नए इलाके में
अरुण कमल चुनौती भरे इलाक़े में
विगत सदी में 90 का दशक भूमण्डलीकृत एकध्रुवीय विश्वव्यवस्था की स्थापना और समाजवादी व्यवस्थाओं के ध्वंस के चलते, वैचारिक और रचनात्मक आग्रहों की पुनर्परिभाषा का दौर रहा है। इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज ने मंडल और कमंडल के रूप में कुछ अपनी उथल-पुथल के आयाम भी शामिल किए। अरुण कमल का तीसरा संग्रह 'नये इलाके में' (1996) की कविताएं इसी दौर का कविप्रदत्त साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। संग्रह की पहली कविता 'नये इलाके में' की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"इन नये बसते इलाकों में
जहां रोज बन रहे हैं नये नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ"
अरुण कमल 90 के दशक में होने वाले परिवर्तनों के लिए एक भौगोलिक इलाके का रूपक बनाते हैं। दृश्य कुछ यूँ बनता है कि कोई व्यक्ति किसी पुराने इलाके में स्थित अपने घर की तलाश में आता है और पाता है कि वह इलाका पूरी तरह से बदल गया है। जो पुरानी पहचानें थीं, वे गायब हो चुकी हैं। हर बार वह अपने गंतव्य से थोड़ा आगे पीछे 'ठकमकाता' रहता है। इस रूपक को कुछ और साफ़ करने वाली बीच की पंक्तियां देखें:
"यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ"
यहां व्यक्त मनोदशा पर्याप्त स्पष्ट है। यह एक ऐसे व्यक्ति का पर्यवेक्षण है जो तेजी से बदलती दुनिया में अपनी स्मृति, अपने अनुभव, और ज्ञान को लेकर गहरी कश्मकश से भर उठा है। एक ही दिन में बसंत पतझड़ में, और बैसाख भादों में बदल जाता है। पहला दृश्य अवनति का है और दूसरा उन्नति का। यानी पुरानी, समाजवादी दुनिया के विचारों, सपनों, और आदर्शों का ठाट छीज गया है और नई, भूमंडलीकृत पूंजीवादी दुनिया के कारनामों में हरियाली छाई हुई है। जीवन भर का हासिल स्मृति भी अब धोखा दे रही है। हर क़दम पर भटकना पड़ रहा है।
90 के दशक की सचाई का यह सरलतम रेखांकन है। इसमें व्यक्त परिस्थिति का आशय यह है कि हालात बदल गए, दुनिया बदल गई, लेकिन उनको देखने वाला इंसान रत्ती भर भी न बदला है, न बदलने की ज़रूरत महसूस करता है। यह सारा बदलाव मानो किसी आकस्मिक आपदा की तरह उसके सिर आ पड़ा है। इसमें उसकी और उसके वैचारिक पक्ष की कहीं कोई भूमिका नहीं है। आत्मसमीक्षा का कोई आग्रह या ज़रूरत भी नहीं है। इसी समझ के आधार पर कवि अरुण कमल को अपने शुरूआती दौर में भ्रम हुआ था कि वह जनता के लोहे को विचारों की सान पर चढ़ाकर उसे धार देने वाले, इतिहास के एजेंट हैं। इस समझ की फलश्रुतियों को देखने के पहले आइए कविता की शेष, अंतिम पंक्तियों को भी देख लें:
"अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ और पूछो----
क्या यही है वो घर?
समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर"
कविता की आलोचना में वैचारिक तर्कों की भूमिका को न समझ पाने वाले ग़ौर करें। यहां कविता का वाचक 'मैं' जिसे एकमात्र उपाय बता रहा है, उस उपाय की प्रासंगिकता, वैज्ञानिकता या प्रगतिशीलता को अगर मूल्यांकन का पैमाना बनाया जाएगा तो आलोचना जड़ और यांत्रिक हो जाएगी। लेकिन कवि के महसूस किए हुए दृश्य के पीछे सक्रिय संवेदना अवश्य ही आलोचना का पैमाना बनेगी। यहाँ पूरे परिदृश्य में वाचक का अकेलापन वह सबसे महत्वपूर्ण संवेदनात्मक तत्व है, जिसकी पड़ताल ज़रूरी है। हालत यह हो गई है कि अपना घर खोजने के लिए हर घर का दरवाज़ा खटखटाना पड़ रहा है। 'क्या यही है वह घर' इस सवाल में भी एक अंतर्निहित उलाहना है। घर के खोने की बात तो कहने का बहाना भर है। हुआ यह है कि घर तो वही पुराने हैं, लेकिन नए ज़माने में उनमें रहने वाले लोगों के दिल-दिमाग़ बदल गए हैं। समाज ही बदल गया है। कवि की चेतना में यह बदलाव इस क़दर संपूर्ण है कि उसे कोई जान-पहचान वाला दिखता तक नहीं। भारी बरसात होने को है और वह इस उम्मीद में चल रहा है कि शायद कोई अब भी उसे पहचानता हो और पुकार ले। जो बदलाव हुआ है वह, ज़ाहिर है, नकारात्मक है। मनुष्यता का पक्ष कमजोर हुआ है और साम्राज्य पोषित सत्ता मजबूत हुई है। ऐसे में इस बदलाव के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल चुके 'घरों' से यह पूछना कि 'क्या यही है वह घर' अपने अंदर उन 'घरों' की भर्त्सना की अचूक ध्वनि रखता है।
अब सवाल यह है कि पूंजीवाद बनाम समाजवाद के द्वंद और समाजवाद की पराजय के संदर्भ में संवेदनात्मक स्तर पर व्यक्त हुआ इस तरह का निराशावाद किस वर्ग की चेतना की उपज है सर्वहारा वर्ग का, या टुटपुँजिया वर्ग का।
घर के खो जाने या बदल जाने का एक और दृश्य 'हाट' शीर्षक कविता में देखें:
"मेरे पास न पूँजी थी न पण्य
मैं बाट भी न था कि हाट के आता काम
न पाप कमाया न पुण्य न ही रहा अक्षत
दिन भर घूमता ढली देह लिए लौटा धाम
लेकिन वहाँ जहाँ घर था मेरा घर नहीं था अट्टालिका कपाट और द्वारपाल----
यहाँ मेरा घर था मेरे पिता मेरी माँ
मेरा घर?
द्वारपाल हँसे---
तुम किस जन्म की बात कर रहे हो?"
