता है कि मैं सही राह पर नहीं चला वह ख़ुद मेरे ही पदचिह्नों पर चल रहा है। न सिर्फ़ चल रहा है बल्कि मेरे चिह्नों को मिटाकर उन्हें अपना मौलिक योगदान साबित करने की कोशिश कर रहा है। ध्यान से देखें तो यह वदतोव्याघात है। कोई जिस रास्ते को ग़लत कहेगा उसे अपना रास्ता भी साथ ही साथ कैसे साबित कर सकता है। बहरहाल, इसके बाद राहत की तरह एक संभावना आती है कि मिटाने की इस प्रक्रिया में 'नया कवि', दरअसल, मूल पदचिह्न को ही दुबारा बनाए दे रहा है।


अंतिम स्टैंजा में पैरों की छाप पर पैर रखकर आते युवा कवि का आह्वान उसे 'जयी, युगनेता, पथ-प्रवर्त्तक' बताकर किया गया है। यहाँ तक आते-आते यह व्यंग्य एक दयनीय भड़ांस में बदल जाता है। 'जयी' की सचाई तो कवि पहले ही बता चुका है। 'युगनेता' और 'पथ-प्रवर्त्तक' में कोई बात सच न मान ली जाए, इस आशंका में वह तुरंत ही अभिधा पर उतर आता है और 'नये कवि' को 'गतानुगामी' यानी अतीत का अनुसरण करने वाले की पदवी देकर अपने आशय को स्पष्ट करता है। विडंबना यह है कि पूरी कविता में उसने उसे अपना ही अनुसरणकर्ता कहा है। इस तरह अनजाने ही वह ख़ुद को भी गुज़रा हुआ ज़माना मान बैठता है। 


कुल मिलाकर यह कविता अज्ञेय के कवि के अप्रासंगिक हो जाने की सूचना देती मालूम पड़ती है। यह जिस 'नये कवि' को अपना विषय बनाती है, उसके बारे में तो कुछ भी नहीं बता पाती लेकिन अज्ञेय के रचनाकर्म के खोखलेपन का प्रत्यक्ष प्रमाण बन जाती है।


स्वतंत्रता, समानता और न्याय को उचित ही आधुनिक चेतना के अनिवार्य विधायक तत्वों के रूप में पहचाना गया है, लेकिन अगर किसी एक विशेषता को इसका क्वालिफाइंग टेस्ट कहा जा सकता है तो वह है यथास्थिति से असन्तोष। स्थापित पर सवाल उठाकर ही आधुनिकता के उपरोक्त विधायक तत्वों की राह हमवार की जा सकती है। किसी भी दौर में, किसी भी सत्ता के बरक्स जन-अपेक्षा की बात करना और सत्ता की कारगुजारियों की पोल खोलना आधुनिक साहित्य का अनिवार्य कर्तव्य है। मोटे तौर पर प्रगतिशील और जनपक्षधर सत्ताएँ भी ऐसा बहुत कुछ करती हैं जिनकी आलोचना करने की ज़रूरत होती है। आधुनिक युग में कविता की अवस्थिति इसी इलाक़े में है। उसे अनिवार्यतः सत्ता के विरोध में होना होता है। ज़ाहिर है ऐसा करने पर सत्ता का ढिंढोरा पीटने वाले बहुत से स्वनामधन्य कवियों और चिंतकों को समस्या होती है। इसका मुक़ाबला हमेशा वे एक ख़ास क़िस्म की 'सकारात्मकता' से करते हैं--- सत्ता के कथित 'अच्छे कामों' के प्रति सकारात्मक होने की मांग करते हुए। इसीलिए यह बात बार-बार दुहरानी पड़ती है कि सत्ता के पास अपनी उपलब्धियों के प्रचार के लिए हजार मुँह होते हैं, विरोधी आवाज़ों को चुप कराने के तमाम हथकंडों के साथ, लेकिन कविता इससे अलग रहकर और ज़रूरत पड़ने पर सारे ख़तरे उठाकर भी इसकी सचाई को उजागर करती है।


