ग़ालिबे खस्ता के बग़ैर


ग़ालिबे खस्ता के बग़ैर
                       --- कृष्णमोहन 

ग़ालिब को अब आमतौर पर हिन्दुस्तान का अंतिम मध्ययुगीन और पहला आधुनिक शायर मान लिया गया है। महाकवि इक़बाल ने जब उन्हें गेटे का समकक्ष कहा था तो उनका आशय यही था। आगे चलकर शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी और सिब्ते हसन जैसे विचारकों ने स्पष्ट शब्दों में इसकी घोषणा की। 'दीवाने ग़ालिब' के नागरी संस्करण की भूमिका में अली सरदार जाफ़री लिखते हैं—'ग़ालिब ने मुग़ल संस्कृति की आख़िरी बहार और नयी औद्योगिक संस्कृति के उभरते हुए चिह्न और उनकी कैफ़ियतों को अपने व्यक्तित्व में समो लिया था।' स्पष्ट है कि लेखक यहाँ अपनी नवजागरणवादी चेतना के कारण औपनिवेशिक संस्कृति को औद्योगिक संस्कृति बता रहा है क्योंकि उसके बगैर ग़ालिब में आधुनिक चेतना की कल्पना करना भी उसके लिए असम्भव है। उपनिवेश-पूर्व भारतीय परम्परा में आधुनिकता के आंतरिक तत्त्वों की मौजूदगी को लेकर एक छोर उन विचारकों का है जो आमतौर पर इससे इन्कार करते हैं, और दूसरे छोर पर रामविलास शर्मा हैं जो ऋग्वेद से ही आधुनिकता के तत्त्वों को खोज कर इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पर्याय बना डालते हैं। इन दोनों प्रवृत्तियों की अर्थपूर्ण एकता उत्तर मध्यकालीन भारत की उपलब्धियों को जोर-शोर से नकारने में दिखती है। साहित्य में इसी युग को रीतिकाल का नाम दिया गया है जो अपने पूर्ववर्ती भक्तिकाल की अपेक्षा हर मायने में अधिक इहलौकिक, ऐंद्रिय और परिष्कृत था। ग़ालिब उसी संस्कृति की देन हैं, इसलिए उनके वास्तविक स्वरूप को लेकर परम्परागत प्रगतिशील हल्कों में वैसी ही हिचक है, जैसे 1857 को लेकर। सच तो यह है कि ग़ालिब की कविता में बहुत पहले से वे मूल्य और सरोकार आने लगे थे जिन्होंने आगे चलकर 1857 को आकार दिया। अपने युग की नुमाइंदगी राजनीति से आगे रहकर करने वाले सभी महान कवियों की तरह ग़ालिब भी आगामी शताब्दियों के कवि हैं। नवजागरणयुगीन चेतना के अंत के साथ उनकी दिनोदिन बढ़ती लोकप्रियता का राज़ यही है।


इसके अतिरिक्त स्वयं आधुनिकता के स्वरूप को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। हिन्दी-उर्दू में इसे आमतौर पर सीधी-सादी, यथार्थवादी शैली और सामाजिक विषयवस्तु से जोड़कर देखा जाता है। निश्चय ही आधुनिक युग के साहित्य में ये विशेषताएं मिलती हैं, लेकिन आधुनिक मूल्यों से इनका कोई अनिवार्य सम्बन्ध

नहीं है। साहित्य और कला में आधुनिक मूल्यों की आहट इहलौकिकता, वैयक्तिकता, ऐंद्रियता, विवेकपरकता, प्रश्नाकुलता और सभी स्थापित मान्यताओं पर संदेह के माध्यम से सुनाई पड़ती है। व्यक्ति की दमित और अतृप्त कामनाओं और आकांक्षाओं की भूमिका इन प्रवृत्तियों के लिए आवश्यक ऊर्जा-स्रोत और इनकी एक प्रमुख चालक शक्ति की होती है। इन बुनियादी मूल्यों से शुरू करके ही हमारा साहित्य सही मायने में लोकतांत्रिक स्वरूप धारण कर सकता है। इस प्रक्रिया की उपेक्षा करने के कारण हम आधुनिकता और प्रगति के अंतर्संबंधों को स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। उस पुरानी नीतिकथा के अंधे और लंगड़े की तरह एक होकर आगे बढ़ने के बजाय फ़ासिज़्म की पूर्व-बेला में अब भी अपनी-अपनी लकीर के फ़कीर बने हुए हैं। ग़ालिब पर पुनर्विचार करते हुए हम अपनी आरम्भिक प्रतिज्ञाओं को याद कर सकते हैं और उनके तार्किक विकास की राह हमवार कर सकते हैं।