आत्मपक्ष और प्रतिपक्ष के प्रति कवि का नज़रिया क्या है, यह कविता के मूल्यांकन के निर्णायक प्रश्नों में से एक है। घर के खो जाने या बदल जाने में निहित दूसरों के प्रति भर्त्सनामिश्रित निराशा का सर्वग्रासी भाव हम पहले देख चुके हैं। साथ ही अपने प्रति वाचक का जो अत्यंत उदार और लगभग आत्ममुग्ध रवैया है उसे नोट करना चाहिए। पूंजी के सैलाब में पूरी दुनिया के पैर उखड़ चुके हैं, लेकिन हमारा वाचक उससे अविचलित है। इसी संवेदना को तनिक विस्तार देती एक और कविता 'ऐसे में' की ये पंक्तियां देखें:
"भग्न है ब्रह्मांड का आर्केस्ट्रा
हर दीवार में पड़ी है दरार
यह इतना पुराना पेड़ अंतिम दाँत सा
बस लगा भर है पृथ्वी के मसूढ़े से
हिल रहा है सब कुछ हिल रहा है
जो अंतिम आधार थी धरती वह भी
ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
तेज धार में रोपता चल रहा हूं पाँव
उखड़ता
डोलती धरती पर दौड़ता
खुले स्थिर मैदान की खोज में "
यहाँ कवि की संवेदना की दुनिया कुछ और स्पष्ट रूप में सामने आती है। समूचे ढहते हुए ब्रह्मांड में जैसे अकेला पेड़ पृथ्वी पर टिका है, वैसे ही वाचक भी बिल्कुल अकेला, पृथ्वी को मानो अपने कदमों से नापता चल रहा है। ग़ौर करें कि उसकी तलाश एक स्थिर और खुले मैदान की है। धरती के हिलने पर खुले मैदान की तलाश स्वाभाविक है, लेकिन यह 'खुलापन' 90 के दशक के एक और 'खुलापन' की याद दिलाता है, 'ग्लासनोस्त' की जो गोर्बाचेव का एक विश्व प्रसिद्ध नारा था। कविता में जिस तरह कुछ भी निश्चित नहीं, कुछ भी पक्का नहीं को बार-बार दुहराया गया है वह भी तत्कालीन पालबदल वामपंथी लेखकों में तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे उत्तर-आधुनिकतावादी संशय की अनुगूंज लिए हुए है। यहां ये संकेत सिर्फ़ इसलिए नोट किए जा रहे हैं ताकि यह समझा जा सके कि अरुण कमल 'नये' इलाके में भटकने के बाद 'किस किस घाट दहते हैं'।
यहाँ तक आकर एक बात साफ़ हो जाती है कि 90 के दशक में दुनिया के बदल जाने के बाद अरुण कमल की कविता का वाचक 'मैं', जो कवि का लगभग माउथपीस है, अपनी राह नहीं पहचान पा रहा है। वह पुरानी दुनिया का बाशिंदा है और नई सचाइयों के सामने असहज होता है। वह पाता है कि उसके पुराने साथी, मित्र, सहयोगी भी नए रंग में रंग गए हैं, और वह अकेला छूट गया है। इस प्रकार अपने प्रति करुणा और दूसरों के प्रति समुचित भर्त्सना का भाव उसके मन में घर कर गया है। जब कोई व्यक्ति अपने मनोजगत में ख़ुद को अपनी सचाई और अच्छाई के कारण पूरी दुनिया में अकेला पड़ता हुआ पाता है तो आत्मरक्षा ही उसका सबसे प्रधान उद्देश्य हो जाता है। जिसके पीछे पूरी दुनिया पड़ी है उस व्यक्ति को बचाना मानवता के लिए सबसे ज़रूरी है। ऐसे में वह एक-एक करके अपने सभी पुराने विचारों पर शंका करता है और अपनी रक्षा और उत्तरजीविता के लिए ज़रूरी लगने वाले विचारों को उनकी जगह स्थापित कर लेता है। कहना अनावश्यक है कि यह सब कुछ उसकी मध्यवर्गीय दुर्बलता के चलते ही होता है। संग्रह की एक और कविता 'काष्ठखंड की गाथा' देखें:
"चाहता था जलूँ तो
केवल रोशनी हो
धधाती लपट
धुँवा न कालिख न राख
जलने के बाद लगे कुछ था ही नहीं थी
थी बस कपूर की बटी
बस थोड़ा सा ताप गीले तट पर
और हुआ क्या
चारों तरफ ठस गया धुँवा
लोग आँख नोचते खाँसते बाहर भागे
इतनी कालिख थी और इतनी राख
क्या इसीलिए मैं दहता रहा इतने दिन
एक तट से दूसरे तट?"
यहाँ प्रस्तुत रूपक पर ग़ौर करें। यह जो काठ का टुकड़ा है वह स्वभाव से ही शुष्क है। लकड़ी की नमी के ख़त्म होने के बाद ही उसे काठ कहते हैं। इसकी तमन्ना है कि जब यह जले तो कपूर की तरह जले। कपूर वाली सुगंध का तो पता नहीं, लेकिन रोशनी और गर्माहट ख़ूब रहे। लेकिन जलने के बाद धुआं ही धुआं है, कड़वा और कसैला। आसपास के लोग भाग खड़े हो रहे हैं। ज़ाहिर है कि पानी में बहते हुए उसने नमी सोख ली है, लेकिन इसके लिए उसे पानी के दोष का संकेत करना ज़रूरी लगता है। वह पूछता है कि क्या इसीलिए वह एक तट से दूसरे तट तक बहता रहा। आशय यह है कि घाट-घाट का पानी सोख कर वह धधाती हुई लपट की जगह धुंधुवाती हुई लकड़ी में बदल गया। ज़ाहिर है पानी की वजह से उसका अवमूल्यन हुआ है, वरना सूखे काठ के रूप में उसकी यह दशा न होती। अरुण कमल की कविता का वाचक वही 'मैं' है जो नई दुनिया में पहुंचकर पहले तो चौंका था, फिर अपने को पूरी तरह अकेला पाकर वह अपनी विचारधारा और अपने साथियों की भूमिका पर पुनर्विचार को बाध्य हुआ था। इस कविता में ऐसा लगता है कि इस घाट से उस घाट बहने की यात्रा अब तक गुज़रे जीवन का ही रूपक है जिसमें विचारधारा का जल प्रविष्ट हो गया है। कहीं यही वजह तो नहीं कि उसे कपूर की गति नहीं मिली और धुँधुवाना पड़ा।
#कबितबिबेक_चार
चुनौती भरे इलाक़े में--दो
नब्बे के दशक में आए इस संग्रह (नये इलाके में) की वैचारिक धार फ़िलहाल ज़ेरे-बहस है। समाजवाद के पराभव और पूंजीवाद के एकछत्र साम्राज्य की स्थापना के दौर में वाम के एक इनसाइडर कवि का अपनी वैचारिकी और राजनीति के प्रति क्या नज़रिया है, यह विचारणीय है। इस संदर्भ में, 'आत्मा का रोकड़' शीर्षक कविता की ये अंतिम पंक्तियां देखें:
"फिर भी निश्चिंत रहने का वक्त तो यह है नहीं इस उम्मीद पर बैठने का वक्त तो यह है नहीं
कि एक न एक दिन बदलेगा सब कुछ
कि यही है नियम और यही होगा भागफल
बहुत कुछ है जो है किसी भी पंचांग से बाहर किसी भी नक्शे में नहीं हैं सारी नदियाँ सारे पहाड़
कितना अधूरा कितने काट कूट से भरा है आत्मा का रोकड़
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिया
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया----
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा?"
'मकान का नक्शा शुरू से ही गलत था', वैसे तो इस कथन को एक प्रश्न के रूप में रखा गया है, लेकिन इस प्रश्न से पहले जो कुछ 'लगता है', वह इस कथन के पूरी तरह समर्थन में है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि वाचक का अपना पक्ष भी यही है। दरअसल, 'मकान का यह नक्शा' मार्क्सवादी विचारधारा है जिस पर कवि समाजवादी व्यवस्थाओं की असफलता की ज़िम्मेदारी आयत करता है। उपर्युक्त अंश में अंतिम वाक्य तक आते-आते यह बात पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है। विचारधारा के प्रयोगकर्ताओं के बजाय ख़ुद विचारधारा ही को कटघरे में खड़ा करना ख़ासा मानीख़ेज़ है, और ख़ुद ही एक विचारधारा है। इसी ज़मीन पर लिखी हुई एक अन्य कविता 'नैतिक प्रश्न' में एक 'मित्र' का चरित्रांकन देखें:
"आज से पहले मैंने मित्र को कभी
असमंजस में नहीं देखा
उसने किसी को कभी कुछ पूछने की
मोहलत भी नहीं दी
क्योंकि वह जो भी कर रहा था वह
सत्य के पक्ष में ऐतिहासिक दायित्व का विनम्र निर्वाह था
लेकिन आज बरसात की इस शाम को
फुटपाथ पर पहली बार उसे ठिठकते
हिचकते देखा
हाथ में गर्म भुट्टा पकड़े अँगीठी पर आँखे
गड़ाये वह बोला----लगता है मसान के
कोयले पर पका है
खाना ठीक होगा?"
