जड़, चेतन, काल और परिवर्तन

                                                          ------कृष्णमोहन

शमशेर के बारे में पहले मुक्तिबोध का एक कथन देखते हैं:

"...शमशेर वास्तविक भाव-प्रसंग में उपस्थित संवेदनाओं का चित्रण करते हैं। संवेदनाएँ वास्तविकता का एक भाग हैं---जो एक वास्तविक परिस्थिति के अंतर्गत भाव-प्रसंग में उद्बुद्ध होती हैं।...वास्तविकता हमेशा, अनिवार्य रूप से अटूट नियम की भांति उलझी हुई होती है। उस में दिक और काल, भूगोल और इतिहास, व्यक्ति और समाज, चरित्र और परिस्थिति, आलोचक मन और आलोचित आत्म-व्यक्तित्व आदि आदि घनिष्ठ रूप से बिंधे हुए होते हैं।...वास्तविक भाव-प्रसंगों में क्रमबद्ध और सक्रिय संवेदनाओं के चित्रण के अभाव में केवल सामान्यीकृत भावना, प्रकृति पर मन के रंगों का आरोप, केवल एक मूड और एक भावनात्मक रुख़ और लगभग गणितशास्त्री यांत्रिक शिल्प यही तथाकथित आधुनिक रोमांटिक कविता की उपलब्धि है। वास्तविक प्रणयजीवनकाल का 'ह्यूमनाइजिंग इफ़ेक्ट', हमें आधुनिक कविता में अधिक प्राप्त नहीं होता। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है।...ऐसे काव्य-साहित्य ने साहित्य-चिंतनधारा को बहुत अधिक प्रभावित किया है। फलतः 'चिंतकों' को सामान्यीकृत भावनाएँ चट से समझ में आ जाती हैं चाहे वे दुरूह छायावादी शैली में ही क्यों न लिखी गयी हों। किंतु प्रसंग-विशिष्ट संवेदनाएँ जो एक कथानक और नाटक उपस्थित करती हैं, वह उन्हें समझ में नहीं आतीं। इसीलिए कहा जाता है कि शमशेर के काव्य में उलझनें हैं।" 
                                 ('शमशेर मेरी दृष्टि में', 1958, रचनावली भाग पाँच, पृ. 435-36)

शमशेर की यहाँ प्रस्तुत 'लौट आ, ओ धार', 'एक पीली शाम', 'शिला का ख़ून पीती थी', और 'उषा' जैसी कविताएँ मुक्तिबोध के उक्त कथन में आई 'प्रसंग-विशिष्ट संवेदनाओं' का उदाहरण हैं, जो 'एक कथानक और नाटक उपस्थित करती हैं'। अपने लगभग सभी आलोचकों और प्रशंसकों को जवाब देते हुए अपनी कविताओं की 'अस्पष्टता' के बारे में शमशेर ने कहा है---"जिन्होंने मुझे टटोल लिया---मेरे सिस्टम को समझ लिया---उन्हें मेरी कविताओं को समझने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी।" (बतरस, शिल्पायन प्रकाशन)

असल में, मुक्तिबोध के उपर्युक्त वक्तव्य में आये प्रसंग, परिस्थिति, कथानक, नाटक, देश, काल, इतिहास, भूगोल, चरित्र, समाज और व्यक्ति जैसे शब्दों में निहित धारणाओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। शमशेर की कविता में वाह्य दृश्यों और परिस्थितियों का सामान्यीकृत रूप नहीं आता। इसमें वाह्य के विशिष्ट का आभ्यंतरीकृत रूप प्रकट होता है, वह भी चुनिंदा आधारभूत तत्त्वों में ढलकर। चेतन जगत का अनुभव अवचेतन के जल में डूबकर फिर से चेतना में प्रवेश करता है। 'सुर्रियलिज़्म' और 'इप्रेशनिज़्म' जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भ्रम अधिक फैला है, सफ़ाई कम हुई है। मुक्तिबोध के काव्य के लिए प्रचलित शब्द 'फ़ैंटेसी' इन दोनो से अधिक मददगार हो सकता है। शमशेर की कविता भी फ़ैंटेसी से बनती है, फ़र्क़ बस यह है कि मुक्तिबोध असाधारण विस्तार में जाकर यथार्थ जीवन के भाव प्रसंगों को चित्रित करते हैं वहीं शमशेर का आग्रह सूक्ष्मता और संक्षिप्तता का है। वे सबसे बुनियादी भावप्रसंगों के चित्र नाटकीय विधान के साथ दे देते हैं और परिदृश्य में रंग भरने का काम पाठक की कल्पना पर छोड़ देते हैं। 