उपर्युक्त आधुनिक मूल्यों को ग़ालिब की शायरी में लाने में सबसे अहम भूमिका उनकी द्वन्द्वात्मक चिंतन-पद्धति निभाती है। मध्ययुग की विचारधारा गैर-द्वन्द्वात्मक अथवा मेटाफ़िजिकल थी। वह विकास के स्वाभाविक नियम के बतौर द्वन्द्वात्मकता की पहचान करने में असमर्थ थी। लेकिन नए युग में संक्रमण की बेला में जारी उथल-पुथल और जटिलताओं ने मानव-मस्तिष्क को तस्वीर के दूसरे रुख़ की मौजूदगी के प्रति सचेत किया। वैज्ञानिक खोजों ने यथार्थ का निर्माण करने वाले उन द्वंद्वरत तत्त्वों की ठोस पहचान कराई जिनका आभास कवि और कलाकार अपनी कल्पना में करने लगे थे। अपनी यात्रा में मानवजाति अब कौन-सा अगला डग भरने को है, यह ग़ालिब के सामने स्पष्ट नहीं

था, लेकिन उन्हें यह पता चल चुका था कि पुराने ज़माने की तमाम सम्भावनाएँ चुक गई हैं और वे एक नए युग की दहलीज़ पर खड़े हैं। हंसराज रहबर जैसे कुछ आलोचकों ने ग़ालिब की 'तमन्ना' को उनकी निजी चाहत के रूप में व्याख्यायित करके अपनी तंगनज़री का परिचय दिया है, जबकि वह मानवजाति की ऐतिहासिक तमन्ना थी जिसे ग़ालिब इश्क़ और बेख़ुदी के परंपरागत मुहावरे में स्वर दे रहे थे-


'है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब

हमने दश्ते इम्काँ को एक नक़्शे-पा पाया'


ग़ालिब के समय की विशेषता थी कि पुराना युग अंतिम साँसें गिन रहा था, लेकिन नए युग की रेखाएँ उभर नहीं पाई थीं। जो सामने था वह एक आतताई, औपनिवेशिक राज्य था जिसकी ताक़त और कामयाबी के सामने सिर झुकाना मजबूरी सही, लेकिन वह अपना रास्ता नहीं हो सकता था। इसीलिए चेतना के धरातल पर ग़ालिब कई बार तसव्वुफ़ जैसी स्थापित विचारधारा के सूत्रों को दुहराते हैं, लेकिन एहसास के धरातल से उन्हें चुनौती देना कभी नहीं भूलते। शायद ही कोई ऐसा शेर हो जिसमें सूफ़ी मत का निर्भ्रांत समर्थन मिल सके। बहुरंगी अर्थविस्तार की भारतीय काव्य-परंपरा को ग़ालिब इन शेरों में ऐसी ऊंचाई पर पहुंचाते हैं कि उससे विमुख हुए बिना अली सरदार जाफ़री की तरह यह नहीं लिखा जा सकता---'यह कहने के बाद भी कि “शाइर को तसव्वुफ़ (अध्यात्म) शोभा नहीं देता", ग़ालिब ने सृष्टि को समझने के लिए और धर्म के दिखावे से बचने के लिए तसव्वुफ़ के कुछ विचारों से सहायता ली और उन्हीं से अपनी स्वतंत्र और तीखी प्रकृति का प्रशिक्षण किया।'


यहाँ 'धर्म के दिखावे' के बारे में यह कहना ज़रूरी है कि यह औपनिवेशिक भारत में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई सामाजिक-राजनैतिक समस्या भले ही रही हो, उर्दू या हिन्दी के कवियों की अपनी समस्या कभी नहीं रही, जिससे बचने के लिए उन्हें तसव्वुफ़ या वेदांत की शरण लेनी पड़े। दूसरी बात यह कि अपने आरंभिक दौर में सूफ़ी आंदोलन ने भक्ति आंदोलन की तरह मध्ययुगीन बेड़ियों में जकड़ी मानव-आत्मा को अवश्य राहत प्रदान की थी, लेकिन ग़ालिब के समय तक यह विचार समाज में बाक़ायदा स्थापित रूढ़ि बन चुका था। देखना यह चाहिए कि सूफ़ी रहस्यवाद का समर्थन करने वाली ग़ालिब की उक्तियाँ अधिक मार्मिक और प्रभावशाली हैं या उन पर संदेह करनेवाली। हाँ, एक बात और। अगर आज की धार्मिक असहिष्णुता का मुकाबला करने के लिए हम सूफ़ी उदारतावाद का आह्वान कर रहे हैं और कबीर तथा ग़ालिब जैसे अपने कवियों को इनका पैरोकार घोषित कर रहे हैं तो इसके नतीजे साहित्यिक और राजनैतिक दोनों मायनों में आत्मघाती निकलेंगे। हिन्दी में यह दुर्घटना रामचन्द्र शुक्ल के सौजन्य से पहले ही जायसी के साथ घट चुकी है, जिसका परिष्कार विजयदेवनारायण साही के गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण प्रतिवाद के बावजूद अब तक नहीं हो सका है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि इन कवियों की रचनात्मक शक्ति के वास्तविक स्रोत की पहचान करके ही हम अपनी शक्ति को भी समझने और उसे भाँति-भाँति के बंधनों से मुक्त कर पाने में सफल होंगे। अन्यथा अपने भयों और भ्रमों का आरोपण करके हम इन कवियों का अवमूल्यन भले ही कर डालें, हासिल कुछ नहीं कर पाएंगे। दूसरे शब्दों में, ग़ालिब की ‘स्वतंत्र और तीखी प्रकृति' तसव्वुफ़ के बावजूद और उससे जूझते हुए परवान चढ़ी है, न कि उसकी वजह से और उससे 'प्रशिक्षण' प्राप्त कर।