साफ़ तौर पर यहां किसी सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता का कैरीकेचर बनाया गया है। यहां सवाल यह नहीं है कि ऐसे लोग पाए जाते हैं या नहीं। सवाल यह है कि कवि ने वाम आंदोलन के कितने कमजोर प्रतिनिधि को उसका 'पर्दाफ़ाश' करने के लिए चुना है। वामपंथ की कमजोरियों पर बहस करना एक बात है, और उसका मज़ाक बनाना बिल्कुल दूसरी बात। इससे यह भी पता चलता है कि आप जिस चुनौती का सामना कर रहे हैं उसके सबसे कमजोर पहलू पर ही चोट कर पा रहे हैं।
कवि आत्मालोचना के महत्त्व से अपरिचित भी नहीं है। संग्रह की एक कविता 'अंत' इसका उदाहरण है। इसकी आरंभिक पंक्तियां देखें:
"आखिर इसी जान
इसी देह की खातिर तो सब किया
जहाँ बोलना था चुप रहा
जिससे बोलना बंद कर देना था उससे
हँस-हँसकर बोला"
कविता का यह हिस्सा, ख़ासतौर पर अंतिम पंक्तियाँ मुक्तिबोध के प्रश्न 'अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया' का जवाब जान पड़ती हैं। अगर किसी मध्यवर्गीय व्यक्ति में अपने जीवन-व्यवहार के प्रति ऐसी वास्तविक आलोचना मौजूद है तो यह मूल्यवान है। लेकिन अगर आत्मालोचना के शिल्प का इस्तेमाल कोई अपने पाखंड को छुपाने के लिए करता है तो भाषा में यह चीज़ उजागर हुए बिना नहीं रहती। कविता हमारे सचेत विचारों से अधिक अवचेतन के भाव-संवेदनों को व्यक्त करती है। यह वैसे ही है जैसे कभी भयभीत होने पर हम आत्मरक्षा में अपनी शक्ति का बढ़ा-चढ़ाकर बखान तो कर सकते हैं, लेकिन उस बखान से ही हमारी 'शक्ति' का खोखलापन और अंदर का भय उजागर हो जाता है। बहरहाल इस कविता में अपनी गतिविधियों का ठोस बिम्ब देते हुए वाचक कहता है:
"नाक पर डाले रूमाल गरीब बहन के आंगन से गुजरा
और बलवंत के आगे टाँगे रहा भरा पीकदान"
ये दोनों ही आत्यंतिक स्थितियाँ हैं। अगर सचमुच वाचक के मन में निर्मम आत्मसमीक्षा जगती तो वह अधिक सहज होता और सामान्य जीवन-व्यवहार में अपने अवसरवाद तथा दुहरेपन कि अभिव्यक्तियों को पहचान सकता था, जैसा कि शुरूआती पंक्तियों में दिखा था। लेकिन 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' की संवेदना का सच्ची आत्मसमीक्षा से छत्तीस का आंकड़ा है। किसी के आंगन में रूमाल नाक पर लगा कर उसके घर जाना एक अजीब विद्रूप दृश्य उपस्थित करता है। कोई कह सकता है कि इस बिम्ब का शाब्दिक अर्थ न लिया जाए। इसका आशय ग़रीबों से घृणा करना हो सकता है। लेकिन कविता में उपस्थित बिम्ब इतने व्यर्थ नहीं होते कि उन्हें सिर्फ़ भावार्थ बताने का माध्यम मान लिया जाए। ये कवि की संवेदना का परिचय देते हैं, इसलिए इन्हें सुसंगत होना, और विश्लेषण की कसौटी का सामना करना पड़ता है।
पहले कहा जा चुका है कि आत्मपक्ष और प्रतिपक्ष के प्रति कविता में व्यक्त दृष्टिकोण मूल्यांकन के सबसे विश्वसनीय पैमानों में से एक है। प्रतिपक्ष का आशय वह प्रवृत्ति है, कविता में जिसका विरोध किया गया है। यहां आलोचना का विषय आमतौर पर मध्यवर्ग के अंदर पाई जाने वाली अवसरवादी प्रवृत्ति है जो तनिक धन या रुतबे के आते ही अपने निकटतम लोगों को गंदा और उपेक्षणीय समझने लगती है, लेकिन जो शक्ति-सामर्थ्य में बढ़ा-चढ़ा है, और जिससे काम पड़ सकता है, उसकी चापलूसी में ज़मीन-आसमान एक कर देती है। कविता का यह विषय बिल्कुल अनिवार्य और स्वागतयोग्य है। मुश्किल तब आती है जब इस प्रवृत्ति का उदाहरण देने के लिए आप कोई ऐसा बिम्ब लाते हैं जो इस प्रवृत्ति के सबसे निकृष्ट रूप का प्रतिनिधित्व करती है। इससे यह ज़ाहिर होता है कि आप जिसका विरोध कर रहे हैं उसके घुटनों तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं।
दूसरे शब्दों में, रचना और विचार के क्षेत्र में प्रतिपक्ष की शक्ति और संभावना का अतिक्रमण करके ही उसका निषेध किया जा सकता है। अपनी ग़रीब बहन के आंगन से नाक दबा कर गुज़रना ग़रीबों के प्रति घृणा से अधिक ऐसा करने वाले के अपने उथलेपन को उजागर करता है। हम जानते हैं कि ग़रीबों से सर्वाधिक घृणा करने और उन्हें मिटा देने का षड्यंत्र दिन-रात करने वाले लोग उनके साथ अधिक परिष्कृत तरीक़ों से पेश आते हैं। ताक़तवर के सामने पीकदान लेकर खड़ा रहना भी एक ऐसा ही, अधम कोटि का, जुगुप्सा पैदा करने वाला बिम्ब है। इस विषय पर लिखी जाने वाली कविता के सामने चुनौती उस परिष्कार में छिपे पाखंड का भंडाफोड़ करने की है।
दूसरी बात यह कि अगर इस बिम्ब को ग़ौर से देखें तो यह ख़ासा अटपटा और अस्वाभाविक लगता है। आप किसी के आंगन से होकर तब गुज़रते हैं जब या तो उसके घर के अंदरूनी कमरे में जाते हैं या उस कमरे से निकलते हैं और बाहर जाते हैं। ऐसे में, अगर आंगन से गुज़रने में नाक बंद करनी पड़ रही है तो कमरे में क्या हाल होगा। कमरों की अपेक्षा आंगन हमेशा अधिक खुली जगह होता है जहां किसी प्रकार की दुर्गंध से राहत मिलने की संभावना अधिक होती है। आंगन से गुज़रने के बजाय अगर दरवाज़े से गुज़रने की बात होती तो बिम्ब में यह कमी नहीं होती। ज़ाहिर है कि कवि ने आत्मालोचना के जोश में एक चित्र बना तो लिया लेकिन उसके प्रति सच्चे सरोकार के अभाव में उसका वह चित्र सुसंगत न हो सका। कविता जब अपने प्रतिपक्ष को इस क़दर भोंडे रूप में चित्रित करती है तो उसके पीछे सक्रिय ख़ुद उसकी संवेदना का विकास बाधित हो जाता है, और अपने मूल तर्क से विचलित होकर वह किसी न किसी समझौते या समर्पण का हिस्सा बन जाती है। इस कविता का 'अंत' भी कुछ ऐसी ही स्थितियों में होता है:
"दस बजे दिन या पाँच बजे शाम
जब सबसे तेज थी सड़क तब नहीं
तब जब सड़क थी सबसे सुनसान रात में एक के बाद
मैं मरा दब कर मलबा ढोने वाले ट्रैक्टर के नीचे"