शमशेर की सर्वाधिक उद्धृत की जाने वाली कविताओं में से एक है 'लौट आ ओ धार'। लगभग सत्तर वर्ष पहले लिखी गयी इस कविता पर बात करते समय आज भी हमारे चिंतकों की हालत सूरदास के शब्दों में, 'अविगत गति कछु कहत न आवे, ज्यों गूँगो मीठो फल को रस अंतरगत ही भावे' वाली हो जाती है। पहले इस छोटी-सी कविता को प्रस्तुत करके इस पर विचार करें:

"लौट आ ओ धार
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर
(मैं समय की एक लंबी आह
मौन लंबी आह)
लौट आ ओ फूल की पंखड़ी
फिर 
फूल में लग जा

चूमता है धूल का फूल 
कोई, हाय।"

इस कविता के सीधे-सरल भाव तक पहुँचने के लिए जितनी कसरत की गयी, वह उतना ही दूर होता गया। इसकी पहली पंक्ति में स्पष्टतया किसी ऐसी चीज़ को वापस बुलाने का उपक्रम है, जिसका गुज़र जाना दिल को तोड़ देने वाला है। कवि इसे 'धार' कहता है। इसका अर्थ खुल जाए तो कविता काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगी। रहीम के 'पानी' की तरह यह 'धार' भी अनेक परिस्थितियों में मूल्यवान वस्तु है, लेकिन इस प्रसंग में प्राथमिक स्तर पर यह किसी धारा का अर्थ प्रदान करती है। दूसरी पंक्ति में 'साँझ' की भूमिका निर्णायक है, जो कठोरता, निष्ठुरता लेकिन अपरिहार्यता का सूचक है। पहली पंक्ति के 'धार' को अगर दूसरी पंक्ति के 'टूट मत ओ' से सम्बोधित मान लें (क्योंकि कविता में शब्द की अर्थ-छायाएँ दोनो तरफ़ पड़ती हैं) तो दूसरे वाक्य का अर्थ होगा---ओ धार, लौट आ, साँझ के पत्थर जैसे हृदय पर पड़कर मत टूट। यहाँ सबसे पहले जल की धार के पत्थर पर गिरने का बिंब उपस्थित होता है। यह 'पत्थर' किसी हृदय का है इसलिए इसका स्वरूप भावनात्मक होगा, और 'धार' भी चेतना के किसी रूप की होगी।

दूसरी तरह से पढ़ने पर यह अर्थ और विकसित होता है। अगर 'धार' के बजाय 'साँझ के पत्थर' को 'टूट मत ओ' से सम्बोधित मान लें तो अर्थ होगा, ओ साँझ के पत्थर, हृदय पर मत टूट। पहली नज़र में यह एक सरल वाक्य लगता है। लेकिन पत्थर का ह्रदय पर टूटना धार की तरह नहीं है, यह हृदय को भी तोड़ देने वाला है। उससे 'न टूटने' का आग्रह पहले तो (हृदय को) न तोड़ने का आग्रह मालूम पड़ता है, लेकिन कहीं दूर से यह ध्वनि भी आती है कि हृदय को तोड़कर भी तू अटूट रह, क्योंकि तुझे यह आगे भी बार-बार अंजाम देना है। यहाँ आत्मदैन्य अथवा आत्मपीड़न लेशमात्र भी नहीं है। अपरिहार्य के स्वीकार का गरिमामय भाव है। इश्क़ के सुख-दुख को समभाव से लेने की प्रतिज्ञा है। दुख को बोझ समझने वाले ग़ालिब की इस समस्या पर ग़ौर करें:

"बोझ वह सर से गिरा है कि उठाये न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाये न बने"

शमशेर को यह इल्म था कि प्रचलित रुचियों के तहत उनकी कविता के अनर्थ की काफी सम्भावना है। इसलिए उन्होंने अपनी तमाम कविताओं में अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए कोष्ठक में टिप्पणियाँ कीं। बहरहाल, वे टिप्पणियाँ भी चिंतकों के लिए किसी पहेली से कम साबित नहीं हुईं। यहाँ कोष्ठक में उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि बात समय के धार अथवा प्रवाह की हो रही है। 'आह' भी साँसों का एक प्रवाह है।