बहरहाल, इस बहस को यहीं स्थगित करके आइए ग़ालिब की शायरी के जंगल में भटकने का थोड़ा मज़ा लें, जिसे दश्तनवर्दी कहते हैं और जिसे सच्चे प्रेमी का क्वालिफाइंग टेस्ट माना जा सकता है। आज की कड़ी में हम कुछ सामान्य-सार्वभौम सचाइयों के बारे में ग़ालिब के नज़रिए की चर्चा करेंगे। परम्परा, आध्यात्मिकता, तसव्वुफ़ और 1857 आदि पहलुओं पर बाद की कड़ियों में बात होगी। अपने दीवान के पहले ही शेर में ग़ालिब ने अपनी इस बुनियादी जिज्ञासा को प्रकट किया है कि असंख्य लालसाओं और कामनाओं से भरा हुआ इंसान आखिर किसकी शरारती लिखावट की निशानी है:


"नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का

 कागज़ी  है   पैरहन   हर   पैकरे   तस्वीर   का"


ग़ौरतलब है कि सामूहिक प्राथमिकताओं से अलग व्यक्ति की इच्छा और लालसा को गुनाह मानना मध्ययुगीन रीति है जबकि उसे हमदर्दी के साथ समझने का प्रयास करना आधुनिक रवैया है। पुराने ज़माने में मनुष्य की सामुदायिक पहचान और आवश्यकता का तो सम्मान किया जाता था, लेकिन व्यक्ति ने अपनी भावनाओं की क़द्र नए युग में ही देखी। इस प्रक्रिया में पुरानी सामुदायिक सुरक्षा छूट गई और स्वतंत्रता का मोल व्यक्ति को अकेलेपन और असुरक्षा के वातावरण में जीकर चुकाना पड़ा। अगले ही शेर में ग़ालिब इस मनःस्थिति का संकेत करते हुए कहते हैं—अकेलेपन की निर्लज्जता (या पराक्रम) से भरी हुई (खुदाई करने जैसी) कोशिशों के बारे में क्या कहें। शाम से सुबह करना (फ़रहाद की तरह पहाड़ काटकर) दूध की नहर लाने के बराबर है:


"कावे कावे सख़्तजानीहा-ए-तन्हाई न पूछ

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का"


गालिब ने प्रायः अपने अभिप्राय अथवा उद्देश्य को एक ऐसे मिथकीय पक्षी 'अंक़ा' से समीकृत किया है जिसकी विशेषता है उसका अप्राप्य होना। ख़याल और कल्पना सहारे यह मुद्द'आ या नाला आकार लेता है। ग़ालिब की तबीयत में नए युग की रोमांचक साहसिकता और खेल-भावना कूट-कूट कर भरी थी। इसी ग़ज़ल में वे आगे काव्यरसिकों को चुनौती देते हुए जो कुछ कहते हैं वह एक-दूसरे स्तर पर हमारे ज्ञान और हमारी चेतना को दी हुई चुनौती भी साबित होता है:


"आगही दामे शनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए

मुद्दआ  अंक़ा  है  अपने  आलमे  तक़रीर  का"


ग़ालिब की शायरी के केंद्र में भविष्य का कोई विचार है जिसका ब्योरा अभी शायर की पकड़ से बाहर है। वर्तमान में मौजूद न होने के कारण प्रचलित ज्ञान के दायरे से बाहर है। इसीलिए वह उसके काव्यजगत का उद्देश्य होते हुए भी उसमें अप्राप्य अन्क़ा है। इस बात को गुलो-बुलबुल के पारंपरिक रूपक के हवाले से वे कहते हैं, मैं कल्पना की खुशी के उत्साह में गीत गाता हूँ। मैं ऐसे बग़ीचे का बुलबुल हूँ जो अभी अस्तित्व में नहीं है:


"हूँ गर्मिए-नशाते-तसव्वुर से नग़्मासंज़

 मैं  अंदलीबे-गुलशने-नाआफ़रीदा  हूँ"