अंत में मृत्यु का यह हवाला कविता की शुरुआती पंक्ति 'आखिर इसी जान इसी देह.....' के साथ जुड़कर यह अर्थ देता है कि एक दिन सब को इस दुनिया से जाना है इसलिए कमजोर की उपेक्षा और ताक़तवर की ख़ुशामद जैसे काम नहीं करने चाहिए। ये चीज़ें मनुष्यता की गरिमा के विरुद्ध हैं, इसलिए नहीं, इनका त्याग इसलिए करना चाहिए कि जिस मिट्टी की देह के लिए यह सब किया जाता है एक दिन वह मिट्टी में ही मिल जाएगी। हमारे लोक में इस तरह की बहुत सी उक्तियाँ प्रचलित हैं, लेकिन ये निस्पृहता का भ्रम पैदा करने के अधिक और सचमुच की निस्पृहता को बढ़ावा देने के कम काम आती हैं। कविता में मृत्यु जिस तरह अनपेक्षित और आकस्मिक रुप से आती है वह इस तर्क को और अधिक लचर बना देता है। हम देख सकते हैं कि कविता की शुरूआत में एक सीधे-सरल वाक्य से जो भावना अंकुरित हुई थी, कवि की संवेदना उसका साथ निभाने में असफल रहती है। अब यह विचारधारा मनुष्य को पतन के गर्त में जाने से रोकने में कितनी सहायक है यह अपने आसपास देखकर बख़ूबी समझा जा सकता है।
इस प्रकरण का समापन करते हुए दो कविताएं और लेते हैं 'श्रद्धांजलि' और 'शेली के प्रति'। संग्रह में दोनों कविताएँ आगे-पीछे दी हुई हैं। 'श्रद्धांजलि' में एक पुरानी घड़ी का ज़िक्र है जो कभी समय बताती थी लेकिन अब बंद और बेकार हो चुकी है। इसकी अंतिम पंक्तियां हैं:
"वह घड़ी उन आँखों की तरह थी
जिनका प्रकाश अस्त हो चुका है
फिर भी जो खुली रहती हैं एकटक
और उनके सामने झूठ बोलते डर लगता है
समय एक नहीं रहता कहते थे बाबा
घड़ी का भी नहीं सोचकर अजीब लगा
एक रोज अचानक रात में उठा पसीने से तर चारों ओर लगा घेरा ही घेरा है
लगा मैं चुन दिया गया हूँ जिंदा दीवार में
कि सहसा एक ओर कुछ कौंधा सर्पमणि सा---
वही बेकार घड़ी
जिसका रेडियम दमक रहा था अब भी अँधेरे में"
पुराने समय में काम करने वाली घड़ी अब बेकार हो गई, क्योंकि 'समय एक नहीं रहता'। 'नये इलाके में' आकर समय को जानने-पहचानने के लिए नए पैमाने की ज़रूरत पड़ती है। जैसा देस वैसा भेस। बदली हुई दुनिया में बचे रहने के लिए यह ज़रूरी भी है, ख़ासतौर पर तब, जब दुश्मन और दोस्त सभी आपके विरुद्ध हो गए हों। समानता का विचार उन खुली आंखों की तरह है जिनकी रोशनी जा चुकी है। जैसे श्रद्धांजलि देते समय अंत में कोई अच्छी बात याद की जाती है, वैसे ही कविता के अंत में रेडियम की दमक की याद की गई है।
समतामूलक समाज बनाने के प्रयोगों की असफलता पर कवि का नज़रिया वाक़ई काबिले-ग़ौर है। हिंदी में इस विषय पर बहुत सारे कोंणों से बात हुई है। अरुण कमल ही की पीढ़ी के कवि वीरेन डंगवाल की इस विषय पर लिखी 'सितारों के बारे में' शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखने योग्य हैं:
"टूटते नहीं हैं सितारे
वे मिट जाते हैं आहिस्ता-आहिस्ता
जबकि उनके छूँछे प्रकाश में
हम गढ़ते होते हैं
अपने सर्वोत्तम स्वप्न।"
यहाँ कवि का अभिप्राय है कि जैसे सितारों के मिट जाने के बाद भी उनके रोशनी हज़ारों- लाखों बरस तक हमारे पास आती रहती है, उसी प्रकार सोवियत संघ जैसे प्रयोग अपनी असफलता से भी हमें शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। इस कविता की कुछ और पंक्तियां देखें:
"महान गणितज्ञों की तरह
वे सिर्फ़ इंगित करते हैं
दिशाओं को
राह नहीं खोजी जा सकती
उनके दिप-दिप प्रकाश में।"
असफल समाजवादी प्रयोगों के लिए हमारे सामने दो रूपक हैं। एक रूपक सितारों का है जो मिटकर भी हमें रोशनी दे रहे हैं, और दूसरा आंखों का है जो अपनी रोशनी खोकर डरावनी हो चुकी हैं। डर भी 'झूठ बोलते' लगता है, मानो झूठा होने के चलते ही उनकी ये दशा हुई हो। दोनों रूपकों के पीछे के सरोकार और संवेदना का अंतर स्पष्ट है। अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।
स्वतंत्रता और समानता आधुनिक युग के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक आदर्श हैं। समानता के प्रयोगों के नतीजों पर कवि की खिन्नता हम अनेक प्रसंगों में देख चुके हैं। अब अंत में स्वतंत्रता के आदर्श के प्रति कवि का नज़रिया देखने के लिए अंग्रेज़ी के महाकवि शेली की 200वीं वर्षगांठ पर लिखी कविता का उत्तरार्द्ध देखें:
"आज तुम्हारे जन्मदिन की रात
बहुत अंधकार है और एक भी मोमबत्ती
नहीं मेरे पास
अपनी पीठ के सिवा नहीं कोई टेक
अपनी आँख के सिवा न कहीं प्रकाश
जीवित होना आज बहुत बड़ा भार है
युवा होना भीषण अभिशाप
मेरे भी सब केश पक चुके हैं करीब-करीब
पर आत्मा का एक भी केश सफेद नहीं
अभी भी बचा है वक्ष पर मांस का अंतिम कौर
फहरा रही है जर्जर चील पछया हवा में"
आत्ममुग्धता और निराशावाद के दो छोरों के बीच पींगें लेती उपर्युक्त पंक्तियों में एक विपरीत स्वर तब सुनाई पड़ता है जब आत्मा के केश का ज़िक्र आता है। लेकिन अगली ही पंक्ति में इस अतिउत्साह की कलई खुल जाती है जब पता चलता है कि वक्ष पर मांस का अंतिम अंशमात्र बचा है। ज़ाहिर है, रक्त भी उसी अनुपात में बचा होगा। ऐसे में केशों की तो बात ही बेमानी है, वे चाहे शरीर के हों, या आत्मा के। अगली ही पंक्ति में इस बात की पुष्टि भी हो जाती है।
ग़ौरतलब है कि कवि वक्ष पर बचे हुए मांस के अंतिम टुकड़े को 'कौर' कहता है। अब अगर यह कौर है तो उसे खाने वाला भी मौजूद होना चाहिए। वह है भी। पछया हवा में फहराती हुई जर्जर चील। यहां ख़ास बात यह है कि यह चील और कोई नहीं स्वतंत्रता का ध्वज है। कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"फहरा रही है पछया हवा में
स्वाधीनता की जर्जर पताका
दुनिया की विधानसभाओं से बहिष्कृत
खड़े हैं कवि भग्नमूर्ति के पास नंगे पाँव"
कैसी बिडम्बना है कि कवि के भावजगत में मांस का कौर खाने की भूमिका कभी हत्यारों के सिपुर्द थी:
"देखो हत्यारों को मिलता राजपाट सम्मान
जिनके मुँह में कौर मांस का उनको मगही पान"
बहरहाल, इन पंक्तियों के बाद प्राचीन रोम में ग़ुलामों के विद्रोह का नेतृत्व करने वाले स्पार्टकस, और स्वर्ग से आग चुरा कर लाने वाले, यूनानी पुराकथाओं के नायक प्रोमेथियस (प्रमथ्यु) की शहादत का उल्लेख कविता में होता है। अंतिम वाक्यों से पता चलता है कि कवि की भी जान जाने ही वाली है। स्वतंत्रता का ध्वज चील में बदल गया है और कवि के सीने का बचा-खुचा मांस नोच लेने को तत्पर है। ज़ाहिर है, कविता का वाचक ख़ुद को शहादत की परंपरा से जोड़े भी रखना चाहता है और स्वतंत्रता की 'जर्जर पताका' के प्रति अपनी वितृष्णा छुपा भी नहीं पाता।