आगे चलकर कविता उत्तरोत्तर अपना अर्थ खोलने की कोशिश करती है। फूल की पंखड़ी के लौटकर फिर से फूल में लग जाने जैसी असंभव बात का सादृश्य 'धार' के लौटने से दिखाकर शमशेर ने काव्यार्थ के लगभग इकहरे हो जाने का जोखिम उठाया था। लेकिन उनके अनेक प्रेमियों ने उसमें भी असम्भव कल्पना का उदात्त सौंदर्य जैसा कुछ पा लिया। अंततः कवि को करीब-करीब खुलकर कहना पड़ा कि न 'धार' लौट सकती है, न टूटी हुई पंखड़ी फूल में लग सकती है, और न फूल वापस डाल में लग सकता है। धूल में पड़े फूल को चूमने का अकेला अर्थ यह है कि कोई उसके टूटने का ग़म कर रहा है।  'हाय' इसलिए कि यह ग़म निरर्थक है। फूल का खिलना और मुरझाकर गिरना एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। मनुष्य इस बात को नहीं समझता, इसी का अफ़सोस है।

शाश्वतता बनाम नश्वरता के साथ-साथ काल की चक्रीय गति (सर्कुलर, एक जैसी अवस्था की आवृत्ति की धारणा मसलन सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग के बाद फिर सतयुग के साथ यही क्रम) बनाम सर्पिल गति (स्पाइरल, एक जैसे मोड़ और घुमाव मगर उत्तरोत्तर विकासमान स्पाइरल बाइंडिंग जैसी) के प्रसंग हमेशा ही सच्चे कवियों को आकर्षित करते रहे हैं। ग़ालिब कहते हैं---मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ। शमशेर अपने एक शेर में नश्वरता की महिमा का बखान कुछ यूँ करते हैं:

"मैं  कई बार  मिट चुका  हूँगा
वर्ना इस ज़िंदगी की इतनी धूम"


इस संदर्भ में पहले 'एक पीली शाम' नामक इस छोटी सी कविता को पढ़ लेते हैं, फिर इस पर कुछ बातें करेंगे:

"एक पीली शाम
         पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता
शान्त 
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल
कृश म्लान हारा-सा
         (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं?)

           वासना डूबी
           शिथिल पल में
           स्नेह काजल में
           लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सांध्य तारक-सा
         अतल में।"

यह कविता कुछ मायनों में 'लौट आ, ओ धार' से जुड़ी हुई लगती है, जिस पर हमने इससे पहले विचार किया था। विडंबना देखिए कि हमारे अनेक 'चिंतकों' ने इस कविता को कवि की स्वर्गीया पत्नी के देहावसान की घटना का रूपांतरण मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। कौन सी रचना 'किस पर' लिखी हुई है, यह बात आज तक हमारे 'चिंतकों' को आकर्षित करती है। इसी स्टीरियोटाइप को तोड़ने के लिए विनोद दास को दिए एक इंटरव्यू में शमशेर ने इस लोकापवाद का खंडन करते हुए, कि उनकी कविताएँ उनकी स्वर्गीया पत्नी की स्मृति की उपज हैं, कहा---"नहीं! मेरी प्रेम कविताएँ मेरे लगावों के अनुभवों से उपजी हैं।" 

बहरहाल, सबसे पहले दोनो कविताओं में 'साँझ' या 'शाम' की उपस्थिति की ओर ध्यान जाता है। शाम, दिन और रात की संधि-वेला का विशिष्ट समय है। दिन जीवन-संग्राम का एक रूप है। सक्रियता और संघर्ष इसकी विशेषताएँ हैं। रात्रि, विश्राम और निद्रा का रूप है, जिसमें चिरनिद्रा की झलक भी शामिल है। इस प्रकार हर दिन हमें जीवन और मृत्यु दोनो का अनुभव होता है। दिन के श्रम और संघर्ष से गुज़रने के बाद शाम का वक़्त विश्रांति का है, लेकिन उसमें उदासी और रिक्तता का पुट भी मिला होता है। सम्भवतः ऐसा जीवन के अवसान से इसके साम्य के कारण होता है। बक़ौल मीर:

"आ  गई  याद  शाम  ढलते  ही
बुझ गया दिल चिराग़ जलते ही"

बहुत सारे लोगों को तो चिराग़ की ये रोशनी भी मयस्सर नहीं:

"शाम  ही  से  बुझा-सा  रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का"

प्रसाद का साक्ष्य लें:

"जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो,
ताराओं की पाँत घनी रे।"
       ("ले चल वहाँ भुलावा देकर', 'लहर' से)