किसी ने कहा है कि नई रचनाशीलता को उसकी कमजोरियों के बावजूद पुरानी श्रेष्ठ रचनाशीलता पर वरीयता देनी चाहिए क्योंकि नई रचना में भविष्य की आहट और उम्मीद होती है। इस वक्तव्य को सावधानी पूर्वक ग्रहण करते हुए हम ये पाते हैं कि जो साहित्य आने वाली पीढ़ियों के लिए कोई उम्मीद नहीं जगाता वह मृत साहित्य है। हर पीढ़ी में ययाति ग्रंथि से पीड़ित प्रवृत्ति होती है, जो आगामी पीढ़ियों को लांछित करके उन्हें उनके श्रेय से वंचित कर देना चाहती है। स्वयं रचनात्मक रूप से बंजर हो चुकने के कारण सत्ता का ढिंढोरची बनना उसकी मजबूरी होती है। हर युवा पीढ़ी स्वाभाविक रूप से यथास्थिति के प्रति कुछ न कुछ असन्तोष ज़रूर रखती है, भले ही आगे चलकर उसका कुछ हो पाए या नहीं। बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक में जो नई पीढ़ी आई थी वह आज़ादी के बाद होने वाले कथित राष्ट्रनिर्माण के प्रति भ्रम और मोह से निजात पाना चाहती थी, और देश की नंगी सचाइयों से रूबरू हो रही थी। इसी दौर की कविता को पहले 'नई कविता', और फिर 'अकविता' आदि कहा गया। अज्ञेय की पिछली दो विवेचित कविताओं में इसी 'नई कविता' के प्रति उनके विचारों को व्यक्त किया गया है। अब हम इस प्रकरण का समापन करने के लिए उनकी 1968 की एक कविता 'आज़ादी के बीस बरस' को क्रमशः पूरा उद्धृत करके उस पर विचार करेंगे। यह उनके संग्रह 'क्योंकि मैं उसे जानता हूँ' की पहली कविता है। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं---


"चलो, ठीक है कि आज़ादी के बीस बरस से

तुम्हें कुछ नहीं मिला,

पर तुम्हारे बीस बरस से आज़ादी को

(या तुम से बीस बरस की आज़ादी को)

क्या मिला?

उन्नीस नंगे शब्द?

अठारह लचर आन्दोलन?

सत्रह फटीचर कवि?

सोलह लुंजी-हाँ, कह लो, कलाएँ-

(पर चोरी, चापलूसी, सेंध मारना, जुआखोरी,

लल्लोपत्तो और लबारियत ये सब पारम्परिक कलाएँ थीं

आज़ादी के बीस बरस क्यों, बीस पीढ़ी पहले की!)"


यहाँ अज्ञेय की 'बात' इस क़दर 'बोल रही' है, कि उसका कोई स्पष्टीकरण देना अनावश्यक लगता है। फिर भी इतना याद दिलाना ज़रूरी है कि इस कविता के लिखे जाने तक आज़ादी के बाद के हालात पर सवाल उठाने वाले कवियों में मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी की मृत्यु हो चुकी थी, और अन्य प्रमुख कवियों के साथ धूमिल और लीलाधर जगूड़ी आदि सक्रिय थे। नक्सलबाड़ी-विद्रोह का दमन जारी था, संसदीय दायरे में सात राज्यों में ग़ैर कांग्रेसी सरकारें बन चुकी थीं, और पूरे यूरोप में परिवर्तन के लिए ज़बरदस्त छात्र-आंदोलन चल रहा था। इस परिप्रेक्ष्य में 'आज़ादी से हमें क्या मिला', ऐसे स्वाभाविक प्रश्न का जवाब देते हुए अज्ञेय ने यह गाली-गलौज से भरी हुई कविता लिखी है। यह बात अलग से अंडरलाइन करने की है कि उनके हमले का निशाना युवा पीढ़ी बनी है।


कुछ लोगों को लगता है कि कवि भी इंसान है और अगर कभी उसने आक्रोश में कुछ ऐसा-वैसा कह भी दिया तो इसके आधार पर उसका मूल्यांकन करना उचित नहीं है। इस संबन्ध में एक बात ध्यान रखने की है कि कविता में या कहीं भी महज़ गाली के शब्द आ जाने से कविता ख़राब नहीं हो जाती। महत्वपूर्ण यह है कि आपने किसको कौन सी गाली दी, और क्यों। मसलन, अगर किसी अत्याचारी शासक, उसके नुमाइंदे, या किसी अन्यायी व्यवस्था को कोई अपशब्द कहता है, ख़ास तौर पर कोई ऐसा व्यक्ति जो उसका शिकार हो और जिसकी सहनशक्ति चुक रही हो तो उसे ग़लत नहीं माना जा सकता। हाँ, ऐसी स्थिति में भी यह ज़रूरी है कि वह अपशब्द किसी अन्य व्यक्ति या समूह के लिए अपमानजनक न हो। आम लोग जिन गालियों को दिन रात बकते रहते हैं, कविता में उनके प्रयोग को महज़ इस आधार पर उचित नहीं कहा जा सकता। कवि सचेत रूप से इनका चुनाव करता है। वह अपने चुने हुए शब्दों के सामाजिक नतीजों की ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकता। बहरहाल, ये बातें यहाँ लागू नहीं होतीं क्योंकि अज्ञेय यहाँ सीधे-सीधे, जनविरोधी सत्ता के चाटुकारों की भाषा में उस सत्ता से सवाल करने वालों को अपशब्द कह रहे हैं। उनका तर्क भी वही 'सकारात्मकता' वाला है। आज भी जब सत्ता से कोई प्रश्न पूछा जाता है तो सत्ता के चाटुकार यही तर्क देते हैं। कहना होगा कि कम से एक तबक़े को राह दिखाने में वे कामयाब रहे।


कविता में इसके बाद की पंक्तियाँ देखें----


"पन्द्रह...बारह...दस...यों पाँच, चार और तीन

और दो और एक और फिर इनक़लाबी सुन्न

जिस की गिड्डुली में बँधे तुम

अपने को सिद्ध, पीर, औलिया जान बैठे हो!