इस कविता में कवियों के बारे में एकमात्र बात यह कही गई है कि वे पूरी दुनिया की विधानसभाओं से बहिष्कृत हैं। समझ में नहीं आता कि अगर वे विधानसभाओं में आमंत्रित और समादृत होते तो इससे कविता का सम्मान बढ़ता या स्वतन्त्रता का। वैसे भी, स्पार्टकस और प्रोमेथियस के ज़िक्र के तुरंत पहले कवियों की ऐसी बेचारगी भरी छवि कवि के अंतर्जगत के बारे में कोई आश्वस्तकारी सूचना नहीं देती।
कुल मिलाकर इन कविताओं से गुज़रने के बाद यह कहा जा सकता है कि कवि ने अपनी यात्रा की शुरूआत में जो कुछ सोचकर समाजवाद की वैचारिक राह अपनाई थी, आगे चलकर उसपर क़ायम नहीं रह सका। संकट में पड़ते ही वो विचारधारा कवि को बोझ मालूम पड़ने लगी। किन्हीं विवशताओं के चलते कवि उससे रिश्ता नहीं तोड़ पाता है, लेकिन उसकी कविताएँ उसकी झुँझलाहट को ज़ाहिर कर देती हैं। ऐसी मनोदशा में रची गई कविताओं में कोई ताप और तेवर तो क्या आता, जिस हद तक ये सचाई, कवि की वैचारिक भंगिमाओं के बावजूद, इनमें आ गई है, उस हद तक ये कविताएँ कलात्मक कही जा सकती हैं।
विगत सदी में 90 का दशक भूमण्डलीकृत एकध्रुवीय विश्वव्यवस्था की स्थापना और समाजवादी व्यवस्थाओं के ध्वंस के चलते, वैचारिक और रचनात्मक आग्रहों की पुनर्परिभाषा का दौर रहा है। इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज ने मंडल और कमंडल के रूप में कुछ अपनी उथल-पुथल के आयाम भी शामिल किए। अरुण कमल का तीसरा संग्रह 'नये इलाके में' (1996) की कविताएं इसी दौर का कविप्रदत्त साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। संग्रह की पहली कविता 'नये इलाके में' की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"इन नये बसते इलाकों में
जहां रोज बन रहे हैं नये नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ"
अरुण कमल 90 के दशक में होने वाले परिवर्तनों के लिए एक भौगोलिक इलाके का रूपक बनाते हैं। दृश्य कुछ यूँ बनता है कि कोई व्यक्ति किसी पुराने इलाके में स्थित अपने घर की तलाश में आता है और पाता है कि वह इलाका पूरी तरह से बदल गया है। जो पुरानी पहचानें थीं, वे गायब हो चुकी हैं। हर बार वह अपने गंतव्य से थोड़ा आगे पीछे 'ठकमकाता' रहता है। इस रूपक को कुछ और साफ़ करने वाली बीच की पंक्तियां देखें:
"यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ"
यहां व्यक्त मनोदशा पर्याप्त स्पष्ट है। यह एक ऐसे व्यक्ति का पर्यवेक्षण है जो तेजी से बदलती दुनिया में अपनी स्मृति, अपने अनुभव, और ज्ञान को लेकर गहरी कश्मकश से भर उठा है। एक ही दिन में बसंत पतझड़ में, और बैसाख भादों में बदल जाता है। पहला दृश्य अवनति का है और दूसरा उन्नति का। यानी पुरानी, समाजवादी दुनिया के विचारों, सपनों, और आदर्शों का ठाट छीज गया है और नई, भूमंडलीकृत पूंजीवादी दुनिया के कारनामों में हरियाली छाई हुई है। जीवन भर का हासिल स्मृति भी अब धोखा दे रही है। हर क़दम पर भटकना पड़ रहा है।
90 के दशक की सचाई का यह सरलतम रेखांकन है। इसमें व्यक्त परिस्थिति का आशय यह है कि हालात बदल गए, दुनिया बदल गई, लेकिन उनको देखने वाला इंसान रत्ती भर भी न बदला है, न बदलने की ज़रूरत महसूस करता है। यह सारा बदलाव मानो किसी आकस्मिक आपदा की तरह उसके सिर आ पड़ा है। इसमें उसकी और उसके वैचारिक पक्ष की कहीं कोई भूमिका नहीं है। आत्मसमीक्षा का कोई आग्रह या ज़रूरत भी नहीं है। इसी समझ के आधार पर कवि अरुण कमल को अपने शुरूआती दौर में भ्रम हुआ था कि वह जनता के लोहे को विचारों की सान पर चढ़ाकर उसे धार देने वाले, इतिहास के एजेंट हैं। इस समझ की फलश्रुतियों को देखने के पहले आइए कविता की शेष, अंतिम पंक्तियों को भी देख लें:
"अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ और पूछो----
क्या यही है वो घर?
समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर"
कविता की आलोचना में वैचारिक तर्कों की भूमिका को न समझ पाने वाले ग़ौर करें। यहां कविता का वाचक 'मैं' जिसे एकमात्र उपाय बता रहा है, उस उपाय की प्रासंगिकता, वैज्ञानिकता या प्रगतिशीलता को अगर मूल्यांकन का पैमाना बनाया जाएगा तो आलोचना जड़ और यांत्रिक हो जाएगी। लेकिन कवि के महसूस किए हुए दृश्य के पीछे सक्रिय संवेदना अवश्य ही आलोचना का पैमाना बनेगी। यहाँ पूरे परिदृश्य में वाचक का अकेलापन वह सबसे महत्वपूर्ण संवेदनात्मक तत्व है, जिसकी पड़ताल ज़रूरी है। हालत यह हो गई है कि अपना घर खोजने के लिए हर घर का दरवाज़ा खटखटाना पड़ रहा है। 'क्या यही है वह घर' इस सवाल में भी एक अंतर्निहित उलाहना है। घर के खोने की बात तो कहने का बहाना भर है। हुआ यह है कि घर तो वही पुराने हैं, लेकिन नए ज़माने में उनमें रहने वाले लोगों के दिल-दिमाग़ बदल गए हैं। समाज ही बदल गया है। कवि की चेतना में यह बदलाव इस क़दर संपूर्ण है कि उसे कोई जान-पहचान वाला दिखता तक नहीं। भारी बरसात होने को है और वह इस उम्मीद में चल रहा है कि शायद कोई अब भी उसे पहचानता हो और पुकार ले। जो बदलाव हुआ है वह, ज़ाहिर है, नकारात्मक है। मनुष्यता का पक्ष कमजोर हुआ है और साम्राज्य पोषित सत्ता मजबूत हुई है। ऐसे में इस बदलाव के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल चुके 'घरों' से यह पूछना कि 'क्या यही है वह घर' अपने अंदर उन 'घरों' की भर्त्सना की अचूक ध्वनि रखता है।
अब सवाल यह है कि पूंजीवाद बनाम समाजवाद के द्वंद और समाजवाद की पराजय के संदर्भ में संवेदनात्मक स्तर पर व्यक्त हुआ इस तरह का निराशावाद किस वर्ग की चेतना की उपज है सर्वहारा वर्ग का, या टुटपुँजिया वर्ग का।
घर के खो जाने या बदल जाने का एक और दृश्य 'हाट' शीर्षक कविता में देखें:
"मेरे पास न पूँजी थी न पण्य
मैं बाट भी न था कि हाट के आता काम
न पाप कमाया न पुण्य न ही रहा अक्षत
दिन भर घूमता ढली देह लिए लौटा धाम
लेकिन वहाँ जहाँ घर था मेरा घर नहीं था अट्टालिका कपाट और द्वारपाल----
यहाँ मेरा घर था मेरे पिता मेरी माँ
मेरा घर?
द्वारपाल हँसे---
तुम किस जन्म की बात कर रहे हो?"