ग़ालिब को हुए दो सौ साल से अधिक हो गए। इन वर्षों का अनुभव यही बताता है कि उनकी यह चुनौती व्यर्थ नहीं गई। इससे हमारा सामना आज भी है। लेकिन ऐसा नहीं है कि ग़ालिब ने अपने इरादे को अप्रकट ही छोड़ दिया है। इस शेर में भी उनका इशारा ज्ञान की सचेत श्रेणियों की तरफ़ अधिक जान पड़ता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि उन्हें स्थापित मान्यताओं और विचारधाराओं से कोई ख़ास मदद नहीं मिली थी और उन पर संदेह करके ही उन्होंने अपनी क्षमताओं की पहचान की। हाँ, निर्णायक स्वर में कोई पक्ष चुनना एक तो कला के उनके मानदण्डों के अनुरूप नहीं था और दूसरे, जैसा कि उन्होंने एक शेर में कहा है:


"चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़ रौ के साथ

 पहचानता  नहीं  हूँ  अभी  राहबर  को  मैं"


कुछ भी हो, ग़ालिब को ख़ुद पर पूरा भरोसा था और ग़लत या सही अपने किए की ज़िम्मेदारी क़बूलने का साहस भी। इसीलिए वे ज्ञान और अज्ञान दोनों को समानांतर पलड़ों पर रखते हैं:


"अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो

 आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही"


इसी तरह ग़ालिब ने वफ़ा और ख़याल का प्रयोग अलग-अलग श्रेणियों की तरह किया है। इसमें वफ़ा अतीत और वर्तमान के प्रति उन्मुख है जबकि ख़याल का रुख़ भविष्य की ओर है:


"तालीफ़े नुस्ख़हा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं

मज़मूआ-ए-ख़याल अभी फ़र्द-फ़र्द था"


ग़ालिब के अंदर का विद्रोही वफ़ा की भी परंपरागत तस्वीर को स्वीकार नहीं करता और उसे यथास्थिति का हामी बना देता है। लेकिन ख़याल, कल्पना, तमन्ना और शौक़ उसे नयी राह बनाने और पीछे न लौटने पर मजबूर करते हैं:


"मस्ताना तय करूँ हूँ रह-ए-वादि-ए-ख़याल

ता  बाज़गश्त  से  न  रहे  मुद्द'आ  मुझे"


समय की अवधारणा ग़ालिब के यहाँ बार-बार और बहुत ठोस रूप में आती है। गुज़र कर अतीत बन गए समय का एक हवाला देखें:


"लेता हूँ मक़्तबे ग़मे दिल में सबक हनोज़

लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था"


गया हुआ वक़्त फिर नहीं आ सकता। आशिक़ के इस कथन से इसी सत्य की पुष्टि होती है:


"मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ"


दूसरी तरफ़ परिष्कार की चाहत मनुष्य की स्वाभाविक चाहत है:


"ताकि तुझ पर खुले एजाज़े हवा ए सैकल

देख बरसात में सब्ज़ आईने का हो जाना"


ग़ालिब ने अपनी कल्पना में रची दुनिया का रास्ता बनाने में कामयाबी भले ही न पाई हो, लेकिन अतीत की तमाम स्थापित मान्यताओं और सत्ताओं पर प्रहार करके उन्होंने उसकी पूर्वशर्त ज़रूर पूरी कर दी। इसमें सबसे प्राथमिक मान्यता संसार की असलियत को लेकर थी जिससे तसव्वुफ़ समेत सभी भाववादी विचारधाराएँ इन्कार करती हैं। ग़ालिब इस इन्कार से कैसे इन्कार करते हैं यह उनके ख़ास अंदाज़े बयाँ में देखें:


"शाहिदे हस्ति-ए-मुत्लक़ की कमर है आलम

लोग  कहते  हैं  कि  है पर  हमें  मंज़ूर  नहीं"


पहले मिसरे में यह स्थापना दी गई है कि शरीर में सौंदर्य के एतबार से जो मुक़ाम कमर को हासिल है, समूची क़ायनात में वही हैसियत दुनिया की है। रीति के अनुसार माशूक़ की कमर अधिकाधिक पतली होती जाती है। यहाँ ग़ालिब ने इस प्रवृत्ति को अतिशयोक्ति की 

आख़िरी हद तक पहुँचाकर कमर को ग़ायब मान लिया है, फिर इस कथन को दुनिया पर लागू करके इसकी व्यर्थता ज़ाहिर कर दी है। प्रकट रूप में जो शब्द कहे गए हैं, वास्तविक आशय उनके विपरीत निकलता है। संसार को भ्रम और माया बताने वाले दार्शनिक जब इसकी ठोस उपस्थिति को नकारने के लिए व्याख्याएँ करना शुरू करते हैं, तब उनकी स्थिति संकटग्रस्त हो जाती है। किसी न किसी रूप में उन्हें संसार की सापेक्षिक उपस्थिति को मानना ही पड़ता है। 'है भी' और 'नहीं भी' की इस वैचारिकी पर चुटकी लेते हुए ग़ालिब कहते हैं:


"हाँ खाइयो मत फ़रेबे हस्ती

 हर चन्द कहें कि है नहीं है"