रात को दिन से जोड़ने वाली एक संधि-वेला उषा भी है जिस पर इसी नाम से शमशेर ने एक कविता भी लिखी है, जो दिन के या कि जीवन के आगमन की सूचना देने के कारण आशा से भरपूर, उजले बिंबों से सज्जित है। उषा 'जीवन' का संदेश लेकर आती है, और 'साँझ' 'जीवन' के अवसान का। इसीलिए इस कविता में वह 'पीली' है, यानी विवर्ण, निष्प्रभ, रक्तहीन और अस्त होती हुई।

अगली पंक्ति में (डाल पर) 'ज़रा अटका हुआ पत्ता' पतझर का है। पत्ता टूटने को है, जिसका एकमात्र अर्थ है कि जीवन से नाता बस छूटने को है। 'लौट आ, ओ धार' में जैसे फूल की पंखड़ी फूल से टूट गयी थी, इस कविता में मानो उससे ठीक पहले की अवस्था है। पतझर भी 'साँझ' या 'शाम' की तरह ही निष्ठुर और अपरिहार्य है। लेकिन उसमें आगामी वसंत का आश्वासन भी है। जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन को देख पाने वाला ही द्रष्टा कवि हो सकता है। अपनी एक अन्य कविता 'शाम-सुबह' में शमशेर कहते हैं:

"अमृत क्या है : सुबह
वह आयी कहाँ से?
शाम से। हाँ
वह अँधेरों की मिठास से 
                      पैदा हुई
सुबह"

बहरहाल, यहाँ पतझर किसी विशिष्ट ऋतु या अवसर का संकेत नहीं करता। कवि की दृष्टि में यह जो जीवन का सतत चलने वाला व्यापार है, उसका हर क्षण पतझर और वसंत में घुलामिला है। हर क्षण चलने वाले जीवन और मृत्यु के कारोबार से फ़िलहाल कवि ने आसन्न मृत्यु का क्षण चुना है, और उसे समूची विशिष्टता में उसकी पुनर्रचना की है।

अगली पंक्ति में एक ही शब्द है, 'शान्त'। यह उस पत्ते की अवस्था को भी दिखा रहा है। वह पत्ता शायद इसीलिए अटका हुआ है, क्योंकि हवा नहीं चल रही है। हल्का-सा कम्पन भी डाल से उसके रिश्ते को तोड़ सकता है। लेकिन अगली पंक्ति में, वाचक की भावनाओं में उसके प्रिय के चेहरे की जो तस्वीर उभर रही है, उसे भी वह समान रूप से सूचित करता है। वह 'मुखकमल' शान्त है, क्योंकि दुर्बल, मलिन और  पराजित-सा है। ज़ाहिर है, जीवन के संग्राम का अंत होने को है। साँस की डोर टूटने को है। ऐसे में उसके क्षीण चेहरे पर अवसाद-विषाद की परछाईं का आ जाना हैरत की बात नहीं है। उस मुख की उपमा कमल से देकर कवि ने उसकी अतीत की शोभा का स्मरण किया है, और मृत्यु के क्षण में आयी खिन्नता के बावजूद उसकी गरिमा को बनाये रखा है। आधुनिक चेतना परंपरागत उपमाओं और प्रतीकों को अपने स्पर्श से नवीन और प्रासंगिक बना देती है।

लेकिन यहाँ आकर वाचक के मन में एक संदेह उपजता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रिय के मुख को अपनी मलिन और पराजित आँखों से देख रहा था। दरअसल, उसके चेहरे के भाव कुछ और हैं। वह कहता है कि 'मेरी भावनाओं में (यह) तुम्हारा मुखकमल  है', या 'कि तुम्हारे मौन दर्पण में वह मैं हूँ?' दर्पण भी भावनाओं की तरह चीज़ों को प्रतिबिंबित करता है, इसलिए वह यहाँ भावनाओं का रूपक बनकर आता है।

इस संदेह से पैदा हुआ प्रश्न वाचक को प्रिय के चेहरे के भाव को दुबारा पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। तब उसे पता चलता है कि उसकी प्रिया अंतिम वियोग के क्षण में उससे प्रथम मिलन की याद को जी रही है। वह देखता है कि उसका पूरा अस्तित्व अतीत के उस क्षण में रूपांतरित हो गया है। वासना, यानी कामना का झंझावात गुज़र चुका है। शिथिलता का पल बस आने-आने को है, जो ख़ुद में एक छोटी-सी मृत्यु है। इस तरह जीवन और मृत्यु का एक और संगम होता है। सुख और दुख के अतिरेक से आंखें नम हो जाती हैं।