आत्मपक्ष और प्रतिपक्ष के प्रति कवि का नज़रिया क्या है, यह कविता के मूल्यांकन के निर्णायक प्रश्नों में से एक है। घर के खो जाने या बदल जाने में निहित दूसरों के प्रति भर्त्सनामिश्रित निराशा का सर्वग्रासी भाव हम पहले देख चुके हैं। साथ ही अपने प्रति वाचक का जो अत्यंत उदार और लगभग आत्ममुग्ध रवैया है उसे नोट करना चाहिए। पूंजी के सैलाब में पूरी दुनिया के पैर उखड़ चुके हैं, लेकिन हमारा वाचक उससे अविचलित है। इसी संवेदना को तनिक विस्तार देती एक और कविता 'ऐसे में' की ये पंक्तियां देखें:
"भग्न है ब्रह्मांड का आर्केस्ट्रा
हर दीवार में पड़ी है दरार
यह इतना पुराना पेड़ अंतिम दाँत सा
बस लगा भर है पृथ्वी के मसूढ़े से
हिल रहा है सब कुछ हिल रहा है
जो अंतिम आधार थी धरती वह भी
ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
तेज धार में रोपता चल रहा हूं पाँव
उखड़ता
डोलती धरती पर दौड़ता
खुले स्थिर मैदान की खोज में "
यहाँ कवि की संवेदना की दुनिया कुछ और स्पष्ट रूप में सामने आती है। समूचे ढहते हुए ब्रह्मांड में जैसे अकेला पेड़ पृथ्वी पर टिका है, वैसे ही वाचक भी बिल्कुल अकेला, पृथ्वी को मानो अपने कदमों से नापता चल रहा है। ग़ौर करें कि उसकी तलाश एक स्थिर और खुले मैदान की है। धरती के हिलने पर खुले मैदान की तलाश स्वाभाविक है, लेकिन यह 'खुलापन' 90 के दशक के एक और 'खुलापन' की याद दिलाता है, 'ग्लासनोस्त' की जो गोर्बाचेव का एक विश्व प्रसिद्ध नारा था। कविता में जिस तरह कुछ भी निश्चित नहीं, कुछ भी पक्का नहीं को बार-बार दुहराया गया है वह भी तत्कालीन पालबदल वामपंथी लेखकों में तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे उत्तर-आधुनिकतावादी संशय की अनुगूंज लिए हुए है। यहां ये संकेत सिर्फ़ इसलिए नोट किए जा रहे हैं ताकि यह समझा जा सके कि अरुण कमल 'नये' इलाके में भटकने के बाद 'किस किस घाट दहते हैं'।
यहाँ तक आकर एक बात साफ़ हो जाती है कि 90 के दशक में दुनिया के बदल जाने के बाद अरुण कमल की कविता का वाचक 'मैं', जो कवि का लगभग माउथपीस है, अपनी राह नहीं पहचान पा रहा है। वह पुरानी दुनिया का बाशिंदा है और नई सचाइयों के सामने असहज होता है। वह पाता है कि उसके पुराने साथी, मित्र, सहयोगी भी नए रंग में रंग गए हैं, और वह अकेला छूट गया है। इस प्रकार अपने प्रति करुणा और दूसरों के प्रति समुचित भर्त्सना का भाव उसके मन में घर कर गया है। जब कोई व्यक्ति अपने मनोजगत में ख़ुद को अपनी सचाई और अच्छाई के कारण पूरी दुनिया में अकेला पड़ता हुआ पाता है तो आत्मरक्षा ही उसका सबसे प्रधान उद्देश्य हो जाता है। जिसके पीछे पूरी दुनिया पड़ी है उस व्यक्ति को बचाना मानवता के लिए सबसे ज़रूरी है। ऐसे में वह एक-एक करके अपने सभी पुराने विचारों पर शंका करता है और अपनी रक्षा और उत्तरजीविता के लिए ज़रूरी लगने वाले विचारों को उनकी जगह स्थापित कर लेता है। कहना अनावश्यक है कि यह सब कुछ उसकी मध्यवर्गीय दुर्बलता के चलते ही होता है। संग्रह की एक और कविता 'काष्ठखंड की गाथा' देखें:
"चाहता था जलूँ तो
केवल रोशनी हो
धधाती लपट
धुँवा न कालिख न राख
जलने के बाद लगे कुछ था ही नहीं थी
थी बस कपूर की बटी
बस थोड़ा सा ताप गीले तट पर
और हुआ क्या
चारों तरफ ठस गया धुँवा
लोग आँख नोचते खाँसते बाहर भागे
इतनी कालिख थी और इतनी राख
क्या इसीलिए मैं दहता रहा इतने दिन
एक तट से दूसरे तट?"
यहाँ प्रस्तुत रूपक पर ग़ौर करें। यह जो काठ का टुकड़ा है वह स्वभाव से ही शुष्क है। लकड़ी की नमी के ख़त्म होने के बाद ही उसे काठ कहते हैं। इसकी तमन्ना है कि जब यह जले तो कपूर की तरह जले। कपूर वाली सुगंध का तो पता नहीं, लेकिन रोशनी और गर्माहट ख़ूब रहे। लेकिन जलने के बाद धुआं ही धुआं है, कड़वा और कसैला। आसपास के लोग भाग खड़े हो रहे हैं। ज़ाहिर है कि पानी में बहते हुए उसने नमी सोख ली है, लेकिन इसके लिए उसे पानी के दोष का संकेत करना ज़रूरी लगता है। वह पूछता है कि क्या इसीलिए वह एक तट से दूसरे तट तक बहता रहा। आशय यह है कि घाट-घाट का पानी सोख कर वह धधाती हुई लपट की जगह धुंधुवाती हुई लकड़ी में बदल गया। ज़ाहिर है पानी की वजह से उसका अवमूल्यन हुआ है, वरना सूखे काठ के रूप में उसकी यह दशा न होती। अरुण कमल की कविता का वाचक वही 'मैं' है जो नई दुनिया में पहुंचकर पहले तो चौंका था, फिर अपने को पूरी तरह अकेला पाकर वह अपनी विचारधारा और अपने साथियों की भूमिका पर पुनर्विचार को बाध्य हुआ था। इस कविता में ऐसा लगता है कि इस घाट से उस घाट बहने की यात्रा अब तक गुज़रे जीवन का ही रूपक है जिसमें विचारधारा का जल प्रविष्ट हो गया है। कहीं यही वजह तो नहीं कि उसे कपूर की गति नहीं मिली और धुँधुवाना पड़ा।
#कबितबिबेक_चार
चुनौती भरे इलाक़े में--दो
नब्बे के दशक में आए इस संग्रह (नये इलाके में) की वैचारिक धार फ़िलहाल ज़ेरे-बहस है। समाजवाद के पराभव और पूंजीवाद के एकछत्र साम्राज्य की स्थापना के दौर में वाम के एक इनसाइडर कवि का अपनी वैचारिकी और राजनीति के प्रति क्या नज़रिया है, यह विचारणीय है। इस संदर्भ में, 'आत्मा का रोकड़' शीर्षक कविता की ये अंतिम पंक्तियां देखें:
"फिर भी निश्चिंत रहने का वक्त तो यह है नहीं इस उम्मीद पर बैठने का वक्त तो यह है नहीं
कि एक न एक दिन बदलेगा सब कुछ
कि यही है नियम और यही होगा भागफल
बहुत कुछ है जो है किसी भी पंचांग से बाहर किसी भी नक्शे में नहीं हैं सारी नदियाँ सारे पहाड़
कितना अधूरा कितने काट कूट से भरा है आत्मा का रोकड़
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिया
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया----
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा?"
'मकान का नक्शा शुरू से ही गलत था', वैसे तो इस कथन को एक प्रश्न के रूप में रखा गया है, लेकिन इस प्रश्न से पहले जो कुछ 'लगता है', वह इस कथन के पूरी तरह समर्थन में है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि वाचक का अपना पक्ष भी यही है। दरअसल, 'मकान का यह नक्शा' मार्क्सवादी विचारधारा है जिस पर कवि समाजवादी व्यवस्थाओं की असफलता की ज़िम्मेदारी आयत करता है। उपर्युक्त अंश में अंतिम वाक्य तक आते-आते यह बात पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है। विचारधारा के प्रयोगकर्ताओं के बजाय ख़ुद विचारधारा ही को कटघरे में खड़ा करना ख़ासा मानीख़ेज़ है, और ख़ुद ही एक विचारधारा है। इसी ज़मीन पर लिखी हुई एक अन्य कविता 'नैतिक प्रश्न' में एक 'मित्र' का चरित्रांकन देखें:
"आज से पहले मैंने मित्र को कभी
असमंजस में नहीं देखा
उसने किसी को कभी कुछ पूछने की
मोहलत भी नहीं दी
क्योंकि वह जो भी कर रहा था वह
सत्य के पक्ष में ऐतिहासिक दायित्व का विनम्र निर्वाह था
लेकिन आज बरसात की इस शाम को
फुटपाथ पर पहली बार उसे ठिठकते
हिचकते देखा
हाथ में गर्म भुट्टा पकड़े अँगीठी पर आँखे
गड़ाये वह बोला----लगता है मसान के
कोयले पर पका है
खाना ठीक होगा?"