इस शेर में संसार के अस्तित्व को नकारने वाले विचारकों पर मानो व्यंग्य करते हुए ग़ालिब कहते हैं कि अस्तित्व के (नाम पर होने वाले) छल का शिकार मत हो जाना। इसीलिए हम हर वक़्त बताते रहते हैं कि (संसार का अस्तित्व) कितना है और कितना नहीं है। अगले शेर में भी इसी विचार की स्थापना है:


"हस्ती है न कुछ अदम है ग़ालिब

 आख़िर तू क्या है  अय नहीं है"


यहाँ 'न' को अगर हस्ती के साथ जोड़ लिया जाए तो अर्थ होगा, 'अस्तित्व नहीं है, अनस्तित्व है' यानी पारम्परिक-भाववादी कथन। लेकिन अगर 'न' को 'अदम' यानी अनस्तित्व पर लागू करें तो अर्थ होगा कि अस्तित्व है, कोई अनस्तित्व नहीं है। यहाँ तक कि 'न' को बीच मे रखकर 'आम है न इमली है' वाली शैली में अस्तित्व और अनस्तित्व दोनों को नकारने का अभिप्राय भी शामिल कर लिया है। इसी प्रकार की भ्रामकता से दिखावटी तौर पर परेशान होकर वाचक ग़ालिब से पूछता है कि भाई तुम क्या हो, और जवाब में (जीवन के असत्य अथवा माया होने के कारण) उसके कुछ भी न होने की बात सुनकर हैरानी का इज़हार करता है। कहना अनावश्यक है कि यह हैरानी संसार के अस्तित्व का निषेध करने वाली विचारधारा का ही निषेध कर देती है। यहाँ भी पद्धति माशूक़ की कमर वाली ही है। ग़ालिब का होना ही इस संसार के अस्तित्व का सबूत है। इससे कमतर भूमिका ग़ालिब को मंज़ूर नहीं थी। व्यक्तित्व को इतनी अहमियत देने की बात पुराने ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता था।


पारंपरिक रूप से संसार को एक ऐसा पर्दा मानते हैं जिसपर बनाने वाले ने बहुत सी तस्वीरें उकेर दी हैं। ग़ालिब बड़ी विनम्रता के साथ सवाल उठाते हैं, न जाने यह किसका कारनामा है। किसने यह 'पर्दा' गिरा दिया है, जिसके सौंदर्य की भूलभुलैया में इंसान खो जाता है, उससे निकलने की राह नहीं खोज पाता:


"कह सके कौन कि ये जल्वागरी किसकी है

 पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाए न बने"


वैसे तो यह सवाल ईश्वर की अवधारणा पर संदेह करने के लिए काफ़ी है, लेकिन ग़ालिब की उस सर्वशक्तिमान से असली मुठभेड़ जीवन के अनुभवों के क्षेत्र में होती है:


"ज़िन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री ग़ालिब

 हम भी क्या याद करेंगे कि  ख़ुदा रखते थे"


बिना कुछ कहे सब कुछ कह देने वाले इस लहजे की पुख़्तगी को इस बात से समझा जा सकता है कि ग़ालिब के कवि-स्वभाव के विपरीत इस शेर की कोई व्याख्या ख़ुदा का समर्थन नहीं कर पाती। यह अनायास भी नहीं है, क्योंकि ज़िंदगी में तमाम लालसाएँ अधूरी रह गईं। उनके लिए की गई कोशिशें भी प्रचलित रीति के तहत गुनाह ही मानी गईं, जिनका ख़ामियाजा हश्र के रोज़ ख़ुदा के सामने भी उठाना पड़ सकता है:


'आता  है  दाग़े  हस्रते  दिल  का  शुमार  याद

मुझसे मेरे गुनह का हिसाब अय ख़ुदा न माँग"


ज़ाहिर है कि नाकाम हसरतों के पीछे, अगर कहीं कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर है, तो उसका भी हाथ होगा। ग़ालिब को उसे अपने गुनाहों का हिसाब देना मंज़ूर नहीं है। यहाँ ध्यान रहे कि नयी दुनिया के लिए जो कुछ वांछित है, वह सब पुरानी दुनिया के लिए गुनाह है। इसलिए नाकाम हसरतें भी वे गुनाह हैं जो किए नहीं जा सके:


"नाकरदा गुनाहों की भी हस्रत की मिले दाद

 या रब अगर इन करदा गुनाहों की सज़ा है"


ख़ुदा के बाद उनके पैग़म्बर हज़रत मूसा को ग़ालिब विशेष इज्जत बख़्शते हैं। वे उन्हें अपना प्रतिद्वन्द्वी घोषित करते हैं:


"क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब

आओ न हम भी सैर करें कोहे तूर की"


बहरहाल, एक दूसरे पैग़म्बर हज़रत ख़िज्र को ग़ालिब ख़ासे कठोर लहजे में याद करते हैं:


"लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें

 माना कि एक बुज़ुर्ग हमें हमसफ़र मिले"


इस बेरुख़ी की वजह भी बताते हैं:


"क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से

 अब किसे रहनुमा करे कोई"


हज़रत ख़िज़्र ने सिकन्दर की रहनुमाई आबे हयात यानी अमृत की तलाश में की थी। उन्होंने ख़ुद तो प्यास लगने पर उसे पी लिया लेकिन सिकन्दर को नहीं पिला सके। वो ख़ुद अमर हो गए लेकिन सिकन्दर को जीवन से हाथ धोना पड़ा। इस शेर का यही प्रसंग है। रहनुमाई करने वाले जब भरोसा तोड़ते हैं तो वे इज़्ज़त के काबिल नहीं रह जाते। एक दूसरे शेर में इस मिथक को और ठोस सन्दर्भ देते हुए ग़ालिब ख़ुद को दुनिया से मुख़ातिब होने के कारण, लोगों को नज़र न आने वाले, यानी छिप-छिपकर रहने वाले ख़िज़्र की अपेक्षा अमरता का वास्तविक हक़दार मानते हैं:


"वो ज़िन्दा हम हैं कि हैं रूशनासे ख़ल्क अय ख़िज्र

 न  तुम  कि  चोर  बने  उम्रे - जाविदाँ  के  लिए"


अंश का संपूर्ण में विलीन हो जाना तसव्वुफ़ समेत हर तरह के रहस्यवाद की अंतिम कामना है, जिसे प्रायः बूंद के समुद्र में मिल जाने के रूपक से व्यक्त किया जाता है। ग़ालिब भी इस रूपक का प्रयोग करते हैं लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि ये रूपक उनके काव्य-संसार में बेजान पुनरुक्तियों से अधिक की हैसियत नहीं रखते, जबकि इनके प्रमाणस्वरूप जिन सांसारिक अनुभवों को वे इनके साथ रखते हैं, वे आश्चर्यजनक रूप से मार्मिक, और मुहावरे जैसी लोकप्रियता पाने वाले साबित होते हैं। इसी से पता चलता है कि शायर की वास्तविक प्रवृत्ति और उसकी शक्ति किस ओर है। कुछ शेर देखें:


"क़तरा दरिया में जो मिल जाए तो दरिया हो जाए

काम अच्छा है वो जिसका कि मआल अच्छा है"


"इश्रते क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना"


इनमें ख़ास तौर से दूसरे शेर के दूसरे मिसरे पर ग़ौर करें। इस उक्ति की सफलता और लोकप्रियता की वजह मानव-स्वभाव में निहित द्वंद्वात्मकता की इसमें हुई अभिव्यक्ति है। इस स्वभाव में दर्द भी है और राहत (दवा) भी, लेकिन सिर्फ इतना कह देना पर्याप्त नहीं है। दर्द कितना है और राहत कितनी है यह बता देने से भी काम नहीं चलता। यह बताना ज़रूरी है कि कोई स्थिति बुनियादी तौर पर दर्द की है या राहत की। फिर इन दोनों के द्वन्द्व से गति मिलती है और अंततः क्रमिक विकास गुणात्मक परिवर्तन में तब्दील हो जाता है और वस्तु अपने विकास की भिन्न अवस्था में चली जाती है, या अपने विपरीत में बदल जाती है। 


मिसाल के तौर पर एक मानवीय स्थिति पर ध्यान दें। दुख-दर्द तब होता है जब इंसान की कोई ऐसी कामना अधूरी रह जाती है, जो उसे लगता है कि अब भी पूरी हो सकती है। यह तकलीफ़ जब बढ़ती ही चली जाती है तो किसी मुक़ाम पर आकर वो निराश होने लगता है। निराशा जब पूरी तरह से दिलोदिमाग़ में पैठ जाती है, तब इंसान की जीवनीशक्ति मोर्चा संभालती है, और वह अपनी तकलीफ़ से धीरे-धीरे उबर जाता है। नाउम्मीदी में एक अच्छाई होती है कि वो भविष्य की तरफ़ देखने को प्रेरित करती है। अतीत के बहुत सारे दुख उसमें विलीन हो जाते हैं। पूरब की एक देसी कहावत है कि आशा वाला मर जाता है और निराशा वाला जी जाता है। ग़ालिब ने भी एक अन्य शेर में कहा है:


"जब तवक़्क़ो ही उठ गई ग़ालिब

 क्यों किसी का गिला करे कोई"


ग़ालिब ने मानव-स्वभाव का कैसा गहन निरीक्षण किया था, इसका प्रमाण उनके शेरों में निहित द्वंद्वात्मकता में मिलता है। उनकी असाधारण शक्ति का रहस्य भी यही है जिसे पहचानने के लिए मानव-स्वभाव से थोड़ी गहरी जान-पहचान ज़रूरी है, किताबी द्वंद्ववाद यहाँ काम नहीं आने वाला। कुछ और शेर देखें:


"पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले

रुकती है मेरी तब'अ तो होती है रवाँ और"


"रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गई"


"मिलना तेरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है

दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं"