ग़ौरतलब है कि प्रेम में स्निग्धता की सूचना देने के लिए स्नेह एक परंपरागत युक्ति रही है, लेकिन हर्ष और विषाद के मिले-जुले क्षण में काजल के साथ इसका मेल वाक़ई विलक्षण है। मेरे जानते बहुत बाद में परवीन शाकिर ने ही इसका प्रयोग किया---'हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ'।

बहरहाल, प्रेमक्रिया की परिणति के रूप में आँखों में आया हुआ आँसू अब गिरने-गिरने को है, वैसे ही जैसे डाल पर पत्ती टूटने-टूटने को है।  प्रेम और मृत्यु की समानुभूति हिंदी काव्य-परंपरा की एक विशिष्ट उपलब्धि है। कबीर ने इसे सम्भवतः सबसे अच्छी तरह व्यक्त किया था---सीस उतारे भुंइ धरे तब पइसे घर मांहि। अंततः आँखों की नमी बढ़ते-बढ़ते आँसू बनकर टपकने को है। कवि इस क्रिया को अनन्त आकाश में विलीन होने वाले किसी तारे के टूटने की तरह देखता है। आँसू के टपकने के लिए तारे का टूटना एक परम्परापुष्ट प्रयोग है, जिसे प्रसाद के ऊपर उद्धृत अंश में भी देखा जा सकता है। कविता यहाँ समाप्त हो जाती है, लेकिन जीवन, प्रेम और मृत्यु के अनेक रहस्यों की तरफ़ हमें खींच लाती है।

एक और कविता देखें जिसमें शमशेर ने जड़ और चेतन के रिश्ते पर विचार किया है:

"शिला का ख़ून पीती थी
                        वह जड़
            जो कि पत्थर थी स्वयं।

सीढ़ियाँ थीं बादलों की झूलतीं,
                           टहनियों-सी।
            
और वह पक्का चबूतरा,
       ढाल में चिकना :
               सुतल था
    आत्मा के कल्पतरु का?"

"कुछ और कविताएँ" नामक संग्रह (1961) में संकलित यह कविता शमशेर की अतियथार्थवादी शैली का एक प्रतिनिधि उदाहरण है। पहले वाक्य में 'शिला', 'जड़ व 'पत्थर' के सहारे बना एक बिम्ब है। पहाड़ी इलाक़ों में शिलाओं पर बिना मिट्टी के उगे पौधे अक्सर दिख जाते हैं। ज़ाहिर है वे पौधे अपना जीवन-रस उस चट्टान से ही हासिल करते हैं। दूसरे शब्दों में वे मानो उस 'शिला का ख़ून पीकर' जीवित रहते हैं। विडंबना यह है कि जड़ और चेतन के बटवारे वाले विश्व में वह शिला भी 'जड़' की ही श्रेणी में है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि 'जड़ भी 'पत्थर' ही है।

दूसरे वाक्य में 'सीढ़ी', 'बादल', और 'टहनी' की भूमिका है। सीढ़ी यानी ऊपर चढ़ने में मदद करने वाली चीज़। बादल की प्रमुख भूमिका पानी बरसाने की होती है। पौधे के बढ़ने में पानी की भूमिका तो पता ही है। रूपक यह बना की बादल सीढ़ी की तरह पौधे को, जो मानो एक छोटा-सा बच्चा है, ऊपर चढ़ने में मदद कर रहा है। ये सीढ़ियाँ स्थिर नहीं हैं, लेकिन इसमें चिंता की कोई बात नहीं। ये पौधे की नन्हीं टहनियों की तरह ही हिल रही हैं। दोनो मानो एक साथ पेंगें लेते हुए खेल-खेल में अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं।

अब तीसरे और अंतिम वाक्य पर आते हैं। इसमें चबूतरे और आत्मा के कल्पतरु की भूमिका को पहचानना ज़रूरी है। इस कविता में अगर कोई तरु है, (चाहे वह आत्मा का कल्प-तरु ही क्यों न हो) तो वही पौधा है। वह चेतन का विकासमान प्रतिनिधि है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा और उसका विकास सबसे सहज प्राकृतिक वृत्ति है, इसलिए उसे कल्पतरु यानी (आत्मा की) कामना को पूरा करने वाला वृक्ष कहना स्वाभाविक है। इस प्रकार वाक्य के अंत में लगे प्रश्नवाचक का सकारात्मक जवाब मिल जाता है। चबूतरा निस्संदेह वह आधारभूमि है, जहाँ वह तरु अथवा वृक्ष लगा है। इस कविता में यह स्थान शिला यानी चट्टान को मिला है। ढाल के दो अर्थ हो सकते हैं, ढलान और ढलाव। शिला का अपने ढलाव में चिकना होना स्वाभाविक है क्योंकि हज़ारों वर्षों से हवा और पानी का प्रवाह उस पर होकर गुज़रता रहा है। इस तरह यह अर्थ कविता के अन्य सन्दर्भों के साथ अधिक संगत जान पड़ता है।