क्या हर तिकठी ढोने वाला हर डोम

हर जल्लाद का हर पिट्ठू

सिर्फ ढुलाई के मिस मसीहा हो जाता है?

ओ मेरे मसीहा, हाय मेरे मसीहा!"


इन पंक्तियों में इंक़लाब और श्रमिक जन के प्रति कवि की नफ़रत बाक़ी हर चीज़ पर भारी है। 'इनक़लाबी सुन्न' यानी क्रांतिकारी शून्य का प्रयोग दिलचस्प है। '64 में मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद जिस तरह हिंदी के बौद्धिक समुदाय ने उनकी अनुपस्थिति से पैदा हुए शून्य को महसूस किया वह एक परिघटना जैसा था। ऐसा लगता है कि यह बात मुक्तिबोध के प्रेमियों को संबोधित करके कही गई है। अज्ञेय के शब्द 'इनक़लाबी सुन्न की गिड्डुली में बँधे तुम' उसी परिघटना से उपजी कुंठा का नतीजा हैं। साल भर पहले जनक्रांति की वैसी ही कोशिश हुई थी जिसका सपना 'अँधेरे में' कविता में मुक्तिबोध ने देखा था। मध्यवर्ग का श्रमिक वर्ग से प्रेरित होकर उस जैसा बनने का प्रयास भी उस कविता की एक ख़ासियत थी।  'तिकठी ढोने वाला डोम' और 'जल्लाद का पिट्ठू' दोनों ही श्रमिक हैं। कविता में उनकी प्लेसिंग से यह बात निकलती है कि दोनों शव को ढोते हैं। संभव है, यहाँ मुक्तिबोध की मृत्यु के उपरांत उनकी प्रशंसा करने वाले, अज्ञेय की नज़र में उनका शव ढोने वाले लोग हों। कविता की व्याख्या करते हुए उसे व्यक्तिगत समीकरणों में घटा देना अच्छी बात नहीं है, लेकिन बहुत आसानी से यह कहा जा सकता है कि इन पंक्तियों में श्रमिक-सर्वहारा वर्ग की विचारधारा और राजनीति, साहित्य में जिसकी नुमाइंदगी मुक्तिबोध करते थे, के प्रति अज्ञेय की चरम नफ़रत व्यक्त हुई है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं---


"आज़ादी के बीस बरस निकल गये

और तुम्हें कुछ नहीं मिला-

एक कमबख़्त कम से कम पहचाना जा सकने वाला

जटियल सलीब भी नहीं:

जब कि इतने-इतने मन्दिरों और रथों से इतनी-इतनी काठ-मूर्तियाँ

तोड़ी-उखाड़ी जा कर रोज़ बिक रही हैं इतने अच्छे दामों!

हाय मेरे मसीहा!

बिना सलीब के तुम्हें कोई पहचाने भी तो कैसे

और जो तुम्हें नहीं पहचाने

उस की आज़ादी क्या?

पहचान तो तुम्हें, फ़क़त तुम्हें, हुई-

आज़ादी की भी और अपनी भी!

आज़ादी के बीस बरस से

बीस बरस की आज़ादी से

तुम्हें कुछ नहीं मिला:

मिली सिर्फ आज़ादी!"


इन पंक्तियों में भी अज्ञेय कवित्व के अपने वास्तविक स्तर पर दिखाई पड़ते हैं। वे कविता की परिवर्तनकामी धारा का यह कहकर मज़ाक उड़ाते हैं कि इन्हें अब तक समाज में सच्चे क्रांतिकारी के रूप में नहीं पहचाना जा सका, क्योंकि इनके पास 'सलीब' नहीं है। सलीब यानी वह चीज़ जिस पर लटका कर ईसा मसीह की जान ली गई थी। हमारे संदर्भ में इसे 'सूली' या 'फाँसी' कह सकते हैं। अब इसका तकलीफ़देह तर्जुमा यह होगा कि ये इसीलिए नहीं पहचाने जा सके क्योंकि इन्हें किसी ने सूली पर नहीं चढ़ाया। इसमें एक छिपा हुआ आशय यह भी है कि मुक्तिबोध जैसों को इसी नाते पहचाना गया। यानी उनकी कविता की वजह से नहीं, उनके वंचित और अभावग्रस्त जीवन के कारण उन्हें बड़ा कवि मान लिया गया। 


कुल मिलाकर यह कविता कवि अज्ञेय के वास्तविक सरोकारों को प्रकट करती है। '68 तक आते-आते उन्होंने अपनी रही-सही रचनात्मक शक्ति खो दी थी, और देश-दुनिया मे बदलाव के लिए चल रहे उथल-पुथल के बीच खड़े कुंठित और बदज़ुबान व्यक्ति की तरह युवा पीढ़ी को कोस रहे थे।


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