"बसकि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना"


यहाँ पहले मिसरे में नाला यानी दुख की अभिव्यक्ति में कोई बाधा आने पर भावनाओं के उमड़ पड़ने की सहज प्रवृत्ति में निहित सत्य की पहचान है। नाला का एक अर्थ कृत्रिम जलमार्ग भी होता है। उसके बहाव में भी अगर कोई रुकावट पड़ती है तो पानी का दबाव बढ़ कर अनियंत्रित हो सकता है। इस तरह मनुष्य के अंतर्जगत और बहिर्जगत की प्रकृति में द्वंद्वात्मकता का नियम पूरी तरह कारगर है। दूसरे मिसरे में शेर का वाचक सिर्फ़ यह कहता है कि उसका स्वभाव भी इन्हीं प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है। दूसरे शेर में उस अनुभव का सामान्यीकरण होता है। शैली 'दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना' वाली है। जब तक आप किसी का विरोध करते हैं, तो उससे कष्ट पाते हैं। लेकिन जैसे ही उसे स्वीकार करके उसके साथ जीने की आदत डाल लेते हैं, उससे मिलने वाली तकलीफ़ ख़त्म हो जाती है। ज़ाहिर है, इस विवरण में वाचक के अंदर द्वंद्वरत तत्वों में से पूर्वपक्ष के कमजोर पड़ने और प्रतिवादी पक्ष के क़ाबिज़ हो जाने के बाद उक्त द्वंद्व का अंत हो जाने की सचाई निहित है।


तीसरे शेर में द्वंद्वात्मकता का एक रोचक काव्यात्मक प्रयोग है जिसके तहत वस्ल की हद से गुज़री हुई आसानी ही उसकी कठिनाई का सबब बन जाती है। प्रेम में विरह के असंख्य कारण होते हैं, उर्दू शायरी में तो वैसे भी प्रेम विरह और दुख का पर्याय बनकर आता है। यहाँ वाचक कहता है कि अगर तुझसे मिलने में कोई बाहरी कठिनाई होती, मसलन दूरी, सामाजिक ग़ैरबराबरी या सत्ता का दबाव इत्यादि तो फिर भी इस दुख को बर्दाश्त करना आसान था। अफ़सोस तो इसका है कि बिना किसी कारण के माशूक़ मुझसे मिलने से इन्कार कर रहा है। सम्भवतः इस आसानी के कारण ही अक्सर होने वाली मुलाक़ातों से माशूक़ ऊब गया है, और अब मिलने में रुचि नही ले रहा है। इस शेर में विडंबना यह है कि माशूक़ की इच्छा का न होना ही सबसे बड़ी कठिनाई है, जिसे वाचक आशिक़ नहीं समझ पा रहा है। आख़िरी शेर में इसी थीम को विकसित करके 'आदमी' के 'इंसान' बनने जैसी 'आसान' बात की 'आसानी' कारण ही उसके मुश्किल हो जाने की विडम्बना का बयान है। कहने को आदमी का इंसान बनना सबसे स्वाभाविक स्थिति है, लेकिन हमारी परिस्थितियों में यह बात सबसे मुश्किल हो गई है। अगर आदमी के इंसान बनने में कोई बाहरी कठिनाई होती तो उसका उपाय किया जा सकता था, उसकी कोई प्रक्रिया बनाई जा सकती थी, लेकिन यहाँ उसके अंदर की ख़ूबियों को ही बाहर लाना है, और वही सबसे बड़ी चुनौती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यहाँ ग़ालिब ने एक सामाजिक विडम्बना के उद्घाटन के लिए द्वंद्वात्मकता की थीम के कुशल इस्तेमाल से चमत्कार और मार्मिकता के बीच असाधारण, अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पैदा कर दिया है।


ग़ालिब के लिए किसी भी वैचारिक और धार्मिक परम्परा से बड़ी चुनौती खुद उनकी अपनी काव्य-परम्परा थी, जिसमें माशूक को ख़ुदा से भी बड़ा दर्जा प्राप्त था और उसकी गलियों से लेकर जंगलों तक चीथड़े लपेटे, लड़कों का पत्थर खाते भटकने वाले आशिक़ की सबसे बड़ी कामयाबी थी माशूक के हाथों क़त्ल हो जाना। ग़ालिब ने इस परम्परा में अपनी उस्तादी तो साबित की ही, इसके अतिक्रमण का तरीक़ा भी ख़ास उनका अपना था। उन्होंने माशूक़ को बहलाने-फुसलाने में ऐसी महारत का दावा किया जो अब तक इश्क़ के आदर्श रहे मजनू को ख़ुद लैला के दिल में अपदस्थ कर सकता है-


"आशिक़ हूँ प माशूक़फ़रेबी है मेरा काम

मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे"


यहाँ मजनू की अवमानना से अधिक लैला की नासमझी का इशारा समझें,क्योंकि शिकायत ग़ालिब को माशूक़ से है। वफ़ा के नाम पर अब और ज़ुल्म सहना उन्हें मंज़ूर नहीं है, संसार के दुःख-दर्द अब इसकी इजाज़त नहीं देते-