अंतिम वाक्य का प्रश्नवाचक अगर 'कल्पतरु' की जगह 'सुतल' को संबोधित होगा तो अर्थ बदल जाएगा। वैसे तो मिथक में अतल, सुतल आदि पृथ्वी के अंदर स्थित पाताल के तमाम तलों में में हैं, लेकिन यहाँ सुतल का अर्थ सुंदर अथवा उचित तल ही संगत है। तब प्रश्न यह होगा कि क्या आत्मा के कल्पतरु के लिए यह तल अथवा आधार उचित था। यहाँ पर आधार-शिला के ढाल का अर्थ ढलान से जाकर जुड़ जाता है। चिकनी ढाल वाला यह चबूतरा क्या आत्मा के कल्पतरु के लिए उपयुक्त आधारभूमि है? इसका प्रत्यक्ष अभिप्राय फिसलन भरी ढाल का है, जहाँ से नीचे गिरना तो आसान है, लेकिन ऊपर चढ़ना मुश्किल है। इस कोण से कविता में सामाजिक आशय प्रवेश करता है। चेतना की वास्तविक आधारभूमि समाज ही है, जहाँ उसका अंकुरण और विकास होता है। लेकिन हमारा पिछड़ा हुआ समाज अभी चेतना के विकास या ऊर्ध्वगमन की सहज कामना की पूर्ति में सहयोगी भूमिका नहीं निभाता। इसलिए पत्थर की दूब की तरह उसे समाज की चट्टानी जड़ता से जूझते हुए ही आगे की राह बनानी पड़ती है।

अंततः यह कविता एक दार्शनिक प्रश्न पर स्वयं को केंद्रित करती है, जड़ और चेतन के परस्पर रिश्ते के मुद्दे पर। 'जड़' शब्द से पौधे की जड़ के साथ जड़ पदार्थ का भी बोध होता है। इस जड़ पदार्थ में से चेतना किस प्रकार निकलती है, और उसका विकास कैसे प्रकृति का स्वाभाविक कार्यभार बन जाता है, यह इस कविता का एक प्रमुख कथ्य है। पदार्थ और चेतना के बीच प्राथमिकता का प्रश्न दर्शन का एक बुनियादी प्रश्न है। प्रत्ययवादी विचारक चेतना को प्राथमिक मानते हैं और पदार्थ को उसकी निर्मिति, जबकि भौतिकवादी विचारक पदार्थ को प्राथमिक मानकर चेतना को उसकी उपज मानते हैं। साफ़ तौर पर शमशेर यहाँ भौतिकवाद का समर्थन करते हैं। इस तरह यह कविता 'लौट आ, ओ धार' की तरह कविता की परंपरा के साथ-साथ वैचारिक-दार्शनिक बहस में भी हस्तक्षेप करती है।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'उषा' को भी इस परिप्रेक्ष्य में देख सकते है। कविता इस प्रकार है:

"प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
                मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
                  गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और...
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।"
                          
             ('कुछ कविताएँ' नामक संग्रह से)

पहली पंक्ति में आए शंख को लेकर बहुत विस्मय रहा है। उषाकाल से पहले के मुँहअँधेरे  में आकाश का गाढ़ा नीलापन तो समझ में आता है, लेकिन उसे शंख जैसा कहने का क्या औचित्य है। शंख तो उजला होता है। क्या समुद्र से निकलने के कारण समुद्र के नीलेपन की कोई आभा शंख में भी शामिल हो जाती है। या फिर नीलेपन को आकाश तक ही सीमित मान लें और शंख को 'भोर का नभ' की विशेषता मानकर इसकी व्याख्या करें। ध्यान दें तो पहली बात में कुछ सार अवश्य है। समुद्र से उत्पन्न होने के कारण शंख समुद्र के गुणधर्म का वहन कर सकता है, ख़ासकर कविता में उसे इस रूप में बरता जा सकता है। लेकिन 'शंख जैसे' कहकर कवि ने शंख को 'प्रात नभ था बहुत नीला' के साथ संयुक्त कर दिया है। अगर इसकी जगह 'शंख जैसा' होता तो इसे बाद वाली पंक्ति के साथ जोड़ा जा सकता था। बहरहाल, इसमें कुछ और अर्थ-संभावना भी है।