साफ़ तौर पर यहां किसी सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता का कैरीकेचर बनाया गया है। यहां सवाल यह नहीं है कि ऐसे लोग पाए जाते हैं या नहीं। सवाल यह है कि कवि ने वाम आंदोलन के कितने कमजोर प्रतिनिधि को उसका 'पर्दाफ़ाश' करने के लिए चुना है। वामपंथ की कमजोरियों पर बहस करना एक बात है, और उसका मज़ाक बनाना बिल्कुल दूसरी बात। इससे यह भी पता चलता है कि आप जिस चुनौती का सामना कर रहे हैं उसके सबसे कमजोर पहलू पर ही चोट कर पा रहे हैं।
कवि आत्मालोचना के महत्त्व से अपरिचित भी नहीं है। संग्रह की एक कविता 'अंत' इसका उदाहरण है। इसकी आरंभिक पंक्तियां देखें:
"आखिर इसी जान
इसी देह की खातिर तो सब किया
जहाँ बोलना था चुप रहा
जिससे बोलना बंद कर देना था उससे
हँस-हँसकर बोला"
कविता का यह हिस्सा, ख़ासतौर पर अंतिम पंक्तियाँ मुक्तिबोध के प्रश्न 'अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया' का जवाब जान पड़ती हैं। अगर किसी मध्यवर्गीय व्यक्ति में अपने जीवन-व्यवहार के प्रति ऐसी वास्तविक आलोचना मौजूद है तो यह मूल्यवान है। लेकिन अगर आत्मालोचना के शिल्प का इस्तेमाल कोई अपने पाखंड को छुपाने के लिए करता है तो भाषा में यह चीज़ उजागर हुए बिना नहीं रहती। कविता हमारे सचेत विचारों से अधिक अवचेतन के भाव-संवेदनों को व्यक्त करती है। यह वैसे ही है जैसे कभी भयभीत होने पर हम आत्मरक्षा में अपनी शक्ति का बढ़ा-चढ़ाकर बखान तो कर सकते हैं, लेकिन उस बखान से ही हमारी 'शक्ति' का खोखलापन और अंदर का भय उजागर हो जाता है। बहरहाल इस कविता में अपनी गतिविधियों का ठोस बिम्ब देते हुए वाचक कहता है:
"नाक पर डाले रूमाल गरीब बहन के आंगन से गुजरा
और बलवंत के आगे टाँगे रहा भरा पीकदान"
ये दोनों ही आत्यंतिक स्थितियाँ हैं। अगर सचमुच वाचक के मन में निर्मम आत्मसमीक्षा जगती तो वह अधिक सहज होता और सामान्य जीवन-व्यवहार में अपने अवसरवाद तथा दुहरेपन कि अभिव्यक्तियों को पहचान सकता था, जैसा कि शुरूआती पंक्तियों में दिखा था। लेकिन 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' की संवेदना का सच्ची आत्मसमीक्षा से छत्तीस का आंकड़ा है। किसी के आंगन में रूमाल नाक पर लगा कर उसके घर जाना एक अजीब विद्रूप दृश्य उपस्थित करता है। कोई कह सकता है कि इस बिम्ब का शाब्दिक अर्थ न लिया जाए। इसका आशय ग़रीबों से घृणा करना हो सकता है। लेकिन कविता में उपस्थित बिम्ब इतने व्यर्थ नहीं होते कि उन्हें सिर्फ़ भावार्थ बताने का माध्यम मान लिया जाए। ये कवि की संवेदना का परिचय देते हैं, इसलिए इन्हें सुसंगत होना, और विश्लेषण की कसौटी का सामना करना पड़ता है।
पहले कहा जा चुका है कि आत्मपक्ष और प्रतिपक्ष के प्रति कविता में व्यक्त दृष्टिकोण मूल्यांकन के सबसे विश्वसनीय पैमानों में से एक है। प्रतिपक्ष का आशय वह प्रवृत्ति है, कविता में जिसका विरोध किया गया है। यहां आलोचना का विषय आमतौर पर मध्यवर्ग के अंदर पाई जाने वाली अवसरवादी प्रवृत्ति है जो तनिक धन या रुतबे के आते ही अपने निकटतम लोगों को गंदा और उपेक्षणीय समझने लगती है, लेकिन जो शक्ति-सामर्थ्य में बढ़ा-चढ़ा है, और जिससे काम पड़ सकता है, उसकी चापलूसी में ज़मीन-आसमान एक कर देती है। कविता का यह विषय बिल्कुल अनिवार्य और स्वागतयोग्य है। मुश्किल तब आती है जब इस प्रवृत्ति का उदाहरण देने के लिए आप कोई ऐसा बिम्ब लाते हैं जो इस प्रवृत्ति के सबसे निकृष्ट रूप का प्रतिनिधित्व करती है। इससे यह ज़ाहिर होता है कि आप जिसका विरोध कर रहे हैं उसके घुटनों तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं।
दूसरे शब्दों में, रचना और विचार के क्षेत्र में प्रतिपक्ष की शक्ति और संभावना का अतिक्रमण करके ही उसका निषेध किया जा सकता है। अपनी ग़रीब बहन के आंगन से नाक दबा कर गुज़रना ग़रीबों के प्रति घृणा से अधिक ऐसा करने वाले के अपने उथलेपन को उजागर करता है। हम जानते हैं कि ग़रीबों से सर्वाधिक घृणा करने और उन्हें मिटा देने का षड्यंत्र दिन-रात करने वाले लोग उनके साथ अधिक परिष्कृत तरीक़ों से पेश आते हैं। ताक़तवर के सामने पीकदान लेकर खड़ा रहना भी एक ऐसा ही, अधम कोटि का, जुगुप्सा पैदा करने वाला बिम्ब है। इस विषय पर लिखी जाने वाली कविता के सामने चुनौती उस परिष्कार में छिपे पाखंड का भंडाफोड़ करने की है।
दूसरी बात यह कि अगर इस बिम्ब को ग़ौर से देखें तो यह ख़ासा अटपटा और अस्वाभाविक लगता है। आप किसी के आंगन से होकर तब गुज़रते हैं जब या तो उसके घर के अंदरूनी कमरे में जाते हैं या उस कमरे से निकलते हैं और बाहर जाते हैं। ऐसे में, अगर आंगन से गुज़रने में नाक बंद करनी पड़ रही है तो कमरे में क्या हाल होगा। कमरों की अपेक्षा आंगन हमेशा अधिक खुली जगह होता है जहां किसी प्रकार की दुर्गंध से राहत मिलने की संभावना अधिक होती है। आंगन से गुज़रने के बजाय अगर दरवाज़े से गुज़रने की बात होती तो बिम्ब में यह कमी नहीं होती। ज़ाहिर है कि कवि ने आत्मालोचना के जोश में एक चित्र बना तो लिया लेकिन उसके प्रति सच्चे सरोकार के अभाव में उसका वह चित्र सुसंगत न हो सका। कविता जब अपने प्रतिपक्ष को इस क़दर भोंडे रूप में चित्रित करती है तो उसके पीछे सक्रिय ख़ुद उसकी संवेदना का विकास बाधित हो जाता है, और अपने मूल तर्क से विचलित होकर वह किसी न किसी समझौते या समर्पण का हिस्सा बन जाती है। इस कविता का 'अंत' भी कुछ ऐसी ही स्थितियों में होता है:
"दस बजे दिन या पाँच बजे शाम
जब सबसे तेज थी सड़क तब नहीं
तब जब सड़क थी सबसे सुनसान रात में एक के बाद
मैं मरा दब कर मलबा ढोने वाले ट्रैक्टर के नीचे"
अंत में मृत्यु का यह हवाला कविता की शुरुआती पंक्ति 'आखिर इसी जान इसी देह.....' के साथ जुड़कर यह अर्थ देता है कि एक दिन सब को इस दुनिया से जाना है इसलिए कमजोर की उपेक्षा और ताक़तवर की ख़ुशामद जैसे काम नहीं करने चाहिए। ये चीज़ें मनुष्यता की गरिमा के विरुद्ध हैं, इसलिए नहीं, इनका त्याग इसलिए करना चाहिए कि जिस मिट्टी की देह के लिए यह सब किया जाता है एक दिन वह मिट्टी में ही मिल जाएगी। हमारे लोक में इस तरह की बहुत सी उक्तियाँ प्रचलित हैं, लेकिन ये निस्पृहता का भ्रम पैदा करने के अधिक और सचमुच की निस्पृहता को बढ़ावा देने के कम काम आती हैं। कविता में मृत्यु जिस तरह अनपेक्षित और आकस्मिक रुप से आती है वह इस तर्क को और अधिक लचर बना देता है। हम देख सकते हैं कि कविता की शुरूआत में एक सीधे-सरल वाक्य से जो भावना अंकुरित हुई थी, कवि की संवेदना उसका साथ निभाने में असफल रहती है। अब यह विचारधारा मनुष्य को पतन के गर्त में जाने से रोकने में कितनी सहायक है यह अपने आसपास देखकर बख़ूबी समझा जा सकता है।