"ग़मे ज़माना ने झाड़ी नशाते इश्क की मस्ती

वगरना हम भी उठाते थे लज़्ज़ते अलम आगे"


माशूक की चौखट पर सर पटकते-पटकते उसे घिस डालना उर्दू शायरी की एक पवित्र रस्म हुआ करती थी। ग़ालिब ने भी कभी कहा था-


"मिट जाएगा सर गर तेरा पत्थर न घिसेगा

हूँ दर प तेरे नासिया फ़रसा कोई दिन और"


लेकिन यह दीनता का भाव ग़ालिब के मुंह पर चिपकाया हुआ मालूम पड़ता है। असली ग़ालिब वहाँ हैं जहाँ वे इन रस्मों से बग़ावत करते हैं-


"वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा

तो फिर ऐ संगदिल तेरा ही संगे आस्ताँ क्यों हो"


ग़ालिब परंपरा की ताक़त जानते हैं, इसलिए उसका अराजक प्रतिकार नहीं करते, बल्कि अपने समर्थन में उसकी पुनर्व्याख्या करते हैं। पहाड़ काटने वाले फ़रहाद

के बारे में उनका ख़याल है कि वह दरअसल शीरीं की छवि को अंकित करने के लिए पत्थरों को काट रहा था-


"कोहकन नक़्क़ाशे यक तिम्साले शीरीं था असद

संग से सर मार कर होवे न पैदा आश्ना"


यह देखना दिलचस्प है कि ग़ालिब की शायरी में मजनू के प्रति हमदर्दी का भाव बढ़ता जाता है जबकि उसी अनुपात में लैला के प्रति रुख़ ठंडा होता जाता है। मजनू का संघर्ष उन्हें आकर्षित करता है और उसमें उन्हें दुनिया की तमाम जद्दोजहद का अक्स दिखाई पड़ता है। ऐसे में कोई कब तक लैला की ज़ुल्फ़ों के पेचोख़म में खोया रह सकता है:


"आलम ग़ुबारे वहशते मजनू है सरबसर

कब तक ख़याले तुर्रा-ए-लैला करे कोई"


"नफ़से क़ैस कि है चश्मो चिरागे सहरा

गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही"


किस्सा मुख़्तसर यह कि ग़ालिब के 'अंदाज़े बयाँ' पर बहुत-सी बातें होती हैं और आमतौर पर मुश्किल कहकर उससे पीछा छुड़ा लिया जाता है। बहुत हुआ तो उनकी ज़िन्दगी के बारे में कुछ घिसे-पिटे किस्से सुना दिए और उनकी शायरी में उसका अक्स दिखाकर फ़र्ज़ अदायगी कर ली। लेकिन क्या यह 'अंदाज़े बयाँ' सचमुच इतना असमाधेय है। ग़ालिब ने इसके बारे में एक सुराग़ दिया है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है-


"नश्वो नुमा है अस्ल से ग़ालिब फ़ुरूअ को

ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए"


जैसे मूल से टहनियाँ निकलती हैं वैसे ही ख़ामोशी से बात निकलनी चाहिए। अपनी कला के नियमों को ग़ालिब प्रकृति के नियमों से कमतर नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने एक वैकल्पिक सृष्टि की रचना की थी और उसमें असंभावना की हद को छूने वाला कलात्मक आदर्श अपने सामने रखा था, निःशब्द आशयों को शब्दों के द्वारा संप्रेषित करने का, 'अंक़ा' की तरह अप्राप्य उद्देश्य को प्राप्त करने का। लेकिन ये ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि ग़ालिब किसी की समझ में आना ही नहीं चाहते थे। उन्होंने अपने दीवान के आख़िरी शेर में काव्यप्रेमियों को खुली दावत देते हुए अपनी बात ख़त्म की थी-


"अदाए ख़ास से ग़ालिब हुआ नुक़्तासरा

सलाए आम है याराने नुक़्तादाँ के लिए"


यही नहीं, अपने छोटे से दीवान के लिए शेरों का चुनाव करते वक़्त ग़ालिब ने जिस बेरहमी का परिचय दिया उसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलती। एक शेर में ग़ालिब यह उम्मीद जताते हैं कि शेरों के चुनाव और उनके संयोजन से लोग अंततः उन्हें समझ लेंगे-


"खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला

शेरों के इंतिख़ाब ने रुसवा किया मुझे"


लेकिन जैसी कि उनकी फ़ितरत थी, नाउम्मीदी ने उनकी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा। अब यह हम पर है कि हम किस पर खरे उतरते हैं, उम्मीद पर या नाउम्मीदी पर:


"रहा आबाद आलम अहले हिम्मत के न होने से

भरे हैं जिस क़दर जामो सुबू मैख़ाना ख़ाली है"


                                                      

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