नीला रंग असीम विस्तार को सूचित करता है। जीवन सीमित दायरे में चलता है, लेकिन मृत्यु अनन्तता में ले जाती है। इसीलिए मृत्यु को परंपरागत रूप से नीले रंग से जोड़ते हैं---'मृत्यु की है रेख नीली'--- निराला। विश्राम और निद्रा से संयुक्त होने के कारण कविता में रात को भी चिरनिद्रा यानी मृत्यु के रूपक की तरह देखने की परंपरा रही है। अंधकार छँटने से पहले गाढ़ा होता है। इसलिए 'भोर का नभ बहुत नीला' प्रतीत होता है। लेकिन उसका 'नीलापन' अब जाने को है। शायद जा भी चुका है जिसे हम अभी देख नहीं पा रहे हैं, जैसा कि अंतरिक्ष मे दूरस्थ चीज़ों के साथ होता है। उनमें हुए बदलाव का दृश्य प्रकाश की गति से हम तक पहुँचता है, फिर भी कई बार बहुत समय लग जाता है। तब तक हम पुराने दृश्य को ही देखते रहते हैं, जिसका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। वह आभास होता है, यथार्थ नहीं। आकाश के साथ भी सम्भवतः यहाँ यही बात है। उसका प्रतीत हो रहा गाढ़ा नीलापन रात के साथ ही विदा हो चुका है, और उसे चीरकर उजलापन आने को है। इसलिए उसकी उपमा उजले शंख से दी है। जो वर्तमान है, दृश्यमान है, उसी में आसन्न भविष्य की झलक है। कवि इसीलिए स्रष्टा होता है। वह निपट यथार्थ में निहित विकासमान सारतत्व को देखता, और उसे व्यक्त करता है। 

आगे भोर के आकाश की विभिन्न छवियों को कवि ने बिम्बों में बाँध कर प्रस्तुत किया है। पहला बिम्ब राख से लीपे हुए चौके का है, जो गीला पड़ा है। रसोईघर को चौका कहते हैं, जिसे पुराने समयों में सुबह-सुबह उठकर महिलाएँ गोबर, मिट्टी, राख वग़ैरह से लीप-पोतकर साफ़ करती थीं। प्रातःकाल के क्रियाकलाप से सम्बंधित होने के अलावा इस बिम्ब की एक विशेषता और है। रात में पड़ी हुई ओस आकाश के नीचे हर चीज़ को नम रखती है। हर रात आकाश से आने वाली यह सौगात इतनी नाज़ुक है कि सूरज की पहली झलक के साथ ही विलीन हो जाती है। इस ओस को शायरों ने माशूक़ की नज़र के साथ ही फ़ना हो जाने वाली आशिक़ की जान के रूपक की तरह देखा है। यहाँ 'चौका' समूचे संसार का रूपक बनकर आया है, जो मानो सुरज के उगने का इंतज़ार कर रहा है।

सिल-बट्टे की धुलाई भी चौके की सफ़ाई का एक अंग है। सिल के पत्थर का रंग यूँ तो सफ़ेद या हल्का गुलाबी हो सकता है, लेकिन लगातार मसाले आदि पीसे जाने के कारण उसका रंग गाढ़ा होता चला जाता है, और चौथे पहर के छँटते हुए अंधकार में उसका गाढ़ापन और घनीभूत होकर काला दिखने लगता है। जैसे-जैसे उजाला अपनी उपस्थिति का एहसास कराता है, धुली हुई सिल का रंग काले से हटकर कुछ ललछँहू हो जाता है। काले और उजले के मेल से बने इस धूसर रंग को कवि ने केसर जैसा बताया है। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि उस पर सचमुच केसर है, या उससे उसे धुला गया है। केसर इस तरह के परिवेश में रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तु नहीं है।