इस प्रकरण का समापन करते हुए दो कविताएं और लेते हैं 'श्रद्धांजलि' और 'शेली के प्रति'। संग्रह में दोनों कविताएँ आगे-पीछे दी हुई हैं। 'श्रद्धांजलि' में एक पुरानी घड़ी का ज़िक्र है जो कभी समय बताती थी लेकिन अब बंद और बेकार हो चुकी है। इसकी अंतिम पंक्तियां हैं:
"वह घड़ी उन आँखों की तरह थी
जिनका प्रकाश अस्त हो चुका है
फिर भी जो खुली रहती हैं एकटक
और उनके सामने झूठ बोलते डर लगता है
समय एक नहीं रहता कहते थे बाबा
घड़ी का भी नहीं सोचकर अजीब लगा
एक रोज अचानक रात में उठा पसीने से तर चारों ओर लगा घेरा ही घेरा है
लगा मैं चुन दिया गया हूँ जिंदा दीवार में
कि सहसा एक ओर कुछ कौंधा सर्पमणि सा---
वही बेकार घड़ी
जिसका रेडियम दमक रहा था अब भी अँधेरे में"
पुराने समय में काम करने वाली घड़ी अब बेकार हो गई, क्योंकि 'समय एक नहीं रहता'। 'नये इलाके में' आकर समय को जानने-पहचानने के लिए नए पैमाने की ज़रूरत पड़ती है। जैसा देस वैसा भेस। बदली हुई दुनिया में बचे रहने के लिए यह ज़रूरी भी है, ख़ासतौर पर तब, जब दुश्मन और दोस्त सभी आपके विरुद्ध हो गए हों। समानता का विचार उन खुली आंखों की तरह है जिनकी रोशनी जा चुकी है। जैसे श्रद्धांजलि देते समय अंत में कोई अच्छी बात याद की जाती है, वैसे ही कविता के अंत में रेडियम की दमक की याद की गई है।
समतामूलक समाज बनाने के प्रयोगों की असफलता पर कवि का नज़रिया वाक़ई काबिले-ग़ौर है। हिंदी में इस विषय पर बहुत सारे कोंणों से बात हुई है। अरुण कमल ही की पीढ़ी के कवि वीरेन डंगवाल की इस विषय पर लिखी 'सितारों के बारे में' शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखने योग्य हैं:
"टूटते नहीं हैं सितारे
वे मिट जाते हैं आहिस्ता-आहिस्ता
जबकि उनके छूँछे प्रकाश में
हम गढ़ते होते हैं
अपने सर्वोत्तम स्वप्न।"
यहाँ कवि का अभिप्राय है कि जैसे सितारों के मिट जाने के बाद भी उनके रोशनी हज़ारों- लाखों बरस तक हमारे पास आती रहती है, उसी प्रकार सोवियत संघ जैसे प्रयोग अपनी असफलता से भी हमें शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। इस कविता की कुछ और पंक्तियां देखें:
"महान गणितज्ञों की तरह
वे सिर्फ़ इंगित करते हैं
दिशाओं को
राह नहीं खोजी जा सकती
उनके दिप-दिप प्रकाश में।"
असफल समाजवादी प्रयोगों के लिए हमारे सामने दो रूपक हैं। एक रूपक सितारों का है जो मिटकर भी हमें रोशनी दे रहे हैं, और दूसरा आंखों का है जो अपनी रोशनी खोकर डरावनी हो चुकी हैं। डर भी 'झूठ बोलते' लगता है, मानो झूठा होने के चलते ही उनकी ये दशा हुई हो। दोनों रूपकों के पीछे के सरोकार और संवेदना का अंतर स्पष्ट है। अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।
स्वतंत्रता और समानता आधुनिक युग के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक आदर्श हैं। समानता के प्रयोगों के नतीजों पर कवि की खिन्नता हम अनेक प्रसंगों में देख चुके हैं। अब अंत में स्वतंत्रता के आदर्श के प्रति कवि का नज़रिया देखने के लिए अंग्रेज़ी के महाकवि शेली की 200वीं वर्षगांठ पर लिखी कविता का उत्तरार्द्ध देखें:
"आज तुम्हारे जन्मदिन की रात
बहुत अंधकार है और एक भी मोमबत्ती
नहीं मेरे पास
अपनी पीठ के सिवा नहीं कोई टेक
अपनी आँख के सिवा न कहीं प्रकाश
जीवित होना आज बहुत बड़ा भार है
युवा होना भीषण अभिशाप
मेरे भी सब केश पक चुके हैं करीब-करीब
पर आत्मा का एक भी केश सफेद नहीं
अभी भी बचा है वक्ष पर मांस का अंतिम कौर
फहरा रही है जर्जर चील पछया हवा में"
आत्ममुग्धता और निराशावाद के दो छोरों के बीच पींगें लेती उपर्युक्त पंक्तियों में एक विपरीत स्वर तब सुनाई पड़ता है जब आत्मा के केश का ज़िक्र आता है। लेकिन अगली ही पंक्ति में इस अतिउत्साह की कलई खुल जाती है जब पता चलता है कि वक्ष पर मांस का अंतिम अंशमात्र बचा है। ज़ाहिर है, रक्त भी उसी अनुपात में बचा होगा। ऐसे में केशों की तो बात ही बेमानी है, वे चाहे शरीर के हों, या आत्मा के। अगली ही पंक्ति में इस बात की पुष्टि भी हो जाती है।
ग़ौरतलब है कि कवि वक्ष पर बचे हुए मांस के अंतिम टुकड़े को 'कौर' कहता है। अब अगर यह कौर है तो उसे खाने वाला भी मौजूद होना चाहिए। वह है भी। पछया हवा में फहराती हुई जर्जर चील। यहां ख़ास बात यह है कि यह चील और कोई नहीं स्वतंत्रता का ध्वज है। कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"फहरा रही है पछया हवा में
स्वाधीनता की जर्जर पताका
दुनिया की विधानसभाओं से बहिष्कृत
खड़े हैं कवि भग्नमूर्ति के पास नंगे पाँव"
कैसी बिडम्बना है कि कवि के भावजगत में मांस का कौर खाने की भूमिका कभी हत्यारों के सिपुर्द थी:
"देखो हत्यारों को मिलता राजपाट सम्मान
जिनके मुँह में कौर मांस का उनको मगही पान"
बहरहाल, इन पंक्तियों के बाद प्राचीन रोम में ग़ुलामों के विद्रोह का नेतृत्व करने वाले स्पार्टकस, और स्वर्ग से आग चुरा कर लाने वाले, यूनानी पुराकथाओं के नायक प्रोमेथियस (प्रमथ्यु) की शहादत का उल्लेख कविता में होता है। अंतिम वाक्यों से पता चलता है कि कवि की भी जान जाने ही वाली है। स्वतंत्रता का ध्वज चील में बदल गया है और कवि के सीने का बचा-खुचा मांस नोच लेने को तत्पर है। ज़ाहिर है, कविता का वाचक ख़ुद को शहादत की परंपरा से जोड़े भी रखना चाहता है और स्वतंत्रता की 'जर्जर पताका' के प्रति अपनी वितृष्णा छुपा भी नहीं पाता।
इस कविता में कवियों के बारे में एकमात्र बात यह कही गई है कि वे पूरी दुनिया की विधानसभाओं से बहिष्कृत हैं। समझ में नहीं आता कि अगर वे विधानसभाओं में आमंत्रित और समादृत होते तो इससे कविता का सम्मान बढ़ता या स्वतन्त्रता का। वैसे भी, स्पार्टकस और प्रोमेथियस के ज़िक्र के तुरंत पहले कवियों की ऐसी बेचारगी भरी छवि कवि के अंतर्जगत के बारे में कोई आश्वस्तकारी सूचना नहीं देती।
कुल मिलाकर इन कविताओं से गुज़रने के बाद यह कहा जा सकता है कि कवि ने अपनी यात्रा की शुरूआत में जो कुछ सोचकर समाजवाद की वैचारिक राह अपनाई थी, आगे चलकर उसपर क़ायम नहीं रह सका। संकट में पड़ते ही वो विचारधारा कवि को बोझ मालूम पड़ने लगी। किन्हीं विवशताओं के चलते कवि उससे रिश्ता नहीं तोड़ पाता है, लेकिन उसकी कविताएँ उसकी झुँझलाहट को ज़ाहिर कर देती हैं। ऐसी मनोदशा में रची गई कविताओं में कोई ताप और तेवर तो क्या आता, जिस हद तक ये सचाई, कवि की वैचारिक भंगिमाओं के बावजूद, इनमें आ गई है, उस हद तक ये कविताएँ कलात्मक कही जा सकती हैं।
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