इसके बाद जो बिम्ब है वह विलक्षण रूप से यथार्थवादी है। स्लेट पर लाल खड़िया मलने का। महिलाओं के बाद बच्चे भी जग चुके हैं। कवि की दृष्टि में रात की कालिमा के बीच से सुबह की लालिमा का आगमन होने लगा है। सिल पर यह 'ज़रा से' केसर की तरह दिख रही थी, लेकिन अब अपने परिवेश के पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश को किसी बच्चे ने स्लेट पर उतारने की वैसी ही कोशिश की है, जैसी यह कविता लिखकर कवि ने की है। यहाँ खड़िया का प्रयोग ख़ास तौर पर मानीख़ेज़ है। खड़िया का लाल रंग सफ़ेदी में घुलामिला होता है। इससे यह पता चलता है कि कालिमा के साथ-साथ लालिमा की मात्रा भी अब कम हो रही है, और उजलापन बढ़ रहा है।

इसके बाद किसी के नहाने का दृश्य आता है। श्री उदयभान दुबे ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में, जिसे मैंने 22 मई को शेयर किया था, कवि-अध्यापक केदारनाथ सिंह के कक्षा-व्याख्यान के हवाले से बताया था कि यह किसी पुरुष के नहाने का दृश्य होना चाहिए क्योंकि 'नारी शरीर का सौंदर्य तो सभी देखते हैं किन्तु पुरुष शरीर का भी सौंदर्य होता है जिसे चित्रित करना शमशेर की विशिष्टता है...इतनी भोर वेला में किसी पुरुष का ही नदी या तालाब में स्नान करना समीचीन है, न कि स्त्री का।' 

होने को कुछ भी हो सकता है, लेकिन कविता में 'होने' के कुछ ठोस कारण होते हैं। पहली बात तो यह कि इस घर के चित्रण में जिस तरह के क्रियाकलाप दिखाये गए हैं वे किसी महिला के घरेलू उद्यमों से जुड़े हुए हैं। चौका-बर्तन करने के बाद उसे नहाने की ज़रूरत पड़ना स्वाभाविक है। जहाँ तक भोर में नदी-तालाब तक जाने की संभाव्यता का सवाल है, किसी साधारण कवि और शमशेर जैसे कवियों में यही अंतर होता है। सामान्य तौर पर जो बातें अनहोनी लगती हैं, वे सिद्ध कवियों के यहाँ सहज संभावना बन जाती हैं।

दूसरी बात यह कि पुरुष के सौंदर्य के चित्रण से इनकार नहीं है, लेकिन भारतीय काव्य-परंपरा में पुरुष को साँवले रंग का मानकर उसके सौंदर्य का चित्रण किया गया है। यहाँ आया गोरा रंग स्त्री के ही स्नान की संभावना को दिखा रहा है। जो हो, यह 'गौर झिलमिल देह' पहली पंक्ति में आए 'शंख' के रूप-रंग को प्रतिध्वनित करती जान पड़ती है।

अंतिम पंक्ति में 'उषा' का जादू टूटता है, और सूर्योदय हो जाता है। यह सम्मोहन संधि-संक्रमण-वेला का था। अँधेरे-उजाले, नींद-जागरण, मृत्यु-जीवन के बीच संक्रमण का पल ऐसा ही जादुई होता है। होने और न होने की इसी क्षीण सी रेखा पर कविता स्थित होती है। 'एक पीली शाम' के प्रसंग में हमने इस पल के जादू को दूसरे कोण से देखा था। 'लौट आ, ओ धार' में इसी पल की अपरिहार्यता और अनुल्लंघनीयता का बयान था। 

दरअसल, यह परिवर्तन की गुणात्मकता का जादू है, जो हमें विस्मय में डाल देता है। कोई चीज़ क्रमशः परिवर्तित होते हुए अचानक अपने विपरीत में बदल जाती है, यह हमारे अनुभव-जगत का अंग तो हमेशा से था, लेकिन आधुनिक युग में प्रकृति की इस द्वंद्वात्मकता को हमने ठीक से समझना शुरू किया। 'शिला का ख़ून पीती थी' में चित्रित भौतिकवाद से जुड़कर यह एक पूरी दार्शनिक परंपरा बनती है, जिसकी सहज संगति मार्क्सवाद के साथ बैठती है। इन कविताओं पर पिछले दिनों में हमने जो विचार किया उसकी रोशनी में शमशेर के प्रति विजयदेवनारायण साही और नामवर सिंह के विचारों की असलियत को पर्याप्त विस्तार से समझा जा सकता है।

Comments

  1. दावे के साथ तो नहीं लेकिन इल्म के साथ इतना तो कह ही सकता हूँ कि इस आलेख को पढ़ने के बाद शमशेर शायद उतने कठिन और दुरूह नहीं लगेंगे,जितना कि अभी तक लगते थे।

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